एक बार फिर नए प्रकार के राजवंशों (ब्यूरोकेट) के विरुद्ध संघर्ष की अवस्यकता ------!

 आज मुझे महर्षि दयानन्द सरस्वती की बहुत याद आ रही है वे महाभारत युद्ध मे समाप्त हुए विद्वान आचार्यों की पूर्ति करने वाले थे, जहां वे यज्ञवाल्क्य के समान विद्वान थे वहीं चाणक्य के समान राजनीतिज्ञ भी थे, उन्होने इस्लाम व ईसाइयत से संघर्षरत भारत को खड़ा करने का प्रयत्न ही नहीं किया बल्कि भारत वर्ष के राजे -महराजों सबसे मिलकर देश आज़ाद करने का संकल्प लिया, वे ऐसे गुरु के शिष्य थे 'स्वामी विरजानन्द' जो जन्मांध थे लेकिन देशभक्ति कूट-कूट कर भरी थी और वेदों के विद्वान थे उन्होने अपने शिष्य दयानन्द सरस्वती से शिक्षा समाप्त होने पर दक्षिणा मे देशोद्धार का वचन लिया स्वामी जी अपने वचन के खरे उतरे अपने गुरु के आदेश के पालन हेतु देश का भ्रमण कर तत्कालीन राजा-महाराजाओं से मिलकर 1857 की क्रांति का सफल उद्घोग किया, कुछ लोग कहते हैं की यह असफल क्रांति थी लेकिन यह एक सफल क्रांति थी जिससे हिन्दुत्व व आज़ादी की चिंगारी देशभर मे फैल गयी --।

1857 स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात!

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात अंग्रेजों ने देखा की गाँव-गाँव मे गुरुकुल है जिनके कारण पूरा देश खड़ा हो गया फिर 1857 से लेकर 1860 तक पूरे देश मे ब्रिटिश ने अपनी सत्ता को जमाने हेतु जीतने राजा थे पढे-लिखे लोग थे गाव-गाँव मे जो गुरुकुल थे सभी समाप्त करना अंग्रेजों ने अपना कर्तब्य समझा एक आकड़े के अनुसार केवल उत्तर प्रदेश आैर बिहार मे लगभग 20 लाख हिंदुओं की हत्या हुई आज भी कितने गाँव मिलते हैं जहां कुएं लासों से पटे थे, कितने पीपल के पेड़ों मे फांसी पर सैकड़ों हजारों को लटकाया गया जनता मे भय ब्याप्त हो गया इस प्रकार पुराने देश भक्त राजाओं को समाप्त कर दिया गया फिर क्या था, अंग्रेजों को पता था भारत मे साधू-संतों के प्रति जनता मे आस्था है यदि हमने साधुओं को छेड़ा तो भारी पड़ सकता है बड़ी ही योजना अनुसार एक अँग्रेजी पढे लिखे ब्यक्ति को साधू बनाकर कलकत्ता मे उतार दिया जो अंग्रेजों का सहायक सिद्ध हुआ वह पूरे भारत मे घूम-घूम कर अंग्रेज़ देवदूत है इसका प्रचार करता था जिसका नाम था राजा राममोहन राय जिसने ब्रम्ह्समाज नामक संस्था बनाया था जो ईसाइयत और सनातन धर्म मे पुल का काम करता था जिसे कंपनी द्वारा सहायता प्राप्त था, ब्रम्हा समाज का उद्देश्य था की भारत मे अंग्रेजों का शासन बना रहे और लोंगों को ईसाइ बनाना अथवा चर्च की तरफ आकर्षित करना मानसिक, गुलाम बनाना अंग्रेजों ने पुराने राजाओं को समाप्त कर नए राजा, महाराजा, तालुकेदार, जमींदार खड़े किए क्योंकि शासन चलाने के लिए एक पद्धति की आस्यकता थी वह राजा पद्धति जो भारत की जनता मे श्रद्धा के केंद्र विंदु थे लेकिन वे अंग्रेज़ भक्त थे न कि देश भक्त अथवा स्वतन्त्रता के प्रेमी। ब्रम्हा समाज और कुछ पुराने ब्रिटिश अधिकारी जो यह चाहते थे कि यहाँ लंबे समय तक अंग्रेजों का शासन रहना चाहिए उन्होने मिलकर कांग्रेश पार्टी नाम का एक संगठन खड़ा किया पहले जिसमे ब्रांहासमाजी, भारतीय ईसाई इस प्रकार के लोगों को सामिल किया जाता था जो चर्च से गाइड होता था उस समय किसी भी आर्यसमाजी को कांग्रेश के किसी कार्यक्रम मे बुलाया नहीं जाता था, एक प्रकार से कांग्रेश ब्रिटिश सरकार के शासन को भारत मे स्थायी करने वाली संस्था के रूप मे जानी जाती थी।   

