भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की देवी.. महारानी लक्ष्मीबाई-----!


मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी

विनायक दामोदर सावरकर लिखते है - "संसार के सामने दृढ़तापूर्वक कहा गया ‘नहीं’ शब्द बहुत कम आया है, भारत के उदारमना लोगो के मुह से अब तक यही एक शब्द सुनाई देता आया है ‘मै दूँगा’ किन्तु लक्ष्मीबाई ने यह विलक्षण जयघोष किया – ‘ मै अपनी झाँसी नहीं दूँगी'! काश यह आवाज भारत के हर मुँह से गूँजी होती"! इतिहास के पन्नो मे अमिट एवं हिंदुस्तान की स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी मे हुआ था, इनके बचपन का नाम मनुबाई था मनुबाई के पिता का नाम मोरोपंत तांबे एवं माता का नाम भगीरथी बाई था, इनके पिता महाराष्ट्र मे बाजीराव पेशवा के यहाँ कार्यरत थे सान 1818 मे जब अंग्रेज़ो ने पेशवा पदवी खत्म  की तो  मोरोपंत तांबे  पेशवा के भाई के साथ बनारस आ गए जबकि पेशवा बिठूर चले गए।

बिठुर मे मनुबाई का प्रशिक्षण

पेशवा के भाई की मृत्यु के बाद मोरोपंत भी बिठुर आ गए, चार वर्ष की ही अल्पायु मे मनुबाई की माता का देहांत हो गया, बाजीराव पेशवा की कोई संतान नहीं थी अतः उन्होने नाना घोडूपंत नाम के बालक को गोंद ले लिया यही बालक नाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ, मनुबाई के बचपन के मित्र नाना थे और इनके पसंद के खेल तलवार बाजी करना, बंदूक चलाना, घुड़सवारी करना, कुश्ती लड़ना, मनुबाई बेहद हठी और चंचल स्वभाव की बालिका थी एवं इसके शौक बालको एवं योद्धाओं जैसे थे, इसके सुंदर चेहरे के कारण इन्हे लोग प्यार से 'छबीली' बुलाते थे मगर स्वयं मनुबाई को ये नाम पसंद नहीं था।

और झाँसी की रानी

झाँसी के प्रकांड विद्वान तात्या दीक्षित एक बार बीठूर  बाजीराव पेशवा से मिलने आए, मनुबाई को देख झाँसी नरेश एवं मनुबाई के रिश्ते के लिए दीक्षित ने मध्यस्थता की, जब रिश्ता तय हो रहा था उस समय मनुबाई अन्य बालिकाओं से इतर अक्सर इस बात की चर्चा करती रहती की झाँसी की सेना कितनी बड़ी है क्या हम इस सेना की सहायता से अंग्रेज़ो से अपना राज्य वापस ले सकते हैं, उनकी इस बात को बाजीराव और उनके पिता मोरोपांत बाल विनोद समझकर भुला देते थे, विवाह की शर्तों पर चर्चा के लिए झासी के राजा एवं बिठूर के पुरोहितो की वार्ता मे निर्णय ये हुआ की विवाह का पूरा खर्च झासी नरेश उठाएंगे और मोरोपांत स्थायी रूप से झासी मे बस जाएंगे तथा उनकी गिनती झाँसी के सरदारो मे होगी।

क्रांतिकारी महारानी झाँसी की रानी

विवाह के बाद मनुबाई झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई के रूप मे प्रसिद्ध हुई, गंगाधर राव एक निर्दयी शासक के रूप मे अलोकप्रिय होते जा रहे थे उसी समय अङ्ग्रेज़ी कंपनी ने झांसी राज्य को एक संधि करने के लिए विवश किया जिसके अनुसार अङ्ग्रेज़ी सेना झाँसी के खर्चे पर झाँसी मे रहेगी तथा एक क्षेत्र कंपनी के अधिकार मे दे दिया जाएगा, इस समझौते से झाँसी का नुकसान हुआ मगर गंगाधर को अब शासन के अधिकार को अंग्रेज़ो ने मान्यता दे दी। लक्ष्मी बाई को ये पसंद नहीं आया मगर राज्य का अधिकार गंगाधर के पास था, साल बाद रानी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई मगर काल के क्रूर पंजो के कारण पुत्र की जल्द मृत्यु हो गयी, राजा का स्वास्थ्य भी गिर रहा था, सन 1853 मे रानी ने एक दत्तक पुत्र दामोदर को गोद लेने का प्रयास किया जिससे राजा का स्वास्थ्य सुधरे और झाँसी को वारिस मिले, राजा ने कंपनी के पुलिस कप्तान मार्टिन को इस नए परिवर्तन और राजी के उत्तराधिकारी के बारे मे सूचित किया, ठीक उसी समय राजा का स्वास्थ्य विगड़ा और उनका स्वर्गवास हो गया, राजा के स्वर्गवास के समय अंग्रेज़ो ने झाँसी के अतिरिक्त लगभग सारे हिस्सो पर अधिकार कर लिया था अब उनकी कुटिल नजर झाँसी पर थी, नाना साहब, तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई ने आते हुए खतरो को भाप कर मृतप्राय हो चुके राजाओं को संगठित करना शुरू किया इसके पहले ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भारत के राजाओ को संगठित करने का प्रयत्न शुरू कर दिया था उन्होने मध्य भारत महाराष्ट्र तथा उत्तर के सभी राजाओ से संपर्क साध लिया था उनको जागृति का प्रयास कर रहे थे ।

