मजहबी (इस्लाम,चर्च ) आक्रमण और भारत -----------!

        

कभी न नष्ट होने वाली संस्कृति 

किसी कवि ने कहा था --! ''यूनान, मिश्र, रोमा सब मिट गए जहां से, कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी--!'' तो वह हस्ती क्या है ? वास्तविकता यह है कि  भारतीय बांगमय वेद, वेदान्त, ब्राह्मण ग्रंथ, रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ जिंहोने हमे लाखों, करोणों ही नहीं अरबों वर्षों तक मानवीय संस्कृति की रक्षा करते हुए हमारी रक्षा की है। 

 ''सत्य ---मानवता" 

           प्रथम ईश्वर को नमस्कार और प्रार्थना करत हुए वेदों के उत्पत्ति क बारे मे कि वेद किसने उत्पन् किए !  ( तस्मात यज्ञात्स ) सत जिसक कभी नाश नहीं होता, चित जो सदा ज्ञान स्वरूप है, जिसको अज्ञान का लेश भी कभी नहीं होता, आनंद जो सुख स्वरूप और सबको सुख देने वाला है, इत्यादि लक्षणो  से युक्त पुरुष जो सब जगह परिपूर्ण हो रहा है, जो सब मनुष्यों को उपासना के योग्य इष्टदेव और सब सामर्थ्य से युक्त है, उसी  परब्रह्मा से ( ऋच ) ऋग्वेद (यजु ) यजुर्वेद (समानी) सामवेद और (छंदासी) इस शब्द से अथर्व भी ये चारो वेद उत्पन्न हुए है। इसलिए मनुष्यों को उचिदों का ग्रहणत है कि वे जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर है उसी से चारो वेद उत्पन्न हुए हैं, इसी प्रकार रूपक अलंकार से वेदो की  उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है,- अथर्वेद मेरे मुखसे समतुल्य सामवेद लोमों के समान यजुर्वेद हृदय के समान और ऋग्वेद प्राण का वायु है। ऋषि याज्ञवल्क्य अपनी पंडिता पत्नी क उपदेश करते हैं--- हे मैत्रेयी --! जो आकाशादि से भी बड सर्वव्यापक परमेश्वर है, उससे ही ऋक, यजु, साम और अथर्व ये चरो वेद उत्पन्न हुए हैं जैसे मनुष्य के शरीर से श्वास बाहर को आके फिर भीतर को जाता है इसी प्रकार सृष्टि आदि मे ईश्वर वेदों को उत्पन्न करके संसार मे प्रकाश करते है और प्रलय मे संसार मे वेद नहीं रहते, वही बृक्षरूप होके फिर भी बीज के भीतर रहता है, इसी प्रकार वेद भी ईश्वर के ज्ञान मे सब दिन बने रहते है इसलिए इसको नित्य ही जानना, उनका नाश कभी नहीं होता। जिस समाज के पास विश्व का महानतम ज्ञान भंडार हो जिनके रॉम-रॉम म आध्यात्मिक जींस जिसमे केवल मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी ही नहीं तो वनस्पतियों का भी चिंतन किया गया हो अतिथि देवोभव का लाभ उठाकर तथा हम जैसे हैं ये लोग भी ऐसे ही होंगे लेकिन ये तो कुछ और ही निकले इस्लाम और ईसाईयत जहां- जहां गए वहाँ कि मानवातावादी संस्कृति को समाप्त कर वहाँ के लोगो को गुलाम ही बनाया, पहले भी कई बार चीनी सम्राटों ने वेटिकन के मिशनरियों को चीन से बाहर का रास्ता दिखाया था, फिर माओत्से तुंग ने 1949 मे सत्ता प्राप्त करते ही पुनः विदेशी मिशनरियों को "आध्यात्मिक आक्रमणकारी" कह कर चीन से बाहर किया। चीनी सत्ता को अपने देश के इसाइयों पर रोमन चर्च का हुक्म चलाना गवारा नहीं, इसे वह चीन के अंदरूनी मामले मे हस्ताक्षेप मानता है ।

