मनुस्मृति की अवधारणा---!

मनु की न्याय प्रियता

भगवान मनु ने मनुस्मृति में चार वर्णों की बात कही है, वे यह कहीं नहीं कहते कि इन चारो वर्णों में कोई ऊँच-नीच अथवा भेदभाव था, सभी वर्ण समान थे! मनुस्मृति को स्थूल रूप से पढ़ने पर पाठकों को मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति सम्मान और असम्मान दोनों प्रकार की अवधारणाएं मिलती हैं, जब हम ध्यान से देखते हैं कि मौलिक और प्रक्षिप्त के सोध से मनु की मौलिक धारणाओँ की पहचान करते हैं तो हमें ध्यान में आता है कि मनु- शूद्रों के प्रति मानवीय समानता की धारणा और सम्मान की भावना रखते हैं, मनुस्मृति में शूद्रों के प्रति कहीँ- कहीं वर्णित पक्षपात, अन्याय, ऊँच- नीच, छुवा- छूत आदि के कथन मौलिक नहीं है अपितु लोगों ने बाद में "क्षेपक" डाला है।

'वेदोखिलो धर्ममूलम '(१.१२५)

मनु लिखते हैं सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल स्त्रोत है, वेद प्रतिपादितो धर्म: अधर्मस्तछिपर्यय:। वेद जिस कर्म को करने का आदेश देता है वह धर्म है, यज्ञ और ब्रम्हाप्राप्ति का इसके अन्दर स्वतः ही अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि ये भी मनुष्यों के धर्म हैं, ब्यवहारिक रुप से त्रिविध- आत्मिक, मानसिक और शरीरिक उन्नति कराने वाले, मानवत्व और देवत्व का विकास करने वाले, धारण करने योग्य, श्रेष्ठ ब्यवहार एवम सामाजिक कर्तब्य, मर्यादायें इन सब विधानों को धर्म कहते हैं, यह ब्यावहारिक क्षेत्र होने के कारण कर्म भी है, जिनमे देश, काल, परिस्थिति वश क़ुछ परिवर्तन भी संभव है। मनु ने सब वर्णों-- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और सभी वर्णो के अंतर्गत स्थित आश्रम, ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के धर्मों, कर्तब्यों को ठीक- ठीक रूप से हमें बतलाने योग्य हैं--- मनुस्मृति एक धर्मशास्त्र है इसमें धर्म के स्वरूप को मनु ने इस प्रकार सभी के लिए समान रूप से किया है।

जन्माधारित जाति व्यवस्था 

जन्माधारित जाति ब्यवस्था के अनुसार समाज में आजका माने जाने वाला शूद्र न तो मनु महाराज की व्यवस्था का शूद्र है न ही उसका घृणित अर्थ है, जैसे मनुस्मृति में सप्रमाण लिखा गया है कि मनुस्मृति की कर्माधारित वर्ण व्यवस्था में कोई जाती उपजाति नहीं थीं, केवल चार वर्ण थे और चार वर्णों में जो किसी भी कुल में उत्पन्न बालक -बालिका उच्च तीन वर्णों की शिक्षा प्राप्त नहीं करते थे वे शूद्र वर्ग कहलाते थे, मनु ने आज की कथित पिछड़ी जातियों को कहीँ शूद्र नहीं कहा है आज के लोग 'मनु महाराज' का नाम बलात अपने इस आरोप के साथ जोड़ दिया है कि मनु ने उनको शूद्र कहा है, वर्ण व्यवस्था आधारित शूद्र आज के शूद्र नहीं है।

शूद्र कौन--?

सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्र किसे कहा गया है और वह कैसे बनता है !
 "ब्राम्हण क्षत्रियों वैश्य: त्रयो वर्ण द्वीजातय: ।
 चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पंचम: ।।" (10.4)
आर्यों की वर्ण व्यवस्था में केवल चार वर्ण या जातियोँ हैं, पांचवा कोई जाति व वर्ण नहीं है, चार वर्णों में प्रथम तीन ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य द्विजाति कहलाते हैं क्योंकि इनके दो जन्म होते हैं एक माता पिता से दूसरा गुरू से स्नातक रूपी ब्राम्हजन्म, जिसका विद्याजन्म नहीं होता अर्थात तीन वर्णों की शिक्षा प्राप्त करके स्नातक नहीं बनता वह माता-पिता से प्राप्त केवल एक जन्म के आधार पर "एक जाति" एक जन्म वाला कहाता है उसे शूद्र कहते हैं।
"यो न वेत्यभिवादस्य विप्र: प्रत्याभिवादनम, 
 नाभिवाद्य:स विदुषा यथा शूद्रास्तथैव स:।" (२.१२६)
जो द्विज के अभिवादन का उत्तर देने की विधि को नहीं जानता अर्थात उसका विधी अनुसार उत्तर नहीं देता उसको अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह शूद्र के समान है, जो वेद का स्वाध्याय छोड़ देते हैं वह अध्ययन त्याग के कारण शीघ्र अशिक्षित होकर शूद्र तथा उसका परिवार भी अशिक्षित होकर शूद्रत्व को प्राप्त होता है।

शूद्र अस्पृश्य नहीं

वैदिक काल में उच्च तीन वर्ण प्रक्षिक्षण के अनुसार अपने -अपने कार्य (व्यवसाय) करते हैं, जबकि अशिक्षित होने के कारण शूद्र अन्य कोई ब्यवसाय नहीं कर सकते इस नाते वह शारिरिक श्रम ही कर सकते हैं, आज भी अशिक्षित ब्यक्ति वही कर रहे हैं यहां शुद्र का अर्थ श्रमिक से है, "शु द्रवतीति" 'आशु द्रवतीति' इस नाम से कोई हीनता या घृणा का बोध नहीं है, मनु ने शुद्रों का कर्तब्य घरों में सेवा कार्य ही बताया है, वेदों में इस प्रकार तीनों वर्णों के समान अपने कर्तब्य को निष्ठापूर्वक करना शुद्रों को भी कहा है।

"तपसे शूद्रम" (यजु:)

यहां भी तप का अर्थ-श्रम से लगाया गया है इस प्रकार धीरे-धीरे शूद्र वर्ण का निर्माण हुआ है।' इस प्रकार द्विजों के घर में भोजन बनाने वाला, वहीं भोजन करने वाले इत्यादि गृह कार्य करने वाले कभी अछूत या घृणित नहीं हो सकता अतः मनु की वर्ण व्यवस्था में वर्णित शूद्र अछूत नहीं है, जो मनु के नाम पर इस प्रकार अनर्गल प्रलाप करते हैं वे मनु के साथ घोर अन्याय करते हैं और मनु की वर्ण व्यवस्था के प्रति भ्रम पैदा करते हैं।
भगवान वेद शूद्र वर्ण का स्वाभिमान जगाते हुए कहते हैं, हे शूद्र! "मित्रस्य भागोसि"- तू समस्त प्राणियों के परम मित्र भगवान सूर्य का भाग हैं, जिस प्रकार सूर्य अपने प्रकाश द्वारा अपेक्षित ताप-गर्मी के द्वारा सम्पूर्ण प्राणी समुदाय को जगाते हैं, जीवन का संचार करते हैं चैतन्यता प्रदान करते हैं, उसी प्रकार हे शूद्र! तू भी अपने श्रम के द्वारा, तप के द्वारा, सभी कर्मों को गति प्रदान करते हो, ब्यवस्थित श्रम के द्वारा ही शिल्प की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार से यह श्रम ही, यह तप ही, सभी कर्मो का मित्र है, इसलिए--हे तपस्वी! हे शूद्र! तुम सबके मित्र सूर्य के भाग हो। वरुणस्याधिपत्यम-- मनु कहते हैं तेरे ऊपर वरुण का दायित्व है, जल का अधिपत्य देव वरुण है, श्रम, श्रमिक और शिल्पकार, घट- पट, वस्त्र, आभूषण, अस्त्र-शस्त्र आदि विविध शिल्प मनुष्य के जीवन का आधार है। डॉ भीमराव अंबेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्रों की खोज" में दो सवाल उठाए हैं--! 
(क) ----शूद्र कौन थे--? 
(ख) ----वे भारतीय समाज के चौथे वर्ण कैसे बने? वे आगे लिखते हैं।
1. शूद्र सूर्यवंशी आर्य समुदायों में से थे।
2. एक समय था जब आर्य समुदाय केवल तीन वर्णों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मान्यता देता था।
3. शूद्र एक अलग वर्ण के सदस्य नहीं थे, भारतीय आर्य समुदाय में से वे क्षत्रिय वर्ण के अंग थे।
4. शूद्र राजाओं और ब्राह्मणों में निरंतर प्रतिस्पर्धा रहती थी जिससे ब्राह्मणों को अनेक अत्याचार और अपमान झेलने पड़ते थे।
5. शूद्रों के दमन- अत्याचार के कारण उनके प्रति उपजी घृणा के फलस्वरूप ब्राह्मणों ने शूद्रों का उपनयन करने से मना कर दिया।
6. जब ब्राह्मणों ने उपनयन कराने से मना कर दिया तो शूद्र जो क्षत्रिय थे, समाजिक स्तर पर अवनत हो गए और वैश्यों से नीचे की श्रेणी में आ गए, इस प्रकार चौथा वर्ण वन गया। डॉ अंबेडकर आगे यह भी कहते हैं कि वर्तमान का शूद्र जिन्हे अछूत समझते हैं- ऊंच-नीच, भेद-भाव यह सब इस्लामिक काल की देन है । 

