tag:blogger.com,1999:blog-46626961901428954472024-03-19T08:26:51.816+05:30दीर्घतमा दीर्घतमा ब्लॉग ( dirghtama.in ) ब्लॉग भारत और भारत के संघर्ष, इतिहास एवं महापुरुषों की जानकारियों का संग्रहालय हैसूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.comBlogger502125tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-41044116320962657572024-03-17T10:07:00.001+05:302024-03-18T11:49:08.266+05:30स्वत्व स्वाभिमानी स्वतंत्रता सेनानी "जतरा उरांव" उपाख्य टानाभगत।<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjizz_fx0frZcPmFdXweMwnkRiS5gm_CckDOK-6juIfUMRzBwedf6FOqYaI3Jyk0jpi-NaQom_RSGfQ_yghf7mj-8Mz_RukJ6Xx7DXTtpfyRG7QBTFgMhLxbrxsUxLCagUHjK-FMznm5B9wzqKwjxj2T_6frYlzyvLymXY798lllck2L081Q7e_zrQ7_IZh/s1582/Screenshot_20240302_183115_Chrome.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1582" data-original-width="921" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjizz_fx0frZcPmFdXweMwnkRiS5gm_CckDOK-6juIfUMRzBwedf6FOqYaI3Jyk0jpi-NaQom_RSGfQ_yghf7mj-8Mz_RukJ6Xx7DXTtpfyRG7QBTFgMhLxbrxsUxLCagUHjK-FMznm5B9wzqKwjxj2T_6frYlzyvLymXY798lllck2L081Q7e_zrQ7_IZh/w233-h400/Screenshot_20240302_183115_Chrome.jpg" width="233" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>टाना भगत अर्थात जतरा उरांव किसकी विरासत</i></u></span></h3><p></p><p>टाना भगत का मूल नाम जतरा उरांव था, भगवान विरसा मुंडा के बलिदान के पश्चात लगभग13 वर्षों के बाद इस आंदोलन को नई धार दिया जतरा उरांव ने, आंदोलन इतना प्रखर था कि उस समय 26हजार से अधिक लोग इनके अनुयायी बन गए थे। भारत के अंदर आज जिसे हम सम्प्रदाय अथवा पंथ बोल रहे हैं वास्तविकता यह है कि वे सब धार्मिक आंदोलन के साथ हिंदू समाज के जागरण और देश व राष्ट्र के संघर्ष था। चाहे वह रामानुजाचार्य रहे हों या रामानंद स्वामी रहे हों अथवा चाहे असम के शंकरदेव, बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, उत्तर प्रदेश में गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, कबीर दास, कुम्हन दास, दक्षिण के समर्थ गुरु रामदास, राजस्थान में महारानी मीराबाई! ब्रिटिश काल में चाहे ऋषि दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती, स्वामी रामतीर्थ अथवा विवेकानंद, विरसा मुंडा सभी ने राष्ट्र चेतना जगाने का काम किया। इन लोगों ने धार्मिक आंदोलन द्वारा विधर्मियों के विरुद्ध संघर्ष किया धीरे-धीरे यह आंदोलन पंथ का स्वरूप धारण कर लिया। उसी में से शैव, वैष्णव, शाक्त, द्वैत, अद्वैत, विशिष्टा द्वैत, द्वैताद्वैत, आर्य समाज का त्रैतवाद और फिर टानाभगत ने सम्प्रदाय का रूप धारण कर लिया। वास्तव में टाना भगत (जतरा उरांव) ने भगवान विरसा मुंडा की विरासत सम्हालते हुए ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने का धार्मिक समुदाय खड़ा कर दिया जिसे हम टानाभगत के रूप में जानते हैं। जिस प्रकार ऊपर वर्णित आंदोलन आज सम्प्रदाय के रूप में दिखाई देते हैं ठीक उसी प्रकार आज झारखंड, छत्तीसगढ़ के वनवासियों में टानाभगत सम्प्रदाय पाया जाता है। यदि हम यह कहें कि जतरा उरांव ने यह सारी प्रेरणा शंकराचार्य से लेकर विरसा मुंडा तक से प्रेरणा लिया या अपने तरीके से उन्हीं के आंदोलन को आगे बढ़ाया तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>धार्मिक आंदोलन</i></u></span></h3><p>विरसा मुंडा के बलिदान होने के 13 वर्षों के पश्चात 'जतरा उरांव' ने पुनः यह धार्मिक अनुष्ठान शुरू किया जिसका राजनैतिक लक्ष्य था। उनका चाहना था वनवासियों को संगठित कर उनके सात्विक जीवन शैली को बढ़ावा देना, सामाजिक बुराइयों को समाप्त कर ब्रिटिश शासन का विरोध उससे मुक्ति पाना। अंग्रेजों ने बाहर से लाकर कुछ लोगों को जंगलों में बसाया क्योंकि वे भली भांति जानते थे कि इन वनवासियों ने घर छोड़ना स्वीकार किया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा और जंगल में रहना स्वीकार किया, इसलिए ब्रिटिशों ने इनके अंदर बुराई पैदा हो यह प्रयत्न किया जैसे शराब बनाने के लिए बाहर से लोगों को ला बसाया गया धीरे-धीरे इनके अंदर यह बुराई घर कर गई। शराब के साथ-साथ अन्य बुराई जैसे मांसाहार, धार्मिक गिरावट, नैतिक पतन इन सभी बुराईयों के बिना अंग्रेज अधिकारी यहाँ टिक नहीं सकते थे यह सब प्रयास कर वनवासियों को दिग्भ्रमित करने का काम किया। यह बुराई और अनैतिकता तो बिना धार्मिक आंदोलन के समाप्त नहीं किया जा सकता था, इसलिए जतरा उरांव ने ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए इस आंदोलन को शुरू किया। 1914 तक इस आंदोलन में 26 हजार लोग जुड़ गए थे इसे देख अंग्रेजी हुकूमत घबड़ा गई। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जतरा उरांव-टानाभगत के रूप में</i></u></span></h3><p>जतरा उरांव (टानाभगत) वनवासियों के उरांव समाज के थे इनका जन्म झारखंड के गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी ''नयाटोली'' में पिता 'कोदल उरांव' माता 'लिबरी' के कोख से 2 अक्टूबर 1888 को हुआ था। जतरा उरांव ने अपने आंदोलन में उन आदर्शों, मानदंडों के आधार पर वनवासीय पंथ को सुनिश्चित आकर प्रदान किया। जिस प्रकार विरसा मुंडा ने संघर्ष के दौरान शान्तिमय, अहिंसक तरीका विकसित करने का प्रयास किया जतरा उरांव ने भी उसे अपना अमोघास्त्र बना लिया। विरसा आंदोलन के तहत झारखंड में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक ऐसा संघर्ष स्वरूप विकसित किया जिसे क्षेत्रीय स्वरूप में बांधा नहीं जा सकता। यह 1900 में विरसा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' से प्रेरित औपनिवेशिक सामंत बिरोधी धार्मिक सुधार आंदोलन था, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि गांधी जी का अहिंसात्मक आंदोलन टानाभगत जनजातियों से प्रेरित था जो जिसे आज भी देखा जा सकता है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>और अंत में करो या मरो </i></u></span></h3><p>टानाभगत आंदोलन ने संगठन का मूल ढांचा और रणनीति क्षेत्रीयता से मुक्त रहकर ऐसा आकर ग्रहण किया कि वह आज़ादी के आंदोलन का अविभाज्य अंग बन गया। जतरा उरांव की मृत्यु उनके अपने गांव चिंगरी नवाटोली जिला गुमला में हुआ। टाना भगतों की 1913 से 1942 तक जप्त की गई भूमि वापस दिलाने का कानून बना प्रावधान किया गया, ब्रिटिश सरकार के अत्याचार के खिलाफ मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और टेक्स नहीं देंगे ऐसे आंदोलन का आह्वान किया। और अंत में उन्होंने हथियार उठाया करो या मरो का नारा दिया, उन्हें विरसा मुंडा का बलिदान याद था वे जानते कि अंग्रेज आसानी से मानने वाले नहीं हैं विरसा मुंडा के साथ क्या किया था उन्हें ध्यान था इसलिये वे कोई चूक नहीं करना चाहते थे।1914 में टाना भगतों के आंदोलन से घबराकर ब्रिटिश शासन ने जतरा उरांव अर्थात टानाभगत को गिरफ्तार कर लिया। उनकी मृत्यु 1916 में अपने गांव चिंगरी विशुनपुर गुमला में हो गई, आज भी टानाभगत को जनजातीय समुदाय में भगवान विरसा मुंडा के समान पूजा जाता है। और उनका यह आंदोलन जो धार्मिक होते हुए जिसने देश आजादी के राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए था वह हमेशा हम भारतीयों के लिए प्रेरणास्रोत बना रहेगा।</p><div><br /></div><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-27177718215436441522024-03-16T12:53:00.001+05:302024-03-18T11:48:25.835+05:30तानाजीराव मालसुरे "गढ़ आला पड़ सिंह गैला"<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7h2x6aptIbF4_q_uQhVe2tce2OMcDRF5hmjF0mqeu_1xI14DHc-ECsglIQ2J52W4t5dkaWw8scQeJWEyncxHTPQTj_Aox9gzCubAWlTRann66q1HnAZ6htJzQc0RdlZ2m4GCG_IC1Z2GT9Fadd6NnaVjaMVivZgUxv3xjhe-3HYDmONraQkWkR1Ld9jT-/s1328/Screenshot_20240303-170214~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1328" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7h2x6aptIbF4_q_uQhVe2tce2OMcDRF5hmjF0mqeu_1xI14DHc-ECsglIQ2J52W4t5dkaWw8scQeJWEyncxHTPQTj_Aox9gzCubAWlTRann66q1HnAZ6htJzQc0RdlZ2m4GCG_IC1Z2GT9Fadd6NnaVjaMVivZgUxv3xjhe-3HYDmONraQkWkR1Ld9jT-/s320/Screenshot_20240303-170214~2.jpg" width="260" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कोणाना दुर्ग पर हरा झंडा और माता जीजा बाई </i></u></span></h3>तानाजीराव का जन्म 17वीं शताब्दी में महाराष्ट्र के कोंकण प्रान्त में महाड के पास 'उमरथे' में हुआ था। वे बचपन से छत्रपति शिवाजी के साथी थे। ताना जी और शिवा जी एक-दूसरे को बहुत अछी तरह से जानते थे और मित्र जैसा व्यवहार करते थे। तानाजीराव, शिवाजी के साथ हर लड़ाई में शामिल होते थे। ऐसे ही एक बार शिवाजी महाराज की माताजी लाल महल से कोंडाना किले की ओर देख रहीं थीं। तब शिवाजी ने उनके मन की बात पूछी तो जिजाऊ माता ने कहा कि इस किले पर लगा ''हरा झण्डा'' हमारे मन को उद्विग्न कर रहा है। उसके दूसरे दिन शिवाजी महाराज ने अपने राजसभा में सभी सैनिकों को बुलाया और पूछा कि कोंडाना किला जीतने के लिए कौन जायेगा? किसी भी अन्य सरदार और किलेदार को यह कार्य कर पाने का साहस नहीं हुआ किन्तु तानाजी ने चुनौती स्वीकार की और बोले, "मैं जीतकर लाऊंगा कोंडाना किला"।<p></p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कोणाना दुर्ग और तानाजी मालसुरे</i></u></span> </h3><p>तानाजीराव के साथ उनके भाई सूर्याजी मालुसरे और मामा ( शेलार मामा) थे। वह पूरे ३४२ सैनिकों के साथ निकले थे। तानाजीराव मालुसरे शरीर से हट्टे-कट्टे और शक्तिपूर्ण थे। कोंडाणा का किला रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित था और शिवाजी को इसे कब्जा करना के लिए बहुत महत्वपूर्ण था। कोंडाणा तक पहुंचने पर, तानाजी और ३४२ सैनिकों की उनकी टुकड़ी ने पश्चिमी भाग से किले को एक घनी अंधेरी रात को घोरपड़ नामक एक सरीसृप की मदद से खड़ी चट्टान को मापने का फैसला किया। घोरपड़ को किसी भी ऊर्ध्व सतह पर खड़ी कर सकते हैं और कई पुरुषों का भार इसके साथ बंधी रस्सी ले सकती है। इसी योजना से तानाजी और उनके बहुत से साथी चुपचाप किले पर चढ़ गए। कोंडाणा का कल्याण दरवाजा खोलने के बाद मुग़लों पर हमला किया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>औरंगजेब का गुलाम उदयभान राठौर</i></u></span> </h3><p>सर्व विदित है कि मानसिंह का परिवार का मुगलों से क्या रिश्ता था ? पूरे खानदान के खानदान मुगलों की गुलामी में ही खुश रहते थे जरा सा भी हिन्दू धर्म और देश के प्रति कोई स्वाभिमान नहीं था। मंदिर बनवाने औए पूजा करने से कोई देशभक्त और हिंदुत्व का पुजारी नहीं हो जाता उसी में से एक जयसिंह भी था जो औरंगजेब का एक सूबेदार था। औरंगजेब की निति हमेसा से रही है कि हिन्दू राजाओ से हिन्दू राजाओ को लड़ाना उसी निति के तहत उसने "कोणाना दुर्ग" पर उदयभान राठौर को भेजा था आखिर इन मुगलों को किसने राजा बनाया था? कहाँ इनका राजतिलक हुआ था? इनका अस्तित्व तो लुटेरो के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने इन्हें ''दिल्लीशरोवा -जगदी शरोवा की उपाधि से नवाजा। कोणाना किला उदयभान राठौड़ द्वारा नियंत्रित किया जाता था वह मुग़ल किलेदार था, जो राजा जय सिंह द्वारा नियुक्त किया गया था। उदय भान राठौड़ के नेतृत्व में ५००० मुगल सैनिकों के साथ तानाजी का भयंकर भयंकर युद्ध हुआ। तानाजी एक लड़ाई लड़े । इस किले को अन्ततः जीत लिया गया, लेकिन इस प्रक्रिया में तानाजी गंभीर रूप से घायल हो गए थे और युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। जब छत्रपती शिवाजी महाराज जी को यह दुःखद वार्ता मिली तो वे अत्यंत दुखी एवं आहात हुये। छत्रपती शिवाजी महाराज ने कहा - मराठी - ''गढ़ आला, पण सिंह गेला'' अर्थ -"हमने गढ़ तो जीत लिया, लेकिन मैने मेरा सिंह खो दिया''। </p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-39484253657653760772024-03-15T11:50:00.001+05:302024-03-18T11:47:43.828+05:30हिंदू सम्राट महाराजा सुहेलदेव <p><br /></p><h3 style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsQ1vhZO9b6kCBhjhBsex6i9HdGRPzkSkMKmHRRaSrmDtRQQFn2uTZm7Cez1l4StYTeAh5_nIibF5tPpyCkOUCeXtBfskfNSLonzuCS2WHu-umK8fD_zbe-K9a2Jzw7VLhqT0bLfoLHANTyTFVfPusFrf6VRCo4ZObyLywp7Q2s-cUZE4AZadieGgmBCmX/s834/FB_IMG_1709184520025.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="834" data-original-width="736" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhsQ1vhZO9b6kCBhjhBsex6i9HdGRPzkSkMKmHRRaSrmDtRQQFn2uTZm7Cez1l4StYTeAh5_nIibF5tPpyCkOUCeXtBfskfNSLonzuCS2WHu-umK8fD_zbe-K9a2Jzw7VLhqT0bLfoLHANTyTFVfPusFrf6VRCo4ZObyLywp7Q2s-cUZE4AZadieGgmBCmX/s320/FB_IMG_1709184520025.jpg" width="282" /></a></div><br /><span style="color: red;"><u><i>महाराजा सुहेलदेव</i></u></span></h3><p>राजा सुहेलदेव के बारे मे बड़ी भ्रान्तियाँ हैं लेकिन स्थानीय कीवदन्तियां बहुत प्रकार की है जितनी जातियाँ उतने प्रकार लोग सभी उन्हें अपनी जाति का बताने में लगे रहते हैं। उन्हें वैश्य राजपूत, नागवंशी राजपूत तो कहीं पासी और कुछ लोग उन्हें राजभर बताते हैं लेकिन यह सत्य है कि वे हिंदू राजा थे। यदि वे राजा थे उन्होंने कई बार विधर्मियो को पराजित किया तो उनका गुण क्षत्रिय का था और वे क्षत्रिय थे। यह स्वाभाविक है कि लोग उन्हें अपने से जोड़े और अपनी-अपनी जाति का बतायें इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं है राजा सुहेलदेव, हिंदुत्व और सनातन धर्म के पुरोधा थे उन्होंने स्थानीय सभी राजाओं को संगठित कर मीरबाकी जैसे दुरदान्त बिधर्मी कर बध किया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव गांव में आज भी राजा सुहेलदेव लीला खेली जाती है और 'मीरबाकी' का बध किया जाता है।</p><p>सुहेलदेव जी 11वीं सदी में श्रावस्ती के राजा थे, जिन्होंने महमूद गजनवी के भांजे गाज़ी सैयद सालार मसूद को युद्ध में बुरी तरह पराजित किया था। इसी कारण उनकी चर्चा होती है। इस बात का उल्लेख चौदहवीं सदी में अमीर खुसरो की किताब एजाज-ए-खुसरवी में मिलता है। 1034 में सुहेलदेव की सेना ने मसूद की सेना के बीच लड़ाई हुई थी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सैयद सालार मसूद की पराजय </i></u></span></h3><p>महमूद गजनवी के भांजे सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी ने सिंधु नदी के पार तत्कालीन भारत के कई हिस्सों पर अपना कब्जा जमा लिया था। लेकिन जब उसने बहराइच को अपने कब्जे में लेना चाहा तो उसका सामना महाराजा सुहेलदेव से हुआ और महाराजा सुहेलदेव वे उसे और उसकी सेना को धूल चटा दी थी। इस युद्ध में मजूद गाजी बुरी तरह घायल हो गया था और बाद में उसकी मौत हो गई थी। </p><p> मुगल जहांगीर के दौर में अब्दुर रहमान चिश्ती ने 'मिरात-इ-मसूदी' नामक किताब लिखी। इस दस्तावेजी किताब को गाज़ी सैयद सालार मसूद की बायोग्राफी माना जाता है। इस किताब के अनुसार गाज़ी सैयद सालार साहू के साथ भारत पर हमला करने आया था। अपने पिता के साथ उसने इंडस नदी पार करके मुल्तान, दिल्ली, मेरठ और सतरिख (बाराबंकी) तक जीत दर्ज की थी। बाद में उसने बहराइच पर हमला किया लेकिन राजा सुहेलदेव ने उसे बुरी तरह धूल चटा दी थी। घायल होने के बाद मौत से पहले उसकी इच्छानुसार उसे बहराइच में ही दफना दिया गया था। अब तो उसकी कब्र मजार और फिर दरगाह में बदल गई। पहले इस जगह पर हिंदू संत और ऋषि बलार्क का एक आश्रम था।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>थोथा इतिहासकार</i></u></span> </h3><p>हालांकि कुछ इतिहासकार कहते हैं कि गजनवी के समाकालीन इतिहासकार इस युद्ध का जिक्र नहीं करते हैं। महमूद गजनवी के समकालीन इतिहासकारों में मुख्य तौर पर उतबी और अलबरूनी थे। हो सकता है कि उन्होंने इस भयानक हार का जिक्र इसलिए नहीं किया हो क्योंकि यह उनके लिए शर्म की बात होती, इतना ही नहीं अलबरूनी जिहादी इतिहासकार था उसने अपने मतलब से इतिहास लिखा, लेकिन स्थानीय किब्दन्तियों को नकारा नहीं जा सकता ।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-5861613615899880512024-03-07T07:11:00.000+05:302024-03-18T11:46:26.501+05:30मुगलों को बार-बार पराजित करने वाले आहोम सेनापति "लचित वरफुकन" <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmBNFfwVgqyn1gp2YWX0KBHFEAXVe-uACk3diGa-QurMe9FQdt3mi9lI9TFkawAdIqT2YRh3EUXJ3NMNYkYxNsifxxd94i2POBgnphyDaWvkJKT86PxYRCScc7iHPsFYXIkMWDxIomY3lSKYHbdZvaUVz_kuQSBqGX50KUyZLkLgUngQ7JH-gjo0u_35y8/s361/FB_IMG_1708497156615.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="361" data-original-width="322" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmBNFfwVgqyn1gp2YWX0KBHFEAXVe-uACk3diGa-QurMe9FQdt3mi9lI9TFkawAdIqT2YRh3EUXJ3NMNYkYxNsifxxd94i2POBgnphyDaWvkJKT86PxYRCScc7iHPsFYXIkMWDxIomY3lSKYHbdZvaUVz_kuQSBqGX50KUyZLkLgUngQ7JH-gjo0u_35y8/s320/FB_IMG_1708497156615.jpg" width="285" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>अपराजित आहोम </i></u></span></h3>असम को प्राचीन काल में "कामरूप" या "प्राग्यज्योतिशपुर" के रूप में जाना जाता था। इसकी राजधानी आधुनिक गुवाहाटी हुआ करती थी। इस साम्राज्य के अंतर्गत असम की ब्रह्मपुत्र वैली, रंगपुर, बंगाल का कूच-बिहार और भूटान शामिल था। असम के अहोम राजाओं ने कभी भी किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं की, जैसे मुगलों को राजपुतो और मराठों से बार-बार टक्कर मिली, ठीक उसी तरह अहोम राजा ने भी मुगलों को कई बार हराया। विधर्मी व्यभिचारी और आतंकी इस्लामी स्वाभाव को आहोम राजा समझाते थे इसी करण वे इन विधर्मियो से हमेसा सावधान रहते थे, मुगलों को दर्जनों बार अहोम राजा ने लचित वर्फुकन के नेतृत्व पराजित किया था दोनों पक्षों के बीच डेढ़ दर्जन से भी ज्यादा बार युद्ध हुआ। अधिकतर बार या तो मुगलों को खदेड़ दिया गया या फिर वो जीत कर भी वहाँ अपना प्रभाव कायम नहीं रह सके। असम में आज भी 17वीं सदी के अहोम योद्धा लाचित बरफुकन न को याद किया जाता है। उनके नेतृत्व में ही अहोम ने पूर्वी क्षेत्र में मुगलों के विस्तारवादी अभियान को थामा था। अगस्त 1667 में उन्होंने ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे मुगलों की सैनिक चौकी पर जोरदार हमला किया। लाचित गुवाहाटी तक बढ़े और उन्होंने मुग़ल कमांडर सैयद फ़िरोज़ ख़ान सहित कई मुग़ल फौजियों को बंदी बनाया।<div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कुशल सेनापति लचित वर्फुकन </i></u></span></h3><div><p>मुग़ल भी शांत नहीं बैठे। अपमानित महसूस कर रहे मुगलों ने बड़ी तादाद में फ़ौज अहोम के साथ युद्ध के लिए भेजी। सैकड़ों नौकाओं में मुग़ल सैनिकों ने नदी पार किया और अहोम के साथ एक बड़े संघर्ष की ओर बढ़े। मुगलों ने इस बार काफ़ी मजबूत सेना भेजी थी। लेकिन, इस बार जो हुआ वो इतिहास की हर उस पुस्तक में पढ़ाई जानी चाहिए, जहाँ ‘नेवल वॉर’ या फिर जलीय युद्ध की बात आती है। लाचित के नेतृत्व में अहोम सैनिक सिर्फ़ 7 नौकाओं में आए। उन्होंने मुगलों की बड़ी फ़ौज और कई नावों पर ऐसा आक्रमण किया कि वो तितर-बितर हो गए। मुगलों की भारी हार हुई। इस विजय के बाद लाचित तो नहीं रहे लेकिन इस हार के बाद मुगलों ने पूर्वी क्षेत्र की ओर देखना ही छोड़ दिया। मुगलों की इस हार की पटकथा समझने के लिए थोड़ा और पीछे जाना होगा।</p><p>दरअसल, लाचित के इस पराक्रम से 50 साल पहले से ही मुगलों और अहोम के संघर्ष की शुरुआत हो गई थी। सन 1615 में ही मुगलों ने अबू बकर के नेतृत्व में एक सेना भेजी थी, जिसे अहोम ने हराया। हालाँकि, शुरुआत में अहोम को ख़ासा नुकसान झेलना पड़ा, वो अंततः मुगलों को खदेड़ने में कामयाब हुए। दरअसल, 1515 में कूच-बिहार में कूच वंश की शुरुआत हुई। विश्व सिंह इस राजवंश के पहले राजा बने। उनके बेटे नारा नारायण देव की मृत्यु के बाद साम्राज्य दो भागों में विभाजित हो गया। पूर्वी भाग कूच हाजो उनके भतीजे रघुदेव को मिला और पश्चिमी भाग पर उनके बेटे लक्ष्मी नारायण पदासीन हुए। लक्ष्मी नारायण का मुगलों से काफ़ी मेलजोल था। अहोम राजा सुखम्पा ने रघुदेव की बेटी से शादी कर पारिवारिक रिश्ता कायम किया। यहीं से सारे संघर्ष की शुरुआत हुई।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जब मुगलों को असंम से खदेड़ा </i></u></span></h3><p>उपजाऊ भूमि, सुगन्धित पेड़-पौधों और जानवरों, ख़ासकर हाथियों के कारण कामरूप क्षेत्र समृद्ध था और मुगलों की इस क्षेत्र पर बुरी नज़र होने के ये भी एक बड़ा कारण था। अहोम ने एक पहाड़ी सरदार को अपने यहाँ शरण दी थी। मुग़ल इस बात से भी उनसे नाराज़ थे। जब शाहजहाँ बीमार हुआ, तब उसके बेटे आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे थे। इस कलह का फायदा उठा कर अहोम राजा जयध्वज सिंघा ने मुगलों को असम से खदेड़ दिया। उन्होंने गुवाहाटी तक फिर से अपना साम्राज्य स्थापित किया। लेकिन, असली दिक्कत तब आई जब मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने उस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बंगाल के सूबेदार मीर जुमला को भेजा।</p><p>मार्च 1662 में मीर जुमला के नेतृत्व में मुगलों को बड़ी सफलता मिली। अहोम के आंतरिक कलह का फायदा उठाते हुए उसने सिमूलगढ़, समधारा और गढ़गाँव पर कब्ज़ा कर लिया। मुगलों को 82 हाथी, 3 लाख सोने-चाँदी के सिक्के, 675 बड़ी बंदूकें 1000 जहाज मिले। उन्होंने इनके अलावा भी कई बहुमूल्य चीजें लूटीं। लेकिन, ठण्ड आते ही मुगलों को वहाँ के मौसम में मुश्किलें आने लगी और उनका दिल्ली से संपर्क टूट गया। मुग़ल वहाँ से भाग खड़े हुए। बारिश का मौसम आते ही मुगलों और अहोम राजा जयध्वज सिंघा में फिर युद्ध हुआ लेकिन अहोम को हार झेलनी पड़ी। मुगलों को 1 लाख रुपए देने पड़े और कई क्षेत्र गँवाने पड़े। ‘ग़िलाजारीघाट की संधि’ अहोम को मज़बूरी में करनी पड़ी। जयध्वज को अपनी बेटी और भतीजी को मुग़ल हरम में भेजना पड़ा, जयध्वज को ये अपमान सहन नहीं हुआ। उनकी मृत्यु हो गई। प्रजा की रक्षा के लिए उन्हें मज़बूरी में विदेशी आक्रांताओं के साथ संधि करनी पड़ी थी। जयध्वज के पुत्र चक्रध्वज ने इसे अपमान के रूप में लिया और मुगलों को खदेड़ना शुरू किया। वो मुगलों को भगाते-भगाते मानस नदी तक ले गए और मीर जुमला ने जितने भी अहोम सैनिकों को बंदी बनाया था, उन सभी को छुड़ा कर ले आए। अहोम ने अपनी खोई हुई ज़मीन फिर से हासिल की। गुवाहाटी से मुगलों को भगाने के बाद मानस नदी को ही सीमा माना गया। इसके बाद चक्रध्वज ने कहा था कि अब वो ठीक से भोजन कर सकते हैं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>अपमानित मुग़लों का नेतृत्व रामसिंह </i></u></span></h3><p>इस अपमान के बाद औरंगज़ेब ने एक बहुत बड़ी फ़ौज राजा रामसिंह के नेतृत्व में असम भेजी लेकिन ऐतिहासिक सरायघाट के युद्ध में लाचित बोरपुखान के हाथों उन्हें भारी हार झेलनी पड़ी। उस युद्ध में गुरु तेगबहादुर सिंह ने रामसिंह को बचा लिया लचित वरफुकन गुरु का शिष्य जैसा था। ऊपर हमने इसी युद्ध की चर्चा की है, जिसके बाद लाचित मुगलों के ख़िलाफ़ अभियान के नए नायक बन कर उभरे। 50,000 से भी अधिक संख्या में आई मुग़ल फ़ौज को हराने के लिए उन्होंने जलयुद्ध की रणनीति अपनाई। ब्रह्मपुत्र नदी और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र को अपनी मजबूती बना कर लाचित ने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए। उन्हें पता था कि ज़मीन पर मुग़ल सेना चाहे जितनी भी तादाद में हो या कितनी भी मजबूत हो, लेकिन, पानी में उन्हें हराया जा सकता है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सेनापति लचित का हमला </i></u></span></h3><p>लाचित ने नदी में मुगलों पर आगे और पीछे, दोनों तरफ से हमला किया। मुग़ल सेना बिखर गई। उनका कमांडर मुन्नवर ख़ान मारा गया। असम सरकार ने 2000 में लाचित बोरपुखान अवॉर्ड की शुरुआत की। ‘नेशनल डिफेंस अकादमी’ से पास हुए सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को ये सम्मान मिलता है। आज भी उनकी प्रतिमाएँ असम में लगी हुई हैं। ऐसे में हमें उन अहोम योद्धाओं को याद करना चाहिए, जिन्होंने मराठाओं और राजपूतों जैसे कई भारतीय समूहों की तरह मुगलों से संघर्ष किया। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>गुरु तेगबहादुर जी का योगदान </i></u></span></h3><p>मुगलों की सेना का नेतृत्व रजा राम सी घ कर रहे थे लेकिन मुग़ल सेना पराजित हुई लच्छित बरफुकन रामसिंह पर भरी पड़ा लेकिन लचित वर्फुकन गुरु तेगबहादुर सिंह का शिष्य था ,गुरूजी ने हिंदुत्व का वास्ता देकर रामसिंह को बचा लिया और मुग़लों को पराजित होकर वापस जाना पड़ा। वास्तविकता यह है कि मुग़लों ने कभी भारत वर्ष पर कभी कोई शासन नहीं किया वे मात्र लुटेरे थे भारतीय राजाओं से समझौते किये और बामी इतिहासकारों ने, इस्लामी इतिहासकारों ने इन्हें पुरे देश का राजा बना दिया जो असत्य है।</p><p>आज भी 24 नवंबर को ‘लाचित दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।</p></div></div><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-11757392529086892742024-02-27T09:20:00.001+05:302024-03-02T07:04:29.584+05:30मुगल-जबड़ों से निकाला हिंदूराज्य छत्रसाल ने <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh4__MpvoC6jEV5sMG6Et6xPWWAQtUzwzwuD20SHSDimk2AeUoN8ZtClp-fnysae0g6pl5g4bcU6pL1xneqNqiA-zo-2x1lfWM6FItsPyAHVQt4ZCqP3evMWFtVhp8ZjYyFl6S3MOKXK8ZU_KB5fDr55-8I38tb2zOcxCCJnc_Zci6nb6IsAsWi5il0Tzo/s1341/FB_IMG_1708483820283.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1341" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhh4__MpvoC6jEV5sMG6Et6xPWWAQtUzwzwuD20SHSDimk2AeUoN8ZtClp-fnysae0g6pl5g4bcU6pL1xneqNqiA-zo-2x1lfWM6FItsPyAHVQt4ZCqP3evMWFtVhp8ZjYyFl6S3MOKXK8ZU_KB5fDr55-8I38tb2zOcxCCJnc_Zci6nb6IsAsWi5il0Tzo/s320/FB_IMG_1708483820283.jpg" width="258" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महाराजा छत्रसाल </i></u></span></h3>इतिहास में ऐसे कई नाम हैं जिनकी गौरव गाथा को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार हैं। ऐसे नामों में सबसे प्रमुख एक नाम बुंदेल केसरी महाराजा छत्रसाल का भी है। भारतीय इतिहासकारों ने बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस अप्रतिम योद्धा के व्यक्तित्व को जनमानस के सामने लाने में कोताही की है, न्याय नहीं किया। यही वजह है कि जीवन भर मुगलों से संघर्ष करते हुए विजय पताका फहराने वाले महापराक्रमी योद्धा को इतिहास में वह स्थान नहीं मिल पाया जो मिलना चाहिए।