 ईसाईयत  की मानवता 

 दुर्भाग्यवश भारतीय संविधान मे भी ( सेकुलर ) धर्म और रिलीजन का अभेद कर "रिलीजियस फ़्रीडम", जिसका घटक फल हुआ कि छल-बल पूर्बक किसी का मतांतरण करने जैसा अधर्म भी रिलीजियस कार्य के रूप मे स्वीकृत है ! इसीलिए आए दिन लव -जेहाद और ईसाई मिशनरियों आत्माओं कि फसल काटना कोई गैर कानूनी मामला नहीं बनाता है।
 पोप ने विश्व के तमाम चर्च के कुकृत्यों हेतु क्षमा याचना की है मगर भारत मे नहीं, जबकि ब्रिटिश लेखक पाल विलियम रोवर्ट ने अपनी पुस्तक 'एंपायर आफ द सोल सम जरनीज़ इन इंडिया' मे लिखा है -- "बच्चों पर कोड़े बरसाए गए, धीरे-धीरे उनके अंग काटे गए, उनके माता-पिता की पलकें काट कर अलग कर दी गईं, ताकी वे सब कुछ देखते रहें, कुछ न छूटे, बच्चों का अंग-भंग इस तरह किया गया कि वे तब भी चेतन हीन न हों, जब तक सिर्फ धड़ और सिर बच गया हो --।" गोवा मे आज भी ''हथकटवा खंभा'' मौजूद है जिसमे हजारों महिलाओं के हाथ काटे गए थे, ऐसे अत्याचार के शिकार लोगों की संख्या हजारों मे थी, यह भयावह अत्याचार की क्षृंखला लगातार चलती रही। मगर भारत मे किए गए लोमहर्षक अत्याचारों के लिए पोप को क्षमा याचना करने की जरूरत महसूस नहीं हुई।
गांधीजी ने सत्तर साल पहले कहा था कि मिशनरियों के लिए सेवा का अर्थ वही है जो एक शिकारी अपने शिकार हेतु चारे का होता है, वास्तविक हाल देखना हो तो अफ्रीका, लैटिन अमेरिका या फिलीपींस को देखे, जहां पूरी आवादी ईसाई बना दी गयी है क्या वहाँ अशिक्षा, बीमारी समाप्त गयी --! बिलकुल नहीं। वे मिशनरी अब वहाँ नहीं, जिंहोने पूरे देशों, महाद्वीपों को साम-दाम दंड-भेद से धर्मांतरित किया, वहाँ काम पूरा हुआ तो वे कहीं और "आत्माओं का फसल काटने चल पड़े'' यदि हम इस बुनियादी सच्चाई को नहीं समझते तो एक राष्ट्र के रूप मे हमारे भविष्य पर खतरा बना रहेगा।
 ज़ोर जबर्दस्ती और लोभ द्वारा धर्मांतरण करने बिरुद्ध जयललिता ने कुछ वर्ष पहले एक कानून बनाया था, ध्यान मे आता है तब भी चर्च के लोगो ने उन कानूनों को चुनौती दी थी तब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि कानून बिलकुल ठीक है कोर्ट यहाँ तक कहा "धर्म प्रचार के अधिकार का मतलब धर्मांतरण कराने का अधिकार नहीं समझा जाना चाहिए"। दुर्भाग्य से यह हम नहीं समझ पाये हैं- ईसाई मिशनरियों के लिए धर्म प्रचार का मतलब येन-केन-प्रकारेण धर्मांतरण कराने के अलावा कुछ भी नहीं, फिर भी यदि कांग्रेस पार्टी ने तमिलनाडु मे इस कानून का बिरोध किया जो देश व समाज के विरुद्ध है उसने अपने कर्तब्य का पालन ही किया है क्योंकि इसके संस्थापक भी भारत को ईसाई देश बनाना, अँग्रेजी राज चाहते थे और आज उसके अध्यक्ष सोनिया भी ।