"शूद्र आर्य हैं"

 भगवान मनु, आर्य और अनार्य की पहचान बताते हुए कहते हैं-----
  "वर्णापेतम...आर्यरूपमिव अनार्यम" (10.57) अर्थात चार वर्णो से बाह्य जो लोग हैं वे अनार्य हैं, चातुर्वर्ण्य ब्यवस्था आर्यो की ब्यवस्था है और उनके अंतर्गत चारो वर्ण आर्य हैं, इस प्रकार मनुस्मृति के अनुसार शूद्र सवर्ण भी है और आर्य भी है। डॉ आंबेडकर अपने साहित्यों में कई स्थानों पर स्वीकार किया है कि मनु ने शुद्रों को आर्यो के अंतर्गत ही माना है। 
1. "धर्म सूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए, यह सिद्धांत मनु और चाणक्य के विपरीत है। (शूद्रों की खोज, पृ. 42) 
2."शूद्र आर्य ही थे अर्थात वे जीवन में आर्य पद्धति में विस्वास करते थे, कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक मे उन्हें आर्य कहा गया है, शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और सम्मानित सदस्य थे। (डॉ. आंबेडकर वांग्मय, खंड 7 पृ. 322) 
3. सवर्ण का अर्थ है कि चार वर्णों में से एक वर्ण का होना, अवर्ण का अर्थ है चारों से परे। (डॉ. आंबेडकर वांग्मय खंड 6 पृ. 181) 
4. शूद्रों के लिए दासता का बिधान मनुकृत नहीं-- मनु शूद्रो की दासता के पक्षधर या पोषक नहीं हैं, उन्होने शूद्रों को सेवक, स्त्री, कर्मचारी,आदि का वेतन, पद और स्थान के अनुरुप देने का आदेश दिया है, वेतन पाने वाले दास नहीं होते। 

शूद्रों का अद्भुत मानवीय सम्मान

मनु अपने ग्रंथ मनुस्मृति में कहीं कहीं शुद्रों के प्रति घृणा, आक्रोश, असम्मान, भेदभाव प्रकट करने वाले वर्णन है ये सब 'क्षेपक' है मनु की शैली से मेल नहीं होता क्योंकि वे अधर्मी, पापी अथवा दोषी ब्यक्तियों को छोड़कर बाकी किसी के प्रति आक्रोश भाव प्रकट नहीं करते, मनुस्मृति 1.91 में सहज वर्णन मिलता है मनु ने द्विज होने का आदेश दिया है कि वह बृद्ध शुद्र का सम्मान पहले करे--"सोत्र मानाह्रः शूद्रोपि दशमी गत:" (9.335) शूद्रों के प्रति मनु का कितना मानवीय भाव था इसकी जानकारी हमें "मनु" के निम्न आदेश से मिलते हैं, मनु- कहते हैं कि अपने भृत्यों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के पश्चात ही द्विज दम्पत्ति भोजन करे! 