<p></p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>22 साल की उम्र में मुगलों से लोहा लिया !</i></u></span></h3><p>छत्रसाल मध्ययुग के भारतीय इतिहास का वह नाम है जिसकी बहादुरी, रणकौशल और बुद्धिमत्ता से मुगल बादशाह औरंगजेब भी खौफ खाते थे। तलवार के साथ-साथ कलम के भी धनी रहे इस पराक्रमी योद्धा को गुरिल्ला युद्ध (Guerrilla War) में महारत हासिल थी। उन्होंने पन्ना (Panna) के जंगलों में एक छोटी सेना खड़ी की और मुगलों के अन्याय व अत्याचार के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका। महज 22 साल की उम्र में छत्रसाल ने 5 घुड़सवारों व 25 पैदल सैनिकों की टुकड़ी के साथ मुगलों की सुसज्जित सेना से लोहा लिया और उनको पराजित किया।</p><p>बुंदेलों के बारे में कहा जाता है कि बुंदेला अपनी आन पर मरते थे और शान से जीते थे। बुंदेल वंश (Bundela Dynasty) में ही एक वीर और प्रतापी योद्धा हुए चंपतराय, जिन्होंने तत्कालीन मुगल सत्ता (Mughal Raj) के दमनकारी चक्र का बुंदेलखंड (Bundelkhand) में विरोध का स्वर बुलंद किया। छत्रसाल इन्हीं के पुत्र थे, जिनका जन्म जेष्ठ सुदी तीज संवत 1706 में मुगलों से संघर्ष के दौरान ही मोर पहाड़ी में तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ था। छत्रसाल की माता का नाम लालकुंवरी था। चंपतराय की मृत्यु के बाद छत्रसाल ने जंगलों में रहकर फौज तैयार कर पन्ना राज की स्थापना की। पन्ना राज्य में कुल 14 राजाओं ने शासन किया। बुंदेल केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल के विशाल साम्राज्य बावत यह पंक्तियां कही जाती हैं </p><p>इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस। छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस।।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>स्वतंत्र राज्य स्थापना हेतु छत्रपति शिवाजी ने दी थी प्रेरणा</i></u></span></h3><p>उस समय मुगलों से लोहा लेने वाले शासकों में छत्रपति शिवाजी का नाम प्रमुख है। राष्ट्रीयता के आकाश में छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। सन 1668 में छत्रसाल व छत्रपति शिवाजी की भेंट होती है। इन दो पराक्रमी योद्धाओं की जब मुलाकात हुई, तो छत्रपति शिवाजी उनसे काफी प्रभावित हुए क्योंकि छत्रसाल अपनी मातृभूमि के लिए मुगलों से लड़ना चाहते थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने छत्रसाल के पराक्रम व संकल्प शक्ति को देखकर उन्हें स्वतंत्र राज्य की स्थापना की मंत्रणा दी। शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर छत्रसाल 1670 में वापस अपनी मातृभूमि लौट आए। उस समय बुंदेलखंड के हालात ठीक नहीं थे, ज्यादातर राजा मुगलों से बैर नहीं रखना चाहते थे। जाहिर है कि छत्रसाल को कहीं से मदद व साथ नहीं मिला। लेकिन छत्रसाल पीछे नहीं हटे, उन्होंने मुगलों के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>छत्रसाल के राज्य में नहीं था कोई भेदभाव</i></u></span></h3><p>महाराजा छत्रसाल हर जाति और वर्ग के लोगों को बराबर महत्व देते थे। किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करते थे। उनकी सेना में मुसलमान भी थे और हिंदुओं की विभिन्न जातियों के लोग कंधे से कंधा मिलाकर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड़ते थे। छत्रसाल ने अपने वीर सेनानियों को बिना किसी भेदभाव के जागीरें प्रदान की। उन्होंने बुंदेलखंड के बड़े भू-भाग को मुगलों की दासता से मुक्त कराया। स्वयं कष्ट उठाकर वे प्रजा के प्रति समर्पित रहे और सही अर्थों में प्रजापालक बने। उनके द्वारा दी गई यह शिक्षा आज भी प्रासंगिक है- </p><p>रैयत सब राजी रहे, ताजी रहे सिपाह। छत्रसाल तिन राज्य को, बाल न बांको जाए।।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>52 लड़ाइयां लड़ी, किसी में नहीं हुई हार</i></u></span></h3><p>अपने जीवन काल में छत्रसाल 52 लड़ाइयां लड़ी और किसी भी लड़ाई में उनकी हार नहीं हुई। प्रणामी संप्रदाय के धर्मोपदेशक पंडित खेमराज शर्मा बताते हैं कि लड़ाई में विजय हासिल होने पर चोपड़ा मंदिर के आसपास चोपड़ा का निर्माण कराया जाता रहा है। इस तरह 52 लड़ाइयों की जीत पर यहां 52 चौपड़ों का निर्माण हुआ, जिनमें कई चोपड़ा आज भी मौजूद हैं। श्री शर्मा बताते हैं कि छत्रसाल तलवार और कलम दोनों के धनी थे, इतिहासकार भले ही उनके अनूठे व्यक्तित्व के प्रति न्याय नहीं कर पाए लेकिन साहित्यकार हमेशा उनसे प्रेरणा पाते रहे हैं। उन्होंने उस समय प्रचलित लगभग सभी छंदों में काव्य का सृजन किया है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महामति प्राणनाथ जी से मिला था आशीर्वाद</i></u></span></h3><p>प्रणामी धर्म के प्रणेता महामति प्राणनाथ जी से जब छत्रसाल की भेंट हुई, तो उन्होंने छत्रसाल के पराक्रम व प्रतिभा को पहचाना और अपना आशीर्वाद प्रदान किया। पन्ना शहर के निकट खेजड़ा मंदिर के पास महामति प्राणनाथ जी ने छत्रसाल को एक चमत्कारी तलवार भी भेंट की थी, उन्हीं के कहने पर छत्रसाल ने पन्ना को अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने छत्रसाल को वरदान दिया था कि "हीरे हमेशा आपके राज्य में पाए जाएंगे"। प्राणनाथ जी ने ही छत्रसाल को महाराजा की उपाधि प्रदान की थी। विदुषी श्रीमती कृष्णा शर्मा बताती हैं कि प्रणामी मंदिरों में पांच आरती होती हैं तथा आरती के पहले छत्रसाल का जयकारा होता है। हर मंदिर में यह परंपरा आज भी कायम है।</p><p><br /></p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-69129219765106065272024-02-17T08:49:00.001+05:302024-02-17T08:49:38.400+05:30विश्व में अद्वितीय इतिहास का पन्ना "हांड़ी रानी "<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgezEvHeyesfrVsEkplq4m1ih9I1syAyNDu8plMeiRS4Hh3dSbU7d-yQJ4dHvWuWlcu1xYhcm3LaiJ6LpE_wOZU7Quy-1TMNGntbvBeO5qLJjmT2FgdhnIPB58KcL8m6b3XwhKi0X6SReWjRetMxXu3UB2Mj8f0iwjVUIJCEU0mX-8N8xVfp6aovUorPMVe/s516/Screenshot_20240213-083840~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="348" data-original-width="516" height="216" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgezEvHeyesfrVsEkplq4m1ih9I1syAyNDu8plMeiRS4Hh3dSbU7d-yQJ4dHvWuWlcu1xYhcm3LaiJ6LpE_wOZU7Quy-1TMNGntbvBeO5qLJjmT2FgdhnIPB58KcL8m6b3XwhKi0X6SReWjRetMxXu3UB2Mj8f0iwjVUIJCEU0mX-8N8xVfp6aovUorPMVe/w320-h216/Screenshot_20240213-083840~2.jpg" width="320" /></a></div><br /><h4 style="text-align: left;">"विश्व_इतिहास में एकलौता उदाहरण"</h4><p></p><h4 style="text-align: left;">"हाड़ी-रानी"</h4><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>राजकुमारी रूपकुंवर का महाराणा राजसिंह को पत्र </i></u></span></h3><p>"सिसोदिया कुलभूषण, क्षत्रिय शिरोमणि महाराणा राजसिंह को रूपनगर की राजकुमारी का प्रणाम। महाराज को विदित हो कि मुगल औरंगजेब ने मुझसे विवाह का आदेश भेजा है। आप वर्तमान समय में क्षत्रियों के सर्वमान्य नायक हैं। आप बताएं, क्या पवित्र कुल की यह कन्या उस मलेच्छ का वरण करे? क्या एक राजहंसिनी एक गिद्ध के साथ जाए?</p><p>महाराज! मैं आपसे अपने पाणिग्रहण का निवेदन करती हूँ। मुझे स्वीकार करना या अस्वीकार करना आपके ऊपर है, पर मैंने आपको पति रूप में स्वीकार कर लिया है। अब मेरी रक्षा का भार आपके ऊपर है। आप यदि समय से मेरी रक्षा के लिए न आये तो मुझे आत्महत्या करनी होगी। अब आपकी...." मेवाड़ की राजसभा में रूपनगर के राजपुरोहित ने जब पत्र को पढ़ कर समाप्त किया तो जाने कैसे सभासदों की कमर में बंधी सैकड़ों तलवारें खनखना उठीं। महाराज राजसिंह अब प्रौढ़ हो चुके थे। अब विवाह की न आयु बची थी न इच्छा, किन्तु राजकुमारी के निवेदन को अस्वीकार करना भी सम्भव नहीं था। वह प्रत्येक निर्बल की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने वाले राजपूतों की सभा थी। वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए सैकड़ों बार शीश चढ़ाने वाले क्षत्रियों की सभा थी। फिर एक क्षत्रिय बालिका के इस समर्पण भरे निवेदन को अस्वीकार करना कहाँ सम्भव था! पर विवाह...? महाराणा चिंतित हुए।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महाराणा और राजसभा </i></u></span></h3><p>महाराणा मौन थे पर राजसभा मुखर थी। सब ने सामूहिक स्वर में कहा, "राजकुमारी की प्रतिष्ठा की रक्षा करनी ही होगी महाराज! अन्यथा यह राजसभा भविष्य के सामने सदैव अपराधी बनी कायरों की भाँती खड़ी रहेगी। हमें रूपनगर कूच करना ही होगा। महाराणा ने कुछ देर सोचने के बाद कहा, "हम सभासदों की भावना का सम्मान करते हैं। राजकुमारी की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है और हम अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटेंगे। राजकुमारी की रक्षा के लिए आगे आने का सीधा अर्थ है औरंगजेब से युद्ध करना, सो सभी सरदारों को युद्ध के लिए तैयार होने का सन्देश भेज दिया जाय। हम कल ही रूपनगर के लिए कूच करेंगे। महाराणा रूपनगर के लिए निकले, और इधर औरंगजेब की सेना उदयपुर के लिए निकली। युद्ध अब अवश्यम्भावी था। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>रतन सिंह को महाराणा का सन्देश</i></u></span> </h3><p>सलूम्बर के सरदार रतन सिंह चुण्डावत के यहाँ जब महाराणा का संदेश पहुँचा, तब रतन सिंह घर की स्त्रियों के बीच नवविवाहिता पत्नी के साथ बैठे विवाह के बाद चलने वाले मनोरंजक खेल खेल रहे थे। उनके विवाह को अभी कुल छह दिन हुए थे। उन्होंने जब महाराणा का सन्देश पढ़ा तो काँप उठे। औरंगजेब से युद्ध का अर्थ आत्मोत्सर्ग था, यह वे खूब समझ रहे थे। खेल रुक गया, स्त्रियाँ अपने-अपने कक्षों में चली गईं। सरदार रतन सिंह की आँखों के आगे पत्नी का सुंदर मुखड़ा नाचने लगा। उनकी पत्नी बूंदी के हाड़ा सरदारों की बेटी थी, अद्भुत सौंदर्य की मालकिन...!</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i> रतन सिंह का हांड़ी रानी के प्रति आशक्ति </i></u></span></h3><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjd2my-0o9Tw9kfJnStM5IGJmlWR_nX4L-GLHeDfI4xV5KrWsOr3kxjxfGKG__ue_hPgqh8I0tTomVQDsZ7JXWJcSlyaQKyno7dSV8z__LXJR7YKRHjTCErMkDxEUyX96eHK4twUHkAjz96Kc8my0xvzyL5Z4f6kBjpmIu45NNKvMxSknDTspNzViJzHLd/s619/Screenshot_20240213-083840~3.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="619" data-original-width="518" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjd2my-0o9Tw9kfJnStM5IGJmlWR_nX4L-GLHeDfI4xV5KrWsOr3kxjxfGKG__ue_hPgqh8I0tTomVQDsZ7JXWJcSlyaQKyno7dSV8z__LXJR7YKRHjTCErMkDxEUyX96eHK4twUHkAjz96Kc8my0xvzyL5Z4f6kBjpmIu45NNKvMxSknDTspNzViJzHLd/s320/Screenshot_20240213-083840~3.jpg" width="268" /></a></div><br /> प्रातः काल मे मेघों की ओट में छिपे सूर्य की उलझी हुई किरणों जैसी सुंदर केशराशि, पूर्णिमा के चन्द्र जैसा चमकता ललाट, दही से भरे मिट्टी के कलशों जैसे कपोल, अरुई के पत्ते पर ठहरी जल की दो बड़ी-बड़ी बूंदों सी आँखे, और उनकी रक्षा को खड़ी आल्हा और ऊदल की दो तलवारों सी भौहें, प्रयागराज में गले मिल रही गङ्गा-यमुना की धाराओं की तरह लिपटे दो अधर, नाचते चाक पर कुम्हार के हाथ में खेलती कच्ची सुराही सी गर्दन... ईश्वर ने हाड़ी रानी को जैसे पूरी श्रद्धा से बनाया था। सरदार उन्हें भूल कर युद्ध को कैसे जाता ?<p></p><p>रतन सिंह ने दूत को विश्राम करने के लिए कहा और पत्नी के कक्ष में आये। सप्ताह भर पूर्व वधु बन कर आई हाड़ी रानी से महाराणा का संदेश बताते समय बार-बार काँप उठते थे रतन सिंह, पर रानी के चेहरे की चमक बढ़ती जाती थी। पूरा सन्देश सुनने के बार सोलह वर्ष की हाड़ा राजकुमारी ने कहा, " किसी क्षत्राणी के लिए सबसे सौभाग्य का दिन वही होता है जब वह अपने हाथों से अपने पति के मस्तक पर तिलक लगा कर उन्हें युद्ध भूमि में भेजती है। मैं सौभाग्यशाली हूँ जो विवाह के सप्ताह भर के अंदर ही मुझे यह महान अवसर प्राप्त हो रहा है। निकलने की तैयारी कीजिये सरदार! मैं यहाँ आपकी विजय के लिए प्रार्थना और आपकी वापसी की प्रतीक्षा करूंगी।" रतन सिंह ने उदास शब्दों में कहा, "आपको छोड़ कर जाने की इच्छा नहीं हो रही है।युद्ध क्षेत्र में भी आपकी बड़ी याद आएगी! सोचता हूँ, मेरे बिना आप कैसे रहेंगी।" रानी का मस्तक गर्व से चमक उठा था। कहा," मेरी चिन्ता न कीजिये स्वामी! अपने कर्तव्य की ओर देखिये। मैं वैसे ही रहूंगी जैसे अन्य योद्धाओं की पत्नियाँ रहेंगी। और फिर कितने दिनों की बात ही है, युद्ध के बाद तो पुनः आप मेरे ही संग होंगे न!" रतन सिंह ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे अपनी टुकड़ी को निर्देश देने और युद्ध के लिए कूच करने की तैयारी में लग गए। अगली सुबह प्रस्थान के समय जब रानी ने उन्हें तिलक लगाया तो रतन सिंह ने अनायास ही पत्नी को गले लगा लिया। दोनों मुस्कुराए, फिर रतन सिंह निकल गए।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>रतन सिंह का हांडी रानी को पत्र </i></u></span></h3><p> तीसरे दिन युद्ध भूमि से एक दूत रतन सिंह का पत्र लेकर सलूम्बर पहुँचा। पत्र हाड़ी रानी के लिए था। लिखा था- " आज हमारी सेना युद्ध के पूरी तरह तैयार खड़ी है। सम्भव है दूसरे या तीसरे दिन औरंगजेब की सेना से भेंट हो जाय। महाराणा रूपनगर गए हैं सो उनकी अनुपस्थिति में राज्य की रक्षा हमारे ही जिम्मे है। आपका मुखड़ा पल भर के लिए भी आँखों से ओझल नहीं होता है। आपके निकट था तो कह नहीं पाया, अभी आपसे दूर हूँ तो बिना कहे रहा नहीं जा रहा है। मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूँ। आपका- सरदार रतन सिंह चूंडावत।" रानी पत्र पढ़ कर मुस्कुरा उठीं। किसी से स्वयं के लिए यह सुनना कि "मैं आपको बहुत प्रेम करता हूँ" भाँग से भी अधिक मता देता है। रानी ने उत्तर देने के लिए कागज उठाया और बस इतना ही लिखा-</p><p> "आपकी और केवल आपकी...."</p><p> पत्रवाहक उत्तर ले कर चला गया। दो दिन के बाद पुनः पत्रवाहक रानी के लिए पत्र ले कर आया। इस बार रतन सिंह ने लिखा था-</p><p> "उस दिन के आपके पत्र ने मदहोश कर दिया है। लगता है जैसे मैं आपके पास ही हूँ। हमारी तलवार मुगल सैनिकों के सरों की प्रतीक्षा कर रही है। कल राजकुमारी का महाराणा के साथ विवाह है। औरंगजेब की सेना भी कल तक पहुँच जाएगी। औरंगजेब भड़का हुआ है, सो युद्ध भयानक होगा। मुझे स्वयं की चिन्ता नहीं, केवल आपकी चिन्ता सताती है।" रानी ने पत्र पढ़ा, पर मुस्कुरा न सकीं। आज उन्होंने कोई उत्तर भी नहीं भेजा। पत्रवाहक लौट गया। अगले दिन सन्ध्या के समय पत्रवाहक पुनः पत्र लेकर उपस्थित था। रानी ने उदास हो कर पत्र खोला। लिखा था-</p><p> "औरंगजेब की सेना पहुँच चुकी। प्रातः काल मे ही युद्ध प्रारम्भ हो जाएगा। मैं वापस लौटूंगा या नहीं, यह अब नियति ही जानती है। अब शायद पत्र लिखने का मौका न मिले,सो आज पुनः कहता हूँ, मैंने अपने जीवन मे सबसे अधिक प्रेम आपसे ही किया है। सोचता हूँ, यदि युद्ध में मैं वीरगति प्राप्त कर लूँ तो आपका क्या होगा। एक बात पूछूँ- यदि मैं न रहा तो क्या आप मुझे भूल जाएंगी? आपका- रतन सिंह।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>रतन सिंह को हांडीरानी का संदेश </i></u></span></h3><p>हांड़ी रानी गम्भीर हुईं। वे समझ चुकीं थीं कि रतन सिंह उनके मोह में फँस कर अपने कर्तव्य से दूर हो रहे हैं। उन्होंने पल भर में ही अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उन्होंने सरदार रतन सिंह के नाम एक पत्र लिखा, फिर पत्रवाहक को अपने पास बुलवाया। पत्रवाहक ने जब रानी का मुख देखा तो काँप उठा। शरीर का सारा रक्त जैसे रानी के मुख पर चढ़ आया था, केश हवा में ऐसे उड़ रहे थे जैसे आंधी चल रही हो। सोलह वर्ष की लड़की जैसे साक्षात दुर्गा लग रही थी। उन्होंने गम्भीर स्वर में पत्रवाहक से कहा-"मेरा एक कार्य करोगे भइया?" </p><p>पत्रवाहक के हाथ अनायास ही जुड़ गए थे। कहा, "आदेश करो बहन"</p><p> "मेरा यह पत्र और एक वस्तु सरदार तक पहुँचा दीजिये।"</p><p> पत्रवाहक ने हाँ में सर हिलाया। रानी ने आगे बढ़ कर एक झटके से उसकी कमर से तलवार खींच ली, और एक भरपूर हाथ अपनी ही गर्दन पर चलाया। हाड़ी रानी का शीश कट कर दूर जा गिरा। पत्रवाहक भय से चिल्ला उठा, उसके रोंगटे खड़े गए थे। अगले दिन पत्रवाहक सीधे युद्धभूमि में रतन सिंह के पास पहुँचा और हाड़ी रानी की पोटली दी। रतन सिंह ने मुस्कुराते हुए लकड़ी का वह डब्बा खोला, पर खुलते ही चिल्ला उठे। डब्बे में रानी का कटा हुआ शीश रखा था। सरदार ने जलती हुई आँखों से पत्रवाहक को देखा, तो उसने उनकी ओर रानी का पत्र बढ़ा दिया। रतन सिंह ने पत्र खोल कर देखा। </p><p>लिखा था- "सरदार रतन सिंह के चरणों में उनकी रानी का प्रणाम। आप शायद भूल रहे थे कि मैं आपकी प्रेयसी नहीं पत्नी हूँ। हमने पवित्र अग्नि को साक्षी मान कर फेरे लिए थे सो मैं केवल इस जीवन भर के लिए ही नहीं, अगले सात जन्मों तक के लिए आपकी और केवल आपकी ही हूँ। मेरी चिन्ता आपको आपके कर्तव्य से दूर कर रही थी, इसलिए मैं स्वयं आपसे दूर जा रही हूँ। वहाँ स्वर्ग में बैठ कर आपकी प्रतीक्षा करूँगी। रूपनगर की राजकुमारी के सम्मान की रक्षा आपका प्रथम कर्तव्य है, उसके बाद हम यहाँ मिलेंगे। एक बात कहूँ सरदार? मैंने भी आपसे बहुत प्रेम किया है। उतना, जितना किसी ने न किया होगा।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i> और रतन सिंह </i></u></span></h3><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_5sF2ABuIWHYGsk7fXeI4krvaM9EmdYXMfCfppRInfvyhSOhIV4YWYFzh_G-_T01ZpUGQ1eE_yA8CApRlLYSFcPW2FPAHzyCaGOJAgM7z7cJaHTLiCZpVNHnif9fa5p6ZMtI1uefWy-dl5akXP2gapScgvVWNsOnVG54X9PNN3AOezMsZP-CkCAuOBW4Z/s1177/FB_IMG_1707793607943.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1177" data-original-width="945" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_5sF2ABuIWHYGsk7fXeI4krvaM9EmdYXMfCfppRInfvyhSOhIV4YWYFzh_G-_T01ZpUGQ1eE_yA8CApRlLYSFcPW2FPAHzyCaGOJAgM7z7cJaHTLiCZpVNHnif9fa5p6ZMtI1uefWy-dl5akXP2gapScgvVWNsOnVG54X9PNN3AOezMsZP-CkCAuOBW4Z/s320/FB_IMG_1707793607943.jpg" width="257" /></a></div>रतन सिंह की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वे कुछ समय तक तड़पते रहे, फिर जाने क्यों मुस्कुरा उठे। उनका मस्तक ऊँचा हो गया था, उनकी छाती चौड़ी हो गयी थी। उसके बाद तो जैसे समय भी ठहर कर रतन सिंह की तलवार की धार देखता रहा था। तीन दिन तक चले युद्ध में राजपूतों की सेना विजयी हुई थी, और इस युद्ध मे सबसे अधिक रक्त सरदार रतन सिंह की तलवार ने ही पिया था। वह अंतिम सांस तक लड़ा था। जब-जब शत्रु के शस्त्र उसका शरीर छूते, वह मुस्कुरा उठता था। एक-एक करके उसके अंग कटते गए, और अंत मे वह अमर हुआ।<p></p><p>रूपनगर की राजकुमारी मेवाड़ की छोटी रानी बन कर पूरी प्रतिष्ठा के साथ उदयपुर में उतर चुकी थीं। राजपूत युद्ध भले अनेक बार हारे हों, प्रतिष्ठा कभी नहीं हारे। राजकुमारी की प्रतिष्ठा भी अमर हुई। महाराणा राजसिंह और राजकुमारी रूपवती के प्रेम की कहानी मुझे ज्ञात नहीं। मुझे तो हाड़ी रानी का मूल नाम भी नहीं पता। हाँ! यह देश हाड़ा सरदारों की उस सोलह वर्ष की बेटी का ऋणी है, यह जानता हूँ मैं।</p><p>#ऐसी होती है भारतीय नारी#</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-75796918143334805322024-02-10T19:25:00.002+05:302024-02-17T08:45:41.340+05:30महान हिंदू साम्राज्य (खालसा) के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfGHjo_akIXeg3vJGQ4KQ8qr7B7b8tPlBD4EthZ1xpCTf6ye-AMoje6uXMfhYj8Rhr56fUnSmJHPuKznwL11sv1JmVs2gH2gQWC936fpNlr_htM8_qC4-bBWdDAibQf62yku9d8FaYGKfv8-ClMcUzHECLjBa3wfWTBihA_X0OVETFfOSyZ5X56jNty81g/s676/Screenshot_20240209-075355~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="676" data-original-width="519" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgfGHjo_akIXeg3vJGQ4KQ8qr7B7b8tPlBD4EthZ1xpCTf6ye-AMoje6uXMfhYj8Rhr56fUnSmJHPuKznwL11sv1JmVs2gH2gQWC936fpNlr_htM8_qC4-bBWdDAibQf62yku9d8FaYGKfv8-ClMcUzHECLjBa3wfWTBihA_X0OVETFfOSyZ5X56jNty81g/w246-h320/Screenshot_20240209-075355~2.jpg" width="246" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i><br /></i></u></span><span style="color: red;"><u><i>18 साल की उम्र में लाहौर जीतने वाले महाराजा रणजीत सिंह की कहानी</i></u></span></h3><p></p><p>जब भी देश के इतिहास में महान राजाओं के बारे में बात होगी तो शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का नाम इसमें जरूर आएगा। महाराजा रणजीत सिंह ने 10 साल की उम्र में पहला युद्ध लड़ा था वहीं 18 साल की उम्र में लाहौर को जीत लिया था। 40 वर्षों तक के अपने शासन में उन्होंने अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आसपास भी नहीं फटकने दिया, इसके बाद 1802 में उन्होंने अमृतसर को अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1807 में उन्होंने अफगानी शासक कुतुबुद्दीन को हराकर कसूर पर कब्जा किया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>साम्राज्य का विस्तार</i></u></span></h3><p>रणजीत सिंह ने अपनी सेना के साथ आक्रमण कर 1818 में मुल्तान और 1819 में कश्मीर पर कब्जा कर उसे भी सिख साम्राज्य का हिस्सा बन गया। महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर-मुस्लिम ने राज किया। अफगानों और सिखों के बीच 1813 और 1837 के बीच कई युद्ध हुए। 1837 में जमरुद का युद्ध उनके बीच आखिरी भिड़ंत थी। इस भिड़ंत में रणजीत सिंह के एक बेहतरीन सिपाहसालार हरि सिंह नलवा मारे गए थे। दशकों तक शासन के बाद रणजीत सिंह का 1839 को निधन हो गया, लेकिन उनकी वीर गाथाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>शेरे पंजाब </i></u></span></h3><p>खालसा साम्राज्य के वे पहले महाराजा थे जो शेरे पंजाब के नाम से प्रसिद्ध थे महाराजा रणजीत सिंह का जन्म महाराजा महा सिंह माता राजकौर के यहां 13 नवंबर 1780 को गुजरवाला में हुआ। महाराजा रणजीत सिंह एक ऐसे राजा थे जिन्होंने पूरे पंजाब को ही एकजुट नहीं किया बल्कि जीते जी पंजाब में अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आस पास फटकने नहीं दिया। खालसा साम्राज्य की केवल स्थापना ही नहीं किया बल्कि लेह, लद्दाख, जम्मू कश्मीर और अफगानिस्तान तक खालसा यानी हिन्दू साम्राज्य का विस्तार किया। जब वे 12 वर्ष के थे पिता जी का स्वर्गवास हो गया सारे साम्राज्य का बोझ अपने ऊपर आ गया। 12 अप्रेल 1801को महाराजा की उपाधि ग्रहण किया, गुरु नानक देव जी के वंश के लोगों ने ही इनकी ताजपोशी की और महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी राजधानी लाहौर बनाया।महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानिस्तान तक के प्रत्येक मोर्चे पर दिग्विजयी पराक्रमी योद्धाओं जैसे हरिसिंह नलवा, जनरल जोरावर सिंह और राजागुलाब सिंह जैसे लोगों को नियुक्त किया । और पेशावर समेत पश्तून पर अधिकार कर लिया उसके बाद जम्मू कश्मीर लद्दाख और अफगानिस्तान तक अधिकार कर लिया। फिर जैसे को तैसा जबाब दिया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>योद्धाओं के निर्माता</i></u></span></h3><p>महाराजा रणजीत सिंह ने पहली बार सिख खालसा सेना गठित किया, महाराजा स्वयं अनपढ थे लेकिन उन्होंने शिक्षा और कला को बढ़ावा दिया । बहुमूल्य कोहिनूर हीरा उनके मुकुट की सोभा हुआ करता था, उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार कराया और शिखर गुम्बद को स्वर्ण जड़ित कराया। उन्होंने अपने जीवन में बड़े-बड़े योद्धाओं का निर्माण किया जिसमें हरिसिंह नलवा, जनरल जोरावर सिंह, राजा गुलाब सिंह प्रमुख थे, आगे चलकर ये सब बड़े बड़े राजा हुए, हरिसिंह नलवा ऐसा था जिनके नाम से आज भी अफगानिस्तान में बच्चों को माताएं डरवाती हैं "सो जा बेटे नहीं तो नलवा आ जायेगा"। </p><p>महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु 1839 में हुई उनकी समाधि स्थल आज भी लाहौर में मौजूद है।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-26240364983648444602024-01-27T09:38:00.001+05:302024-02-29T11:26:44.691+05:30शिवाजी की योजनाबद्ध आगरा गए थे। वे औरंगजेब का वध औरंगजेब के वध कर हिंदवी साम्राज्य स्थापित करना चाहते थे !<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1Ju_oysQFcrxT6Oy1xXWRES02NjuXhaqFHSqWFQYhimPjFE6qoT1omS-0YE7bATvCAIfTMC6qpa_S8iYSvQnjVDlKqNUnefkgy0vvcrW0crWPGzqrasUYHZrd9jsHEztP5a3pCjHe8dstmRXSAxMEHB2rMJPDGmReP7Fxyxq26gu4b4vVQJtNNl4_PiDs/s475/FB_IMG_1708488192446.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="475" data-original-width="454" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1Ju_oysQFcrxT6Oy1xXWRES02NjuXhaqFHSqWFQYhimPjFE6qoT1omS-0YE7bATvCAIfTMC6qpa_S8iYSvQnjVDlKqNUnefkgy0vvcrW0crWPGzqrasUYHZrd9jsHEztP5a3pCjHe8dstmRXSAxMEHB2rMJPDGmReP7Fxyxq26gu4b4vVQJtNNl4_PiDs/s320/FB_IMG_1708488192446.jpg" width="306" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;">छत्रपति शिवाजी की जयंतीपर विशेष</h3><p></p><p>शिवाजी महाराज को औरंगजेब की कैद से मुक्त करवाने में वीरवर दुर्गादास राठौड़ व आमेर नरेश जयसिंह जी की भूमिका।</p><p>वीर दुर्गादास राठौड़ शिवाजी की महाराष्ट्र में रहते हुए पूर्ण योजना बन चुकी थी। उसी समय औरंगजेब को शक हो गया की जसवंत सिंह मारवाड़ शिवाजी से मिल गया है। अतः अतः महाराष्ट्र से जसवंत सिंह जी को हटाकर आमेर के कच्छावा जय सिंह को नियुक्त कर दिया । पुरंदर की संधि के बाद शिवाजी को जयसिंह ने वीर दुर्गादास राठौड़ की योजना अनुसार ही आगरा भेजने के लिए तैयार किया। 5 मार्च 1666 को शिवाजी 100 सेवक ढाई सौ मराठा अंगरक्षक (100 घुड़सवार 150 पैदल ) 10 बंजारे ऊंट बैल गाड़ियों सहित दल के रसद आपूर्ति के लिए रवाना हुए इनके साथ सरदार गज सिंह की कमान में 4000 चुनिंदा कछवाहा घुड़सवार भी थे। वह सारे कछवाहा घुड़सवार और उनके घोड़े पीतल के कवच और लोहे की कड़ियों के जिरह बख्तर से लैस थे। समस्त घोड़े इराकी अरबी नस्ल के थे। और घुड़सवार ओं की आयु 25 वर्ष से अधिक नहीं थी। इनमें एक भी घुड़सवार साढे 6 फुट से कम ऊंचाई का नहीं था। आवश्यकता पड़ने पर शत्रु विनाशक कमांडो दस्ता शिवाजी की पूर्ण सुरक्षा करता हुआ वह साथ चल रहा था।</p><p>वीर दुर्गादास राठौड़ से गुप्त सूचना के आधार पर 12 मई 1666 को औरंगजेब का 50 वां जन्मदिन था। इसी अवसर पर वह आगरा के तख्ते हाउस पर बैठकर भारत का वास्तविक बादशाह है यह साबित करना चाहता था।