चर्च का प्रचार तंत्र किसी साम्राज्य से कम नहीं 

धर्मांतरण का कार्य 2000 वर्षों से चल रहा है यह प्रत्येक ईसाई का कर्तब्य वन जाता है, इसके लिए एक अति विशाल संगठन खड़ा किया गया है और आत्माओं के उद्धार के लिए विशाल संसाधन लगाए जा रहे हैं सुसमाचार -प्रचार पर एक पुस्तक के अनुसार, "वैश्विक ईसाइयत के संचालन के लिए 145 अरब डालर की  जरूरत है"। चर्च के अधीन चालीस लाख पूर्ण कालिक कार्यकर्ता हैं, तेरह हज़ार बड़े पुस्तकालयों का संचालन करता है, 22000 पत्रिकाएँ निकलता है, प्रति वर्ष चार अरब पुस्तिकाएँ प्रकाशित करता है, 1800 ईसाई रेडियो एवं टीवी स्टेशनों का परिचालन करता है, 1500 विश्व विद्यालय तथा 930 शोध केंद्र चलता है, इनके पास ढाई लाख विदेशी मिशनरियाँ है और इन्हे प्रशिक्षण हेतु 400 से अधिक संस्थाएं, ये सारे आकडे 1989 मे प्रकाशित एक पुस्तक लिए गए हैं ।
 संगठित समाज से आए भारतीय मिशनरियों कि संख्या 1943 मे जहां 420 थी वह 1983 मे बढ़कर 2941 हो गयी, उत्तर भारत मे विशेषकर बिहार, उड़ीसा, प बंगाल, असम, हिमांचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और सिक्किम मे इन मिशनरियों की उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई है, पश्चिम भारत मे देशी मिशनरी प्रयासों से प्रति सप्ताह नए-नए पूजा समूह तैयार हो रहे हैं, भारतीय सुसमाचारकों की टोली ने वर्ष 2000 तक दो हज़ार गिरजा घरों का लक्ष्य रखा है अकेले तमिलनाडु मे एक हज़ार चर्च बनाने का लक्ष्य है, क्या इसे पढ़कर यह नहीं लगता कि ये लक्ष्य पेंटागन ( अमेरिकी प्रति रक्षा विभाग) का नहीं भी तो योजना आयोग का लक्ष्य तो जरूर है --! लेकिन ये ''इसा मशीह'' के लक्ष्य तो कदापि नहीं हो सकते।

 इस्लाम का प्रेम-मुहब्बत                                     

सकड़ों वर्षों से प्रेम मुहब्बत बताने वाला इस्लाम जिसने भारतियों के उदारता का लाभ उठाकर जिसे सूफी कहा जाता है उन्होने सर्वाधिक धर्मांतरण कराया, डॉ अंबेडकर ने स्पष्ट कहा था -- जिसे सदैव याद रखने की जरूरत है- कि मुस्लिम राजनीति विशुद्ध रूप से मजहबी राजनीति है, जिसमे दूसरों से बिलगाव और विरोध मूल स्वर है, यह सबके साथ मिलकर रहने, आगे बढ़ने कि प्रवृत्ति ही खत्म करता है। यही कारण है किसी मुस्लिम को कततारपंथी कहकर स्वयं दूसरे मुस्लिम नेता या उलेमा अपने से अलग नहीं करते, वे तसलीमा को बिलग करते हैं मगर ओसामा को नहीं! वे सलमान रुशदी पर आक्रोसित होते हैं , बोको हराम पर नहीं! यह सत्य किसको दिखाई नहीं देता। फतवा जारी होता है जो उदार इस्लाम को मानते हैं जैसे सलमान रुशदी, तसलीमा नशरीन लेकिन उनका फतवा ओसामा, मुहम्मद अफजल, बगदादी आदि के खिलाफ नहीं होता, इसलिए उदारवादी और कट्टरवादी इस्लाम मे फर्क करना केवल चालाकी पूर्ण राजनीति है। किसी भी इस्लामिक आतंकवादी संगठन व ब्यक्ति के ऊपर इस्लामी अदालतों मे मुकदमा चले तो उन्हे गलत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वे कोई ऐसा कम नहीं कर रहे हैं जिसकी इस्लामिक किताबों, परंपरा, इतिहास मे कहीं न कहीं स्वीकृति नहीं मिली हुई है, पैगम्बर द्वारा किए गए सभी कार्य प्रत्येक मुसलमान के लिए अनुकरणीय है, ऐसी स्थित मे कोई भी इस्लामी अदालत कट्टरपंथियों को कैसे दोषी ठहरा सकती है--! उनके लिए मानवता का अर्थ 'इस्लामी मानवीयता' है, समानता का मतलब 'इस्लामी अनुयायियों की समानता' और कानून केवल 'इस्लामी कानून' है।