मनु का दंड विधान

मनु की यथायोग्य दंडब्यवस्था में शुद्रों को सबसे कम दंड विहित है और ब्राह्मण को सबसे अधिक, राजा को उससे अधिक, मनु की यह सर्वसमान्य दंड ब्यवस्था है, जो सैद्धांतिक रूप से सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है। अर्थात--- किसी भी अपराध में शूद्र को जो दंड दिया गया है, उसी में वैश्य को उसका दो गुना दंड, क्षत्रिय को तीन गुना और ब्राह्मण को चार गुणा दंड देने का विधान है, मनु की ब्यवस्था में जो जितना बड़ा है वह उतना बड़ा दंड का भागी होता है, ब्राह्मण, राजा व आचार्य किसी को भी कोई छूट नहीं है।

शूद्रों को सबके समान ही अधिकार

"प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च।" (अथर्ववेद 19.32.8) 'मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सबका प्रिय बनाइये, मैं सबसे प्रेम करने वाला और सबका प्रेम पाने वाला बनूं।
"प्रियं मा कृणु देवुशु प्रियं राजसु मा कृणु। 
 प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शुद्रे- उत्तरए।।" (अथर्ववेद19.62.1) --- 
'मुझे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शुद्रों और वैश्यों जो भी मुझ पर  दृष्टिपात करे, उसका प्रिय बनाओ। वेदों के ये मन्त्र सदभाव पूर्ण आदर्श वचन हैं, यह वैदिक संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था का एक नमूना प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि वैदिक काल का समाज कैसा था, यही वेद, मनु स्वायम्भुव के आदर्श है, अतः उनके वचन को परिपूर्ण मानना चाहिए, 'मनु' की ब्यवस्था में कोई भेद नहीं है यदि कहीं क़ुछ मिलता है तो उसे वेद विरूद्ध 'क्षेपक' ही मानना चाहिए।

शूद्रो को धर्मपालन का अधिकार

मनु- मनुस्मृति 2.38 में कहते हैं कि "अंत्यादपि परं धर्मम" यानी सभी वर्णो के समान शुद्रों को भी धर्म की शिक्षा ग्रहण करे जिसको धर्म पालन का अधिकार होगा वही धर्म जानने वाला होगा, वही धर्म का आचरण करने वाला होगा और उससे शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्यों के चार वर्ण हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम से विख्यात हैं ये वर्ण गुण, कर्म और स्वभाव इन तीनों के आधार पर निर्माण किये गए हैं, इस प्रकार विभाजन को वर्ण व्यवस्था कहते हैं, वर्ण व्यवस्था में ऊँच नीच का प्रश्न नहीं, भागवत गीता में स्पष्ट लिखा है------:
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरत: सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु।।
अर्थात अपने अपने कर्म में लगा हुआ ब्यक्ति अपने जीवन में सिद्धि को प्राप्त कर सकता है,यानी अपने युद्देष्यों को प्राप्त कर सकता है।

वेदाध्ययन का अधिकार

भगवान मनु ने सभी वर्णों के समान शुद्रों को भी वेदो को पढ़ने का अधिकार दिया है वे लिखते हैं कि स्वयं यजुर्वेद 26.2 मंत्र "यथेमां वाचं कल्याणीम....शूद्राय चार्याय च" से यह सिद्ध होता है। "यज्ञ का अधिकार" मनु ने ऋक 10.53.4-5 में "पंचजना ममहोत्र जुषध्वम" का उद्धरण देते हुए शूद्रों को यज्ञ करने का आदेश दिया है। वहीं निरुक्त 3.2.7 की ब्याख्या में ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शुद्र तथा निरामिषभोजी निषाद की भी गणना पंचगणोमें की है। शुद्रो के लिए उपनयन वर्जित नहीं है (३६.३९) इससे संकेत मिलता है कि जन्म से कोई शुद्र नहीं होता, शुद्र कुल में उत्पन्न बालक द्विज वर्ण प्राप्त कर सकते हैं यानी उपनयन करा सकते हैं।

