गाँधीजी- ! न महात्मा न राजनेता---! .

       गाँधी जी के बारे में जितना लिखा जाय उतना ही कम है उनका जन्म २ अक्टूबर १८६९ गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ, बचपन में इनका नाम मोहनदास करमचंद्र गाँधी था वे एक अध्यात्मिक संत होते हुए, वे स्वतंत्रता सेनानी भी थे वैसे उन्होंने हिन्दू धर्म के लिए बहुत ही काम किया एक बार उन्होंने एक ब्यक्ति को उत्तर देते हुए कहा की मेरे अन्दर जो भी गुण है वह मेरी माँ के है, बचपन मेरी माता रामायण और महाभारत की कथाये सुनती थी वह वैष्णव थी इस नाते मै भी वैष्णव हूँ, वे लन्दन में पढने जाने बावजूद भी उन्होंने अपने अन्दर कोई दुर्गुण आने नहीं दिया यह उनके बचपन का ही संस्कार था।

सनातनी 

वे कट्टर सनातनधर्मी थे कहते थे की बुराई से भलाई की उत्पत्ति नहीं हो सकती लक्ष्य पवित्र, उच्च, आदर्श होना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है उसकी प्राप्ति के साधन, भारत के लिए यह कोई नई बात नहीं है धर्म से ही धर्म की प्राप्ति का हिन्दू संस्कृति ने पुरजोर समर्थन किया है, त्याग, संयम उनके धर्म थे, किन्तु राम नाम उनका जीवन---।

राष्ट्रवादी भी 

वे विवेकानंद जैसे राष्ट्रबादी और हिंदुत्व के नायक भी थे लेकिन राजनेता नहीं थे उनके ब्यक्तित्व का उपयोग नेहरू जी ने कांग्रेस पार्टी कें लिए करके उनका ब्यक्तित्व छोटा कर दिया नहीं तो वे विवेकानंद और स्वामी दयानंद की श्रेणी के संतो में इनकी गणना होती, उन्होंने हिन्दू धर्म के लिए विवेकानंद जैसा ही बिरोधियो से प्रतिकार कर वैज्ञानिक तर्क भी प्रस्तुत किया, गाँधी जी कहते थे की यदि मुझे एक दिन का शासन मिल जाय तो सबसे पहले मै गो हत्या और धर्मान्तरण बंद कर दूगा, उन्होंने कई बार कहा की यदि ईसाई मिशनरिया सेवा के बदले धर्मान्तरण कराती है तो मै उनसे कहुगा की वे भारत छोड़ दे, उनका दृष्टि कोण था की भारत को किसी विदेशी धर्म की आवस्यकता नहीं है।

चर्च षड्यंत्र विरोधी 

 एक बार एक बालक गाँधी का चित्र लेकर गाँधी जी के पास आया और कहा की आप इस पर हस्ताक्षर कर दीजिये इस पर गाधी जी ने पूछा की इसका क्या करोगे -? उस बालक ने उत्तर दिया की मै इसे बेचकर चर्च को दान करुगा गाँधी जी तुरंत ही उसे नकार दिया की मै ऐसे किसी कार्य के लिए मेरा चित्र और हस्ताक्षर उपयोग नहीं होने देना चाहता, यानी हस्ताक्षर नहीं किया हम समझ सकते है की गाँधी जी चर्च के कारनामो के प्रति कितने सचेत थे, एक बार वे अफ्रीका में ईसाई धर्म को स्वीकार करने चर्च में गए वहां का दृश्य देखकर हैरत में आ गए, देखा की गोरो का चर्च अलग कालो का चर्च अलग गाँधी वही से वापस आ गए, उन्होंने कहा की ईसाईयों में तो सैधांतिक भेद-भाव है जब की हिन्दुओ में सैद्धांतिक भेद- भाव नहीं है।
       ''यदि वे पूरी तरह मानवीय कार्यो तथा गरीबो कि सेवा करने के बजाय चिकित्सा, शिक्षा आदि के कार्यो द्वारा धर्म परिवर्तन करेगे, तो मै उन्हें निश्चय ही चले जाने को कहुगा, प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य किसी राष्ट्र के धर्म के सामान ही श्रेष्ठ है, निश्चय ही भारत का धर्म यहाँ के लोगो के लिए पर्याप्त है, हमें धर्म परिवर्तन कि कोई आवस्यकता नहीं है''----।     