</p><p> पूरे भारत के राजे रजवाड़े इस दिन बादशाह को मुबारकबाद और भेंट देने के बहाने एकत्रित होने वाले थे शिवाजी महाराज योजनाबद्ध ऐसी चाल चले कि 11 मई को आगरा के निकट "मलिक की सराय" में डेरा लगाया । यह रास्ता उन्होंने 2 माह है 6 दिन में पूरा किया 12 मई को आमेर नरेश जय सिंह जी का कुंवर राम सिंह इन्हें लेने आया और ताजमहल के निकट अपने महल के सामने मैदान में तंबू में ठहराया। उधर मारवाड़ के जसवंत सिंह और दुर्गादास राठौड़ बड़ी बारीकी से स्थिति पर नजर रखे हुए थे। हर क्षण उनका गुप्तचर विभाग हर क्षण की स्थिति से उन्हें अवगत करा रहा था। अब सोचने वाली बात यह है कि क्या बिना सोचे समझे और बिना सुरक्षा के यूं ही शिवाजी 500 मील दूर से यात्रा करके आगरा गुलामी स्वीकार करने पहुंचे थे! प्रत्यक्ष रूप में माना ढाई सौ 300 लोगों के सहारे शिवाजी खूंखार, चालाक, निर्दयी, कपटी और धूर्त औरंगजेब के पास "आगरा" शेर की मांद में वह स्वयं भी जा पहुंचे थे। वहां शिवाजी इतिहास निर्माण करते हुए आगरा पहुंचे थे । औरंगजेब के 50वें जन्म दिवस के अवसर पर राज्यरोहण के दिन ही तख्त हाउस पर बैठे भारतेश्वर अर्थात शंहशाह औरंगजेब का भरे दरबार में भारत के समस्त राजा महाराजाओं व नवाबों के सामने हत्या करना ऐसी योजना। उसी तख्ते हाउस की खातिर जिस औरंगजेब ने अपने जन्मदाता शाहजहां को कैद कर लिया था अपने भाइयों की निर्मम हत्या कर दी थी। "उस पर हिंदू पद पादशाही की स्थापना करना एक ही दिन में भारत माता को विदेशी मुगलों की बेड़ियों से मुक्त कराना और हिंदू साम्राज्य की घोषणा करना क्योंकि यह संभव था! कि शिवाजी के साथ वीर दुर्गादास राठौड़ की योजना के अनुसार 4000 कछवाहा राजपूतों के साथ आगरा में जय सिंह के पुत्र राम सिंह के साथ 10000 राजपूत पहले से तैनात थे। साथ में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह के साथ दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में 25000 राठौड़ राजपूत आगरा के चप्पे-चप्पे में नियुक्त थे। जैसलमेर, बीकानेर, झालावाड़ और मालवा के राजाओं के साथ आगरा में मौजूद थे जिनकी संख्या सारे भारत से आए मुगलों, पठानों से अधिक थी। शंकालु औरंगजेब मुगलों को भारत के ही प्रांतों में अधिक मात्रा में रहने के आदेश दिए थे। राज्यरोहण के दिन अवसर का लाभ उठाकर अन्य प्रांतों में कहीं विरोध भड़क न उठे। औरंगजेब कांईयां व शंकालु प्रवृत्ति का था। उसके सारे जासूस आगरा में फैले हुए थे। उसे पता था कि प्रत्येक मैदान में राजपूत राजाओं ने शिविर गाड़ दिए हैं सारे अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हैं। औरंगजेब के जासूसों ने हिंदू राजाओं से भी शिवाजी के भेंट के समाचार औरंगजेब को दे दिए थे। यह कहना कि सारे राजे रजवाड़े मुगलों की चाटुकारिता करते थे यह गलत है सभी संगठित और अवसर की प्रतीक्षा में थे। लेकिन यह हो न सका विधि ने कुछ और ही लिखा था।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-68081843583835482162024-01-20T07:52:00.001+05:302024-01-21T19:52:42.143+05:30 हिंदू धर्म में जगद्गुरुओं की परंपरा और उनके कर्तव्य।<h3 style="text-align: left;"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQ-kZRvAbZCKkpDZGX3FfOy3EBGHXUj_HZr8qfg8wvJYJDywSxu2VHsvtUtKP_yAQK__oazfzCZSrcnSMCcSjv0288ZHPnbATva7K4uU7T3OWWgWClb21Gtq9QrbRV2vPEPJ9h4BnWhQNxzGYMAbOGbsVL3c7Q4KnuyOjW7XUgLQEifsfpZwR012pVFoPQ/s597/Screenshot_20240108-074754~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="597" data-original-width="500" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQ-kZRvAbZCKkpDZGX3FfOy3EBGHXUj_HZr8qfg8wvJYJDywSxu2VHsvtUtKP_yAQK__oazfzCZSrcnSMCcSjv0288ZHPnbATva7K4uU7T3OWWgWClb21Gtq9QrbRV2vPEPJ9h4BnWhQNxzGYMAbOGbsVL3c7Q4KnuyOjW7XUgLQEifsfpZwR012pVFoPQ/s320/Screenshot_20240108-074754~2.jpg" width="268" /></a></div><br /><span style="color: red;"><u><i>महाभारत के पूर्व का वैदिक काल</i></u></span></h3><p>गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि जब-जब धर्म की हानि होती है अधर्म बढ़ता है तब-तब मैं आता हूँ और वे आये भी! कभी आदि शंकर के रूप मे तो कभी रामानुज, कभी रामानंद तो कभी ऋषि दयानन्द के रूप में और अपना कार्य करते हुए चले गये। उसी क्रम में हिंदू समाज के अंदर राष्ट्रीय हित में जगद्गुरु की परंपरा कोई 2500 वर्ष पूर्व शुरू हुई। इस प्रकार सनातन धर्म में कई प्रकार के दर्शन, सोध और शास्त्रार्थ के आधार हुए हैं। यहां ऐसा नहीं है कि जो किसी पैगम्बर ने कोई विषय, परंपरा तय कर दिया तो वही शास्वत रहने वाला है। यहां सैकड़ों, हज़ारों वर्षों की तपस्चर्या, साधना व सोध के आधार पर ये दर्शन, मत और पंथ बने हैं। यह बात सत्य है कि शंकर मत अद्वेत का प्रथम मत माना जा सकता है, महाभारत काल के पहले सनातन धर्म में कोई सम्प्रदाय नहीं था लेकिन शास्त्रार्थ होता था जिसे ज्ञान मार्ग कहा जा सकता है। वैदिक काल में सारा मानव जगत वेदानुसार जीवन ब्यतीत करता था। महाभारत के शान्ति पर्व में जब धर्मराज युधिष्ठिर वाण शैया पर पड़े भीष्म पितामह से उपदेश ग्रहण करने जाते हैं तो भीष्म पितामह कहते हैं: हे पुत्र, "न राज्यम न राजाशीत न दंडो न दण्डिका" वे कहते हैं कि पुत्र उस समय जब वैदिक काल था तब न कोई राजा था न कोई राज्य था न कोई गलत कार्य करता था न कोई दण्डाधिकारी ही था। इस वैदिक काल में लोग धर्मानुसार जीवन जीते थे। कोई मत पंथ और संप्रदाय नहीं था न कोई जगद्गुरु था।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महाभारत के पश्चात</i></u></span></h3><p>महाभारत काल आज के पांच हजार वर्ष पूर्व का काल था उस समय भी कोई जातीय भेदभाव व व्यवस्था नहीं था, कोई मत पन्थ न होने के कारण कोई भेद भी नहीं था। यह शास्वत सत्य है कि नित्य नूतन खोज सनातन धर्म यानी हिंदू समाज की विशेषता रही है। महाभारत काल के सबसे बड़े आचार्य वेदव्यास जी थे ऐसी मान्यता है कि वे चारों वेदों के ज्ञाता थे लेकिन उनका झुकाव भक्ति मार्ग की ओर अधिक था। उसी समय एक और आचार्य हुए और यदि यह कहा जाय कि वे उनके शिष्यों में से एक थे जिनका नाम था याज्ञवल्क्य। याज्ञवल्क्य ज्ञान मार्गी थे वे "अहं ब्रम्हास्मि" यानी "ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या" के पक्षधर थे। महाभारत में वड़ी संख्या में योद्धा, संत ज्ञानी, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे कितने विद्वान वीर योद्धा समाप्त हो गए कहना कठिन है। एक पुस्तक में वैदिक विद्वान गुरूदत्त लिखते हैं कि महाभारत में इतनी हानि हुई थी कि महिलाएं ही महिलाएं दिखाई देती थीं इतना ही नहीं तो जीवकोपार्जन के लिए बहुत स्थानों पर वेश्या वृत्ति शुरू हो गई थी। इस कारण वैदिक धर्म संस्कृति का भी वड़ा ह्रास हुआ था। आगे चलकर आर्यावर्त में धार्मिक हिंसाचार फैल गया था, महाभारत के कोई दो हजार वर्ष बाद गौतम बुद्ध नामक एक सन्यासी का जन्म होता है। उनकी कुछ कारणों से शिक्षा दीक्षा नहीं हुई थी जबकि वे राजा के लड़के थे, उन्होंने शान्ति का मार्ग खोजा महाबीर और महात्मा बुद्ध दोनों ने नास्तिक मार्ग को अपनाया। सनातन धर्म में प्रथम बार ये मत सम्प्रदाय शुरू हो गया। लेकिन यह दुर्भाग्य पूर्ण रहा भगवान बुद्ध और महावीर स्वामी दोनों वैदिक सिद्धांत मानते थे न कि वेद विरुद्ध थे धीरे धीरे उनके अनुयायी वेद विरोधी होते चले गए। अराष्ट्रीयता की भावना घर करने लगी और एक समय ऐसा आया कि ये सारे देश में वैदिक साहित्य नष्ट करने लगे, मंदिरों को भी ध्वस्त करने लगे देश में अराजकता का वातावरण होने लगा। उसी समय दक्षिण में एक शंकर नामक बालक का जन्म केरल के कालड़ी नामक गाँव में जन्म हुआ।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>आदि जगद्गुरु शंकराचार्य</i></u></span></h3><p>केरल के कालड़ी नामक गाँव में शंकर नामक बालक का जन्म हुआ यही बालक आगे चलकर आदि जगद्गुरु शांकराचार्य के नाम से विख्यात हुआ। चार वर्ष में ही उस बालक को वेद-उपनिषदों का अध्ययन ही नहीं कंठस्थ हो गया लोगों ने उनके अंदर ईश्वर को देखा। उन्हें अल्प आयु मिली केवल 32 वर्ष की आयु में स्वर्ग चले गए, उन्होंने पूर्व से पश्चिम और उत्तर हिमालय से दक्षिण केरल तक की अनवरत शास्त्रार्थ यात्रा किया। उज्जैन के राजा सुंधवा ने उन्हें अपनी सेना भी साथ रखने के लिए दिया। उन्होंने शंकराचार्य की उपाधि ग्रहण किया शास्त्रार्थ द्वारा सभी नास्तिक मतों को परास्त कर वैदिक धर्म का प्रचार किया जो राजा महाराजा बौद्ध अथवा जैन हो गए थे सभी वैदिक मतावलंबी हो गए। पूरे आर्यावर्त में वैदिक ध्वजा फहराने लगी। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य भारत के प्रथम आचार्य थे जो अविवाहित थे उन्होंने अविवाहित सन्यासियों की श्रृंखला ही खड़ी कर दिया। देश के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना कर देश को सुरक्षित रखने का काम किया। वास्तविकता यह है कि आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने कोई सम्प्रदाय नहीं खड़ा किया बल्कि हिंदू धर्म रक्षार्थ एक धार्मिक सेना ही खड़ी कर दिया। उस समय पूरे आर्यावर्त की जनसंख्या कोई एक करोड़ रही होगी इसलिए चार शंकराचार्य पर्याप्त रहे होंगे। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>वैष्णव सम्प्रदाय व अन्य</i></u></span></h3><p>कहते हैं कि कुमारिल भट्ट जब नर्मदा घाटी में गोविंदपाद से मिलने पहुँचे तो कुमारिल ने उनसे पूछा कि आचार्य "एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति" इसका अर्थ क्या है? पुत्र एक ही सत्य है जिसे पंडित ज्ञानी लोग विभिन्न प्रकार से अर्थ करके बताते हैं। फिर उन्होंने पूछा कि आचार्य वह सत्य क्या है तो गोविंदपाद कहते हैं कि पुत्र वह सत्य वेद है। लेकिन किसी का खंडन नहीं करना मंडन करना । यानी सभी को वैदिक सिद्ध करने का काम करने चाहिए क्योंकि सभी कुछ ज्ञान वेदों में ही है। </p><p>इसी क्रम में आदि जगद्गुरु रामानुजाचार्य ने हिंदू धर्म रक्षार्थ ने द्वैत परंपरा का प्रतिपादन किया जहां आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने अद्वैतवाद की प्रस्तुति किया वहीं रामानुजाचार्य ने द्वैतवाद फिर रामानंद स्वामी ने विशिष्टाद्वैत की परंपरा शुरू किया। वास्तविकता यह है कि अपने-अपने समय के आचार्यों ने अपने अपने तरीके से धर्म व देश रक्षार्थ जो काम किया वे सभी सम्प्रदाय बनाते चले गए। और ये सारे के सारे सम्प्रदाय द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, शैव, वैष्णव, कबीर, रविदासी, नानक पंथी, गोरक्षनाथ पंथ, शाक्त संप्रदाय, बल्लभ संप्रदाय, निंबार्क संप्रदाय, मध्वाचार्य ऐसे इस प्रकार सनातन धर्म में कोई सौ से अधिक मत सम्प्रदाय हैं सभी के अपने-अपने जगद्गुरु हैं। कोई किसी से छोटा अथवा बड़ा नहीं है इसलिए किसी को यह कहने का अधिकार नही है कि मैं सबसे बड़ा हूँ, सनातन धर्म में एक ब्रम्ह को सभी मानते हैं "मुंडे मुंड मतिर्भिन्ना" की मान्यता है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>विकृति कहाँ से ?</i></u></span></h3><p>देश में जब इस्लामिक काल आया हिंदू समाज संघर्ष कर रहा था जिसका नेतृत्व समय-समय पर हमारे संत महात्मा, राजा, महाराजा कर रहे थे। उस काल में विकृति आना स्वाभाविक था हमारे किसी संत अथवा महापुरुष ने कोई सम्प्रदाय नहीं शुरु किया बल्कि धर्म व राष्ट्र बचाने के लिए संघर्ष का रास्ता तय किया आगे चलकर उनके अनुयायियों ने उसे सम्प्रदाय घोषित कर दिया जैसे लश्करी सम्प्रदाय आखिर ये कौन सम्प्रदाय है नागा साधुओं का अर्थ क्या है? तो ये सब हिंदू धर्म के लिए संघर्ष करने वाली सेनाओं के नाम हैं जिसे आज हम सम्प्रदाय के नाते जान रहे हैं। मैं प्रयाग में आरएसएस का जिला प्रचारक था या घटना 1986 से 1991 की है, प्रयागराज के दुर्बासा खंड में गंगाजी के किनारे एक आश्रम था जिसे दुर्बासा आश्रम के नाम से जाना जाता था, वहाँ एक त्रिदंडी स्वामी रहा करते थे उनकी उस क्षेत्र में बड़ी मान्यता थी वे बड़े विद्वान थे। उन्होंने एक बार मुझसे कहा कि आपको पता है कि जगदगुरुओं के पास सोने चांदी के "छत्र और चँवर" कब से और कहाँ से आई? मैंने कहा नहीं स्वामी जी मुझे नहीं पता फिर उन्होंने बोलना शुरू किया! ये मुगलों ने किया! वह कैसे? उन्होंने बताया कि पूरे देश में कभी भी मुगलों का राज नहीं था उन्होंने हिंदू राजाओं से समझौते किये इतना ही नहीं उन्हें यह भी ध्यान में था कि भारतीय संतों के प्रति भारतीयों में बड़ी श्रद्धा है, उसने उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए बड़े बड़े संतों को अपने दरबार में बुलाया और षड्यंत्र रचा भोला भाला बनकर अकबर ने कहा महराज हम तो राजा हैं लेकिन आप सभी महाराजा है, हम सोने चांदी के बर्तनों में खाते हैं सोने चांदी का मुकुट पहनते हैं आप सभी के पास कुछ भी नहीं है यह हमें अच्छा नहीं लग रहा है। उसने सभी जगदगुरुओं को सोने चांदी का छत्र-चँवर भेंट कर दिया हमारे संतों को लगा कि हमारे हिंदू राजाओं ने तो हमारी चिन्ता की ही नहीं ये तो मलेक्ष होकर भी हमारा सम्मान कर रहा है। अब हम ध्यान दे सकते हैं कि धीरे धीरे ये सब लोग मुगलों के प्रति श्रद्धा रखने लगे। जबकि चाहे रामानुजाचार्य हो वल्लभाचार्य हो अथवा रामानंदाचार्य हो या कोई अन्य संत सभी ने अपने धर्म व देश की रक्षा के लिए ही संघर्ष किया है। ध्यान में आता है कि राजपूताना ने चित्तौड़ के नेतृत्व में लगभग 1200 वर्षों तक भारत वर्ष की ढाल बनकर इस्लामी अक्रमणकारियो से लड़ता रहा लेकिन शंकराचार्यों की कोई भूमिका दिखाई नहीं देती जबकि मेवाड़ तो एकलिंग भगवान का पुजारी था।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>ब्रिटिश काल</i></u></span></h3><p>इसका परिणाम यह हुआ कि मुगलों के समय से धीरे धीरे इन संतो को समझाया गया कि धर्म और राजनीतिक अलग अलग है जबकि कटु सत्य यह है कि "बिना स्वराज्य के स्वधर्म का पालन संभव नहीं हो सकता।" परिणामस्वरूप सारे बड़े बड़े संत अपने धन संपत्ति की सुरक्षा में लग गए और आम जनता से संतों की दूरी बढ़ती गई। इसका प्रत्यक्ष दर्शन तब होता है जब ऋषि दयानंद सरस्वती सभी राजाओं महाराजाओं के यहां भ्रमण करते हैं वे शास्त्रार्थ करते हैं फिर सामंतो से देश के आजादी की बात करते हैं परिणाम स्वरूप अंग्रेजों के कान खड़े हो जाते हैं। अंग्रेजी सरकार स्वामी जी के पीछे खुफिया एजेंसी लगा देती है इतना ही नहीं तो जहाँ वे जाते वहां के जिलाधिकारी व अन्य अधिकारी पहुँच जाते। जिस प्रकार आदि जगद्गुरु शंकराचार्य, आदि जगद्गुरु रामानुजाचार्य, आदि जगद्गुरु रामानंदाचार्य अपने धर्म को बचाने देश को सुरक्षित रखने के लिए अपने अपने तरीके से संघर्ष किया हज़ारों हज़ार साधू सन्यासियों को खड़ा कर दिया ठीक उसी प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू समाज के जागरण उसमे आयी विकृति और देशभक्ति के लिए एक तंत्र खड़ा करने शुरू कर दिया। अब अंग्रेजों को यह बात बर्दास्त नहीं हो रहा था उन्होंने बड़ी योजनाबद्ध तरीके से प्रचार करना शुरू कर दिया कि ये स्वामी दयानंद सरस्वती हिंदू विरोधी है, मूर्ति पूजा विरोधी है ये तो अंग्रेजों का आदमी है देखिए न ये जहाँ जाता है वहां कलेक्टर अंग्रेज अधिकारी पहुँचे रहते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि देश आजादी में यदि किसी एक महापुरुष को श्रेय दिया जा सकता है तो उसका नाम ऋषि दयानंद सरस्वती का ही होगा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>देश पर संकट और जगद्गुरु </i></u></span></h3><p>पूरा राजपुताना संघर्षरत रहा ये आचार्य कहीं दिखाई नहीं देते, क्षत्रपति शिवाजी महराज, संभाजी महराज युद्ध पर युद्ध लड़ रहे हैं तब भी ये सब कहीं नहीं दिखे जबकि समर्थगुरु रामदास जी गांव -गांव मे हनुमान जी की स्थापना कर समस्त मराठो का जागरण करते दिखाई देते हैं। आजादी के संघर्ष में कोई जगद्गुरु शंकराचार्य दिखाई नहीं देते आखिर क्यों ? देश विभाजन के समय ये सब कहाँ थे? देश विभाजन के समय लाखों हिन्दुओं का संहार हुआ, हज़ारों बहनो को नंगाकर जुलूस निकाला गया बलात्कार हुए तब ये शांकराचार्य कहाँ थे ? मोपला, नोआखाली, कोलकाता मे हिन्दू नर संहार होता रहा आपकी बोलती बंद क्यों थी ? देश खंड-खंड होता रहा आप सोने चांदी के छत्र घुमाते रहे। तो उसके पीछे मुगलों का षड्यंत्र ध्यान में आता है कि धर्म से राजनीति का क्या लेना देना है जबकि प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि जो मत सम्प्रदाय पाकिस्तानी क्षेत्र में पड़ गए या तो सभी समाप्त हो गया नहीं तो भागकर हिंदू देश भारत में आ बसे, इसलिए बिना धर्म के न तो राजनीति हो सकती है और न ही बिना राजनीति के धर्म का पालन किया जा सकता है। अब हम श्री राम जन्मभूमि की ओर लौटते हैं इन मुस्लिम शासकों, लुटेरों ने अयोध्या, मथुरा, काशी के मंदिरों को ढहाया, बलात धर्मांतरण कराया उस समय ये सब जगद्गुरु शंकराचार्य कहाँ चले गए थे ? दिपावली के पर्व पर आधी रात को कांची के शांकराचार्य को गिरफ्तार किया गया उस समय ये आचार्य कहाँ थे? जबकि भारत के शीर्ष नेता आंदोलित थे। देश आजादी के पश्चात कश्मीरी हिन्दुओं का नर संहार और कश्मीर से पलायन हो रहा था उस समय ये सब आचार्य कहाँ थे? श्रीराम जन्मभूमि, श्री कृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ मंदिर की चिंता इन जगदगुरुओं ने क्यों नहीं किया? हां जब श्री राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन शुरू किया गया उस समय के एकाध रामानुजाचार्य इत्यादि संत खड़े हुए और संघर्ष भी किये लेकिन शैव मत के आचार्य जगद्गुरु तो दिखाई ही नहीं दिये हाँ जो दिखाई दिये ''बद्रिकाआश्रम के शंकराचार्य बासुदेवानंद सरस्वती'', काँची कामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी महराज! लेकिन ये लोग तो इन्हें फर्जी शंकराचार्य बता रहे हैं इसका मतलब यही है न कि शैव परंपरा के आचार्यों शंकराचार्यों का राम मंदिर से कोई लेना देना नहीं है उनके अंदर की आत्मा गुलामी मानसिकता जो मुगलों द्वारा प्राप्त हुई अभी छोड़ नहीं पाए हैं। जो अपने को सर्वश्रेष्ठ बता रहे हैं ये उनकी अज्ञानता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है क्योंकि सनातन धर्म में सौ से ऊपर सम्प्रदाय हैं और सबके अपने-अपने जगद्गुरु भी है वे सभी अपने को श्रेष्ठ मानते हैं और हैं भी। इसलिए इस समय श्री राम जन्मभूमि प्राण प्रतिष्ठा के बारे में कुछ बोलना हिंदू समाज का अपमान करने जैसा है यह बात ठीक है कि कुछ शंकराचार्य पोप की मानसिक गुलामी में लगे रहते हैं उन्हें अब समय के साथ उससे बाहर निकल आना चाहिए। </p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-60108875545883187282024-01-07T12:16:00.001+05:302024-01-07T12:16:00.135+05:30जनजाति समाज-हिंदू संस्कृति की कुंजी <h2 style="text-align: left;"><span style="color: red;"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmgjHXxHJBEJvqc2K8Z4rkJWe4BYa6eoN9oaHsSdypszGt3-axWdfI85w3UiH54ZX9uaUgJ-r3Ah8YsFbVVUCdlFgOuqzxr1XG2DL8pZvstDm2BkYLPkoonF20ffySg1DbAely6O5jNGWVICJvAdP87_NcU0TWzLlfaSYsXUr61H0H72XVYpFvdNwG-kRI/s654/Screenshot_20231122-185839~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="654" data-original-width="545" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmgjHXxHJBEJvqc2K8Z4rkJWe4BYa6eoN9oaHsSdypszGt3-axWdfI85w3UiH54ZX9uaUgJ-r3Ah8YsFbVVUCdlFgOuqzxr1XG2DL8pZvstDm2BkYLPkoonF20ffySg1DbAely6O5jNGWVICJvAdP87_NcU0TWzLlfaSYsXUr61H0H72XVYpFvdNwG-kRI/s320/Screenshot_20231122-185839~2.jpg" width="267" /></a></div><br />जनजाति और सनातन धर्म </span></h2><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कौन हैं जनजाति--?</i></u></span></h3><p>जाति और जनजाति मानसिकता भारतीय मानसिकता न होकर औपनिवेशिक मानसिकता है जिसके जाल में भारतीय समाज फंस गया है, हमें इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने की आवश्यकता है। 2013-14 में झारखंड में धर्म जागरण समन्वय के जनजातीय परियोजनाओं की बैठक चक्रधरपुर (जमशेदपुर) में हुई जिसमें 'सबर जनजाति' के कार्यकर्ता भी आये थे उनके सामने चुनौती थी कि उनके महापुरुष कौन हैं ? उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? कुछ पता नहीं था। लेकिन जब ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है तो ध्यान में आता है कि ये तो कहीं न कहीं ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वर्ण के ही थे, कहीं न कहीं विश्वामित्र के वंशज हैं। सात्विक नियमों के पालन न कर पाने के कारण शूद्र वर्ण में चले गए लेकिन अछूत नहीं क्योंकि हिंदू वांग्मय में छुवाछुत था ही नहीं और इसका कोई उल्लेख किसी धर्म ग्रंथों में नहीं मिलता ! डा. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शूद्रों की खोज" में लिखा है कि ये वो शुद्र नहीं है क्योंकि उस समय वर्ण व्यवस्था थी लेकिन ऊंच नीच, भेद भाव नहीं था। आगे वे इसी पुस्तक में लिखते हैं कि छुआ छूत इस्लामिक काल की देन है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>ब्राह्मण ग्रंथों का मत --!</i></u></span></h3><p>जब हम अपने विभिन्न धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है कि जनजाति हमारे ही पूर्वज हैं।यजुर्वेद में एक स्थान पर वर्णन है कि कीरत गुफाओं में रहते थे और पहाड़ पर आते रहते थे। 'पंचविंश ब्राह्मण' और 'शतपथ ब्राह्मण' (11.4.14) किरातों के एक विशिष्ट परिवार 'कीरत कुल' की ओर संकेत करते हैं, जिसके अनुसार वे इस देश के मूलवासी थे। कीरत शब्द पहाड़ों, जंगलों और पहाड़ों की गुफाओं में निवास करने और शिकार करने वालों के लिए प्रयोग किया जाता था। उन्हें जंगली गैर आर्य माना जाता था। "आर्य" का अर्थ कोई जाति व वर्ण नहीं बल्कि संस्कार से लिया जाता था, यानी गैर जनजातीय समुदाय के लिए संस्कृति शब्द "आर्य" का प्रयोग किया जाता था। उन्हें जंगली असभ्य आर्य (जनजाति) माना जाता था।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महर्षि मनु क्या कहते हैं ?</i></u></span></h3><p>यहां यह बताना आवस्यक है कि कुछ जनजातियों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से माना जाता है और कुछ का क्षत्रियों से। "मनुस्मृति" के अनुसार कम से कम बारह जातियाँ-- पौंड्रक, औद, द्रविड़, कंबोज, यवन, शक, परद, पहलव, चीना, कीरत, दरद, और खस ये जातियाँ क्षत्रिय से शूद्र वर्ण व्यवस्था में गिर गई क्योंकि इन्होंने पवित्र अनुष्ठानों का पालन नहीं किया, धार्मिक कर्तब्यों और वेदों में दिये गए आदेशों की अवहेलना की, धार्मिक आदेशों और नियमों का उलंघन किया और ब्राह्मणों से परामर्श भी नहीं लिया। जो जातियां आर्य श्रेणी में नीचे गिर गई उन्हें प्रारंभ में व्रात्य कहा जाता था, लेकिन बाद में उन्हें दस्यु, म्लेच्छ, शूद्र इत्यादि नामों से पुकारा जाने लगा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>औपनिवेशिक काल</i></u></span></h3><p>आधुनिक युग में मनुष्यों की सारीरिक बौद्धिक अथवा नैतिक विशेषताओं में वर्गीकरण को अकादमिक क्षेत्र में अन्ततः संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है। इसलिए औपनिवेशिक काल में प्रस्तावित जातीय सिद्धांतों को हम कोई महत्व नहीं देते हैं, क्योंकि ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भारतीयों की अद्भुत क्षमता को देखकर उन्होंने भेद पैदा करने का काम किया और वामपंथी विचारधारा के लेखकों ने बढ़-चढ़ कर हिंदू समाज में भेद पैदा करने, ग्रंथों का गलत तरीके से परिभाषित करने का काम किया जो हमारी ताकत थी उसी को कमजोरी बताने का काम किया। लेकिन इनके कई जातीय पूर्वग्रह धोखे से हमारे विद्वत वर्ग व विस्तृत समाज में भी प्रवेश कर गए है। और अक्सर अनजाने में गंभीर विद्वानों द्वारा भी प्रयोग किया जाता है। इसलिए हम भारतीयों के औपनिवेशिक जातीय वर्गीकरण और चर्च और साम्राज्य के लिए उसके महत्व पर लघु दृष्टि डालेगें।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>वैदिक ऋषि और राजा</i></u></span></h3><p>कीरतों में विंध्य क्षेत्र की पुलिंद, सबर और मुटिबा जैसी सजातिय जनजातियां सामिल हैं, जिन्हें पारंपरिक रूप से प्रसिद्ध वैदिक ऋषि विश्वामित्र के पचास पुत्रों का वंशज माना जाता है। अपने पिता द्वारा ब्राह्मण वर्ण से से निकाले जाने के पश्चात उन्हें दस्यु निर्वासित कहा जाने लगा। 'दस्युनाम भुथिस्था' (ऐतरेय ब्राह्मण) के अनुसार इनमें से कुछ सीमांत क्षेत्र के म्लेच्छों से मिल गए, अन्य दक्षिण की ओर चले गए और उनके वंशज पुलिंद, सबर, और मुटिबा कहलाये। अनेक ब्राह्मण और पौराणिक परम्परायें बताती हैं कि अनेक आर्य वर्ण की जनजातियों को उनके जंगली रहन सहन और रीति-रिवाजों का पालन न करने के कारण पुनः अनार्य वर्गीय परिवार होते गये ।</p><p>राजा ययाति ने भी तुर्वसु को जो यवन और म्लेच्छों से मिलता था, सहित अपने बेटों को निर्वासित कर दिया। राजा सगर ने शक, यवन और कांबोजों को गैर वैदिक कहकर विभिन्न दिशाओं में भगा दिया। यवन पदच्युत क्षत्रिय थे। 'मनावधर्मशास्त्र'के अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि स्थानीय मलेच्छ क्षत्रिय वर्ण के थे और धार्मिक कर्तव्य नहीं निभा पाने के कारण उन्हें इस वर्ण से पदच्युत किया गया। स्थानीय जनजातियों ने जैसे कीरत, द्रविड़, अभीर, शिवि, त्रिगर्त और यौधेय व्रत्य (पदच्युत) क्षत्रिय थे (थापर:1984: 164-5)</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कई जनजाति ब्राह्मणों से</i></u></span></h3><p>कीरत, जिनमें सभ्य और असभ्य ब्राह्मण व गैर ब्राह्मण शामिल थे, विंध्य क्षेत्र के विशाल जंगलों में मिल-जुल कर रहते थे। इनमें निषाद भी शामिल थे। एक इतिहासकार कहते हैं कि मतंग नामक एक कीरत ने यज्ञोपवीत धारण कर राजवाहन नामक राजकुमार से कहा कि वह एक ब्राह्मण का पुत्र है। राजकुमार को जंगल में मगध (राजधानी पुष्पपुरा) के राजा राजहंस ने भेजा था, जिसने वहां मालवा के राजा मानसर से पराजित होकर बाद में शरण ली थी। मतंग का आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात राजकुमार ने उससे पूछा कि वह क्यों इस भयानक जंगल में रह रहा है ? जबकि यज्ञोपवीत से तो ब्राह्मण लगता है, उसके सारे शरीर में घाव लगने के कारण उसे कीरत कहते हैं। मतंग ने कहा जंगल में कई ऐसे लोग हैं, जो केवल नाम के ब्राह्मण हैं, क्योंकि वे जाति नियमों का पालन नहीं करते और जंगलियों, वनचर जैसे रहते हैं। हालांकि अनेक ऐसे भी हैं जो बहुत सभ्य हैं, शास्त्र और तंत्र पढ़ते हैं और ब्राह्मणों की रक्षा भी करते हैं।