  आतंकवाद का कारण

एक हदीस इस प्रकार है ''मुझे लोगों के खिलाफ तब-तक लड़ते रहने का आदेश मिला है, कि जब तक वे ये गवाही न दें कि अल्लाह के सिवा कोई दूसरा काबिले इबादत नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का रसूल है और तब तक वे नमाज न अपनाएं और जकात न अदा करें । (सहीह मुस्लिम, हदीस -33)    
मीडिया का कैसा दोहरा चरित्र है जहां योगी आदित्यनाथ की चेतावनी की पुष्टी होती है वहीं मीडिया योगी जी के बयानों को लेकर बवंडर खड़ा करती है वहीं जवाहिरी की घोषणा को आया राम -गया राम बताने की कोशिस की गयी, अधिकांश इस्लामिक निर्देश ऐसे हैं जिसमे कोई बिवाद नहीं है, जैसे पैगम्बर के बिरोध करने वाले को मार डालना, इसकी पुष्टी न केवल पैगम्बर के अपने जीवन ब्यवहार से होती है बल्कि अनगिनत इस्लामी आलिमों, अदालती फैसलों की पूरी सूची है, यह मजहब आर्य- समाजियों को, नगीब महफूज, सलमान रुशदी, सलाम आज़ाद जैसे लेखकों पत्रकारों इत्यादि को मार डालने का निर्देश देता है। सच्चे इस्लाम की दुहाई देने, मधुर बातें करने वाले तालिबानों, हमास, अल कायदा, इंडियन मुजाहिद्दीन, इस्लामी स्टेट, बोको हराम, आदि के हजारों लाखों कार्यकर्ताओं समर्थकों कायल क्यों नहीं करती --? जबकि ये भी उसी इस्लाम का हवाला देते हैं तो क्या उनके वैचारिक श्रोत उससे भिन्न हैं जो हमारे गाँधीवादियों, सेकुलरवादियों के हैं --?        
 दुर्भाग्यवस विगत सौ वर्ष के इतिहास का अनुभव आस्वस्तकारी नहीं है, खिलाफत, जेहाद को लेकर आक्रमण हेतु अफगानिस्तान को न्योता देने और फिर 'डायरेक्ट एक्शन' कर हजारों हिंदुओं को निर्ममता से बिना कारण मारते हुए भारत का विभाजन तक, पुनः 1971 मे बांग्लादेश मे हिन्दू संहार से लेकर कश्मीर से हिंदुओं के सफाये गोधरा जैसे हिन्दू -दहन तक, यह सब कई बार देखा जा चुका है कि आम मुस्लिम समुदाय कट्टरपंथियों के समक्ष मौन समर्थक बना हुआ है। तलवार के घमंड के वावजूद इस्लाम को अपनी वैचारिकता दुर्बलता की इतनी गहरी अनुभूति है कि बिना मौत का डर दिखाये वह अपने अनुयायियों के भी इस्लाम मे बने रहने के प्रति आस्वस्थ नहीं है, तभी तो इस्लामी नेता किसी भी बात पर उनका सिर काटने की धमकी देते रहते हैं।  