प्रक्षिप्त श्लोक

अविद्वानश्चैव विद्वानश्च ब्राह्मण दैवतं महत। प्रणितश्चाप्रणितश्च यथाग्निदेवतं महत।।(९.३१७)
"ब्राह्मण चाहे विद्वान हो अथवा मूर्ख, वड़ा देवता है, जैसे अग्नि हवन के लिए हो अथवा न हो फिर भी वड़ा देवता है।" इस प्रकार ब्राह्मण कैसे भी अनिष्ट कर्म करता रहे फिर भी वह सब प्रकार से पूज्य है।
ऊपर अंकित श्लोकों को उदधृत करके महर्षि दयानंद ने लिखा है-- सर्व साधारण ब्राह्मणों से बिमुख न हो जाय, इसलिए ऐसे ऐसे श्लोक गढ़े गए। प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार के बनावटी श्लोक डालकर और नवीन रचनायें करके ब्राह्मणों ने अपनी शक्ति बढ़ाई और मन्वादि स्मृतियों में भी अपने महत्व के वाक्य मिला दिये।(पूना प्रवचन पृ134) स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा है कि "मनुस्मृति में प्रक्षिप्त श्लोक और उससे पृथक स्मृति ग्रंथ अपठनीय है" मेरा मत ऐसा है कि "जिस प्रकार भगवान श्रीराम को पुरुषोत्तम से नीचे लाने हेतु अथवा बुद्ध भगवान को ऊपर उठाने हेतु संभूक बध जैसे 'क्षेपक' गढे गए ठीक उसी प्रकार हिन्दू समाज मे फूट डालने, समाज मे हीन ग्रंथि उपजाने हेतु बौद्ध काल मे ऐसे श्लोको की रचना कर मनुस्मृति मे डाल दिया" ।

ये ओ शूद्र नहीं है

डॉ आंबेडकर कहते हैं कि ये ओ शूद्र नहीं है कौन से शूद्र ? वास्तव में ये वैदिक काल के नहीं क्योंकि उस समय मनु के विधान में जाति नहीं ! वर्ण व्यवस्था थी छुआ- छूत, ऊँच -नीच, भेद -भाव नहीं था कोई भी शूद्र ब्राह्मण हो सकता था उसी प्रकार कर्मणा कोई भी शूद्र वन सकता था जैसे वैदिक ऋषि 'कवष ऐलूष' शूद्र कुल में उत्पन्न हो कर मंत्र द्रष्टा वन ब्राह्मण हो जाता है तथा चक्रवर्ती सम्राट 'राजा सुदास' जो सूर्यवंशी था शूद्र हो जाता है, जिसे हम शूद्र समझते हैं भगवान मनु की दृष्टि में वे बड़े सम्मानित थे !

संदर्भ ग्रंथ-१- मनुस्मृति,  भाष्यकार, डॉ. सुरेंद्रकुमार
                2- मनुस्मृति,  डॉ. रामचन्द्र वर्मा शास्त्री
                3- शूद्रों की खोज, डॉ. भीमराव अंबेडकर
                4- निगमागमिक समाज संरचना मीमांसा, आचार्य भक्तिपुत्र रोहतम
                 5- ऋग्वेद, ऋषि दयानंद, भाष्य
                 6- अथर्ववेद, ऋषि दयानंद, भाष्य
                 7- ऋग्वेद भाष्यभूमिका, ऋषि दयानन्द सरस्वती
                 8- भगवत गीता, गीता प्रेस गोरखपुर
                 9- धर्म तथा समाजवाद , गुरुदत्त