</p><p>एक और घटना जिसका वर्णन इस प्रकार मिलता है, मिथिला का राजा, मगध के राजा का निकट का सहयोगी यानी मित्र था मिथिला के राजा प्रहारवर्मन जब मालवा के राजा से पराजित होकर अपनी राजधानी लौट रहा था तो उसने एक संकटपूर्ण जंगली रास्ते से गुजरते हुए किरतों और सवरों (मूल रूप से विंध्य जनजातियां) की देवी चण्डिका या दुर्गा के प्रति निष्ठा देखी जिससे उनकी ब्राह्मण उत्पत्ति सिद्ध हो गई। विद्वानों का मानना है कि दंडिन द्वारा इस घटना का वर्णन प्रामाणिक और अत्यंत ऐतिहासिक महत्व का है, क्योंकि बर्बरता और ब्राह्मणवाद का एक ही जनजातीय समुदाय में ऐसा अनोखा सम्लित और कहीं नहीं मिलता। इसके अलावा यह "महर्षि मनु" की ब्याख्या को भी प्रमाणित करता है। इसलिए सुनीत कुमार चटर्जी चेतावनी देते हैं कि, "जब किसी पुराने भारतीय मूल-पाठ में गैर-आर्य अथवा विदेशियों को गिरे हुए क्षत्रिय वर्ण के रूप में बताया जाता है तो इसके पीछे सदैव यह अभिप्राय है कि वे कम से कम सभ्यता या सैन्य संगठन में आगे थे और इसलिए उन्हें केवल बर्बर कहकर अस्वीकार नहीं किया जा सकता।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हिमालयी राज्यों में शासक</i></u></span></h3><p>कीरत हिमालय की घाटियों के निवासी थे और उन्होंने नेपाल में लंबे समय तक चलने वाली एक राजवंश की स्थापना की। वे उत्तराखंड के वर्तमान में अल्मोड़ा, नैनीताल और पिथौरागढ़ क्षेत्र में रहते थे, जहां प्राचीन काल से लोग रहते आ रहे हैं। 'कल्कि पुराण' में उन्हें कामरूप का मूल निवासी बताया गया है। कश्मीर में "कल्हण" (1148-50 ईसवी) 'राजतरंगिणी' में एक स्थानीय वन जनजाति के रूप में इनका उल्लेख किया है। दक्षिण में कीरत जैसे बोया और बेड़ा हिंदू समाज के कपास का काम करने वाले थे। वे स्वयं को 'निषादुलु' 'निषादु' के वैद्य वंशज बताते थे। अंग्रेजों ने जंगली जनजातियों के रूप में उनका वर्गीकरण किया, जो ब्राह्मणों को पुरोहित के रूप में रखते थे।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>महाभारत कालीन</i></u></span></h3><p>उत्तर पूर्व में अनेक अत्यंत प्राचीन कीरत जनजातियां हैं जैसे--नागा (नागालैंड) गारो, खासी, जैंतिया (मेघालय, असम, त्रिपुरा) अका, मिसमिस (अरुणांचल) कछारी (असम) चुटिया(असम) हिल-टिप्पये (अरुणांचल) जहॉ तक मिशमिस जनजाति का है तो उसका संबंध ब्रह्मकुंड से है, जो सुदूर पूर्व में हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता है। जिसे परसुराम कुण्ड के नाम से भी जानते हैं, कहते है कि परसुराम ने इसी कुंड में अपने परसु को धोया था जिसकी बहुत मान्यता है सम्पूर्ण देश भर से लोग यहां आते हैं। इस क्षेत्र में किरतों की आदि कालीन जड़े उनके राजा "घटक" तक जाती है, जिन्हें "नरक" ने पराजित किया था और जिन्होंने चाइना व अन्य जनजाति सहित महाभारत के युद्ध में नरक के उत्तराधिकारी, "राजा भगदत्त" की सेना की ओर से युद्ध करने गया था। (महा. सभा पर्व-उद्दोग पर्व) </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>वर्ण व्यवस्था के अंग</i></u></span></h3><p>सातवीं शताब्दी के एक वर्णन में किरतों को विंध्य पर्वत की भिल्ल, लुब्धक और मतंग जनजातियों को समान रूप बताया गया है। "दंडिन" बल देते हैं कि कीरत और सबर एक ही है, ये सभी पर्वतारोही और जंगलों में रहने वाले थे, धनुर्धर और लड़ाकू सबर कहलाये, जबकि शिकारी पुलिंदा थे। "कल्हण की राजतरंगिणी" किरतों की भीलों, विंध्य पर्वत और राजस्थान की एक स्थानीय जनजाति से संबंध की पुष्टि करती है। 'कीचक' जो नेपाल और भूटान के बीच पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे और मैसूर के 'बेदर' भी 'कीरत' ही थे। इस प्रकार जब हम अध्ययन करते हैं तो ध्यान में आता है कि ये पहले आर्यों के प्रचलित वर्ण व्यवस्था के अंग थे उसमे ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण से आते थे। जैसा कि सनातन धर्म में वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था थी कोई भी किसी वर्ण का हो सकता था सभी को वेदाध्ययन का अधिकार था सभी गुरुकुलों में पड़ने जाते थे और उनकी क्षमता -योग्यता के अनुसार उनका वर्ण निर्धारण होता था। </p><p>श्रीअरविंद के शब्दों में--!</p><p>"वह समस्त आध्यत्मिक उपासना और अनुभव का संश्लेषण बन गई, अपने अनेक पक्षों में से एक सत्य का अवलोकन किया, स्वयं को कोई विशिष्ट नाम या सीमित करने वाली विशिष्टता ने देकर अपने निरंतर चलने वाले पंथों और विभाजनों को केवल पदवालियाँ दी। अपनी मूल भूत विशेषता में, अपने पारंपरिक धर्मग्रंथों, संप्रदायों और चिन्हों के माध्यम से विशिष्ट रूप से भिन्न यह एक सैद्धांतिक धर्म न होकर आध्यात्मिक संस्कृति की विस्तृत, सर्वव्यापक और एकीकृत करने वाली प्रणाली है।"</p><p>जाति का उदय</p><p>बहुत सारे ऋषियों-मुनियों और विचारकों का मत है कि जाति का उदय विभिन्न समूहों के एकीकरण, माध्यम और आपसी मतभेद सुलझाने के तंत्र के रूप में हुआ था।जैसे-जैसे प्राचीन रीति रिवाजों का विस्तार हुआ मानवजातीय अंतर समाप्त और जनजातियों और अन्य समुदायों ने स्वयं को जातियों के केंद्र के इर्द-गिर्द भली-भाँति समायोजित कर लिया। क्योंकि इस एकता ने सभी को अपने मे समेट लिया, इसलिए जातियां भारतीय समाज का एक मात्र और पर्याप्त बंधन अथवा सुरक्षा कवच सिद्ध हुई। इसी भूमि की उपज होने के कारण हिंदू धर्म वंशानुगत सिद्धांतों के व्यवहारों पर बल देता है। जन्म और आनुवंशिकता का विचार अत्यंत महत्वपूर्ण वन गया और सभी हिंदू समाज के लिए गोत्र अनिवार्य हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि जैसा जनजातियों में पूर्वजों की आत्मा का आह्वान सभी संस्कारों में किया जाता था जो लंबे समय से चले आ रहे अनुवांशिक गुणों के कारण व्यक्ति के संस्कारों का योग्य होने के प्रतीक थे। अतः इस कार्य में उन लोगों के साथ आध्यात्मिक समानुभूति शामिल है, 'जिन्होंने हमें पैदा किया है।'</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-67675592356775857932023-12-29T05:00:00.001+05:302023-12-29T05:00:00.130+05:30सावरकर का सच...!<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCakY71gHsxlqTfCFGhTOMbHdduCCfc40lnqXRyhPAdAsnTOexuFbi6yI6neAm0qDA04_opoB5Bc4m8yoNs98u6UAH-0_k5BEwl3bDYXSrnR1jsP57uCVtTfEviQ_2GOes9eTeyK-A2Ymv1J2l-ZQFVQX4rkxSUMTN2HFIpYg_yuuHxYXj7Ee2SetW6lzo/s1350/FB_IMG_1692445504345.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1350" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgCakY71gHsxlqTfCFGhTOMbHdduCCfc40lnqXRyhPAdAsnTOexuFbi6yI6neAm0qDA04_opoB5Bc4m8yoNs98u6UAH-0_k5BEwl3bDYXSrnR1jsP57uCVtTfEviQ_2GOes9eTeyK-A2Ymv1J2l-ZQFVQX4rkxSUMTN2HFIpYg_yuuHxYXj7Ee2SetW6lzo/s320/FB_IMG_1692445504345.jpg" width="256" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>इतिहास में छुपाया गया एक सच ...वीर सावरकर !</i></u></span></h3><p></p><p>45 साल के महात्मा गाँधी 1915 में भारत आते हैं, 2 दशक से भी ज्यादा दक्षिण अफ्रीका में बिता कर ! गांधी अफ्रीका क्या करने गए थे ? आजादी की लड़ाई के लिए अथवा देश सेवा के लिए तो नहीं गए थे ! वे वकालत करने अथवा पैसा कमाने के लिए ही गए थे। गाँधी को क्यों प्लांट किया गया? यह भी शोध का विषय है! और क्यों गाँधी ने नेहरू का चयन किया यह भी शोध का विषय है। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को क्यों सैनिक अपराधी घोषित किया गया यह भी देश के सामने आना चाहिए, देश विभाजन के बाद क्रांतिकारियों का अपमान क्यों किया गया? क्या कोई कांग्रेसी नेता आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूमा! अथवा वह जेल के सलाखों के पीछे गया यह भी शोध का विषय है, ऐसा क्या कारण है कि जिसका आजादी में कोई योगदान नहीं रहा उन्हीं लोगों को श्रेय दिया गया ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिसे आने वाली पीढ़ियों को बताना होगा नहीं तो आने वाली पीढ़ी को आजादी की कीमत समझ में नहीं आएगी। गांधी के अफ्रीका से आने के चार साल पहले 28 वर्ष का एक युवक अंडमान में एक काल कोठरी में बन्द होता है। अंग्रेज उससे दिन भर कोल्हू में बैल की जगह हाँकते हुए तेल पेरवाते हैं, रस्सी बटवाते हैं और छिलके कूटवाते हैं। वो तमाम कैदियों को शिक्षित कर रहा होता है, उनमें राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ प्रगाढ़ कर रहा होता है और साथ ही दीवालों कर कील, काँटों और नाखून से साहित्य की रचना कर रहा होता है। उसका नाम था- विनायक दामोदर सावरकर।</p><p>उन्हें भी कई बार आत्महत्या के ख्याल आते। उस खिड़की की ओर एक-टक देखते रहते थे, जहाँ से अन्य कैदियों ने पहले आत्महत्या की थी। पीड़ा असह्य हो रही थी। यातनाओं की सीमा पार हो रही थी। अंधेरा उन कोठरियों में ही नहीं, दिलोदिमाग पर भी छाया हुआ था। दिन भर बैल की जगह कोल्हू घुमाते रहो, रात को करवट बदलते रहो। 11 साल ऐसे ही बीते। कैदी उनकी इतनी इज्जत करते थे कि मना करने पर भी उनके बर्तन, कपड़े वगैरह धो देते थे, उनके काम में मदद करते थे। सावरकर से अँग्रेज बाकी कैदियों को दूर रखने की कोशिश करते थे। अंत में बुद्धि को विजय हुई तो उन्होंने अन्य कैदियों को भी आत्महत्या से विमुख किया। लेकिन नहीं, महा गँवारों का कहना है कि सावरकर ने मर्सी पेटिशन लिखा, सॉरी कहा, माफ़ी माँगी। क्या अब इस कसौटी पर क्रांतिकारियों को तौला जाएगा? शेर जब बड़ी छलाँग लगाता है तो कुछ कदम पीछे लेता ही है। उस समय उनके मन में क्या था, आगे की क्या रणनीति थी- ये आज कुछ लोग अपने घरों में बैठे-बैठे जान जाते हैं।</p><h4 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><i>कौन ऐसा स्वतंत्रता सेनानी है जिसे 11 साल कालापानी की सज़ा मिली हो। नेहरू ? गाँधी ? ..कौन ?</i></span></h4><p style="text-align: left;">नानासाहब पेशवा, महारानी लक्ष्मीबाई और वीर कुँवर सिंह जैसे कितने ही वीर इतिहास में दबे हुए थे। 1857 को सिपाही विद्रोह बताया गया था। तब इसके पर्दाफाश के लिए 20-22 साल का एक युवक लंदन की एक लाइब्रेरी का किसी तरह एक्सेस लेकर और दिन-रात लग कर अँग्रेजों के एक के बाद एक दस्तावेज पढ़ कर सच्चाई की तह तक जा रहा था, जो भारतवासियों से छिपाया गया था। उसने साबित कर दिया कि वो सैनिक विद्रोह नहीं, प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। उसके सभी अमर बलिदानियों की गाथा उसने जन-जन तक पहुँचाई। भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों ने मिल कर उसे पढ़ा, अनुवाद किया।</p><p>दुनिया में कौन सी ऐसी किताब है जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था? अँग्रेज कितने डरे हुए थे उससे कि हर वो इंतजाम किया गया, जिससे वो पुस्तक भारत न पहुँचे। जब किसी तरह पहुँची तो क्रांति की ज्वाला में घी की आहुति पड़ गई। कलम और दिमाग, दोनों से अँग्रेजों से लड़ने वाले सावरकर थे। दलितों के उत्थान के लिए काम करने वाले सावरकर थे। 11 साल कालकोठरी में बंद रहने वाले सावरकर थे। क्रांतिकारियों की नर्सरी थे सावरकर ! क्रांतिकारियों की मिसाइल थे सावरकर ! क्रांतिकारियों के प्रेरक थे सावरकर ! क्रांतिकारियों के दिलों की धड़कन थे सावरकर ! निराशा में आशा की किरण थे सावरकर, हिंदुत्व को पुनर्जीवित कर के राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले सावरकर थे। साहित्य की विधा में पारंगत योद्धा सावरकर थे।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>आज़ादी के बाद क्या मिला उन्हें ? अपमान ! </i></u></span></h3><p> नेहरू व मौलाना अबुल कलाम जैसों ने तो मलाई चाटी सत्ता की, सावरकर को गाँधी हत्या केस में फँसा दिया। गिरफ़्तार किया। पेंशन तक नहीं दिया। प्रताड़ित किया। भारत आजादी के बाद भी उन्हें एक देशद्रोही मुजरिमों की तरह परेशान किया गया । हर मौके पर उन्हें अपमानित करना , दुर्व्यवहार करना तत्कालीन कांग्रेस दैनिक दिनचर्या थी। 60 के दशक में उन्हें फिर गिरफ्तार किया, आदरणीय सवारकर जी प्रतिबंध लगा दिया जाता था। उन्हें सार्वजनिक सभाओं में जाने से मना कर दिया गया। ये सब उसी भारत में हुआ, जिसकी स्वतंत्रता के लिए उन्होंने अपना जीवन खपा दिया। आज़ादी के मतवाले से उसकी आज़ादी उसी देश में छीन ली गई, जिसे उसने आज़ाद करवाने में योगदान दिया था। उस असंवेदन शील कांग्रेसी झुंड में धरतीपुत्र, गरीबों के हमदर्द, देश के सच्चे सपूत आदरणीय लाल बहादुर शास्त्री जी जैसे बलिदानियों की सुध लेने वाले एक महान इंसान भी थे। जब शास्त्री जी प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने आदरणीय सवारकर जी के लिए पेंशन की व्यवस्था किया। वीर सावरकर जी का जितना अपमान नेहरू ने किया उसे भारतीय सामाज कभी माफ नहीं करेगा और यह सावरकर का अपमान नहीं बल्कि देश के क्रान्तिकारियों का अपमान है। और नेहरू के वंशज यह बोलने में कोई गुरेज नहीं करते कि मैं सावरकर थोड़े हूं! अरे सावरकर होना तुम्हारे बस की बात नहीं है और तुम्हारे पूर्वज भी सावरकर बनने की कूवत नहीं रखते थे। वो कालापानी में कैदियों को समझाते थे कि धीरज रखो, एक दिन आएगा जब ये जगह तीर्थस्थल बन जाएगी। आज भले ही हमारा पूरे विश्व में मजाक बन रहा हो, एक समय ऐसा होगा जब लोग कहेंगे कि देखो, इन्हीं कालकोठरियों में हिंदुस्तानी कैदी बन्द थे। सावरकर कहते थे कि तब उन्हीं कैदियों की यहाँ प्रतिमाएँ होंगी। आज आप अंडमान जाते हैं तो सीधा 'वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट' पर उतरते हैं। सेल्युलर जेल में उनकी प्रतिमा लगी है। उस कमरे में प्रधानमंत्री भी जाकर ध्यान धरते हैं, जिसमें वीर सावरकर को रखा गया था। </p><p>आज कुछ नेता सावरकर जी पर कमेंट करते हैं कि "मैं सावरकर थोड़े हूं!" अरे सावरकर होना तुम्हारे बस का नहीं है और तुम्हारे पूर्वजों के बस का भी नहीं था। तुम्हारे पूर्वज तो केवल और केवल अंग्रेजों के दलाल थे और इसके शिवा कुछ भी नहीं! नेहरू तो अंग्रेजों की योजना से प्रधानमन्त्री बना था न कि भारतीय जनता ने बनाया था। इसलिए बोलते समय किसके बारे में बोल रहे हैं ध्यान रखना चाहिए, लेकिन यह भी आप नहीं कर सकते क्योंकि यह अपेक्षा किसी भारतीय से ही की जा सकती है न कि किसी विदेशी डीएनए के व्यक्ति से।</p><p><span style="color: red;"><u><i>ह्रदय से नमन वीर विनायक दामोदर सावरकर जी</i></u></span> </p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-90926711497322759922023-12-20T06:00:00.001+05:302023-12-20T06:00:00.141+05:30विभाजन की विभीषिका और सरदार पटेल<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYX9xoO5CQXJQkh5q6MQJTtcn5tN8EgOhCLRQTFYSy9P3ZLend8ADQdhB8xCR3bdQgNLrFLA0Mw4vB54HY7yZGfDQrfCkhhNx4FrJswUvMn7HWRvxDqjdXOrro29Byln5PyC3DM0aIGvlPVms_MqcUEUQCxo-po-4RurocrtqeZkGlg-U2ko2zEgcdfE-M/s247/Screenshot_20231107-162743~3.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="158" data-original-width="247" height="205" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYX9xoO5CQXJQkh5q6MQJTtcn5tN8EgOhCLRQTFYSy9P3ZLend8ADQdhB8xCR3bdQgNLrFLA0Mw4vB54HY7yZGfDQrfCkhhNx4FrJswUvMn7HWRvxDqjdXOrro29Byln5PyC3DM0aIGvlPVms_MqcUEUQCxo-po-4RurocrtqeZkGlg-U2ko2zEgcdfE-M/w320-h205/Screenshot_20231107-162743~3.jpg" width="320" /></a></div><br />सरदार पटेल गाँधी के शिष्य होने के कारण उनका भी संस्कार पहले मुस्लिम तुष्टिकरण का ही था, पटेल ने भी देश विभाजन के विषय पर कहा कि हम लोग बूढ़े हो गए थे, थक गए थे, इस कारण हमने देश विभाजन स्वीकार कर लिया। लेकिन ज्यों-ज्यों देश विभाजन की ओर बढ़ने लगा और मुसलमानों ने अपना चरित्र दिखाना शुरू किया त्यों-त्यों पटेल के विचारों में परिपक्वता आना दिखाई देता है। उन्होंने कलकत्ता हिंदुओं का नरसंहार, नोआखाली के हिंदुओं की हत्या और बलात धर्मांतरण, पंजाब में मुसलमानों के कृत्य कश्मीर जूनागढ़ और हैदराबाद की सारी घटनाओं से पटेल की आँखे खुलने लगी लेकिन गाँधी, नेहरु पर कोई असर नहीं पड़ा। गाँधी की हालत यह थी कि वे खिलाफत आंदोलन के पहली बैठक में गए हुए थे और साथ में स्वामी श्रद्धानंद को भी ले गए थे, जब मुल्लाओं ने काफिरों की हत्या का ऐलान किया तो स्वामी श्रद्धानंद ने सतर्क किया लेकिन गाँधी ने कहा नहीं ये अंग्रेजों के लिए कह रहे हैं। इसी पर डॉ आंबेडकर गांधी के लिए कहते हैं कि ये सब इल्लिट्रेट हैं। तो वास्तविकता यह है कि इस्लाम को गाँधी और नेहरू ने समझा ही नहीं बल्कि पटेल को बाद में समझदारी आ गई थी।<p></p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>संविधान सभा में</i></u></span></h3><p>देश आजादी के पहले और आजादी के बाद सरदार पटेल बखूबी मुस्लिम समाज को पहचान चुके थे वे किसी की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने वाले नहीं थे। दूसरी ओर मौलाना आजाद मुसलमानों के मास्टर माइंड थे पीछे से वे ही सब करवाते थे। संविधान सभा में बहस चल रही थी, तभी मुस्लिम रिजर्व सीटों की मांग करते हुए कांग्रेस के नजीरुद्दीन अहमद ने संविधान सभा में बड़ी चालाकी से कहा, "हिंदू बड़े भाई हैं और मुसलमान छोटे भाई, यदि बड़े भाई अपने छोटे भाई की मांग स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हें अपने छोटे भाई का प्यार मिलेगा, नहीं तो वे हमारा प्यार गवां बैठेंगे।" ज्ञातव्य हो कि इस मांग के अंदरखाने में मौलाना आजाद थे। सरदार पटेल पर ऐसी मीठी बातों का कोई असर नहीं होता था। यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के पहले और आजादी के पश्चात मुसलमानों की मानसिकता को सरदार पटेल से बेहतर कोई नहीं समझ सकता था। सरदार वल्लभ भाई पटेल मुसलमानों की इस चालाकी भरी मांग पर जबाब देने के लिए खड़े हुए, पटेल ने संविधान सभा को सम्बोधित करते हुए कहा--: "यहां बहुत मीठी मीठी बातें हो गई लेकिन इसके अंदर जहर की खुराक भी मिली हुई है। मैं छोटे भाइयों यानी मुसलमानों का प्रेम गवां देने के लिए तैयार हूँ, हमने आपका प्यार देख (भुगत) लिया है।आपको अपनी हरकतों में परिवर्तन करना चाहिए, नहीं तो आपकी मांग मानने से बड़े भाई यानी हिंदुओं की मौत हो सकती है। आप लोग यह तय कीजिए कि आप देश को सहयोग देना चाहते हैं या फिर तोड़-फोड़ की चालें अजमाना चाहते हैं। मैं आपसे हृदय परिवर्तन की अपील करता हूँ, कोरी बातों से कोई काम नहीं चलेगा। आप अपनी मानसिकता पर फिर से विचार करें, आपको जो चाहिए था, वह पाकिस्तान के रूप में आपको मिल गया है। याद रखिये, पाकिस्तान के निवासी नहीं बल्कि आप लोग ही पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। आप लोग ही पाकिस्तान आंदोलन के अगुवा थे, अब आप को क्या चाहिए ? हमें सब पता है। हम नहीं चाहते कि देश का फिर से बटवारा हो जाय। जिन्हें पाकिस्तान चाहिए था, उन्हें मिल गया है। जिनकी श्रद्धा पाकिस्तान में है, वे वहाँ चले जाय और सुख से रहें।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>उत्तर प्रदेश में मुस्लिम कर्मचारियों को पाकिस्तान भेजने की मांग</i></u></span></h3><p>जब पटेल ने मुसलमानों को आयना दिखाया तो सभी सकते में आ गए, क्योंकि सरदार ने यह बड़ी कड़ी बात साफ-साफ कही कि जिनकी पाकिस्तान में श्रद्धा है वे पाकिस्तान चले जांय। आजादी के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश में यह मांग जोर पकड़ने लगी कि मुस्लिम लीग के समर्थक रहे मुस्लिम कर्मचारियों को पाकिस्तान भेज देना चाहिए इस मांग का सरदार पटेल ने पूरी तरह समर्थन किया। उन्होंने गोविंद मालवीय को एक पत्र लिखा--: "मैंने दस महीने के अपने अनुभव से यह जाना है कि मुसलमान कर्मचारी सरकार के प्रति पूरी तरह से बेवफ़ा रहे हैं। इनके रहते कारगर ढ़ंग से या निष्पक्ष होकर शासन चलाना असंभव था। इनकी पूरी शक्ति विघटनकारी गतिविधियों में लगी है, ये लोग नियम तोड़ने से भी नहीं डरते। इसलिए हम कोशिश कर रहे हैं कि नौकरियों में मौजूद ऐसे सभी तत्व पाकिस्तान चले जायँ। भारत सरकार के प्रति निष्ठा रखना पहली शर्त है और देशद्रोह बर्दास्त नहीं किया जाएगा।" सरदार पटेल को दोहरे मोर्चे पर संघर्ष करना पड़ता था, एक जो गजवाये हिन्द का सपना संजोये मौलाना आजाद जो "जमाते इस्लामी हिन्द" के अध्यक्ष थे वे योजनाबद्ध तरीके से भारत में रह गए दूसरे गांधी और नेहरू दो तरफा विरोध झेल रहे थे लेकिन पटेल कभी डिगे नहीं, बल्कि गाँधी का विरोध भी झेलते रहे। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हिंदू संरक्षक की भूमिका में </i></u></span></h3><p>सरदार पटेल वैसे तो गाँधी के प्रतिछाया माने जाते थे लेकिन दिल्ली व देश के अन्य भागों में मुस्लिमों के कारनामों को पटेल अनदेखी नहीं कर पा रहे थे। इस बीच गाँधी, नेहरु और मौलाना आजाद एक तरफ तो दूसरी ओर सरदार पटेल अकेले पड़ गए थे। इस पर सरदार पटेल के सचिव रहे वी. शंकर लिखते हैं---: "मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के नेतृत्व में एक मजबूत मुस्लिम लॉबी सक्रिय रूप से प्रचार में लगी थी। इस हालात में पंडित नेहरू और गाँधी मुस्लिम हितों को लेकर अपने दिमाग में सबसे ऊपर रखने की सोच से नहीं बच पाये। ठीक उसी तरह से सरदार वल्लभ भाई पटेल के लिए हिंदू और सिखों के संरक्षक होने की सोच से बचना मुश्किल था।" बिलड़ा भवन की बैठक में नेहरू ने कहा कि दिल्ली की जो स्थिति है मैं उसे सहन नहीं कर सकता, मुसलमान कुत्ते बिल्ली के समान मारे जा रहे हैं! मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिल रही है, मैं मुसलमानों को क्या उत्तर दूं? सरदार पटेल ने उत्तर में कहा माना कि चुट-फुट घटनाएं हुई होंगी, लेकिन सरकार मुसलमानों की जान-माल की रक्षा के लिए जो भी कर सकती है वह कर रही है और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता है। वी शंकर लिखते हैं, नेहरू और गांधी गुट ने सरदार पटेल के खिलाफ जितना जहर फैलाया, उतना जहर सरदार पटेल के गुट ने नेहरु और गांधी के लिए नहीं फैलाया।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i> मुसलमानों को नसीहत</i></u></span></h3><p>12 नवंबर1947 को उन्होंने राजकोट के मुसलमानों को नसीहत देते हुए कहा, "मुझे याद कि किस तरह से काठियावाड़ के मुसलमानों ने "द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत" का समर्थन करते हुए मुस्लिम लीग के प्रोपोगंडा में अपना योगदान दिया था और वे अब भी मुस्लिम लीग की राजनीति में हिस्सा ले रहे हैं। मैं उनके इस अतीत को भूल नहीं सकता हूँ। लेकिन अगर वे अब भी द्वीराष्ट्र सिद्धांत से लगाव महसूस करते हैं और मदद के लिए बाहरी शक्ति की ओर देखते हैं तो फिर काठियावाड़ में उनके लिए कोई जगह नहीं है। यदि वे भारत में रहना चाहते हैं तो उन्हें वफादार नागरिक बनना होगा और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनके साथ एक विदेशी नागरिक की तरह व्यवहार किया जाएगा। भारत के मुसलमानों को अपनी अंतरात्मा से पूछना चाहिए कि क्या वे वास्तव में इस देश के प्रति वफादार हैं ? यदि वे नहीं है तो उन्हें उस देश में चले जाना चाहिए जिसके प्रति वे वफादार हैं।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>पटेल और नेहरू में वैचारिक जंग</i></u></span></h3><p>सरदार पटेल मुस्लिम तुष्टिकरण नहीं चाहते थे वे न्याय प्रिय थे, जैसे को तैसा वाले सिद्धांत को मानते थे वहीं नेहरु घोर मुस्लिम तुष्टिकरण करते थे, यही है जो पटेल की सोच से नेहरु, मौलाना आजाद की सोच को अलग करता था। 27 अगस्त 1947 को अजमेर में हिंदुओं ने एक जुलूस निकाला जिस पर मस्जिद से पथराव शुरू हो गया, पथराव के कारण पूरे शहर में दंगा भड़क गया। मुसलमानों ने अपने स्वभाव से हिंदुओ पर जानलेवा हमला किया लेकिन दंगा दबा दिया गया। दिसंबर में बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी सिंध से अजमेर आ गए थे, दरगाह बाजार में किसी विवाद को लेकर दंगा हो गया। अधिकतर मुस्लिम इलाकों में अपने स्वभाव के अनुसार पुलिस पर हमले किए, फायरिंग, पत्थरबाजी की दर्जनों घटनाएं हुई। हालात पर काबू पाने के लिए सेना बुलाई गई, सेना की फायरिंग में कई मुस्लिम व हिंदू मारे गए। नुकसान हिंदू मुसलमान दोनों का हुआ लेकिन इसे मुस्लिम विरोधी दंगों के रूप में प्रचारित किया गया। नेहरु जी तो यही मानकर चल रहे थे क्योंकि उनके दिमाग में तो हिंदू ही दंगाई होते थे। उन्होंने सरदार पटेल को 16 दिसंबर 1947 को एक पत्र लिखा--: "मैं गांधी जी को मिला था, उन्होंने मुझे अजमेर की घटना के बारे में बताया। मुझे अजमेर के हालत से बहुत निराशा हुई है, खासकर वहाँ के अधिकारियों और पुलिस के रवैये से। अजमेर की दरगाह दुनिया भर में एक प्रसिद्ध स्थान है। अगर यहां पर कोई घटना हो जाती है तो पूरी दुनिया में हमारे देश की छवि और सम्मान को नुकसान पहुचता। ऐसा लगता है कि अब मुझे अजमेर जाना चाहिए।" इस पत्र से सरदार पटेल को बड़ा धक्का लगा उन्होंने 19 दिसंबर को सार्वजनिक बयान जारी किया जिसमें दंगों का पूरा विवरण दिया लेकिन नेहरु को पटेल के बयान पर भरोसा नहीं था। उन्होंने अपने सिकरेटरी आयंगर को अजमेर भेजा और रिपोर्ट तैयार करने को कहा। एक प्रकार से अब नेहरु सरदार पटेल की अनदेखी कर रहे थे। सरदार पटेल ने 23 दिसम्बर 47को एक कड़ा पत्र नेहरु को लिखा,--: "यह सुनकर मैं सिर्फ आश्चर्य चकित ही नहीं बल्कि स्तब्ध हूँ कि आपने आयंगर को अजमेर भेजा। जबकि मैंने आपको पहले ही अजमेर में हो रही घटनाओं की रिपोर्ट भेज दी थी जो19 दिसम्बर को रेडियो पर प्रसारित हुई थी। इसके बाद भी आयंगर को अजमेर भेजने का एक ही मतलब हो सकता है कि आप मेरी रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं थे तो आप किसी और मंत्री को वहाँ भेज सकते थे। हालांकि, इस विषय से मेरा मन व्यथित हो चुका है।"</p><p>इस विवाद की जड़ में नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति थी, अजमेर विवाद पर नेहरू के लिखे पत्र इसका साक्ष्य है, जो 29 दिसंबर को उन्होंने पटेल को लिखा---: "इसमें कोई शक नहीं कि अजमेर के मुसलमान डरे हुए हैं। मैं नहीं जानता कि यह संख्या कितनी सही है लेकिन ऐसा बताया जा रहा है कि अजमेर के पचास हजार मुसलमानों में से करीब दस हजार मुसलमानों ने अजमेर छोड़ दिया है। और यह पलायन अब भी जारी है। इससे यह साबित होता है कि जब स्थिति नियंत्रण में है तब भी मुसलमान इसलिए डरे हुए हैं कि भविष्य में भी उन पर हमला हो सकता है। आरएसएस बहुत आक्रामक है और वह धमकियां दी रहा है जिससे लोग डरे हुए हैं।" जबकि नेहरू यह जानते थे कि दंगों की शुरुआत मुसलमानों ने किया था, दंगों में हिंदू मुसलमान दोनों का नुकसान हुआ था। लेकिन नेहरु को सिर्फ मुसलमानों की ही चिंता थी, और दंगों के नाम पर अपने सबसे बड़े शत्रु आरएसएस पर भी हमला बोलना था और बोले भी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>और आयंगर</i></u></span></h3><p>आयंगर एक बेहद ईमानदार आईसीएस अधिकारी थे, उन्होंने पटेल के साथ भी काम किया, उन्होंने अपने संस्मरण का वर्णन करते हुए लिखा कि जब नेहरु ने उन्हें अजमेर जाने के लिए कहा तो वे स्वयं आश्चर्य चकित हो गए, आगे आयंगर ने लिखा---: "प्रधानमंत्री ने मुझे बुलाया और कहा कि एचवीआर तुम्हें अजमेर जाकर दंगों की रिपोर्ट तैयार करनी है। हालांकि, अब मुझे महसूस होता है कि मैंने तब गलती कर दी थी। यह मेरा कर्तब्य था कि मैं PM नेहरु को बताता कि मुझे अजमेर भेजने से पहले वह गृहमंत्री सरदार पटेल से सलाह ले लें। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया और मैं उनके आदेश को मानते हुए अजमेर चला गया और मैंने वहां रिपोर्ट तैयार की। आकर रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी। यह एक तरह से सरदार पटेल के प्रति प्रधानमंत्री नेहरु का अविस्वास था कि उन्होंने मुझ जैसे जूनियर से यह सब करने को कहा।" पटेल ने गांधी को लिखा जिसमें नेहरु का विरोध किया--: "लोकतंत्र में प्रधानमंत्री सबसे बड़ा नहीं होता बल्कि सिर्फ 'फर्स्ट एमंग द इक्वल्स' यानी बराबरी के लोगों में पहले नंबर पर होता है।" पटेल ने कहा लोकतंत्र में प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह मंत्रियों पर अपना हुक्म चलाये।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सरदार पटेल की प्रतिक्रिया</i></u></span></h3><p>लखनऊ प्रवास में 6 जनवरी को एक जनसभा को संबोधित करते हुए सरदार पटेल ने कहा---: "मैं मुसलमानों को बताना चाहता हूं कि भारत के प्रति निष्ठा की महज घोषणा कर देने से बात नहीं बनेगी। उन्हें अपनी वफादारी का व्यवहारिक सुबूत देना होगा, इसी लखनऊ में द्वीराष्ट्र सिद्धांत की नींव रखी गई थी। इस सिद्धांत को फैलाने में शहर के मुसलमानों का भी योगदान रहा है, मुस्लिम लीग ने जो मांग की, उससे पूरे भारत में अधिकतर मुस्लिम युवा प्रभावित हुए और उन्होंने इस मांग को पूरी तरह स्वीकार भी किया। मैं भारत के मुसलमानों से एक सवाल पूछना चाहता हूं। हाल में लखनऊ में हुई मुस्लिम कांफ्रेंस में कश्मीर के मुद्दे पर मुसलमानों ने मुँह क्यों नहीं खोला ? पाकिस्तान जो कश्मीर में कर रहा है उसकी उन्होंने निंदा क्यों नहीं किया ? ये सब बातें लोगों के मन में संदेह पैदा करती हैं। मैं आपको बताना चाहूंगा कि आप दोनों घोड़ों पर सवार नहीं हो सकते। जो पाकिस्तान जाना चाहते हैं वह जा सकते हैं और शांति से वहां पर रह सकते हैं। हमें यहां शान्ति से रहने दें, ताकि हम अपने देश का विकास कर सकें।" पटेल ने सीधे सीधे मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की सलाह देदी, क्या वर्तमान में कोई भी राजनैतिक नेता ऐसी कड़ी भाषा में भाषण दे सकता है तो नहीं! कट्टरपंथियों ने उनपर कट्टरपंथी होने का आरोप लगाया फिर पलटवार करते हुए पटेल ने कहा--: "मुस्लिम लीग के लोग पहले महात्मा गांधी को अपना दुश्मन नंबर वन मानते थे लेकिन अब उन्हें लगता है कि गाँधी उनके दोस्त हैं। गाँधी के बदले अब वह मुझे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे हैं, क्योंकि मैं सच बोलता हूँ।" इसी सरदार पटेल ने कोलकाता में भी भाषण देते हुए कहा--: "हिंदुस्तान में 3-4 करोड़ मुसलमान हैं, इसमें काफी लोगों ने, ज्यादातर लोगों ने पाकिस्तान बनाने में साथ दिया था। लेकिन क्या अब एक रात में ही इनका दिल बदल गया ? कैसे दिल बदल गया ? यह मुझे समझ में नहीं आता। वे मुसलमान कहते हैं कि हम वफादार हैं और हमारी वफादारी पर शंका क्यों की जाती है ? तो हम उनसे कहते हैं कि हमसे क्यों पूछते हो, अपने दिल से पूछो! वे मुसलमान कहते हैं कि पाकिस्तान और हम एक हो जायं, तो मैं कहता हूँ कि मेहरबानी करके ऐसी बात मत करो, हमें अलग ही रहने दो।" लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पूरे लौह दिख रहे थे, ऐसा लग रहा था कि अपने भाषणों के द्वारा गाँधी और नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति द्वारा हिन्दुओं के घावों पर मलहम लगा रहे हों दूसरे यह भी विचार कर सकते हैं कि वे नेहरू व गांधी के तुष्टिकरण को चुनौती दे रहे हो। इन भाषणों के द्वारा वे क्या संदेश देना चाहते थे क्या वे मुसलमानों को देशभक्ति का पाठ पढाना चाहते थे? </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>गाँधी का व्यवहार</i></u></span> </h3><p>गाँधी धीरे धीरे पटेल के प्रति कठोर होते जा रहे थे ज्यों ज्यों पटेल राष्ट्रवाद की ओर आगे बढ़ते त्यों त्यों गाँधी-नेहरु उनके प्रति नकारात्मक होते जा रहे थे गांधी जी प्रतिदिन अपने प्रार्थना सभा में कुछ ऐसी बात करते जो पटेल के प्रति नकारात्मक होती। आखिर गाँधी ऐसा क्यों कर रहे थे ? गाँधी प्रोपोगंडा के शिकार थे अथवा अंग्रेजों की जाल में या राष्ट्रवाद उन्हें पच नहीं रहा था। जब नेहरू हिंदुओं के खिलाफ बोलते थे तो गाँधी ने कभी कोई प्रश्न नहीं उठता आखिर क्यों ? मुसलमानों के खाली पड़े मकानों पर मुसलमानों ने ही कब्जा कर लिया था। और दूसरी तरफ हिंदू, सिख शरणार्थी कड़ी ठंढ में धैर्य जबाब देने के कारण खाली पड़ी मस्जिदों में रहना शुरू कर दिया, इस पर मौलाना आजाद गुस्से में क्यों गाँधी उन्हें निकालने के लिए पुलिस का उपयोग क्यों आखिर देश विभाजन की जिम्मेदारी केवल हिंदू शरणार्थी पर क्यों देश बाटने वाले नेहरू पर क्यों नहीं ?इसका दंड हिंदू क्यों भोगे नेहरू क्यों नहीं ? गांधी जी अनसन पर बैठने वाले थे कलकत्ता का नरसंहार और नोआखाली में हिंदू नरसंहार और बलात धर्मान्तरण से पटेल बहुत दुखी थे गाँधी के इस अनसन से पटेल को बड़ा धक्का पहुचा, गाँधी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। वहां नेहरू, मौलाना भी मौजूद थे, पटेल ने चिल्लाते हुए कहा कि यहां मेरे रहने का कोई मतलब नहीं है जब गाँधी मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हैं। वे यह तय कर चुके हैं कि पूरी दुनिया के सामने हिंदुओं के मुख पर कालिख पोत दी जाय। यह कहकर पटेल वहां से उठकर चले गए। गाँधी जी का अनसन एक प्रकार से सरदार पटेल के विरोध में था और पटेल इस बात को भली -भांति जानते भी थे।</p><p>अंतिम समय में सरदार पटेल और नेहरु, गांधी और मौलाना आजाद के दो रास्ते हो गए थे पटेल का रास्ता भारतीय जनता भारतीय संस्कृति को लेकर राष्ट्रवाद था दूसरे ओर मुस्लिम तुष्टिकरण जिसे भारत आज भी झेल रहा है। डॉ आंबेडकर के शब्दों में--: "देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है इस कारण भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहना चाहिए और पाकिस्तान में एक भी हिंदू, यदि मुसलमान यहां रह गए तो पचास साल बाद फिर भारत को यह दर्द झेलना पड़ेगा।" आज सरदार पटेल और डॉ आंबेडकर दोनों की बहुत याद आ रही है!</p><div><br /></div><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-58229667824738191992023-12-12T08:33:00.000+05:302023-12-12T08:33:00.139+05:30विभाजन की विभीषिका और नेहरु का मुस्लिम प्रेम<p> </p><div style="text-align: right;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6KCaiuXkDNaZNPlJp4elfn0JcfdYR8R5TCVaFRFeqkYbS4JfEiidyYkQPPvFnBF2BXqJLOQ5eAgTXXYqpjm20DRgKUGA2GAzprRqb7Vak1zKoTWl8DL6s5jBA7NNe8byvFl7z6iShrimXeRjpLI9Zw-6NweLIZ9zYbJp2w-wsBlaJutlbooMv9VQpL4v7/s523/Screenshot_20231101-080623~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="447" data-original-width="523" height="273" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6KCaiuXkDNaZNPlJp4elfn0JcfdYR8R5TCVaFRFeqkYbS4JfEiidyYkQPPvFnBF2BXqJLOQ5eAgTXXYqpjm20DRgKUGA2GAzprRqb7Vak1zKoTWl8DL6s5jBA7NNe8byvFl7z6iShrimXeRjpLI9Zw-6NweLIZ9zYbJp2w-wsBlaJutlbooMv9VQpL4v7/s320/Screenshot_20231101-080623~2.jpg" width="320" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेहरू का संस्कार</i></u></span></h3><p></p><p>वास्तविकता यह है कि नेहरु के अंदर राष्ट्रीयता नाम की कोई चीज नहीं था और उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं था लेकिन उसमें उनका दोष इतना ही है कि वे कांग्रेस में पले बढ़े और वही संस्कार भी उन्हें मिला था। जैसा कि हम सभी लोग यह जानते हैं कि कांग्रेस की स्थापना एक ब्रिटिश ब्यूरोक्रेट्स ने किया था। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भारत की आजादी के लिए कांग्रेस की स्थापना नहीं हुई थी बल्कि कांग्रेस की स्थापना भारत को हमेशा के लिए गुलाम बनाये रखने के लिए थी और यही संस्कार नेहरू जी का था। इसलिए किसी भी कोने से नेहरु जी को भारत भारतियता से कोई लेना देना नहीं था, और यदि यह कहा जाय कि देश की आज़ादी में कांग्रेस का कोई योगदान नहीं था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। 1946 के पहले पटेल और नेहरू में कोई बहुत अंतर नहीं था, दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे लेकिन पटेल को जन सामान्य के मन भावना का ज्ञान था, जनता की भावनाओं का उन्हें ज्ञान था लेकिन नेहरु जी को इन सब से कोई मतलब नहीं था। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>प्रधानमंत्री का चयन</i></u></span></h3><p>आज तानाशाही और लोकतंत्र की बड़ी बड़ी बातें कांग्रेस पार्टी करती है लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के समय तो लोकतंत्र को ताक पर रख दिया गया था। कांग्रेस का जो भी अध्यक्ष होता उसी को सत्ता सौपी जाती इसको देखते हुए पार्टी का अध्यक्ष कौन होगा ? इसके लिए पार्टी की बैठक हुई जिसमें 13 राज्यों के प्रतिनिधियों ने सरदार पटेल को वोट किया और तीन ने आचार्य कृपलानी को, और नेहरू को एक भी वोट नहीं मिला। भारत के अंदर पहली बार लोकतंत्र की हत्या कर नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष यानी होने वाले प्रधानमंत्री का चयन किया गया और जो लोकतंत्र का अपने को अलंबरदार कहते उन्होंने यह कार्य किया। वास्तविकता यह है कि मोहनचंद करमचंद गांधी ने यह लोकतंत्र की हत्या कोई पहली बार नहीं किया था बल्कि जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जब कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे तब भी इनका रोल इसी प्रकार का था वे अपनी सुविधा अनुसार लोकतंत्र की परिभाषा कर लिया करते थे। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेहरू के बारे में पटेल की अवधारणा</i></u></span></h3><p>सरदार पटेल इस बात को विस्वास के साथ मानते थे कि जवाहरलाल नेहरू मुसलमानों के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। आजादी के पश्चात प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण नीति का पूरी कट्टरता से पालन किया। बंटवारे बाद हिंदू-मुस्लिम दंगे हो या हिंदू-सिख शरणार्थियों की समस्या या फिर मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने का मामला हो, नेहरू हमेशा अपने गुरू गांधी के पद-चिन्हों पर चलते रहे। इसलिए गांधी की तरह नेहरू भी यही मान कर चल रहे थे कि दिल्ली में जो कुछ हिंसा अथवा दंगा हो रहा है वह पाकिस्तान से आये हिंदू शरणार्थी कर रहे हैं। और तो और नेहरु इन किस्मत के मारे भूखे बेबस, लुटे-पिटे शरणार्थियों को चोर उचक्का भी मानते थे। उन्होंने देश का प्रधानमंत्री होते हुए सैकड़ों लोगों के बीच पाकिस्तान से आये एक गरीब और असहाय नवजवान की गर्दन दबोच दिया था। इस घटना का ज़िक्र गांधी जी के निजी सचिव प्यारेलाल नैयर ने अपनी पुस्तक में इस घटना का ब्यौरा देते हुए लिखा है--:</p><p>"पंडित नेहरू अपनी गाड़ी से कूदकर बाहर आ गए, उनके चारो ओर भीड़ जमा हो गई। उन्होंने लोगों को फटकार लगाते हुए कहा कि मैंने समझा था कि हम अपने पीड़ित भाइयों की मदद कर रहे हैं। लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि हम चोर उचक्कों को शरण दे रहे हैं। पंडित नेहरू की यह बात सुनकर भीड़ की त्योरियां चढ़ गई, भीड़ गुस्से में आ गई। एक जोशीला नवजवान सामने आकर बोला, आप हमें भाषण दे रहे हैं, क्या आप जानते हैं कि हम हिंदू शरणार्थियों ने क्या कष्ट सहे हैं ? पंडित नेहरू यह बर्दास्त नहीं कर सके और उन्होंने उस नवजवान की गर्दन पकड़कर उसे झकझोर दिया। वहां मौजूद सुशीला ने नेहरू को खींचकर वहां से हटाने का प्रयास किया लेकिन नेहरु ने सुशीला को कोहनी से वापस धकेल दिया। जब नेहरु ने युवक को अपनी पकड़ से छोड़ा तो वह बड़बड़ाया, हां पंडित जी, कर लीजिए जो आपको करना हो। देश के प्रधानमंत्री के हाथों मरने से बड़े सौभाग्य की बात और क्या होगी।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेहरु की दृष्टि में दंगों के लिए हिंदू जिम्मेदार</i></u></span></h3><p>दिल्ली में दंगों के लिए नेहरु हिंदू शरणार्थियों को ही जिम्मेदार मानते थे लेकिन वास्तविकता यह है कि इन दंगों के लिए दिल्ली के मुसलमानों का आक्रामक रवैया जिम्मेदार था फिर भी नेहरु मुसलमानों को 'शांतिप्रिय' मानते थे। दिल्ली में जब दंगे उफान पर थे तो नेहरु जी ने एक प्रेस कांफ्रेंस 13 सितम्बर,1947 को किया, उसमें कहा---: "दिल्ली की आवादी अमनपसंद मानी जाती है। चार-पांच सौ सालों से यहां हिंदू-मुसलमान मिल जुल कर रह रहे हैं। लेकिन अब दिल्ली की आवादी में एक चौथाई हिस्सा शरणार्थियों का हो गया है। मुझे लगता है कि यह कहना सही होगा कि दिल्ली में जो कुछ हो रहा है उसके लिए 75 प्रतिशत तक वो कहानियां जिम्मेदार हैं जो पंजाब (पाकिस्तान) के शरणार्थी अपने साथ यहां लेकर आये थे।" यदि हम यह कहें कि नेहरू की आँख पर हिंदू विरोध की पट्टी बधी थी तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। अक्टूबर 1947 दशहरा और ईद साथ-साथ आने वाला था नेहरु जी ने पटेल को पत्र लिखा कि "मुसलमानों से गलत ब्यवहार की आशंका नहीं है क्योंकि वे पूरी तरह टूट चुके हैं और डरे हुए हैं। आखिर नेहरू कहना क्या चाहते हैं कि दंगाई केवल हिंदू समाज है ? इन सबको देखने के बाद लगता है कि डा अम्बेडकर का नेहरू-गाँधी के बारे में जो विचार है वह बिल्कुल सत्य है, डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि नेहरू गाँधी को इस्लाम की जमीनी हकीकत कुछ पता नहीं है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>और एन. वी. गाइडगिल</u></span></h3><p>नेहरु की तुष्टिकरण नीति और हिंदुओं को बार बार लांछन लगाने की प्रबृत्ति पर गाइडगिल ने तत्काल विरोध किया। उन्होंने अपनी पुस्तक'गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड' में लिखा है कि, "मैन अपनी एक रिपोर्ट में नेहरु को सुझाव दिया कि उनका हिंदुओ पर लाँछन लगाना उचित नहीं है। हिंदू भारत में बहुसंख्यक है और लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली उनको एक दिन अपने आप शक्तिशाली बना देगी। इसलिए हिंदुओं पर आक्रोश निकालने की कोई जरूरत नहीं है, वहीं दूसरी ओर नेहरू के भाषण हिंदुओं के मन में कटुता पैदा कर रहे हैं।" गाइडगिल दूरदृष्टि वाले राजनेता थे आज लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिंदूवादी विचार सत्ता में स्थापित हो चुका है। बहरहाल गाइडगिल की इस साप्ताहिक रिपोर्ट को पढ़कर नेहरु तिलमिला गए। और 12 अक्टूबर,1947 को गाइडगिल को एक पत्र लिखा, "आपकी रिपोर्ट अजीव है इसमें मेरे भाषणों पर दिल्ली में हुई प्रतिक्रिया का लेखा-जोखा है। आपने जो भी लिखा है वह कुछ लोगों की भावनाएं हो सकती हैं लेकिन मैंने जो कहा है वह मेरी भावना और मेरे फैसले को प्रकट करता है। मेरा फैसला उन लोगों की राय से प्रभावित नहीं होता, जिनका आप उल्लेख कर रहे हैं।" इससे यह सिद्ध होता है कि नेहरु को अपना विरोध बर्दास्त नहीं होता था एक प्रकार से वे अलोकतांत्रिक ब्यक्ति थे।</p><p>गाइडगिल का मानना था कि अगर नेहरू शरणार्थियों के प्रति सहानुभूति रखते तो हिंदू समाज में गाँधी की हत्या का माहौल तैयार नहीं होता ऐसा गाइडगिल ने अपनी पुस्तक में लिखा! इससे यह साबित होता है कि गांधी हत्या के पीछे नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति और हिंदू शरणार्थियों के प्रति दुर्व्यवहार भी एक कारण था। पाकिस्तान के खिलाफ जो भी कड़ा रुख अपनाता नेहरू उसे मुस्लिम विरोधी मान लेते थे, नेहरु की दृष्टि में पाकिस्तान बिरोध और मुस्लिम बिरोध में कोई अंतर नहीं था। गाइडगिल ने आगे लिखा---: "मैं पूरे अफसोस के साथ ऑन-रिकार्ड यह बात कहना चाहता हूं कि जब भी मैंने पाकिस्तान के बारे में कोई प्रस्ताव रखा, नेहरु जी ने ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की जैसे मैं मुसलमानों का दुश्मन हूँ।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>पंजाबी शरणार्थियों के प्रति नेहरू का व्यवहार</i></u></span></h3><p>पंजाब नेशनल बैंक के चेयरमैन लाला योधराज, पत्रकार दुर्गादास और लाहौर हाईकोर्ट के पूर्व जज बक्सी टेकचंद इन तीनों 20 सितंबर 1947 को प्रधानमंत्री नेहरु से मिलने पहुंचे जिसका वर्णन दुर्गादास ने अपनी पुस्तक 'इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरु एंड आफ्टर' में इस प्रकार किया है--: "इस बैठक के शुरुआत में पंजाब नेशनल बैंक के चेयरमैन जोधराज ने शरणार्थियों को बसाने के लिए दिल्ली से सात मील दूर जमीन मांगी। नेहरु ने तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि मैं तुम लोगों (पंजाबियों) को दिल्ली के सात सौ मील दायरे में भी नहीं आने दूँगा, नेहरु ने गुस्से में ऐसा इसलिए कहा क्योंकि वे पंजाबियों पर गुस्सा थे और उन्हें लगता था कि दिल्ली के तनाव के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं। उन्होंने कहा कि इन हरकतों की वजह से पूरी दुनिया में सरकार का नाम खराब हुआ है।" इससे यह स्पष्ट दिखाई देता है कि हिंदू शरणार्थियों के मुद्दे पर सरदार पटेल और नेहरु के विचारों में कितना अंतर था। आगे दुर्गादास ने सरदार पटेल से मिलने का अनुभव करते हुए लिखा--: जो कमेटी नेहरू से मिली थी वह सरदार पटेल से भी मिली "सरदार पटेल ने कमेटी को बताया कि उन्होंने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली को साफ कर दिया है कि वह हिंदू और सिखों द्वारा छोड़ी गई प्रापर्टी के बारे में अपनी सरकार की नीति घोषित करे। अगर पाकिस्तान इन संपत्तियों के लिए भुगतान नहीं करता है तो फिर हम भी भारत में छोड़ी गई मुसलमानों की प्रॉपर्टी के साथ यही करेंगे। सरदार पटेल ने लियाकत अली को यह भी बता दिया था कि अगर पाकिस्तान में हिंदू और सिख नहीं बचे तो फिर भारत में भी मुसलमानों का रहना मुश्किल हो जाएगा।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>दिल्ली में मुस्लिम कालोनी की योजना</i></u></span></h3><p>उन दिनों मुसलमान डर के कारण हिंदू मुहल्लों के अपने मकान छोड़कर राहत कैम्पों में रह रहे थे। नेहरू ने इस बारे में 21 नवंबर 1947 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा--: "गैर मुस्लिम क्षेत्रों में बहुत कम मुसलमानों को मकान व सुरक्षा मिल सकती है, हमें अगर अपने जिम्मेदारी का पालन करना है तो मुस्लिम बहुल मुहल्लों में मुसलमानों के खाली पड़े मकान गैर मुस्लिमों को नहीं दिये जाय। मुझे पता चला है कि कुछ सिखों ने मुस्लिम मुहल्लों के मकानों को कब्जा कर लिया है। इससे वहां परेशानी खड़ी हो गई है और वहाँ के बाकी मुसलमान भी अपना मकान छोड़ रहे हैं, ऐसी हरकतों को बढ़ावा नहीं मिलना चाहिए और मुस्लिमों के मकान अन्य लोगों को न दिया जाय। "सरदार पटेल मुस्लिम तुष्टिकरण पर विस्वास नहीं करते थे इसलिए नेहरु का पत्र मिलते ही उन्होंने जो उसका उत्तर लिखा जो आज भी प्रासंगिक है--: "दिल्ली में मुस्लिम पॉकेट बनाना हमारी नीतियों के खिलाफ है। दिल्ली में मुस्लिम क्षेत्र बनाने से हालात नहीं सुधरेंगे, बल्कि टकराव और बढ़ जाएगा, मुझे नहीं लगता कि मुस्लिम बहुल इलाकों में गैर-मुस्लिम ऐसी स्थिति खडी कर सकते हैं कि जिसके कारण मुस्लिम लोग अपना इलाका छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। ऐसे मामलों का समाधान यही है कि अराजक तत्वों को हटाकर पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था की जाय, ऐसा होने पर इन इलाकों में मिली-जुली यानी हिंदू-मुस्लिम आबादी बढ़ेगी।" जहाँ सरदार पटेल दूरद्रष्टा थे वहीं नेहरू को कुछ दिखाई नहीं देता था जिन मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग की वे गजवाये हिन्द के लिए यहीं रूक गए और आज भारत में तमाम पाकिस्तानी पॉकेट दिखाई दे रहा है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhATCMDorLKgLQvHupDaKXEg4Fkp4nfTi78J1Mc5boYxpv3S1_7o5XxZjKW1eUXBOQn_2-nxvjgg33VI-mHGTte40uh3_DcA6-EbPfi2Im314raC3q051zJ78hHXehZbqZVuy7fgU-4Glc_HZHlmkDL0npZQd3g_rhiIXu5lrRHoQ6dzJLwFUEv7SHyQwbx/s203/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="152" data-original-width="203" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhATCMDorLKgLQvHupDaKXEg4Fkp4nfTi78J1Mc5boYxpv3S1_7o5XxZjKW1eUXBOQn_2-nxvjgg33VI-mHGTte40uh3_DcA6-EbPfi2Im314raC3q051zJ78hHXehZbqZVuy7fgU-4Glc_HZHlmkDL0npZQd3g_rhiIXu5lrRHoQ6dzJLwFUEv7SHyQwbx/w320-h240/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%A8.jpg" width="320" /></a></div><br />डॉ अम्बेडकर की दृष्टि में नेहरु</i></u></span></h3><p>डॉ आंबेडकर ने सुझाव दिया था कि प्रत्येक हिंदू पाकिस्तान से भारत में आ जाना चाहिए और प्रत्येक मुस्लिम को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। पाकिस्तान की सरकार दलितों को भारत नहीं जाने देना चाहती थी ऐसा नहीं कि उनको दलितों से बहुत प्रेम था! पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली ने कहा--: "अगर दलित पाकिस्तान से चले जायेंगे तो हमारे शहरों की सफाई कौन करेगा ? "पाकिस्तान की नीच हरकतों से डॉ आंबेडकर बहुत नाराज थे, वे पाकिस्तान के प्रत्येक दलित को भारत लाने में जुट गए। उन्होंने 27 नवंबर 1947 को एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा--: "पाकिस्तान के चक्कर में फॅसा दलित समाज हर उपलब्ध मार्ग और साधन से भारत आ जाये। मैं कहना चाहता हूँ कि पाकिस्तान और हैदराबाद रियासत के मुसलमानों पर विस्वास करने से दलित समाज का विनाश होगा। दलित वर्ग हिंदू समाज से नफरत करता है, इसलिए मुसलमान हमारे मित्र हैं यह मानने की बुरी आदत दलितों को लग गई है, जो बहुत गलत है। मुसलमान तो अपने लिए दलितों का साथ चाहते हैं लेकिन बदले में वे कभी दलितों का साथ नहीं देते हैं।" पाकिस्तान में कई दलितों का धर्मांतरण कराया गया था अम्बेडकर ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे भारत आ जाये उन्हें पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाएगा। अंबेडकर के इस मुहिम को झटका लगा नेहरु ने कोई सहयोग नहीं किया, अम्बेडकर ने कहा कि नेहरू को मुसलमानों की चिंता है न कि दलित हिंदुओं की। डॉ आंबेडकर ने 1951 अक्टूबर 27 को एक रैली में कहा--: "पाकिस्तान से दलितों को निकालने के लिए मैंने नेहरु से कुछ करने के लिए कहा, लेकिन नेहरु ने कुछ भी नहीं किया। मैंने दलितों को निकालने के लिए दो ब्यक्तियों को पाकिस्तान भेजा और हमारी महार बटालियन के कुछ लोगों को भी दलितों की सुरक्षा के लिए रवाना किया गया। अगर खुद कांग्रेस के नेता (नेहरु) को दलितों से इतनी सहानुभूति होती तो सोचिए यह कांग्रेस हमारे लिए क्या करेगी ?" हम बचपन से पढ़ते हैं कि डॉ आंबेडकर ने 1951 में नेहरु मंत्रिमंडल से इसलिए स्तीफा दिया था क्योंकि संसद में हिंदू कोड बिल पास नहीं हो पाया था यह अर्धसत्य है, वास्तविकता यह है कि डॉ आंबेडकर का स्तीफा नेहरु की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति थी, उन्होंने अपने स्तीफा में लिखा-----: "यह सरकार दलितों की तुलना में मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर हमेशा ज्यादा चिंतित रहती है। प्रधानमंत्री का पूरा समय और ध्यान मुसलमानों की सुरक्षा के लिए लगा होता है। मैं भी भारत के मुसलमानों को सुरक्षा देना चाहता हूँ, लेकिन क्या सिर्फ मुसलमानों को ही सुरक्षा की आवश्यकता है ? क्या दलितों, आदिवासियों और ईसाइयों को सुरक्षा की आवश्यकता नहीं है ? सरकार ने इन समुदायों के लिए क्या चिन्ता दिखाई है ? जहाँ तक मैं समझता हूँ कि मुसलमानों की तुलना में दलितों को कहीं अधिक देखभाल की जरुरत है।" </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>डॉ आंबेडकर ने एक रैली में--!</i></u></span></h3><p>डॉ आंबेडकर एक सुलझे हुए राजनेता थे वे नेहरु की मुस्लिम परस्ती से तंग आ चुके थे, उन्होंने 1951 -52 चुनाव प्रचार के दौरान नेहरु के मुस्लिम तुष्टिकरण की बखिया उधेड़ते हुए कहा।---: "नेहरु मुसलमानों पर होने वाले किसी काल्पनिक अत्याचार की बात सुनकर बिचलित हो जाते हैं। नेहरु मुसलमानों की रक्षा करने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं लेकिन क्या उन्होंने कभी दलितों की रक्षा करने के लिए कोई रूचि दिखाई है? पिछले 20 साल से नेहरु देश के सबसे बड़े नेताओं में से एक हैं, उन्होंने कम से कम दो हजार जन सभाओं को संबोधित किया होगा। लेकिन जहाँ तक मुझे याद है उन्होंने कभी इस बात का जिक्र नहीं किया कि दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं। मैं मानता हूं कि मुसलमानों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए लेकिन मैं यह भी नहीं चाहता कि मुसलमान दलितों की कीमत पर मौज करें, क्योंकि दलितों को उनसे ज्यादा सुरक्षा की आवश्यकता है।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेहरु और वी.शंकर</i></u></span></h3><p>एक आईसीएस अधिकारी वी. शंकर जिन्होंने नेहरु जी के साथ काम किया है ने नेहरु के तुष्टिकरण का जबरदस्त विश्लेषण किया है, उन्होंने नेहरु की मुस्लिम परस्ती के बारे में लिखा---: "तथाकथित पीड़ित मुसलमानों की चिंता में नेहरु अनंत पीड़ा उठाते थे लेकिन जब पीड़ित दूसरे समुदाय का होता तो नेहरु से इस तरह की पीड़ा उठाने की उम्मीद नहीं किया जा सकता था। नेहरु मानते थे कि प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता के रूप में अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों के लिए उनकी विशेष जिम्मेदारी है। उनकी नजर में मुसलमानों को भारत में बनाये रखना और उनकी जान-माल की सुरक्षा इस देश की धर्मनिरपेक्षता की सर्बोच्च परीक्षा थी। एक पूर्व गवर्नर ने कहा कि अगर नेहरू मुसलमानों की सुरक्षा की मांगों को मान लेते हैं तो एक दिन ऐसी स्थिति आ जायेगी जब हिंदुओ की रक्षा करनी पड़ेगी।" वास्तव में वी शंकर दूरदृष्टि वाले अधिकारी थे, आज नेहरु के कारण सारे देश में हिंदू समाज असुरक्षित महसूस कर रहा है। आये दिन हिंदुओं के त्योहारों पर पथराव किया जाता है और तुष्टिकरण ऐसा है कि मुख्य आरोपी किसी न किसी हिंदू को बना दिया जाता है। आज देश नेहरू के पापों का फल भोग रहा है, लगता है नेहरु स्वयं 'गजवाये हिंद' चाहता था, इसीलिए जिन लोगों ने पाकिस्तान बनाने की मांग किया, नेहरू ने देश विभाजन के पश्चात उन्हें जाने नहीं दिया और आज वे भारत के लिए सरदर्द बने हुए हैं।</p><h3 style="text-align: left;">आखिर मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं गए ?