आर्य समाज और ब्रम्हासमाज      

 स्वामी दयानन्द द्वारा 1857 कि क्रांति सफल न होने के कारण उन्होने संगठित हिन्दू समाज पर बल दिया देश मे घूम-घूम कर देश भक्ति और स्वराज्य का अभियान शुरू किया वे इस दौरान कलकत्ता गए और ब्रम्हा समाज के कार्यालय मे ही ठहरे वे जानते थे कि "ब्रम्हा समाज" का उदेश्य क्या है ? उनके प्रवचन से ब्रंहासमाजियों को परेशानी होने लगी तभी एक दिन वायसराय के यहाँ से स्वामी जी का बुलावा आ गया कि वायसराय मिलना चाहते हैं स्वामी जी गए वार्ता मे वायसराय ने पूछा कि स्वामीजी आपका उद्देश्य क्या है स्वामीजी ने उत्तर दिया कि स्वराज्य और स्वधर्म और स्पष्ट कर स्वामीजी ने बताया कि वे स्वराज्य की स्थापना करना और ब्रिटिस शासन को उखाड़ फेकना वायसराय को यह अच्छा नहीं लगा जहां-जहां स्वामी जी जाते वहाँ उनपर सरकार निगरानी रखने लगी फिर "आर्यसमाज" की स्थापना कर स्वामीजी ने क्रांतिकारियों की श्रिंखला ही खड़ी कर दी, कहीं लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, कहीं लालालाजपत राय, कहीं बिपिंनचंद पाल खड़े हो गए तो कहीं स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती ने घर वापसी शुरू कर दी तो कहीं "डॉ हेड्गेवार" ने "आरएसएस" की स्थापना कर देश मे स्वधर्म और स्वराज्य की आंधी सी खड़ी कर दी ।

आजादी मिली पर स्वराज्य नहीं

1947 मे देश तो आज़ाद हो गया लेकिन स्वराज्य नहीं मिला वही ब्रिटिश सोच वही भारतीय जनता पर शासन करने वाली अंग्रेजों की नीति वही बिना किसी स्वदेशी परिवर्तन के 'आईएएस- आईपीएस' अधिकारी जनता के सेवक नहीं जनता के मालिक ऐसा विधान जनता जैसे इस्लामिक व ईसाईयत शासन मे पीड़ित थी आज नये अङ्ग्रेज़ी शासन मे उससे अधिक पीड़ित है जो जनता के वोट से सत्ता मे आते हैं वे जनता के मालिक और जिनहे आईएएस-आईपीएस व अन्य अधिकारी व्यूरोकेट हैं वे भारत के सुपर शासक हैं एक प्रकार के भारत मे नये राजवारों का उदय हो गया है वे भारत के किसी भी स्वदेशी अभियान को अच्छा नहीं मानते वे भारत को स्वावलंबी होना देखना नहीं चाहते वे वर्तमान शासक प्रधानमंत्री "नरेन्द्र मोदी" जो "स्वामी दयानन्द" के स्वराज्य डॉ हेडगेवार की स्वतन्त्रता के कल्पना का भारत बनाना चाहते हैं इन्हे पसंद नहीं प्रत्येक रास्ते मे रोड़ा बनकर खड़े हो रहे हैं ये पं जवाहरलाल नेहरू (काले अंग्रेज़) की क्षाया से स्वदेशी स्वीकार नहीं करना चाहते जिस प्रकार अंग्रेजों ने ईसाई सत्ता को मजबूत करने हेतु नये-नये राजा, तालुकेदार और जमीनदार खड़े किए जो दिखे तो भारतीय लेकिन अंग्रेज़ भक्त हों न कि भारत भक्त नेहरू जी ने भी कुछ इसी प्रकार के काले अंग्रेज़ भक्त राजाओं (आईएएस) ब्यूरोकेट खड़ा किया आज एक स्वराज्य व स्वदेश सोच कि सरकार जो जनता द्वारा चुनकर आई है उसे वरदास्त नहीं कर पा रहे हैं देश के जो भी चाहे बैंक अधिकारी, रेलवे अधिकारी अथवा प्रशासनिक अधिकारियों का समूह हो ए सभी इस जनता कि चुनी सरकार को स्वीकार नहीं कर रहे हैं वे हर मोर्चे पर लोकतान्त्रिक सरकार को पराजित करना चाहते हैं क्योंकि वे ब्रम्हा समाज, ऐ ओ हयूम द्वारा बनाई गयी ब्रिटिश सरकार को मजबूत करने वाली कांग्रेश बनाए आंग उपांग हैं इस कारण इस विषय पर विचार करने कि आवस्यकता है।      

कांग्रेस जहाँ से निकली वहीं पहुंची

आज देश मे 130 वर्ष पुरानी कांग्रेश पुनः स्थापना की हालत को प्राप्त हो गयी है उस समय भी कांग्रेस को चर्च का संरक्षण था इसाइयों का ही बोल-बाला था आज भी पुनः उसका हाल वही हो गया है उसने ही इस नवीन पद्धति को पनपाया है जिसमे भारतीयता का लेश मात्र भी प्रभाव नहीं है आज नए परिवेश के अँग्रेजी राजाओं (आईएएस, आईपीएस, ब्यूरोकेट) को समाप्त करने हेतु देश किसी ऋषि दयानन्द सरस्वती का इंतजार कर रहा है !

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