 उपाय 

 दुनिया के मुसलमान अपने मजहब के रजिस्टर्ड कैदी हैं ! इस्लाम एक जेल है जिसमे उन्हे जेल के नियमों से रहना होगा, जहां वे अपनी समझ से कुछ नहीं कर सकते, उस जेल को छोड़ भी नहीं सकते, वरना उन्हे मार डाला जाएगा, ठीक उसी प्रकार जैसे जेल से भागे हुए कैदी को जेल की चहर-दिवाली की रक्षा करने वाले सिपाही गोली मार देते हैं, इससे बढ़कर इस्लामी मतवाद की अनुपयोगिता, निरर्थकता का और क्या प्रमाण होगा ! इसी सत्य को समझ हरेक मुसलमान इस्लाम का कैदी है और उसे मुक्त होना अथवा उसे मुक्त कराना मानवता का फर्ज और सबसे बड़ी सेवा है। जैसे चर्च की सदियों पुरानी ज़ोर- जबर्दस्ती ईसाई जनता ने अंततः अस्वीकार कर दी, उसी तरह इस्लामी मौत के फतवे और शरीय के कानून को छोड़ा ही जाएगा। 1924 मे तुर्की ने खालिफत को उखाड़ फेकते हुए इस्लाम को बेकार और मृत घोषित कर दिया, आज सम्पूर्ण मुस्लिम विश्व मे अतातुर्क के कारण टर्की मे ही लोकतन्त्र और प्रगति है।          

 श्री अरविंद ने आठ दशक पहले कहा था 

 "तुम ऐसे मजहब के साथ सौहार्द के साथ रह सकते हो जिसका सिद्धान्त सहिष्णुता है, किन्तु ऐसे मजहब के साथ शांति से रहना कैसे संभव है जिसका सिद्धान्त है 'मै तुम्हें बरदास्त नहीं करूंगा! '' तुम ऐसे लोगों के साथ एकता कैसे बनाओगे? निश्चय ही हिन्दू- मुस्लिम एकता ऐसे नहीं बन सकती कि मुस्लिम तो हिंदुओं को धर्मांतरित कराते रहें जबकि हिन्दू किसी भी मौमिन को धर्मांतरित न करे! संभवतः मुसलमानों को हानि रहित बनाने का एक ही रास्ता है कि उनका अपने मजहब मे कट्टर विस्वास कम कराया जाय ।"

स्वामी विवेकानन्द ने कहा था

ओ अहंकारियों ! बताओ तुम्हारी ईसाईयत ने तलवार के बिना कहाँ सत्ता पायी-? मुझे सम्पूर्ण विश्व मे ऐसा केवल एक भी उदाहरण तो बताओ, मै दो नहीं चाहता, मै जनता हूँ कि तुम्हारे पूर्वजों का धर्म-परिवर्तन किस प्रकार किया गया था, मृत्यु या धर्म-परिवर्तन, उनके सामने दो ही मार्ग थे इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। अपनी समस्त दांभिक गर्जनाओं के बावजूद तुम इस्लाम से किस मामले मे श्रेष्ठ हो ? अरबों ने गर्जना कि थी "हम श्रेष्ठ है केवल हम ही!" क्यों--? "क्योंकि हम दूसरों की हत्या कर सकते हैं ।"
इन दोनों मजहबों ने भारत पर अध्यमिक आक्रमण किया है भारत को इससे छुटकारा पाना ही होगा ये सभी हमारे पूर्वजों की संताने हैं इन्हे उनकी चहर दिवाली से मुक्त कराना ही एक मात्र उपाय है इसी मे भारतीयता, मानवता और सम्पूर्ण विश्व का हित होगा।   
               (संदर्भ-"भारत मे ईसाई धर्म-प्रचारतंत्र" -"आध्यात्मिक आक्रमण और घर वापसी" )        

एक टिप्पणी भेजें

3 टिप्पणियाँ

  1. भारतीय संस्कृति का निर्माण वेदों से शुरू होकर सत्य स्वरूप राम और कृष्ण के कृत्य ज्ञान मार्ग से विश्वामित्र, वशिष्ठ, पतंजलि, गोरखनाथ, महावीर और बुद्ध जैसे कठोर तपस्या कर सत्य का साक्षात्कारः है वहीं भगवान बुद्ध करूणा की अभिव्यक्ति तो भगवान कृष्ण महान निर्ममता की अभिव्यक्ति है , जिसे हम नेति-नेति भी कहते है यही है भारत और भारतीय परम्परा ----।

    जवाब देंहटाएं
  2. सत्य वचन वास्तविकता से परिचय कराया है

    जवाब देंहटाएं