</h3><p>मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं गए इसका गांधी हत्या से गहरा संबंध है, गाँधी हत्या जाँच के लिए बने कपूर कमीशन की एक रिपोर्ट में लिखा गया है कि--: "तथ्य ये है कि मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोकने के लिए नेहरु ने मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई और अन्य मुसलमानों के साथ मिलकर बहुत मेहनत की। नेहरु ने मुसलमानों की संपत्तियों को सुरक्षित रखने के लिए पैसा और समय दोनों खर्च किया। इससे मुसलमानों के प्रति शत्रुता की भावना पैदा हुई। शरणार्थियों को लगता था कि अगर उन्हें पाकिस्तान से निकाल दिया गया है तो मुसलमानों के साथ भी ऐसा होना चाहिये।" कपूर कमीशन आगे लिखता है, "जनसंख्या की अदला बदली न होने पर शरणार्थियों के अंदर अंधी नफरत फैल गई थी। तब हर गली, चौराहे और नुक्कड़ पर यह चर्चा हो रही थी कि आखिर मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं जा रहे हैं ?" आम भारतीय जनता ऐसा विचार कर रही थी, यह समझने के लिए हमें समझने के लिए इन विषयों पर विचार करने की आवश्यकता है कि---! </p><p>@ मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की मांग क्यों हो रही थी ? @विभाजन के बाद ज्यादातर मुसलमानों ने भारत में रुकने का फैसला क्यों लिया ? @जनसंख्या की अदला-बदली पर जिन्ना और नेहरु का रूख क्या था ? @गाँधी के कहने पर नेहरु ने किस तरह से मुसलमानों को भारत में रोका ? @सरदार पटेल और डॉ आंबेडकर मुसलमानों को पाकिस्तान क्यों भेजना चाहते थे ? @ आखिर कितने मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए!</p><p>डॉ भीमराव अंबेडकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ है इसलिए भारत में एक भी मुसलमान नहीं रहना चाहिए और पाकिस्तान में एक भी हिंदू! आगे उन्होंने कहा कि यदि मुसलमान यहां रूक जायेगे तो पचास साल बाद फिर यही समस्या उत्पन्न होगी। कोई भी मुसलमान किसी हिंदू की शासन सत्ता स्वीकार नहीं करेंगे, वे संविधान नहीं सरिया कानून मानेंगे। ठीक उसी प्रकार सरदार पटेल ने एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि ऐसा क्या हो गया कि चौबीस घंटे में निष्ठा बदल गई। तो वास्तविकता यह है कि मुसलमानों ने बहुत दूरदृष्टि से विचार कर एक अलग देश ले लिया और भारत में रह भी गए जिससे गजवाये हिन्द भी किया जा सके और उसके लिए आज खुले-आम हिंदू समाज को चुनौती दे रहे हैं। और नेहरू के पापों का फल भारत भोगने के लिए मजबूर है।</p><h3 style="text-align: left;">कितने मुसलमान पाकिस्तान गए ?</h3><p>सरदार वल्लभ भाई और डॉ आंबेडकर ने मुसलमानों को पाकिस्तान भेजे जाने का समर्थन किया था और इसके विपरीत गांधी, नेहरु ने न केवल इसका विरोध किया बल्कि मुसलमानों को रोकने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद सभी का उपयोग किया। परिणाम यह हुआ कि भारत से बहुत कम मुसलमान पाकिस्तान गए। यदि आकड़े पर जाय तो ध्यान में आता है कि भारत के हिस्से में आयी जमीन साढ़े चार करोड़ मुसलमान रहते थे जिसमें एक करोड़ भी पाकिस्तान नहीं गए। भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमान पचहत्तर प्रतिशत पंजाब प्रांत से गए थे। 1951 में जनगणना के अनुसार पंजाब से 55.50 लाख, प.बंगाल, बिहार, उड़ीसा से केवल सात लाख, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से मात्र चार लाख पैसठ हजार, राजस्थान से दो लाख पैंतीस हजार, महाराष्ट्र और गुजरात से एक लाख साठ हजार, भोपाल और हैदराबाद से पंचानबे हजार और तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक से केवल अट्ठारह हजार मुसलमान पाकिस्तान गए। जबकि पाकिस्तान से हिंदुओं को भगा दिया गया उनके साथ सामुहिक बलत्कार, हत्या हुई उनकी सारी संपत्ति लूट ली गई ट्रेनें लाशों से भारी आ रही थीं, लेकिन नेहरु को यह सब दिखाई नहीं दे रहा था उन्हें हिंदू ही दुश्मन नजर आ रहा था।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-13294880275509626882023-12-04T09:48:00.000+05:302023-12-04T09:48:00.140+05:30नेताजी सुभाषचंद्र बोस--- यदि वापस आते तो--?<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnaYAbYbOJBGp1vR7tgNY461LUhS4EZxNbkRWOEqVE4cR4hluoGdtDqXydUrkktislVIZL3mkx8DUA-5bGs0wblmbpyu18NbfMRBmnVdoAhO-ivK9m1NubJ3FqorB7huAYFD66-1DWKdmReOzGRsgczpZOTi8MgLBL8TsYAc1KZICkgXWScRzXS0oraPTr/s515/Screenshot_20231019-102844~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="384" data-original-width="515" height="239" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnaYAbYbOJBGp1vR7tgNY461LUhS4EZxNbkRWOEqVE4cR4hluoGdtDqXydUrkktislVIZL3mkx8DUA-5bGs0wblmbpyu18NbfMRBmnVdoAhO-ivK9m1NubJ3FqorB7huAYFD66-1DWKdmReOzGRsgczpZOTi8MgLBL8TsYAc1KZICkgXWScRzXS0oraPTr/w320-h239/Screenshot_20231019-102844~2.jpg" width="320" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i> यदि सुभाष वापस आते तो--!</i></u></span></h3><p></p><p>नेताजी सुभाषचंद्र बोस की लोकप्रियता दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ रही थी नेताजी निरपेक्ष भाव से राष्ट्र हित में निर्णय ले रहे थे गाँधीवादी बहुत परेशान थे उन्हें लग रहा था कि सुभाषचंद्र बोस लोकप्रियता के उच्च शिखर पर होंगे तो हमारा क्या होगा ? अंग्रेजों की परेशानी अलग प्रकार से दिखाई दे रही थी वे किसी भी कीमत पर किसी राष्ट्रवादियों को बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे इसलिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गांधीवादियों को समर्थन करते जा रहे थे। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i> सावरकर में सुभाष</i></u></span></h3><p>1940 में सुभाषचंद्र बोस का प्रवास महाराष्ट्र में था, वे ट्रेन से जा रहे थे तभी उन्हें आरएसएस का पथ संचलन निकला हुआ था उन्होंने ट्रेन से ही देखा, पूछने पर पता चला कि डॉ हेडगेवार द्वारा स्थापित संगठन है। वे बहुत प्रसन्न हुए और डॉ हेडगेवार से मिलने के लिए तय किया और मिले भी लेकिन डॉ हेडगेवारजी बीमार थे उनसे कोई बात नहीं हो सकी। सुभाष जी क्रांतिकारी थे वे देश आजादी के लिए शसस्त्र युद्ध भी करने के हेतु तैयार थे। उसी प्रवासक्रम में उनकी भेंट वीर सावरकर से हुई विनायक दामोदर सावरकर तो भविष्यद्रष्टा थे, जब गाँधी-नेहरू राजनीति में कदम नहीं रखे थे उस समय विनायक दामोदर सावरकर को सारा विश्व जानता था। वीर सावरकर का यह दृढ़ मत था कि आजादी सत्याग्रह से मिलने वाली नहीं है, सावरकर से सुभाषचंद्र बोस से लंबी वार्ता हुई, सावरकर का सम्वन्ध हिटलर, मुसोलिनी जैसे नेताओं से भी था वे देश इंग्लैंड के मित्र देशों के विरोधी थे और द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। वीर सावरकर ने सुझाव दिया कि वे विदेश में रहकर सेना गठित कर सकते हैं जर्मनी और जापान ने जिन भारतीय सैनिकों को गिरफ्तार किया है वे आजाद हिंद फौज में भर्ती हो सकते हैं। लगता है कि सुभाष बाबू के मन में यह बात पहले से चल रही थी वे गांधी जी की तानाशाही से परेशान थे और कांग्रेस में दो ध्रुब हो गया था एक राष्ट्रवादी दूसरा गांधीवादी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जर्मनी की ओर</i></u></span></h3><p>28 जनवरी 1941 के अमृतबाज़ार पत्रिका में समाचार आया:--- रहस्यमय और नाटकीय तरीके से श्रीयुत सुभाषचंद्र बोस का उनके एल्गिन रॉड स्थिति घर से गायब हो गए, जिसका उनके घर के सदस्यों के अनुसार रविवार दोपहर को पता चला था--- उनके घर में रहने वालों से पता चला है कि पिछले कुछ दिनों से वह किसी से नहीं मिल रहे थे। अपने कमरे में बंद रहकर वह धार्मिक क्रिया कलाप में ब्यस्त रहते थे---- बाद में पुलिस की विशेष शाखा ने तीन घंटों तक सुभाषचंद्र बोस के कमरे की तलासी ली, श्रीयुत बोस जिस कमरे में रहते थे उसकी गहन तलासी ली गई थी।</p><p>राज्य परिषद में10 नवंबर 1941 को युवराज दत्ता सिंह ने सरकार से पूछा कि क्या सरकार को सुभाष की कोई सूचना है, गृह सचिव ई कनरैन स्मिथ ने उत्तर दिया---! पिछले कुछ दिनों से देश के कुछ हिस्सों में बात होती रही है कि श्रीयुत सुभाषचंद्र बोस रोम अथवा बर्लिन में है और ध्रुवीय ताकतों के साथ एक समझौते में पांचवें कालम के साथ किसी भी तरह से भारत पर जर्मनी के साथ हमला करेंगे। देश में इस संबंध में लघुपत्र पहुँच चुका है और इसमें शक नहीं कि वह दुश्मन से जा मिले हैं। एक और दावा था कि "बर्लिन के एक सम्मेलन में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। क्रांतिकारी सुभाषचंद बोस भी उपस्थित थे, अन्य पत्र के अनुसार, 'वह एक यूरोपीय देश है और भारत में अपने क्रांतिकारी दल से संबंध है। उन्होंने पहले ही स्व हस्ताक्षरित वक्तव्य जारी कर दिया है। वह कुछ विदेशी ताकतों के साथ व्यस्त हैं।'</p><p>उनके परिवार और कुछ निकटवर्ती राजनीतिक सहयोगियों के अलावा किसी को भी सूचना नहीं था कि सुभाष 16 और17 जनवरी1941 की रात को एक मुस्लिम बीमा एजेंट के रूप में रेल से पेशावर रवाना हो गए थे। "कीर्ति किसान पार्टी" के सदस्यों और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त की फारवर्ड ब्लाक कार्यकारी समिति के एक सदस्य के साथ सुभाष काबुल पहुँचे और 18 मार्च को रूसी सीमा पार कर गए थे। मास्को से ट्रेन के जरिये वे दो अप्रैल 1941 को बर्लिन पहुंचे थे। अंतिम उद्देश्य के तौर पर भारत में ध्रुवीय ताकतों को पहुँचना उनकी योजना का ही अंग है, जिनके संबंध में उन्होंने निम्न आकड़े दिए हैं: 3 लाख सैनिकों की आंग्ल भारतीय सेना, जिसमें अधिक से अधिक अंग्रेजों की संख्या सत्तर हजार होगी। अधिकांश भारतीय सैनिक किसी भी समय खेमा बदलने की इच्छा रखता था। भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक लाख सैनिक पर्याप्त रहेंगे।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>फ्री इंडिया की घोषणा की योजना</i></u></span></h3><p>20 मई को सुभाष ने भारत के आजादी के अधिकार की घोषणा के अलावा फ्री इंडिया सेंटर स्थापित करने की योजना पेश किया। भारतीय क्रांति के मस्तिष्क के तौर पर काम करने के अलावा, एफआईसी के कार्यों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ वैश्विक प्रचार विभिन्न देशों में वितरण के लिए जर्मन, इतालवी, फ्रांसीसी और इस्पानी भाषाओ में एक आधिकारिक पत्र का प्रकाशन क्रांति के लिए भारतीयों को व्यवहारिक सहायता भेजने, ध्रुवीय ताकतों की ओर से इंग्लैंड के खिलाफ लड़ने के लिए एक आजाद भारतीय सेना का गठन तथा विभिन्न मोर्चों पर इंग्लैंड के लिए लड़ रहे भारतीय सैनिकों के बीच प्रचार करना। सुभाष ने विदेश कार्यालय को एफआईसी से सहयोग करने के लिए कुछ अफसरों को पूर्णकालिक तौर पर तैनात करने की अपील की।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>आजाद हिंद फौज</i></u></span></h3><p>9जुलाई 43 को पूर्ण लामबंदी की पुकार के दौरान सुभाष ने आजाद हिंद फौज के असर का प्रारूप स्पष्ट किया:-- पूर्वी एशिया में भारतीय एक ऐसी लड़ाकू सेना तैयार करेंगे जो भारत में ब्रिटिश सेना से लड़ने में सक्षम होगी। जब हम ऐसा करेंगे तो क्रांति फूट पड़ेगी, न केवल देश जनमानस के बीच बल्कि भारतीय सेना में भी पड़ेगी। पूर्वी एशिया में तीस लाख भारतीयों का नारा हो-- "पूर्ण युद्ध के लिए पूरी लामबंदी"। इस पूरी लामबंदी से मैं तीस लाख सैनिकों और---तीस मिलियन डॉलर की उम्मीद करता हूँ। "बहुत जल्दी सम्पूर्ण पूर्वी एशिया में "नेताजी" भारतीयों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए हैं, क्षेत्र में मौजूद चीनी, जापानी, थाई, वर्मी और अन्य वर्णों के लोग भी उन्हें उसी प्रकार समझते हैं।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>अस्थायी सरकार गठन की योजना</i></u></span></h3><p>अस्थायी सरकार के गठन की योजना में काम चल रहा था, परंतु सिंगापुर में जापानी सेना के निचले रैंक और हिकारी किकान के अधिकारियों का एक गुट इस योजना के पक्ष में नहीं था। उन्हें भारतीयों पर अपना असर समाप्त होने का डर सता रहा था, हालांकि 9 अक्टूबर को आईजीएचक्यू और जापानी सरकार ने कहा कि यदि सुभाषचन्द्र बोस कार्य में सफल रहते हैं तो तो वह अस्थायी सरकार को मान्यता देने को तैयार है।</p><p>राज्यनिष्ठा की सपथ लेते समय सुभाष भाउक हो उठे थे। कुछ शब्द पढ़ने के बाद लगा कि वे रो पड़ेंगे। उनके सैन्य सलाहकारों में से एक, सहवाज खान याद करते हैं कि 'वह इतने भाउक हो उठे थे कि कई मिनट बीत गए और उनके शब्द गले में फंसे भावों को बाहर नहीं ला पा रहे थे। "हम में से प्रत्येक अपने दिमाग में शपथ के शब्दों को दोहरा रहा था, हम सब आगे झुककर, भौतिक तौर पर नेताजी की छबि तक पहुंचने के प्रयास में थे। समूची दर्शकदीर्घा उनसे एकमेव थी, वहां पूर्ण शान्ति ब्याप्त थी। होंठ भिंचे और आँखे उन पर टिकी हुई,हम उनके द्वारा भावनाओं पर काबू पाने का इंतजार कर रहे थे।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>रंगून में नेताजी</i></u></span></h3><p>4 जुलाई 1944 को रंगून में भारतीयों की रैली को सम्बोधित करते हुए उन्होंने सैनिक और वित्तीय मामलों में पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया से मिलने वाले भारतीय समुदाय के सहयोग पर संतोष जताया। रंगरूट काफी थे, लेकिन समस्या उन्हें जल्दी प्रशिक्षण की थी। आजाद हिंद सरकार को भी उसके लक्ष्य 3 करोड़ रुपए से अधिक प्राप्त हो चुका था। सुभाष बाबू को उम्मीद थी कि चंदा लगातार आता रहेगा। अप्रैल में स्थापित नेशनल बैंक ऑफ आजाद हिंद लिमिटेड भी सफल रहा। उसकी कई शाखायें खुल गई थी और खुल भी रही थीं। सुभाष बाबू खासतौर पर यातायात व्यवस्था में सुधार पर जोर दिया था ताकि सरकार जापानियों पर आश्रित न रहे। उन्होंने एक नारा दिया जो विश्व प्रसिद्ध हो गया, उन्होंने कहा-- "तुम हमे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सुभाष बाबू और सावरकर</i></u></span></h3><p>कुछ लोगों का मत है कि सुभाष बाबू के बाहर जाने की सलाह लेने का श्रेय वीर सावरकर लेने का प्रयास किया हैं। उनके निकटवर्ती सही और अनुचर नरेंद्र नारायणन चक्रवर्ती ने अपने संसमरणों मे सुभाष की बाहर जाने की योजना का उल्लेख किया है। वास्तविकता यह है कि वीर सावरकर को कोई श्रेय लेने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे तो क्रांतिकारियों की नर्सरी जैसे थे वे कोई सत्याग्रही, अहिंसावादी अथवा गांधीवादी नहीं थे वे क्रांतिकारी थे जिन्होंने सैकड़ों क्रांतिकारी तैयार ही नहीं किया बल्कि हज़ारों क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत भी हैं। सारे विश्व में सावरकर का संबंध था जब गाँधी को कोई जानता नहीं था उस समय वे इंडिया हाउस में स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्रांतिकारी तैयार किया करते थे। वीर सावरकर के सचिव बालाराव का दावा था कि "22 जून 1940 को मुम्बई में सुभाषचंद्र बोस से भेंट के दौरान सावरकर ने उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता और जनांदोलन के प्रयास को रोकने और ब्रिटेन के दुश्मनों से सहयोग लेने का सुझाव दिया था। उन्होंने खासतौर पर सलाह दी कि जर्मनी और जापान जाकर वहां बंदी बनाये गए भारतीय सैनिकों को एकजुट कर बंगाल की खाड़ी की ओर से हमला करें।" बालाराव ने सुभाष और रासबिहारी बोस की जीवनी प्रकाशक को भी लिखा:--</p><p>"नेताजी सुभाषचंद्र बोस और वीर सावरकर के बीच एक गुप्त और निजी वार्ता थी,--- कि सावरकर द्वारा सुभाष बाबू को एक निश्चित सलाह दी गई थी कि वह जर्मनी जाकर वहां जर्मनी के बंदी भारतीय सैनिकों को संगठित करने का प्रयास करें। और फिर जर्मनी की सहायता से जापान पहुँचकर श्री रासबिहारी बोस का सहयोग करें। इस संबंध में जापान द्वारा युद्ध का ऐलान करने की पूर्व संध्या पर सावरकर जी ने सुभाष बाबू को श्री रासबिहारी बोस का पत्र भी दिखाया।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सेना व अन्य संस्थाओं में विद्रोह</i></u></span></h3><p>डॉ आंबेडकर के निधन के दो महीना पहले अक्टूबर 1956 में एक निजी बात चीत के दौरान 'क्लेमेंट एटली' ने खुद इसका खुलासा किया था । कलकत्ता में 1956 में राजभवन में पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल के प्रमुख न्यायाधीश और कार्यकारी गवर्नर फणीभूषण चक्रवर्ती से जो कहा उसे सार्वजनिक करने का साहस जुटाने में उन्हें दो दशक लग गया था।</p><p>हालात पर नज़र रखने वाली कई हस्तियां एकमत थीं कि भारत को आजाद कराने में "एनआईए" ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फरवरी 1955 में बीबीसी के फ्रांसिस वॉटसन के साथ एक बेबाक साक्षात्कार में डॉ भीमराव आंबेडकर ने हैरानी से कहा, मैं नहीं जानता कि श्री एटली ने अचानक भारत को स्वतंत्रता कैसे देदी । इस रहस्य को वह अपनी आत्मकथा में खोलेंगे। किसी को उनके ऐसा करने की उम्मीद नहीं थी। लेबर पार्टी ने किस कारण भारत को आजाद किया होगा, इसके प्रति अम्बेडकर ने बीबीसी को उनका अपना आकलन पेश किया था।</p><p>"सुभाषचंद्र बोस द्वारा गठित राष्ट्रीय सेना। ब्रिटिश इस देश पर इस पक्के इरादे से राज कर रहे थे कि देश में कुछ भी हो अथवा राजनीतिज्ञ जो भी करे, वे कभी सैनिक वफादारी नहीं बदल सकते। इस एक आधार पर वह अपना प्रशासन चला रहे थे और वही खंड-खंड हो गया था"। सुभाषचंद्र बोस की 'आईएनए' गतिविधियां जिन्होंने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव बेहद कमजोर कर दी थी और नौसैनिक बिद्रोह, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य को अंदाजा हो गया था कि भारतीय सशस्त्र सेनाओं पर ब्रिटिश की सहायता हेतु विस्वास नहीं किया जा सकता था। न्यायाधीश चक्रवर्ती, भारत की सबसे पुरानी अदालत स्थायी मुख्य न्यायाधीश बनने वाले पहले न्यायाधीश थे, उन्होंने भारत छोड़ने के ब्रिटेन के फैसले के बारे में गाँधी के प्रभाव के बारे में भी पूछा था। चक्रवर्ती के शब्दों में, प्रश्न सुनकर एटली के होठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान उभरी और उन्होंने धीरे से कहा न्यूनतम ---!</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>स्वतंत्रता श्रेय का असली हकदार</i></u></span></h3><p>वास्तव में हम भारतीयों को बताया ही नहीं गया कि यह देश कैसे आज़ाद हुआ ? विद्यार्थियों को यह रटाया गया कि "दे दी आजादी हमें खड्ग बिना ढल," फिर चंद्रशेखर आजाद ने गोली क्यों खायी, भगतसिंह को फांसी क्यों हुईं, स्वामी श्रद्धानंद की हत्या का मतलब क्या था? जलियांवाला बाग कांड क्यों हुआ? बिहार में हजारों लोग मारे क्यों गए? कोलकाता और नोआखाली का नरसंहार क्यों हुआ ? और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज-----! ये सब पाप नेहरू ने किया और यह प्रचार करने में व्यस्त रहे कि देश आजादी अहिंसा के रास्ते मिली और वे सब गांधीवादी थे जिन्होंने देश आजाद कराया। </p><p>1960 ऑक्सफोर्ड के नफ्फील्ड कालेज में एटली ने इतिहासकार बरुण डे से यही बात दोहराई। 1967 आजाद की वर्षगांठ पर नई दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में ब्रिटिश राजदूत 'जान फ्रीमैन' ने कहा -- 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह के बाद स्वतंत्रता निश्चित हो गई थी। सभी श्रोता हैरान थे उन्हें आज तक "नेवी विद्रोह" के बारे में कभी बताया ही नहीं गया था। स्वतंत्रता के करीब तीस वर्षों बाद ले. जनरल एस के सिन्हा ने 1 मार्च 1976 को द इस्टेटमैन में द आर्मी एन्ड द इंडियन इंडिपेंडेंस नामक लेख में एक पक्ष और दिया था। असम और जम्मू कश्मीर के गवर्नर रहे सिन्हा कहते हैं-- "आईएनए का असली असर युद्ध के दौरान की बजाय युद्ध के बाद दिखा था," वह कहते हैं-- "सेना में आईएनए के प्रति ब्यापक संवेदना थी, मुझे विस्वास है कि 90 प्रतिशत अफसर उसी लीक पर विचार कर रहे थे।" और उन्होंने आगे बताया-- 1946 में अचानक ही मैंने एक रोचक दस्तावेज देखा, डायरेक्टर ऑफ मिलिट्री इंटलीजेंस ने उसे तैयार किया था। उस पर "टॉप सीक्रेट" भारतीयों को देखने के लिए नहीं" लिखा था--- पेपर में आई एन ए का उल्लेख था, मुम्बई और जबलपुर के विद्रोह और भारतीय अधिकारियों पर और युद्ध के आरंभिक दिनों में जापानियों द्वारा गोरे देशों की अपमानजनक पराजय का सैनिकों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का उल्लेख था। इसका निष्कर्ष यह था कि अब भारतीय सेना व अफसर विस्वसनीय नहीं रह गए थे। इन सब तथ्यों से यह साबित होता है कि आजादी क्रांतिकारियों के बलिदान, आजाद हिंद फौज और इन सबके मशीहा पुरोधा आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद सरस्वती को जाता है। 'कमांडर-इन-चीफ' का अपनी ही सेना पर से भरोसा उठ चुका था! जैसा कि "बा माँ" ने अपनी आत्मकथा में कड़े शब्दों में लिखा-- "एक ब्यक्ति ने बीज बोया और उसके पश्चात सबने फल खाये।" जिसका बहुत बड़ा पार्ट व उसके वास्तविक अधिकारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेताजी के भारत लौटने पर कौन शिकार होता ?</i></u></span></h3><p>2004 में स्वप्नदास गुप्ता लिखते हैं कि 1945 अथवा उसके बाद यदि सुभाष वापस भारत लौटते तो किस पर प्रभाव पड़ता! नेताजी द्वारा अदालत के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद को सामने रखने का दूरगामी परिणाम होता, बोस की अनुपस्थिति में स्वतंत्रता के उपरांत भारत की राजनीति को नया आकर देने वाली एक बड़ी चुनौती पहले ही समाप्त हो चुकी थी। स्वप्नदास गुप्ता यह भी मानते हैं कि नेताजी देश बटवारे को रोक नहीं सकते थे। 1950 के दसक में तीन तरफा राजनीति नजर आती हिंदू महासभा के साथ कांग्रेस का पुरातन पंथी यानी राष्ट्रवादी धड़ा सरदार पटेल के नेतृत्व में, जवाहरलाल नेहरू साम्यवादी धड़े के साथ, और नेताजी सुभाष चंद्र बोस का शिकार कांग्रेस और विशेषकर गाँधीवादी, जवाहरलाल नेहरू होते। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि नेताजी ठीक से पारी चलते यानी संगठनात्मक दृढ़ता और वैचारिक लचीलापन के आधार पर वे देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री होते।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>डॉ लोहिया के विचार</i></u></span></h3><p>स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया क्या कहते हैं सुभाष के बारे में! उस समय गांधीवादियों की तरह लोहिया भी 1945 में यह मान लिए थे कि सुभाष अब इस दुनिया में नहीं रहे जबकि आम भारतीय जन सामान्य को आज भी यह विस्वास है कि सुभाष जिंदा हैं। परंतु वे कहते हैं यदि सुभाष वापस आते तो क्या होता ? वे कहते हैं कि वह नेहरू के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनते लेकिन सुभाष के पास नेहरू की चालाकी और विनयशीलता नहीं थी। मेरे ख्याल से नेहरु जी ने चालाकी की भी! आगे लोहिया कहते हैं कि "मैं जो उन्हें (सुभाष)उनके जीवन काल में नहीं दे सका, उनकी मृत्यु के पश्चात देने की अक्सर सोचता था, नेताजी हल्दीघाटी के आत्मा के प्रतिमूर्ति रूप थे। उनका लक्ष्य स्पष्ट था उन्होंने न तो हार और न ही पीछे हटने की शिथिलता स्वीकारी, और उन्होंने प्रत्येक स्थिति में कार्यवाही करने का प्रयास किया। परंतु यह विचार करना पड़ता है कि हल्दीघाटी की वह आत्मा कुछ और चतुर होती।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>उपसंहार</i></u></span></h3><p>गांधीवादी कांग्रेस के लिए भी सुभाष ने अपनी मौत से अप्रत्याशित रूप से लाभ का अवसर प्रदान किया। यदि वह जीवित रहते और भारत लौटते तो वह समूचे देश की जनता की सोच अपनी ओर खींचते और कांग्रेस का उनके साथ न रहना, उसकी आत्महत्या होती। परंतु उनके साथ मिलना भी कुछ लाभकारी सिद्ध नहीं होता, वह गाँधी नेहरू के नेतृत्व को ज्यादा कुछ करने को नहीं छोड़ते और अपने विचारों को लागू करते, जिसे गांधीवादी कांग्रेस को मानना ही पड़ता। इस तरह सुभाष बाबू 1939 में निकाले जाने का बदला भी चुकाते।</p><p>सुभाषचंद्र बोस के सामने गांधी और नेहरु बौने साबित हो गए होते क्योंकि सारे देश में सुभाष बाबू की लोकप्रियता गाँधी से कहीं आगे बढ़ गई थी इसलिए कांग्रेस ने सुभाष के खिलाफ षड्यंत्र अंग्रेजों से मिलकर रचा और यह साबित कर दिया कि सुभाष अब इस दुनिया में नहीं हैं। जबकि कई ऐसे सुबूत हैं जो यह साबित करते हैं कि सुभाष की मौत जहाज एक्सीडेंट में नहीं हुई थी, एक हिंदी पत्रिका "धर्मयुग" ने लिखा नेहरू की बहन पंडित विजयलक्ष्मी रूस से लौटकर आयीं थीं वे पार्लियामेंट में कुछ बोलना चाहती थी और जैसे ही उन्होंने कहा कि मैंने सुभाष के बारे में--- तभी नेहरु जी ने उनका मुँह जोर से दबा दिया। उस पत्रिका ने लिखा कि आखिर वे क्या कहना चाहती थी तो वे हाउस को बताना चाहती थी कि सुभाष रूस की जेल में बंद है। तो अंतिम समय तक गांधीवादी नेहरू सभी सुभाषचंद्र बोस से भयभीत थे खौफ के साये में जीवित रहे ।</p><div><br /></div><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-24004157550270450852023-11-27T06:45:00.001+05:302023-11-28T18:43:36.615+05:30मनुस्मृति की नारी...कठगणराज्य की राजकुमारी "कार्विका "<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJ2bJgJd_ZfFeMBOOPE7cJO8k77sOjKh-AEmQOlMEpghc5urlKaPa8aJA83D0uVSQuj3pu_pK_5pSXoQ38F4tJHD6InHsquYDQvutxGjG1MW2FEkE1ALJVGIFg2HvC7b_yS76sRB4jLRV38VaduDtJtprXnSWJ4W3tIp-mIaIA-0b96fSr7ItRGL_XIaAw/s960/FB_IMG_1698157153996.