सेनापति महारानी

इसी समय अंग्रेज़ो से नबाब अली बहादुर और खुदाबक्स  नाम के दो सरदारो को अंग्रेज़ो ने अपनी ओर मिला लिया एवं रानी के दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुये झाँसी पर अधिकार का दावा कर दिया, इसी समय भारत मे स्वतन्त्रता संग्राम मंगल पांडे के विद्रोह से शुरू हो गया, 14 मार्च, 1858 से आठ दिन तक तोपें किले से आग उगलती रहीं, अंग्रेज सेनापति ह्यूरोज लक्ष्मीबाई की किलेबंदी देखकर दंग रह गया रानी रणचंडी का साक्षात रूप दिखाई दे रही थी पीठ पर दत्तक पुत्र दामोदर राव को बांधे भयंकर युद्ध करती रहीं, झांसी की मुट्ठी भर सेना ने रानी को सलाह दी कि वह कालपी की ओर चली जाएं, झलकारी बाई और मुंदर सखियों ने भी रणभूमि में अपना खूब कौशल दिखाया, अपने विश्वसनीय चार-पांच घुड़सवारों को लेकर रानी कालपी की ओर बढ़ीं, अंग्रेज सैनिक रानी का पीछा करते रहे कैप्टन वाकर ने उनका पीछा किया युद्ध मे वे घायल हो गईं थी।

सेनापति झलकारीबाई

महारानी जब विबाह के पश्चात झांसी आयीं रानी लक्ष्मीबाई जितनी सुंदर थी उससे कहीं ज्यादा वीर योद्धा थीं राज्य से वड़ी संख्या में उपहार देने जागीरदार जमींदार तथा अन्य राजभक्तों का तांता लगा रहा उसी में एक बुनकर समाज की लड़की भी रानी को देखने आयी महारानी उसे देखकर दंग रह गई वह केवल सकल सूरत में ही रानी के समान नहीं थीं बल्कि वह रानी के समान योद्धा भी थी रानी ने तुरंत उसे पहचान लिया और उसे अपने पास रहने का प्रस्ताव रखा सहर्ष स्वीकार किया फिर क्या था वह भी दिन आया जब महारानी के साथ वह युद्धाभ्यास करती थी फिर एक दिन महारानी ने अपनी सेना का सेनापति भी नियुक्त किया इतना ही नहीं वह किले से महारानी निकल जाये उसने महारानी के स्थान पर युद्ध किया बहुतों को संहार करने के पश्चात वह जब वीरगति को प्राप्त हुई तब अंग्रेजों को पता चला कि महारानी तो निकल गई यह तो सेनापति झलकारीबाई है, अंतिम समय तक झलकारीबाई ने महारानी लक्ष्मीबाई के साथ निभाया अपना संकल्प पूरा किया आज वह अमर हो गई जबतक रानी लक्ष्मीबाई का नाम रहेगा झलकारीबाई भी उन्हीं के समान याद आएंगी।

ग्वालियर मे महारानी झाँसी

22 मई 1858 को क्रांतिकारियों को कालपी छोड़कर ग्वालियर जाना पड़ा, 17 जून को फिर युद्ध हुआ, रानी के भयंकर प्रहारों से अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा, महारानी की विजय हुई, लेकिन 18 जून को ह्यूरोज स्वयं युद्धभूमि में आ डटा, लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को रामचंद्र देशमुख को सौंप दिया, स्वर्णरेखा नाले को रानी का घोड़ा पार नहीं कर सका, वहीं एक सैनिक ने पीछे से रानी पर तलवार से ऐसा जोरदार प्रहार किया उनके सिर का दाहिना भाग कट गया आंख बाहर निकल आई, घायल होते हुए भी उन्होंने उस अंग्रेज सैनिक का काम तमाम कर दिया, रानी के विश्वस्त रघुनाथ सिंह रानी को उस हालत मे बाबा गंगादास की कुटी पर ले गए, वहाँ रामचन्द्र ने रानी को अपनी वर्दी पर लिटाया एवं साफे से उनके सिर का घाव बांध दिया, बाबा गंगादास उन्हे देखते ही पहचान गए और बोले "सीता और सावित्री के देश की कन्याएँ हैं ये॥"

ग्वालियर का राजकुमार

कुछ लोगो का मत है कि ग्वालियर राज्य ने रानी का साथ नहीं दिया लेकिन वास्तविकता यह है की ग्वालियर का राज़ा नाबालिक था उसके सलाहकार मण्डल मे सभी अंग्रेज़ थे लेकिन नाबालिक राज़ा ने सेना को गुप्त संदेश रानी के पक्ष मे लड़ने के लिए था इसी कारण पूरी सेना ने विद्रोह कर के महारानी के साथ लड़ी और निर्णायक युद्ध हुआ।

जीते जी महारानी ने झाँसी नहीं दिया

बाबा ने रानी के मुह पर गंगाजल डाला तब रानी होश मे आई ! एक बार “हर हर महादेव” का उच्चारण किया और बेहोश हो गयी! दूसरी बार गंगाजल डालने पर रानी ने "ॐ वसुदेवाय नमः" का उच्चारण किया और चिरनिद्रा मे विलीन हो गयी, ये समय 18 जून 1858 सूर्यास्त का था और "झाँसी का सूर्य भी अस्त हो चुका था " लकड़िया इतनी नहीं थी कि रानी और उनकी सहेली मुंदर का दाह संस्कार हो सके अतः बाबा ने अपनी कुटिया उधेड़ लाने को कहा और दोनों शवों का दाह संस्कार किया गया, रानी के सहयोगी रामचन्द्र देशमुख उनके पुत्र दामोदर राव को लेकर दक्षिण की ओर चले गए, जब उन्होने पुनः लौटकर युद्ध किया तो वो भी मारे गए, महारानी की अस्थियाँ पर्णकुटी के प्रांगड़ मे भूमि में समर्पित कर दी गयी ।
"खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थीं"
"भारत की इस महान हिन्दू वीरांगना को शत शत नमन"