मुसलमानो की मानवता एक धोखा 

 इस्लाम के प्रति उनका दृष्टिकोण इस प्रकार का था ''मुसलमानों को एक अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ता है, इसमें कोई संदेह नहीं किया जा सकता है की वे चाकू और पिस्तौल चलने में अत्यधिक स्वच्छंद होते है'', गाँधी जी कहते थे कि सामान्यतया मेरा अपना अनुभव है जो इस बिचार को पक्का करता है कि सामान्यतया मुसलमान क्रूर होते है जबकि हिन्दू सामान्यतया कायर होते है, मुसलमान के मानवता का दृष्टि कोड़ केवल मुसलमानों के लिए ही है शेष समाज को वे काफ़िर मानते है दो प्रकार का समाज इस्लाम और इतर इस्लाम।  ---(यंग इण्डिया २० दिसंबर १९४२)

हिन्दू धर्म के आग्रही 

 वे भारतीय अध्यात्म के अधर पर भारतीय संरचना चाहते थे भारत गावों में बसता है वह ग्रामीण ब्यवस्था को ठीक कर वैदिक कालीन ब्यवस्था चाहते थे, जिसमे कोई भी बस्तु बाहर से न मगाना पड़े  सभी किसानो के यहाँ सभी बस्तुए खेतो में हॉट थी उसी प्रकार गावं की संरचना बनायीं रखी जाय, लेकिन कांग्रेस को ये स्वीकार ही नहीं थे 'हिंद स्वराज्य' को तो नेहरु ने तुरंत ही ख़ारिज कर दिया कांग्रेस पार्टी ने एक बड़े संत को राजनीती में घसीट कर अध्यात्म के पटल से गायब कर दिया नहीं तो वे आज विवेकानंद कि श्रेणी में खड़े होते, गाँधी जी हिंदुत्व कि मर्यादा को अपने हिसाब से परिभाषित कर सम्पूर्ण विश्व में हिंदुत्व का गौरव बढाया वे विवेकानंद के सामान हिन्दू राष्ट्र के आग्रही थे यदि ये कहा जाय कि वे विवेकानंद के उत्तराधिकारी थे तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

नेहरू प्रभाव में दिग्भ्रमित 

 भारत के सांस्कृतिक नेता होते हुए वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रगणी नेता भी थे उनका इतने प्रभाव था कि स्वतंत्रता आन्दोलन में दो-दो बार गाँधी के प्रत्यासी सीता रमैया को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हराकर सुबास बाबू अध्यक्ष जीतकर भी उन्होंने इसलिए पद छोड़ दिया क्यों कि गाँधी को सुबास बाबू स्वीकार नहीं थे, वे चन्द्रसेखर आजाद, भगत सिंह, खुदीराम बोस  और राम प्रसाद  बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों को गाधी जी देखना नहीं चाहते थे इसके बावजूद उनका ब्यक्तित्व ऐसा था कि सभी उनकी इज्जत व सम्मान करते थे, राजनीति ने उन्हें दिग्भ्रमित भी किया वे नेहरु के प्रभाव में होने के कारन जिस स्वामी श्रद्धानंद जी हरिद्वार के गुरुकुल में महात्मा की उपाधि दी उस महापुरुष को जब एक अतिवादी मुसलमान ने गोली मारकर हत्या कर दी तो गाँधी जी ने कहा की उसका अपराध नहीं यह तो उसकी प्रवृति का दोष है, इस नाते उसे फाँसी नहीं होनी चाहिए लेकिन जब भगत सिंह को फाँसी होना था तो कोई अपील नहीं की, मै यह मानता हूँ की ये अपराध गाँधी जी कर ही नहीं सकते ये सब नेहरु के प्रभाव के नाते हुआ, इसलिए राजनीति ने उनका बहुत नुकसान कर उनके ब्यक्तित्व को समाप्त करने का प्रयास किया, वे राजनेता तो थे ही नहीं कॉंग्रेस और नेहरु ने उन्हें महात्मा होने दूर कर दिया, उनकी एक विशेषता थी कि एक गरीब से लेकर बड़े-बड़े उद्योगपतियो के प्रति सामान दृष्टि कोण था।   

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