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJ2bJgJd_ZfFeMBOOPE7cJO8k77sOjKh-AEmQOlMEpghc5urlKaPa8aJA83D0uVSQuj3pu_pK_5pSXoQ38F4tJHD6InHsquYDQvutxGjG1MW2FEkE1ALJVGIFg2HvC7b_yS76sRB4jLRV38VaduDtJtprXnSWJ4W3tIp-mIaIA-0b96fSr7ItRGL_XIaAw/s320/FB_IMG_1698157153996.jpg" width="240" /><span style="text-align: left;">तत</span></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i><b>"यत्र नारियस्य पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता"---- (मनुस्मृति)</b></i></u></span></h3><div>भारतीय काल गणना के अनुसार वेदों का प्रादुर्भाव व सृष्टि का निर्माण एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष पूर्व हुआ था। उसके पश्चात महर्षि मनु ने मानव जीवन तथा राज्य चलाने के लिए एक विधान बनाया जिसे हम मनुस्मृति ग्रंथ के नाम से जानते हैं। हिंदू वांग्मय में नारी का पुरुषों से अधिक महत्व दिया गया है जैसे महिलाओं का नाम पहले पुरुषों का बाद में लिया जाता है जैसे सीता-राम, लक्ष्मी- नारायण इत्यादि। उसी प्रकार जैसे पुरुषों को सैनिक प्रशिक्षण दिया जाता था, शासन प्रशासन का अधिकार व प्रशिक्षण दिया जाता था ठीक उसी प्रकार महिलाओं को भी बराबर का अधिकार था। इसलिए भारतीय वांग्मय में शासक, प्रशासक महिलाएं बराबर की हकदार थीं परिणाम स्वरूप कोई वीरांगना कार्विका तो कोई नाग्निका सातकर्णि और रानी लक्ष्मीबाई के रूप में दिखाई देती हैं। </div><div>जो पश्चिम के देश यह कहते नहीं थकते की भारत में तो महिलाये बहुत पिछड़ी हुई हैं ,वे यह भू जाते है की १९५० से पहले पश्चिम के बहुत सरे देशो में महिलाओ को वोट करने तक को अधोकर ही नहीं था, और मुस्लिम देशो में तो अज भी कोई अधिकार नहीं मिलता है. </div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>(सिकंदर को पराजित करने वाली "कठ गणराज्य" की राजकुमारी कार्विका)</i></u></span></h3><p></p><p>राजकुमारी कार्विका सिंधु नदी के उत्तर में कठगणराज्य की राजकुमारी थी। राजकुमारी कार्विका बहुत ही कुशल योद्धा थी। रणनीति और दुश्मनों के युद्ध चक्रव्यूह को तोड़ने में पारंगत थी। राजकुमारी कार्विका ने अपने बचपन की सहेलियों के साथ फ़ौज बनाई थी। जिस उम्र में लड़कियाँ गुड्डे गुड्डी का शादी रचना खेल खेलते थे उस उम्र में कार्विका को शत्रु सेना का दमन कर के देश को मुक्त करवाना,शिकार करना इत्यादि ऐसे खेल खेलना पसंद थे। राजकुमारी धनुर्विद्या के सारे कलाओं में निपुण थी, दोनो हाथो से तलवारबाजी करते मां कालीका प्रतीत होती थीं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सिकंदर से युद्ध</i></u></span></h3><p>कुछ साल बाद जब भयंकर तबाही मचाते हुए सिकंदर की सेना नारियों के साथ दुष्कर्म करते हुए हर राज्य को लूटते हुए कठगणराज्य की ओर आगे बढ़ रही थी। तब अपनी महिला सेना जिसका नाम राजकुमारी कार्विका ने चंडी सेना रखी थी जो कि ८००० से ८५०० विदुषी नारियों की सेना थी, के साथ युद्ध करने का ठाना। ३२५(इ.पूर्व) में सिकन्दर के अचानक आक्रमण से राज्य को थोडा बहुत नुक्सान हुआ पर राजकुमारी कार्विका पहली योद्धा थी जिन्होंने सिकंदर से युद्ध किया था। सिकन्दर की सेना लगभग १,५०,००० थी और कठगणराज्य की महज आठ हज़ार वीरांगनाओं की सेना थी जिसमें कोई पुरुष नहीं जो कि ऐतिहासिक है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>विजयश्री राजकुमारी को</i></u></span></h3><p>सिकंदर ने पहले सोचा "सिर्फ नारी की फ़ौज है , मुट्ठीभर सैनिक काफी होंगे” पहले २५००० की सेना का दस्ता भेजा गया उनमे से एक भी ज़िन्दा वापस नहीं आ पाया।राजकुमारी की सेना में ५० से भी कम वीरांगनाएँ घायल हुई थी पर मृत्यु किसी को छु भी नहीं पायी थी। दूसरी युद्धनीति के अनुसार सिकंदर ने ४०,००० का दूसरा दस्ता भेजा उत्तर पूरब पश्चिम तीनों और से घेराबन्दी बना दिया परंतु राजकुमारी सिकंदर जैसे कायर नहीं थी खुद सैन्यसंचालन कर रही थी उनके निर्देशानुसार सेना ने तीन भागो में बंट कर लड़ाई किया और सिकंदर की सेना पस्त हो गई।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सिकंदर संधि को मजबूर</i></u></span></h3><p>तीसरी और अंतिम ८५,०००० दस्ताँ का मोर्चा लिए खुद सिकंदर आया। नंगी तलवार लिये राजकुमारी कार्विका ने अपनी सेना के साथ सिकंदर को अपनी सेना लेकर सिंध के पार भागने पर मजबूर कर दिया। इतनी भयंकर तवाही से पूरी तरह से डर कर सैन्य के साथ पीछे हटने पर सिकंदर मजबूर हो गया। सिकंदर की १,५०,००० की सेना में से २५,००० के लगभग सेना शेष बची थी , हार मान कर प्राणों की भीख मांग लिया सिकंदर ने और कठगणराज्य में दोबारा आक्रमण नहीं करने का लिखित संधी पत्र दिया राजकुमारी कार्विका को।</p><p>इस महाप्रलयंकारी अंतिम युद्ध में कठगणराज्य के ८,५०० में से २७५० साहसी वीरांगनाओं ने भारत माता को अपना रक्ताभिषेक चढ़ा कर वीरगति को प्राप्त कर लिया। जिसमे से इतिहास के दस्ताबेजों में गरिण्या, मृदुला, सौराय मिनि, जया यह कुछ नाम मिलते हैं।</p><p><span style="color: red;"><u><i>नमन है ऐसी वीरांगनाओं को </i></u></span></p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-21081651590892868472023-11-19T20:15:00.005+05:302024-03-02T21:24:55.737+05:30शिवाजी द्वारा अफजल खान का वध और शाइस्ता खां पर ..!<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixprmEcnbR3EhaCVaGNTocUHtBuZWnjzn744x-suUtBe7mtzpgujNkRd90zyv6z1AU02wz_BCABY2yN5R1_1HwlfR4LLWLn-v1n7BABBjjw_7LeW5hfq3CsgC5yt7_5N58gJ1FSGf8wHQRqMco_-6sFfx7wuwwOOMCCJU4oTUmn-TTzugWnoljtKVuTxlj/s676/FB_IMG_1700466784608.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="676" data-original-width="454" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEixprmEcnbR3EhaCVaGNTocUHtBuZWnjzn744x-suUtBe7mtzpgujNkRd90zyv6z1AU02wz_BCABY2yN5R1_1HwlfR4LLWLn-v1n7BABBjjw_7LeW5hfq3CsgC5yt7_5N58gJ1FSGf8wHQRqMco_-6sFfx7wuwwOOMCCJU4oTUmn-TTzugWnoljtKVuTxlj/s320/FB_IMG_1700466784608.jpg" width="215" /></a></div><br />" 20 नवम्बर, 1659 ई. - अफजल खां का वध"<div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i><b>अफजल खान की सौगंध</b></i></u></span> </h3><div>अफजल खां बीजापुर सल्तनत आदिलशाही का एक सेनापति था, उसने बीजापुर रियासत के दक्षिणी भाग के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वह शिवाजी महाराज के युद्ध कौशल से परिचित था, इसलिए वह शिवाजी महाराज से भयाक्रांत रहता था। शिवाजी महाराज से युद्ध करने के लिए जाते समय उसने अपनी 64 बीबियों का सिर काटकर, फिर युद्ध करने गया था। बीजापुर की तरफ से अफजल खां को छत्रपति शिवाजी महाराज के खिलाफ भेजा गया। अफजल खां 10 हज़ार की फौज समेत रवाना हुआ। अफ़ज़ल खां ने सौगंध खाई थी कि "मैं घोड़े पर बैठे-बैठे ही शिवाजी को बांध कर लाऊंगा"। शिवाजी महाराज और अफजल खां के बीच पत्र व्यवहार हुआ, जिसके तहत दोनों ने मिलकर समझौता करना स्वीकार किया। शिवाजी महाराज ने पेशवा और सेनापति नेताजी पालकर के नेतृत्व में 2 बड़ी फ़ौजों को प्रतापगढ़ के जंगलों में छिपे रहने का आदेश दिया। कृष्णजी भास्कर ने अफजल खां की योजना पहले ही शिवाजी महाराज को बता दी।</div><div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>शिवाजी महराज और अफजल खां की भेट </i></u></span></h3><p>अफ़ज़ल खां के डेरे के निकट जाने के बाद शिवाजी महाराज ने संदेशा भिजवाकर कहलवाया कि "भेंट की जगह से सैयद बांदा को हटाना होगा।" फिर वैसा ही किया गया। शिवाजी महाराज भीतर गए, जहां दोनों पक्षों के 4-4 लोग थे। खुद नेता, 2-2 शरीर रक्षक और 1-1 ब्राम्हण दूत। जब दोनों पक्षों में मुलाकात हुई, तब शिवाजी महाराज दिखने में शस्त्रहीन लग रहे थे, परन्तु अफ़ज़ल खां ने तलवार लटका रखी थी। शामियाने के बीच में चबूतरे के ऊपर अफ़ज़ल खां बैठा था। शिवाजी महाराज चबूतरे पर चढ़े। शिवाजी महाराज का कद अफ़ज़ल खां के कंधे तक ही पहुंचता था।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>और अफजल खां का वध </i></u></span></h3><p>जब गले मिलने का वक्त आया तो अफजल खां ने बाएं हाथ से शिवाजी महाराज का गला जोर से दबाया और दाहिने हाथ से कटार निकालकर शिवाजी महाराज की बाई बगल में भोंक दी, लेकिन शिवाजी महाराज ने पहले ही अन्दर एक कवच पहन रखा था, जिससे अफजल खां का वार खाली गया। शिवाजी महाराज ने बाघनखा से उसकी आँतें चीर डालीं और दूसरे हाथ से बिछवा निकालकर अफजल खां की बगल में घोंप दिया। अफ़ज़ल खां कराह उठा और चिल्लाकर कहने लगा कि "मार डाला, मार डाला, मुझको धोखा देकर मार डाला"। शिवाजी महाराज मंच से कूदकर अपने आदमियों की तरफ दौड़े। तभी सैयद बांदा ने हमला कर शिवाजी महाराज के तुरबन (पगड़ी) के 2 टुकड़े कर दिए। शिवाजी महाराज ने पहले ही पगड़ी के भीतर लोहे की एक टोपी पहन रखी थी, इसलिए सिर में घाव नहीं लगा। इतने में जीव महाला ने सैयद बांदा का एक हाथ काट दिया और अगले ही वार में सैयद बांदा का सिर धड़ से अलग हो गया। अफजल खां के आदमियों ने जख्मी अफजल खां को पालकी में बिठाया और ले जाने लगे, लेकिन शम्भूजी कावजी ने अनुचरों के पैरों पर चोट करके पालकी गिरा दी और अफजल खां का सिर काटकर शिवाजी महाराज के पास हाजिर हुए। शिवाजी महाराज ने प्रतापगढ़ किले में जाकर तोप चलाकर अपने सैनिकों को संकेत दिया, जिससे मोरो त्रिम्बक और नेताजी पालकर ने हजारों की फौज समेत बीजापुर की फौज को घेर लिया।</p><h4 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>और सबसे बड़ी विजय</i></u></span> </h4><p>बीजापुरी फौज के बहुत सारे ऊँट, हाथी व 3000 सैनिक कत्ल हुए। शिवाजी महाराज की सेना ने 65 हाथी, 4000 घोड़े, कई ऊँट, 2000 कपड़ों के गट्ठर, 10 लाख का धन और जेवर छीन लिए। अफजल खां के 2 बेटे, 2 मददगार मराठा ज़मीदार और एक बड़े ओहदे के सिपहसलार कैद हुए। अफ़ज़ल खां की अन्य स्त्रियां और उसका बड़ा बेटा फ़ज़ल खां भागने में सफल रहे। ये शिवाजी महाराज की अब तक की सबसे बड़ी विजय थी और इस विजय ने समूचे भारतवर्ष में शिवाजी महाराज का रुतबा फैला दिया। उन्होंने विजेताओं और वीरगति को प्राप्त होने वाले सैनिकों के परिवार वालों को धन, इनाम आदि दिए।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgqxaTX8MHBBcLqGKhMddCA9gyqT3wybMMqa1cwREhJgthDY-M8i3XJnp3-B90JnGeANsSB3l4UCi-ouJYT4oYlYXac_4fziQyVdkYkDDeW7kNPawZCMiGrC3_Jlujg-_9YSEJFS7AQZ-2kgAGmFZzVHnw6xTxP0ZDJiHqT3u8dsVaxy08XpFkI7LH1ixK/s815/FB_IMG_1709342286585.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="815" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgqxaTX8MHBBcLqGKhMddCA9gyqT3wybMMqa1cwREhJgthDY-M8i3XJnp3-B90JnGeANsSB3l4UCi-ouJYT4oYlYXac_4fziQyVdkYkDDeW7kNPawZCMiGrC3_Jlujg-_9YSEJFS7AQZ-2kgAGmFZzVHnw6xTxP0ZDJiHqT3u8dsVaxy08XpFkI7LH1ixK/s320/FB_IMG_1709342286585.jpg" width="283" /></a></div><p><br /></p><h4 style="text-align: left;">शिवाजी का शाइस्ता खां पर आक्रमण</h4><p></p><p>रोचक वर्णन :- 5 अप्रैल, 1663 ई. को शाइस्ता खां अपने हरम व शाही फौज के साथ पूना के उसी लाल महल में था, जिसमें बाल शिवाजी का बचपन बिता था। शिवाजी महाराज ने रात्रि के समय हमला करने का फैसला किया।</p><p></p><h3>रात्री के समय हमला </h3><p>शिवाजी महाराज ने 1000 मराठा बहादुरों को अपने साथ लिया और अपने पीछे 1-1 हजार की 2 फौजें नेताजी पालकर व मोरोपन्त पेशवा के नेतृत्व में लीं। सबसे पहले शिवाजी महाराज ने एक नकली शादी के बहाने से बाराती बनकर मराठों के साथ पूना नगर में प्रवेश किया। शिवाजी महाराज ने पूना में अपना बचपन बिताया था, इसलिए वे इस जगह से अच्छी तरह वाकिफ थे। शाइस्ता खां के महल में जश्न चल रहा था व बहुत से मुगल सो गए थे। शिवाजी महाराज ने 400 मराठों व अपने 2 अंगरक्षकों बाबाजी बापूजी व चिमनाजी बापूजी के साथ महल में प्रवेश किया।</p><h3>शिवाजी के हमले में चार अंगुलियां कटी </h3><p>चिमनाजी ने 200 मराठों के साथ हरम में व शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खां के कमरे में प्रवेश किया। शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खां की 4 अंगुलियाँ काट दीं। बाबाजी बापूजी 200 मराठों के साथ चल रहे थे, जो सामने आया उसका खात्मा कर दिया व कमरों में घुस-घुसकर सोते हुए मुगलों को भी मार दिया। इस अफरातफरी में हरम की 8 औरतें जख्मी हुईं, शाइस्ता खां का बेटा अबुल फतह मारा गया, 2 बेटे जख्मी हुए, शाइस्ता खां के 40 आदमी और 6 दासियाँ मारी गईं। 6 मराठे इस लड़ाई में काम आए और 40 जख्मी हुए। </p><h3>महराज का दबदबा पूरे देश में </h3><p>खजाइनुलफुतुह में खफी खां ने लिखा है कि "मेरा बाप उस वक्त शाइस्ता खां के पास मौजूद था। इस फसाद के होने से बादशाह आलमगीर ने नाराज होकर शाइस्ता खां को बंगाले की सूबेदारी पर भेज दिया और दक्षिण की सूबेदारी शहजादे मुअज्जम को देकर उस तरफ भेजा" अफ़ज़ल खां के वध के बाद औरंगज़ेब के मामा शाइस्ता खां जैसे बड़े ओहदे वाले सिपहसालार की ऐसी दुर्दशा करके शिवाजी महाराज ने हिंदुस्तान भर में वाहवाही लूटी।</p><p>ऐसे थे क्षत्रपति शिवाजी महराज ! बुद्धिमान, विवेकशील और उच्चकोटि के सेनापति शत्रु के साथ कब और कैसा ब्यवहार करना ! जो नीव उन्होंने हिन्दू पद्पद्शाही की रखा वह उनके उद्देश्यों की पूर्ति बाजीराव पेशवा तृतीय ने अटक से कटक कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिन्दू पद्पद्शाही का विस्तार कर भगवा ध्वज फहराने का काम किया ! </p></div></div><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-38672431625652278922023-11-09T15:29:00.005+05:302023-12-22T06:58:30.405+05:30धर्म के लिए भाई दयाला, मतीदास एवं सतिदास का बलिदान <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmm353RoMC5Gsp1QTMN8FyPBN8GLn4fSnlqS3tvDl0GmZvB9dat42HEw6P4si_qMzLdY_Lt66lKMzgQNEP42hRG3bbyOWyN01RkXx5a7h0ECTsODiPiRu58tzhhC_6MGl9mASOkdOzFN0SEv5PpbAVYSKRQW00afjoaj89XafexI2xFYhJyDSJewUjKvPU/s720/FB_IMG_1699684782503.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="514" data-original-width="720" height="228" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhmm353RoMC5Gsp1QTMN8FyPBN8GLn4fSnlqS3tvDl0GmZvB9dat42HEw6P4si_qMzLdY_Lt66lKMzgQNEP42hRG3bbyOWyN01RkXx5a7h0ECTsODiPiRu58tzhhC_6MGl9mASOkdOzFN0SEv5PpbAVYSKRQW00afjoaj89XafexI2xFYhJyDSJewUjKvPU/s320/FB_IMG_1699684782503.jpg" width="320" /></a></div><br /><i style="color: red;"><b>10 नवंबर / बलिदान दिवस</b></i><p></p><p></p><p><span style="color: red;"><b><i><u>कश्मीरी पंडितों की गुहार</u></i></b></span></p><p>मुगलों से संघर्ष चल रहा था कश्मीरी पंडित बहुत परेशान थे धर्म बचाने हेतु उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था उस समय उन लोगों को एक आशा की किरण गुरु तेगबहादुर ही दिखाई दे रहे थे वे उनके पास पहुँचे धर्म सभा बैठी पंडितों ने गुरु जी के सामने अपने आने का कारण बताया। गुरु तेगबहादुर ने कहा कि हिंदू धर्म किसी बड़े धर्मात्मा का बलिदान मांग रहा है, सभी लोग एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। तभी पीछे एक बालक की आवाज आई कि पिताजी आपसे बड़ा कौन ? प्रथम बलिदान तो आपका होना चाहिए गुरू तेगबहादुरजी ने देखा कि भविष्य का हिंदू समाज को गुरू मिल गया है और उन्होंने उस बालक को गुरू गद्दी सौंप कर बलिदान के लिए तैयार हो गए। आखिर ये बालक गुरु गोविंद सिंह के अतिरिक्त और कौन हो सकता था? अब गुरुजी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि जाओ औरंगजेब से कह दो की यदि गुरू तेगबहादुरजी को आप मुसलमान बना लेंगे तो हम सभी मुसलमान बन जायेंगे।</p><h4 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हुतात्मा भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला</i></u></span></h4><p>भाई मतीदाससिख इतिहास के सर्वश्रेष्ठ हुतात्माओं में से एक थे, भाई मतीदास का जन्म झेलम जिले के करियाला गाँव में हुआ था जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। वे ब्राह्मण परिवार से थे, भाई मतीदास के पिता का नाम भाई प्रगा था। भाई मतीदास दो भाई थे छोटे भाई का नाम सतीदास था। ये दोनों भाई भाई दयाला सहित नवें गुरू, गुरू तेगबहादुरजी के साथ बलिदान हुए थे। गुरु तेगबहादुर के पास जब कश्मीर से हिन्दू औरंगजेब के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने आये, तो गुरू तेगबहादुरजी औरंगजेब से मिलने मिलने दिल्ली चल दिये। गुरुजी अपने साथियों के साथ एक बाग में विश्राम कर रहे थे, मुगलों की सेना की टुकड़ी आ गई । आगरा के पास ही से गुरू जी को वे दिल्ली लेकर चले गए और आगरा में ही उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास तथा भाई दयाला को बन्दी बना लिया गया। ये तीनों बलिदानी गुरू तेगबहादुर के बहुत निकट थे । </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>इस्लाम अस्वीकार </i></u></span></h3><p>औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें। उन्हें डराने के लिए इन तीनों को तड़पा-तड़पा कर मारा गया; पर गुरुजी विचलित नहीं हुए । औरंगजेब गुरू तेगबहादुरजी को डिगाना चाहता था इसलिए सबसे पहले भाई मतीदास को चुना और उन्हें जंजीरों में जकड़ कर चदनी चौक लाया गया। भाई मतीदास शान्त और उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी उन्हें मृत्यु का कतई भय नहीं था, चदनी चौक पर पहले से ही भीड़ इकट्ठा हो गई थी। भाई मतीदास को पहरे में लाया गया था। काजी ने भाई मतीदास से कहा यदि तुम इस्लाम स्वीकार कर लेते हो तो तुम्हें शासन में बड़ा पद मिलेगा, तुम्हें जन्नत मिलेगी नहीं तो यातना देकर मारे जाओगे। भाई मतीदास ने कहा "क्यों समय गवां रहे हो ? मैं धर्म त्यागने के बजाय मृत्यु स्वीकार करना पसंद करूँगा।" काजी के अंतिम अंतिम इच्छा पूछे जाने पर भाई मतीदास ने कहा कि मुझे गुरुजी के सामने खड़ा करो जिससे मैं अपने गुरूजी का मुंह देख सकूँ। भाई मतीदास की अंतिम इच्छा पूरी की गई। उन्हें गुरू जी के सामने लकड़ी में सीधे बांध दिया गया और आरा चलाया जाने लगा उनके चेहरे पर कोई सिकन नहीं थी। उन्हें 9 नवंबर 1675 को चदनी चौक पर "आरे" से चीरा गया। 10 नवंबर 1675 को उनके छोटे भाई, भाई सतीदास को पानी में खौलाकर - उबालकर मारा गया तथा भाई दयाला को शरीर में रूई लपेटकर जलाकर मारा गया।</p><p>औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर, 1675 को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा। लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा। जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा – मतिदास, अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले। शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा। तुझे दरबार में ऊँचा पद दिया जाएगा और तेरी पाँच शादियाँ कर दी जायेंगी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>वही प्रश्न जो वीर हकीकत ने किया था !</u></span></h3><p>भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा – काजी, यदि मैं इस्लाम मान लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी ? काजी ने कहा कि यह कैसे सम्भव है। जो धरती पर आया है, उसे मरना तो है ही। भाई जी ने हँसकर कहा – यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ ? उन्होंने जल्लाद से कहा कि अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुँच सकूँ। यह कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे। काजी ने कहा कि वह मृत्यु के भय पागल हो गया है। भाई जी ने कहा – मैं डरा नहीं हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ। जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है; पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुँह काला हो जाता है। कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये। और अंत में 11 नवंबर 1675 को चदनी चौक में गुरू तेगबहादुरजी सिर धड़ से अलग कर दिया गया, यानी शीश काट दिया गया।</p><p>बाद में गुरू गोविंद सिंह ने भाई मतीदास, भाई सतीदास और भाई दयाला को भाई का सम्मान इन हुतात्माओं सहित पंच प्यारों को दिया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>बलिदानी परंपरा के वाहक </u></span></h3><p>ग्राम करयाला, जिला झेलम (वर्त्तमान पाकिस्तान) निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। उनके परदादा भाई परागा जी छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे। उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी। भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था। भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्दसिंह के दीवान थे। साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरिमन्दिर पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे। इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई, 1915 को केवल 26 वर्ष की आयु में फाँसी पायी थी। उनकी साध्वी पत्नी रामरखी ने पति की फाँसी के समय घर पर ही देह त्याग दी।</p><p>लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे। किसी ने ठीक ही कहा है –</p><p><span style="color: red;"><i><u>सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत</u></i></span></p><p><span style="color: red;"><i><u>पुरजा-पुरजा कट मरे, तऊँ न छाड़त खेत।।</u></i></span></p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-13548966557905351492023-11-02T08:00:00.000+05:302023-11-28T18:44:55.713+05:30महाराजा हरिसिंह जम्मू<कश्मीर <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7zFpSNY7GyActBMDx-dTYpL8AvhUGp2W7md5tnlo_U3c5I0eAwNQNUIqt-IptIUGb1xsKNL0heD70EiNAxQfn-PYSieg-d2QLSQvhBg4EFc4O0e8oDrVgCu2JagYDNsSgUnuhd86RMirD6XUmfcP9MpIU4Nz0xEDXUpwyq43iu3gHiARQq3Qy_CjmrNs0/s680/Screenshot_20231022-133646~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="680" data-original-width="519" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7zFpSNY7GyActBMDx-dTYpL8AvhUGp2W7md5tnlo_U3c5I0eAwNQNUIqt-IptIUGb1xsKNL0heD70EiNAxQfn-PYSieg-d2QLSQvhBg4EFc4O0e8oDrVgCu2JagYDNsSgUnuhd86RMirD6XUmfcP9MpIU4Nz0xEDXUpwyq43iu3gHiARQq3Qy_CjmrNs0/s320/Screenshot_20231022-133646~2.jpg" width="244" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>"महाराजा हरिसिंह"</i></u></span></h3><p></p><p>महाराजा हरिसिंह महान देशभक्त और राष्ट्रवादी थे, 1930 में गोलमेज सम्मेलन से वापस आने के बाद उन्होंने सामाजिक संरचना को ठीक करने का काम किया। वैसे उनका जीवन बहुत ही सामान्य था वे आम नागरिक जैसा जीवन जीते थे। बहुत से वामपंथी, नेहरु वादी और पाकिस्तान परस्त, पश्चिम में बैठे लेखकों ने हरिसिंह को लेकर एक बेहद प्रश्न खड़ा किया जाता है। आखिर एक हिंदू शासक को क्या अधिकार है कि वह एक ऐसे राज्य पर शासन करे, जहाँ मुसलमान प्रजा बहुमत में हो ? लेकिन यही प्रश्न वे निजाम हैदराबाद के बारे में नहीं मुँह खोलते, यह कौन नहीं जानता कि हैदराबाद रियासत का विलय किस प्रकार सरदार पटेल ने भारत में कराया! किंतु इस प्रकार की समीक्षा क्या उस ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनदेखी नहीं है जिसके कारण जम्मू कश्मीर का जन्म हुआ है। सदियों तक चली प्रक्रिया यानी बलात धर्मांतरण के कारण कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य बन गया। फिर भी हिंदू समाज अपने पहिचान के रूप में अपनी पहचान और अपनी मौलिक प्रबृत्ति, प्रकृति बनाये रखा है। ऑर्गनाइजर ने एक बार लिखा था कि ऐतिहासिक दृष्टि से कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है, कश्मीर का हिंदू साम्राज्य इतिहास के प्राचीनतम साम्राज्यों में से एक था। यह हिंदू धर्म की आध्यात्मिक स्थली है और आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की तपस्थली रही है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>महाराजा हरि सिंह की जीवन शैली </u></span></h3><p>भारत ही नहीं सारे विश्व के रियासतों के राजकुमार अपनी अनियंत्रित जीवनशैली के लिए जाने जाते रहे हैं जिनके भ्रष्ट आचरण की कहानियां चारो ओर सुनी और किस्सों के रूप में सुनाई जाती थीं। लेकिन उनके बीच में हरि सिंह एक उल्लेखनीय अपवाद नजर आते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत की बड़ी रियासतों में एक थी, इसके बावजूद उनके आलोचकों को उनके ब्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणी करने का अवसर नहीं मिला। राजा हरि सिंह हृदय के एकदम सरल ब्यक्ति थे, वे एक ऐसे ब्यक्ति थे जिनमें छल-कपट नहीं था और वे अपने मानक सिद्धांतों पर अडिग रहे, जिन्हें उन्होंने अपने और अपने परिवार के लिए तय किया था। उन्हें डिगाना असंभव था वे अपने ख़र्च को लेकर सावधान रहते थे, अत्यधिक उदार, उनकी जीवन शैली कितनी सादगी भरी थी कि अनेक बार महाराजा हरि सिंह अपनी मोटर गाड़ियों को रोककर आम नागरिकों को लिफ्ट दिया करते थे। किसी तांगे वाले का घोड़ा बूढ़ा हो गया है तो उसकी ब्यवस्था करवाना यह सब महाराज के स्वभाव में था। ऐसी अनेक कहानियां किवदंती आज भी जम्मू कश्मीर की गलियों में सुनी जा सकती हैं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>पटेल और नेहरु की राय </i></u></span></h3><p>महाराजा एक ऐसी स्थिति में फस चुके थे, कि भारत की दो बड़ी शख्सियत उनके बारे में अलग अलग राय रखते थे। नेहरू उन्हें राज्य से बाहर रखना चाहते थे क्योंकि वे राजा को, शेख अब्दुल्ला के रास्ते का कांटा समझते थे। वे रियासत शेख अब्दुल्ला को सौंपना चाहते थे, वहीं सरदार पटेल ने ऐसा रूख अख्तियार किया जिसका सार यह था कि ऐसा कोई कारण नहीं लगता कि भारत सरकार हरि सिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को चुन ले।</p><p>जैसे जैसे समय बीतता गया नेहरू गलती पर गलती करते रहे लगता है नेहरू की आँख में इस्लाम का ऐसा चश्मा लगा हुआ था कि वे शेख अब्दुल्ला को समझ नहीं पा रहे थे. वे केवल राजा हरि सिंह के पीछे पड़े हुए थे. उन्हें अपने देश की सीमाओं की भी चिंता थी कि नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता। और अंत में अगले पांच वर्षों में ही पूरी कहानी सामने आ गई और शेख अब्दुल्ला को सलाखों के पीछे डालना पड़ा। इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली में बैठकर नीति बनाने वालों से जम्मू कश्मीर और विशेष तौर पर हरि सिंह के मामले से निपटने में भारी गलती हुई।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सरदार पटेल की राय </i></u></span></h3><p>सच यह है कि इतिहास में अगर मगर को कोई स्थान नहीं होता। फिर भी राजा हरि सिंह को अगर श्री नगर रहने दिया जाता तो आक्रमणकारियों को बाहर निकलने में भारतीय सैनिकों की मदद दी जाती तो क्या बाद में जो परिस्थितियां बनी वह एक दम अलग नहीं होती। इसका उत्तर हाँ हो सकता है, सरदार पटेल चाहते थे कि हरि सिंह महारानी के साथ अपने राज्य का दौरा करें! बल्लभभाई पटेल यह जानते थे कि महाराजा की अच्छी खासी लोकप्रियता है। हरि सिंह की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी की उनके द्वारा उठाये गए सामाजिक सुधार के कदम, जिसकी बड़े पैमाने पर लोग प्रशंसा करते थे। लेकिन नेहरू केवल शेख अब्दुल्ला की ही सुनते थे इसी कारण कश्मीर रियासत का मामला अपने पास रख लिया था। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>गोलमेज सम्मलेन में महाराजा की राय </i></u></span></h3><p>महाराजा के ऊपर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने अधिमिलन पर फैसला करने में देर कर दिया उसके कारण भारत में एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई। लेकिन इस प्रकार का कोई प्रमाण नहीं मिलता बल्कि लोगों का मत है कि नेहरू ने अपने अहं को राष्ट्र से अधिक महत्व देने से समस्याएं खड़ी हो गई। लगभग हर ब्रिटिश अधिकारी यह चाहता था कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाय, पश्चिमी जगत के प्रेस खुलकर भारत के विरोध में लिख रहे थे। वास्तविकता यह है कि राजा हरि सिंह से अंग्रेजों की नाराजगी गोलमेज सम्मेलन (1930) में हुई थी, उस सम्मेलन में हरि सिंह ने अपने संबोधन में कहा था कि भारत के मामले में अंग्रेजों को अधिक उदार रवैया अपनाना चाहिए, उन्होंने अंग्रेजों को कहा था कि हम भारत के लोग तय करेंगे कि क्या करना। </p><p><span style="color: red;"><u><i><b>अधिमिलन पर शेख अब्दुल्ला के एक पत्र के उत्तर में डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जो जबाब दिया वह इस प्रकार है:-</b></i></u></span>--</p><p>"जब हम किसी ब्यक्ति की निंदा करते हैं, उस समय भी उसकी अच्छी बातों का ध्यान रखना चाहिए, सिर्फ यही एक महाराजा थे जिनमें 20 वर्ष पहले इतना साहस था कि लंदन में गोलमेज सम्मेलन के दौरान खड़े हो सके और कहा कि अंग्रेजों को भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के सपने के प्रति प्रगतिशील रुख अपनाना चाहिए। इतिहास इस बात का गवाह है कि अपने इसी कार्य के लिए वह भारत के ब्रिटिश प्रशासकों की आखों में चुभने लगे, उनकी इस पहल से भारत सरकार और आप अपना मुख्य उद्देश्य प्राप्त करने में सफल रहे। आपने श्रीनगर से उनके भाग जाने का ज़िक्र किया है यह आरोप सही और उचित नहीं है, मैंने दस्तावेजों को पढ़ा है, यह असत्य है। लॉर्ड माउंटबेटेन तथा अन्य नेताओं की स्पष्ट इच्छा के कारण महाराजा को श्रीनगर छोड़ने के लिए कहा गया था, क्या आपने उन्हें सितंबर, 1947 में पत्र नहीं लिखा था, जब आपने उन्हें भरोसा दिलाया था कि आप और आपकी पार्टी कभी उनके खिलाफ द्रोह की भावना नहीं रखते हैं। क्या आपने आपने मार्च1948 में नहीं लिखा था, जब महाराजा के पूर्ण सहयोग का सम्मान किया था और इस भावना (उनके प्रस्ताव का) की प्रशंसा की थी, आप पूरी तरह से यह समझते थे कि लोगों के हित के अनुसार महाराजा को यह बलिदान देना ही होगा और अपने फायदे के लिए तथा जिसे जिसे आप जम्मू-कश्मीर के लोगों का हित मानते थे, उसके लिए उनका पूरी तरह से इस्तेमाल करने के बाद आपको यह शोभा नहीं देता कि पूरा दोष उन पर मढ़ दें।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हरि सिंह की पीड़ा</i></u></span> </h3><p>महाराजा अपने घर से दूर हो गए लेकिन हरि सिंह अपने भागते हुए अश्वों को दूर तक देखते हुए अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर दबा लिया। हरि सिंह अपनी ही सरकार का दिया हुआ दर्द भोगने के लिए श्रापित थे लेकिन जम्मू कश्मीर के उनके अपने लोग इतने सालों बाद भी उनको भुला नहीं पा रहे हैं। वे हरि सिंह के साथ किये गए व्यवहार से स्वयं को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। अन्ततः उन्होंने अपने महाराजा के इस संसार से चले जाने के पाँच दशक बाद एक अप्रैल, 2012 को उनकी भव्य मूर्ति तवी नदी के किनारे स्थापित कर स्वयं को उऋण किया, यही महाराजा हरि सिंह की घर वापसी थी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>नेहरु का पक्षपात </i></u></span></h3><p> हरि सिंह ने जब भारत के साथ अधिमिलन के दस्तावेज पर दस्तखत किए, तब उन्होंने तटस्थ रहते हुए निर्णय लिया था। देरी अवस्य हुई लेकिन शंका कभी नहीं थी, हरि सिंह के साथ जिस प्रकार का ब्यवहार किया गया वह यही दिखता है कि जो लोग कश्मीर के मामलों से निपट रहे थे, वे जमीनी हकीकत से कोसों दूर थे। अन्य राज्यों और रियासतों की तरह ही जम्मू कश्मीर का पूरा इलाका भी वर्षो से भारत का अंग रहा है। इतिहास का प्रत्येक लेखा जोखा और वर्णन इस तथ्य की पुष्टि करता है। हरि सिंह ने इतिहास के साथ तालमेल बिठाते हुए कार्य किया और सिर्फ इस कारण भारत के साथ विलय का निर्णय लिया, क्योंकि उन्होंने किसी अन्य विकल्प पर विचार ही नहीं किया था। बेशक कोई और विकल्प था भी नहीं। इस दृष्टि से नेहरू जिस जनमत संग्रह की बात पर बार बार जोर दे रहे थे, उसके पीछे की एक वजह यह थी कि हरि सिंह हिंदू राजा थे और उनकी प्रजा मुसलमान बाहुल थी। 1947 की राजनीतिक समस्याओं के प्रति इस प्रकार का रुख अपनाने के कारण भारत को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी और वह संकट आज भी बना हुआ है।</p><p><span style="color: red;"><u><i><b>अंग्रेजो ने बदला लिया </b></i></u></span></p><p>वास्तव में जब हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि अंग्रेजों की इच्छा पूर्ति का भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पूरा ध्यान रखा। बहुत सारे लोगों को इतना ही पता है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल को13 वोट और आचार्य कृपलानी को3 वोट आये थे जिसे एक वोट भी नहीं मिला वही ब्यक्ति भारत जैसे लोकतंत्र वादी देश का प्रधानमंत्री होता है। यह सभी को पता है कि करमचंद गांधी ने बिना किसी समर्थन के नेहरु को प्रधानमंत्री बनाया यह भी अधूरा सत्य है, वास्तविकता यह है कि गाँधी जी ने भी अंग्रेजों की राय से अंग्रेजों की इच्छा से नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया । यदि पटेल प्रधानमंत्री होते तो शायद राजा हरि सिंह का निष्कासन नहीं होता वे धरातल पर सब जानते थे तो शायद आज जो कश्मीर समस्या है वह नहीं होती। इसलिए हमें लगता है कि हरि सिंह को गोलमेज सम्मेलन में अंग्रेजों के खिलाफ और भारत के पक्ष की बात रखने का दंड भुगतना पड़ा। आज भी देश के सामने जम्मू कश्मीर का सच नहीं आ पा रहा है यह एक छोटा सा प्रयास है कि एक राष्ट्रवादी राजा के साथ ऐसा क्यों हुआ किसका दोष है? देश के सामने आज भी यह प्रश्न खड़ा है।</p><p>सूबेदार</p><p>धर्म जागरण समन्वय</p><p>सोनपुर सारण, बिहार</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-10887720736396041922023-10-25T09:00:00.002+05:302023-11-01T22:22:51.710+05:30मनुस्मृति की नारी "महारानी नाग्निका सातकर्णी" <h3 style="text-align: left;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMUwNX9gNgRXD62bunYrgpIfgqyFvwM_x5_pI0vGeYjxgKXSGcHHW96k2sD1lu3CAFQ-kG-Qfy14GHElVR2LE94BqmePbQNi4OlViPEi1saFeIDF4HjP1RDVDUGWiCvZhNRxcbNh6BPRq0o-DcEl-xwNtfWJK2so6ECxY7Lxc6xFZ2Tat_FXsSBcCjGIN-/s1280/FB_IMG_1696484115174.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="1024" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMUwNX9gNgRXD62bunYrgpIfgqyFvwM_x5_pI0vGeYjxgKXSGcHHW96k2sD1lu3CAFQ-kG-Qfy14GHElVR2LE94BqmePbQNi4OlViPEi1saFeIDF4HjP1RDVDUGWiCvZhNRxcbNh6BPRq0o-DcEl-xwNtfWJK2so6ECxY7Lxc6xFZ2Tat_FXsSBcCjGIN-/w256-h320/FB_IMG_1696484115174.jpg" width="256" /></a></div><br /><span style="color: red;"><u><i> शुंग राजवंश के बाद, महारानी नाग्निका सातकर्णी</i></u></span></h3><p>विश्व की पहली साम्राज्ञी, सातवाहन ब्राह्मण वंश की महारानी नाग्निका सातकर्णी भारत ही नहीं अपितु पुरे विश्व की पहली साम्राज्ञी शासिका बनी थी सातकर्णि की अर्धांगिनी नाग्निका।पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बाद लगभग 518 वर्षों तक सातवाहन ( शालिवाहन ) राजवंश का समृद्ध इतिहास मिलता है, इसी वंश की तीसरी पीढ़ी की राज-शासिका थी, "नाग्निका"। विश्व के इतिहास में पहली महिला-शासक मानी जाती है। नाग्निका सम्राट सिमुक सातवाहन की पुत्रवधू तथा सातकर्णी की पत्नी थी, युवावस्था में ही सातकर्णी का निधन हो जाने से वह राज्य-कार्यभार सँभालती है। सातवाहन काल में राज्य शासन केंद्र था, वृहद् महाराष्ट्र, जिसमें कर्णाटक-कोंकण तक सम्मिलित थे जिसकी राजधानी प्रतिष्ठान (पैठण) थी। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>पुरुषार्थी रानी </i></u></span></h3><p>सातवाहन (शालिवाहन) काल में सीरिया, बेबीलोनिया के असुरी शक्तिओ का प्रभाव था यह इतने क्रूर थे कि जहाँ भी जाते थे लूटपाट मचाते थे , संस्कृति को नष्ट करना इनका मूल उद्देश्य होता था। जब सातकर्णि शालिवाहन सम्राट का युद्ध में निधन हुआ तो असुरी शक्ति के प्रभाव से शालिवाहन साम्राज्य को नुकसान भी हुआ था। वस्तुतः राष्ट्रनिर्माण हो जाने पर राष्ट्रविकास की संकल्पना को पूर्ण करते समय प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य सीमा रक्षण का होता है जिसमे चूक होना विनाश का बुलावा होता है।</p><p>आज भी इन बातों पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है राज्य सबल, सुन्दर, विकसित और सम्पन्न तभी हो सकेगा जब राष्ट्र निर्भय होगा। हम शान्तिप्रिय हैं और हम अहिंसा के पुजारी हैं इसका कोई मनमाना अर्थ न निकाल ले इसलिए हमें अपने राष्ट्र को सामर्थ्यशाली साधन सम्पन्न बनाना, राष्ट्रसेना सुरक्षित, सुसज्जित और प्रशिक्षित होनी चाहिए। इसी वैचारिकता को आत्म सात करते हुए महारानी नाग्निका ने कहा -भविष्य में हम अपने राष्ट्र में अन्तरिम और बाह्य कैसे भी विद्रोह अथवा आक्रमण को क्षमा नहीं करेंगे, महामन्त्री सुशर्मा, आप इस समाचार को त्वरित प्रसारित करने की व्यवस्था कीजिए! महारानी नाग्निका ने गर्जना की।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>शत्रु असुर प्रजाति के </i></u></span></h3><p>वीरांगना साम्राज्ञी नाग्निका सातकर्णि ने शालिवाहन साम्राज्य और वैदिक हिन्दू संस्कृति के सूर्य को कभी अस्त नहीं होने दिया। साम्राज्ञी नाग्निका के समय 781-764 (ई.पूर्व) 6 युद्ध हुये अस्सीरिया मेसोपोटामिया (Mesopotami , Assyria) के असुरों के खिलाफ शाल्मनेसेर चतुर्थ 773 (ई.पूर्व)और आशूर निरारि पंचम 755 (ई.पूर्व) यह असुर प्रजाति के थे। यह जिस राज्य में कदम रखते थे वहाँ के नारियों को यह अपना निशाना बनाते थे , दर्दनाक शारीरिक यातनाओं से गुजरना पड़ता था ना केवल धन लूटते थे अपितु संस्कृति का विनाश कर देते थे।</p><p>यह कोई सौ पचास हज़ार की तादात में सेना लेकर नहीं आते थे यह मेसोपोटमिया के असुर दल लाखों की संख्या में सेना लेकर आते थे।नाग्निका के राज्य शासन की राजधानी महाराष्ट्र थी। इन्होंने कई लड़ाईयां लड़ी शाल्मनेसेर चतुर्थ के साथ प्रथम लड़ाई लड़ी गई थी जहाँ इतिहासकार "रोबर्ट वालमन" ने अपनी पुस्तक "वर्ल्ड फर्स्ट वारियर" में लिखा हैं "साम्राज्ञी नागनिका ने अरब तक राज्य विस्तार की थी उनके तलवार के आगे 157 विदेशी असुरों ने घुटने टेक दिये थे"।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>युद्ध पर युद्ध</i></u></span></h3><p style="text-align: left;"> आगे "शुभांगी भदभदे" नाम की इतिहासकार "साम्राज्ञी नाग्निका नामक उपन्यास" में लिखती हैं "असुर- निरारि पंचम की 1,36,000 संख्या वाली दानव शक्ति को नाग्निका ने भारत की पुण्यभूमि से बहुत बुरी तरह खदेड़ दिया था। नाग्निका के मृत्यु के पश्चात भी इन विदेशियों की हिम्मत नहीं हो पायी दोबारा आर्यावर्त पे आक्रमण करने की। नाग्निका बेबीलोनिया, मेसोपोटमिया और अरबी हमलावरों को भारत से ना केवल खदेडती थी, अपितु उनका पूर्णरूप से विनाश कर देती थी, ताकि ये बर्बर आक्रमणकारी दोबारा भारत पर आक्रमण करने का सोच भी ना सके यह प्रसिद्ध लड़ाइयाँ कर्णाटक-कोंकण पैठण में लड़ी गयी थी।</p><p>नाग्निका ना केवल एक कुशल महारानी साथ ही साथ एक विलक्षण, रण कौशलिनी, युद्ध के 49 कला से निपुण शासिका थी।शत्रुओं के बल और दर्प (घमण्ड) का अन्त तो करती थी साथ ही साथ अगर ज़रूरत होती थी तो शत्रु का पूर्णरूप से नाश कर देती थी। नाग्निका सातकर्णि अतिकुशल राजनीतिज्ञ भी थी उन्होंने राजनीति के बल पर घोर विरोधी राज्य को भी बिना युद्ध लड़े एक छत्र शासन में ले आई थी...!</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>विश्व की पहली सम्राज्ञी </i></u></span></h3><p>विश्व की पहली साम्राज्ञी नाग्निका सातकर्णि पहली शासिका थी जिन्होंने युद्ध में नेतृत्व करते हुए खुद भी युद्ध लड़ी थी असुर दलों के विरुद्ध और अरब तक राज्य विस्तार की थी। यह बात 782(ई.पूर्व) की बात है। यह तब की बात हैं जब यूरोप में कोई शासिका बनना तो दूर घर से चौखट लांग कर जाने तक के लिए पूछना पड़ता था, तब हमारे भारत की नारी साम्राज्ञी बन कर भारत का ध्वज लहराई थी...!</p><p>नाग्निका विश्व की पहली महारानी हैं जिनके नाम का सिक्का निकला था...!</p><p><br /></p><p>साभार :- </p><p>रोबर्ट वालमन by वर्ल्ड फर्स्ट वारियर</p><p>शुभांगी भदभदे by साम्राज्ञी नाग्निका उपन्यास</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-80806996297488821332023-10-17T12:39:00.002+05:302023-11-14T09:58:58.479+05:30समाजवाद और भारत पर उसका प्रभाव--!<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibYm6HJdk0BBb1ph5HujxUSjGA6rBDi5V9dA5uGUqz61siGFpiXliQW7fUL0RrsijMB04OIzRrWo9cXBjWFPg0qEmMohKYsYxyXJZU67t2ZTQkhMg2-0Ut8z0Y71amhRnDp5MtnjT5HBGaJX3e55uV8SNgfUg8hqO1NCgZVX3Kg72Bdz-4YU-_WT6cQI4G/s561/Screenshot_20230923-142144~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="561" data-original-width="536" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibYm6HJdk0BBb1ph5HujxUSjGA6rBDi5V9dA5uGUqz61siGFpiXliQW7fUL0RrsijMB04OIzRrWo9cXBjWFPg0qEmMohKYsYxyXJZU67t2ZTQkhMg2-0Ut8z0Y71amhRnDp5MtnjT5HBGaJX3e55uV8SNgfUg8hqO1NCgZVX3Kg72Bdz-4YU-_WT6cQI4G/s320/Screenshot_20230923-142144~2.jpg" width="306" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>समाजवादी और भारत</i></u></span></h3><p></p><p>विश्व के अंदर बहुत सारे देश समाजवादी देश हैं जिसमें सोवियत रूस, जर्मनी, चीन इत्यादि। विश्व में मानवता परक जो विचारधारा है उसे सनातन धर्म, हिंदुत्व अथवा मानवतावादी विचार कह सकते हैं। इस विचार के द्वारा हज़ारों लाखों वर्षों से एक सफल आध्यात्मिक जीवन मानवीय आचरण मनुष्य को दिया। इस विचार ने "एकम सद विप्रा बहुधा वदन्ति" का उद्घोष किया, एक सत्य है और विद्वानों अपने-अपने प्रकार से उस सत्य की व्याख्या किया। यहां शास्त्रार्थ हुए अपनी बात कहने का अवसर मिला, किसी से संवाद में कोई शत्रुता नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य का ज्ञानवर्धक होना। दूसरे की चिंता करना यानी जब प्रत्येक मनुष्य दूसरे की चिंता करेगा कोई भी दुखी नहीं होगा लेकिन जब मनुष्य स्वांतः सुखाय के लिए जियेगा तो सहकार की भावना समाप्त हो जाएगी और मनुष्य दुःखी होगा। यही भारतीय संस्कृति है और यही भारतीय चिंतन है, जिसमें जियो और जीने दो का सिद्धांत दिया। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सर्वे भवन्तु सुखिनः </i></u></span></h3><p>भारतीय चिंतन में प्रत्येक प्राणियों की चिंता की गई, चींटी को चारा देने से लेकर प्रत्येक पशुओं, पक्षियों में आत्मा है जीव हत्या पाप है यह दर्शन हमारे पूर्वजों ने दिया। इतना ही नहीं तो प्रत्येक पहाड़ों में ईश्वर का दर्शन किया, नदियों में माँ का दर्शन करने का प्रक्रिया। जीव, जंतु, पशु, पक्षी सभी के पास सब कुछ है लेकिन उनके पास विवेक नहीं है और मनुष्य विवेकशील प्राणी है। इसलिए ऋषियों ने कहा सभी की चिंता मनुष्य करेगा। भारतीय चिंतन इतना व्यापक है कि ऋषियों ने सभी पशुओं-पक्षियों, पेड़-पौधों को किसी न किसी न किसी देवता का "सवारी" बताया जैसे भगवती दुर्गा की सवारी "शेर" सरस्वती की सवारी "हँस" तो "सुवर" में "भगवान विष्णु" का अवतार बताया और भगवान कृष्ण ने "गीता" में कहा कि मैं बृक्षों में "पीपल" हूँ, पेड़ पौधों को कोई न कोई औषधि सभी के प्रति श्रद्धा पैदाकर पर्यावरण संरक्षण का काम किया। जब सारा विश्व में लोग 'नंगे बदन' रहते थे क्या भोजन करना? क्या भोजन नहीं करना? का ज्ञान नहीं था उस समय मानवता का उत्कृष्ट उदाहरण भारतीय संस्कृति प्रस्तुत करती थी।</p><p><span style="color: red;"><u><i><b>किताबी विचारधारा</b></i></u></span></p><p>हज़ारों लाखों वर्षों की संरक्षित संस्कृति को विदेशी आक्रांताओं ने तहस-नहस करने का काम किया इस जियो और जीने दो की परंपरा को समाप्त करने का प्रयास किया लेकिन हमारे पूर्वजों ने संघर्ष कर उन्हें उचित जबाब दिया। विश्व के अंदर दो प्रकार का धर्म है एक वैदिक परंपरा जिसमें सनातन धर्म, जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्म आता है, जिसकी चर्चा हमने ऊपर में किया है। दूसरा प्रकार किताबी है जिसमें ईसाई, यहूदी धर्म और इस्लाम धर्म माना जाता है जिसके सिद्धांत एक जैसे हैं। चर्च का सिद्धांत है कि जो यीशु को नहीं मानता, बाइबिल में विस्वास नहीं करता और चर्च में नहीं जाता उसे जिंदा रहने का अधिकार नहीं है। सब कुछ भक्ष्य है कोई परहेज नहीं है और ऐसा करते हुए पिछले हज़ार वर्षों में 150 करोड़ लोगों की हत्या की। इस्लाम का मानना है कि जिसका कुरान में विस्वास नहीं है जो मुहम्मद को नबी नहीं मानता और मस्जिद में नमाज अदा नहीं करता वह काफिर है उसे धरती पर रहने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार इस्लाम ने अपने जन्म से लेकर आज तक करोणों लोगों की हत्या की और सारे विश्व में आतंकवाद की जननी के नाते जाना जाता है सारा विश्व इनसे परेशान है। लेकिन जो भी स्वविवेक से कुरान पढ़ ले रहा है वह इस्लाम छोड़ दें रहा है आज विश्व में एक आकड़े के अनुसार 25 % मुसलमान इस्लाम छोड़ दिया है वे अपने को एक्स मुस्लिम कहते हैं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>समाजवादी विचारधारा</i></u></span></h3><p>विश्व के अंदर समाजवाद ने दुनिया के अनेक देशों में स्वत्व की भावना समाप्त कर दिया, विश्व के अनेक देश हैं जो समाजवाद के नाम पर अपने ही देश और संस्कृति को समाप्त करने पर तुले हुए हैं। सोवियत रूस के चौदह टुकड़े हो गए जर्मनी दो टुकड़े में हुआ लेकिन राष्ट्रवाद की हुंकार भरी और पुनः वह एक हो गया। फ्रांस तथा पश्चिम के अनेक देशों की हालत अच्छी नहीं है उन्होंने शरणार्थियों के नाम पर आतंकवादियों को शरण दिया, समाजवाद के कारण वे लोगों को पहचान नहीं सके कि वे किसको शरण दे रहे हैं आखिर ये शरणार्थी जिस कुल परंपरा को मानते हैं जिस धर्म को मानते हैं उनके देशों में शरण लेने क्यों नहीं जाते अथवा वे देश उन्हें अपने देश में शरण क्यों नहीं देते ? इसके पीछे का कारण क्या है? ब्रम्हदेश से रोहंगिया मुसलमानों को निकाला गया तो वे अरब देशों की ओर गए लेकिन क्या अरब देशों ने उन्हें शरण दिया तो नहीं दिया। क्योंकि सारे विश्व में वे जिहाद करना चाहते हैं अथवा सारे विश्व का इस्लामी कारण करना चाहते हैं। लेकिन समाजवादियों के आँख में समाजवाद की पट्टी बधी होने के कारण वे अपने देश व संस्कृति दोनों की हानि कर रहे हैं। चीन ने सतर्कता बरती इस कारण उन्होंने समाजवाद की पट्टी आँख में नहीं बांधा परिणामस्वरूप वहाँ आतंकवाद पर काबू पाए हुए हैं। जापान वैदिक कुल परंपरा का देश होने के कारण सतर्क रहें और एक भी इस्लाम मतावलंबियों को "वीसा" नहीं देते वे इस्लामी देशों से रिश्ता भी नहीं रखते आतंकवाद से मुक्त हैं। श्रीलंका, ब्रम्हदेश, थाईलैंड जैसे देश सतर्क हो रहे हैं। और धीरे धीरे समाजवाद को दुनिया ज्यों ज्यों पहचान रही है उसकी विदाई होती जा रही है। समाजवाद सेकुलर नाम का एक धोखा है इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भारतीय समाजवाद</i></u></span></h3><p>देश के तथाकथित प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु समाजवादी थे, उनकी नीति भारत विरोधी थी जब देश का बटवारा धर्म के आधार पर हुआ तो पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र बन गया लेकिन भारत हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं ? जब पाकिस्तान से हिंदू भगाए जा रहे थे अथवा हिंदुओ की हत्या की जा रही थी उस समय नेहरू ने मुस्लिम प्रेम दिखा कर मुसलमानों को पाकिस्तान जाने से रोका ही नहीं बल्कि हिंदुओ को प्रताड़ित करने का काम किया। कश्मीर की समस्या नेहरू की देन थी राजा हरि सिंह जम्मू कश्मीर रियासत के राजा थे न कि चुने हुए प्रधानमंत्री, उन्होंने जब भारत में विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया तो नेहरू का कार्य प्रत्यक्ष भारत विरोधी हो गया। जब भारतीय सेना जीत रही थी उस समय नेहरू का राष्ट्रसंघ में जाना भारत विरोधी कृत्य था। समाजवादियों का देशप्रेम कुछ इसी प्रकार का था और आज भी है। धीरे -धीरे समाजवाद जातिवाद में परिणित हो गया और फिर बाद में धीरे- धीरे कब परिवारवाद में परिणित हो गया किसी को पता नहीं! आज के समाजवादी सोनिया गांधी, राहुल गांधी, लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव इत्यादि चाहे इन्हें समाजबादी कहिये या जातिवादी कहिये अथवा परिवार वादी कहिये। यही है भारतीय समाजवाद।</p><p>समाजवादियों की आर्थिक नीति को हम आसानी से समझ सकते हैं, कोटा और परिमिट कोटेदार कौन होता था ? तो कोई कांग्रेसी होता था एक प्रकार से उसे रोजगार उपलब्ध कराया जाता था। यदि आपके घर में विवाह अथवा कोई अन्य कार्यक्रम पड़ गया तो आपको कोटेदार के यहाँ जाना और सब कुछ काला बाजारी की बाजार, यदि आपको मिट्टी का तेल चाहिये तो लाइन में लगिये उसके लिए सुबह 4 बजे जागना पड़ता था। टेलीफोन तो बहुत बड़ी बात उसके लिए भी संसद कोटा पर निर्भर रहना पड़ता था। यदि आपको घर बनवाना है उस समय भी सीमेंट का भी कोटा सिस्टम। यानी पूरा देश ब्लेक मार्केटिंग का देश यही था और है भारतीय समाजवाद। इंफ्रास्ट्रक्चर पर कोई काम नहीं! ट्रेन में कोई सुविधा उपलब्ध नहीं बिना टिकट चलने का अभ्यास, चोरी, बेईमानी और घूसखोरी का अभ्यास यानी समाजवाद। "हमारी मांगे पूरी हो चाहे जो मजबूरी हो।" का सिद्धांत देशहित से कोई सरोकार नहीं। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>समाजवाद का परिणाम</i></u></span></h3><p>भारतीय समाजवाद के बारे में थोड़ी बहुत जानकारी देने का प्रयास मैंने किया है, समाजवादी विचारधारा अपनी संस्कृति, परंपरा से दूर ले जाने का काम करती है जिसका परिणाम राष्ट्र को बहुत हानि उठानी पड़ती है। विश्व के अंदर जो मुसलमान रिफ्यूजी बनकर विश्व के तमाम देशों में गए जैसे फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड इत्यादि आज वे देश आतंकवाद से परेशान ही नहीं है बल्कि उनकी संस्कृति खतरे में पड़ गई है। भारत तो सैकड़ो वर्षों से इस्लामिक आतंकवाद झेल रहा है और देश विभाजन के पश्चात समाजवादी विचारधारा ने भारत को खोखला करने का काम किया है। समाजवाद और साम्यवाद दोनों सगे भाई जैसे ही है। सोवियत रूस में साम्यवादियों की सरकार आने पर कोई चार करोड़ लोगों की हत्या की, चीन में छः करोड़ लोगों की हत्या की ऐसे अनगिनत हत्याएं इन लोगों ने किया। जिसका अंत सोवियत रूस के चौदह टुकड़े हो गए, पश्चिमी और पूर्वी जर्मनी हो गया ऐसे विश्व में अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं और चीन टूटने वाला है उसे कोई बचा नहीं सकता। अब धीरे धीरे सारे विश्व में राष्ट्रवाद का ज्वार आ रहा है, समाजवाद और साम्यवाद अपने आप काल के गाल में समाहित होते जा रहे हैं। और सारा विश्व अपनी संस्कृति, परंपरा का संरक्षण करते हुए राष्ट्रवाद की ओर बढ रहा है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>देश की आत्मा</i></u></span></h3><p>आखिर देश की आत्मा क्या है ? क्या पश्चिमी विचार जो ईसाई, यहूदी और मुस्लिम विचार है यह भारतीय आत्मा है अथवा पश्चिम की विचारधारा साम्यवाद, समाजवाद अथवा पूंजीवाद ये भारतीय चिति है? नहीं यह विदेशी विचार है न कि भारतीय विचार, ये आक्रमणकारी हैं दुर्दांत अपराधी जिसे भारत कभी क्षमा नहीं कर सकता! भारतीय चिति तो भारतीय विचार से ही आ सकती है। तो भारतीय चिति क्या है? जहाँ वेद अपौरुषेय है जिसमें मनुष्य को "अमृताः पुत्रा:" बताया गया है मनुस्मृति जो धरती का प्रथम ग्रंथ है जिसमें महर्षि मनु ने लिखा "मनुर्भव"। और फिर धीरे धीरे भारतीय चिति इस प्रकार विकसित हुई अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका ये है भारतीय चिति। गंगा, सिंधुश्च, काबेरी, यमुना च सरस्वती, रेवा, महानदी, गोदा, ब्रम्हपुत्र, पुनात्माम ये है भारतीय आत्मा। राम,कृष्ण, शंकर, बुद्ध, महावीर और नानक देव हैं भारतीय संस्कृति के पुरोधा। शंकराचार्य, माधवाचार्य, रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य, बल्लभाचार्य, नानक, कबीर दास, सूरदास, तुलसीदास, संत रविदास ये हैं भारतीय चिति के दर्शन। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, रामायण, गुरुग्रंथ साहिब,त्रिपटक और महाभारत ये है भारत की आत्मा। इस प्रकार हमें भारतीय दर्शन भारतीय संस्कृति और विदेशी विचार और संस्कृति पर विचार करने की आवश्यकता है और भारत को भारत बनाये रखने के लिए काम करने की आवश्यकता है।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-51742389895868126582023-10-08T08:57:00.002+05:302023-10-21T07:57:37.546+05:30गाँधी वध, नेहरू की साजिश (गाधी विचारों की हत्या) और ब्राह्मणों का संहार <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMW3vrWi03jnA4SyY7_c-Zksh1IbtTABHfPdO7HlBK9DxL-1lrClnadtGtG-lA4Hfabjo3fz0RNAdZQCkv7qFeM0jJ4lDq3AkTRLA9z-FJ00xhDAM2M2qmKQHGqjppHgh-dFkYEFh4TE1pg-LX_iE2xX90G8R3NfaZt1IKiK-U-2yRQD6DuyCto77uC0oK/s506/Screenshot_20230913-072136~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="349" data-original-width="506" height="221" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgMW3vrWi03jnA4SyY7_c-Zksh1IbtTABHfPdO7HlBK9DxL-1lrClnadtGtG-lA4Hfabjo3fz0RNAdZQCkv7qFeM0jJ4lDq3AkTRLA9z-FJ00xhDAM2M2qmKQHGqjppHgh-dFkYEFh4TE1pg-LX_iE2xX90G8R3NfaZt1IKiK-U-2yRQD6DuyCto77uC0oK/s320/Screenshot_20230913-072136~2.jpg" width="320" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>गाँधी बध के पश्चात गांधी के विचारों की हत्या</i></u></span></h3><p></p><p>नाथूराम गोडसे ने तो गांधी जी की हत्या की थी लेकिन गाँधी के अनुयायियों ने गांधी जी के विचारों की हत्या कर दिया। गांधी हत्या के बाद देश दो भागों में वट गया था पता नहीं कौन सा तन्त्र था जो 4-5 घंटे के अंदर ही महाराष्ट्र में सभी को पता चल गया कि गाँधी जी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को 5 बजकर 17 मिनट पर नाथूराम गोडसे ने गांधी जी की हत्या कर दी। लेकिन यह नहीं पता चला था कि ये नाथूराम गोडसे कौन है ? किसने हत्या की! देर रात तक पूरे देश में यह खबर फैल गई कि गाँधी जी का हत्यारा नाथूराम गोडसे था वह ब्राह्मण था चित पावन ब्राह्मण था। यानी पांच घंटे के अंदर उसका धर्म, जाति, गोत्र सब कुछ जानकारी महाराष्ट्र के उन्मादी कांग्रेसियों को मिल गई। जबकि उस समय अधिकांश लोगों के पास फोन नहीं हुआ करता था। यह बताना इसलिए भी आवश्यक है कि 20 जनवरी के पहले तमाम सुराग मिलने के पश्चात भी सरकारी एजेंसियां नाथूराम गोडसे को खोज नहीं पायीं थीं, लेकिन 30 जनवरी को हत्या के पश्चात कम ही समय में यानी केवल चार घंटों में नाथूराम गोडसे की जन्मपत्री पूरे देश में फैला दी गई। इसका मतलब क्या था कहीं ऐसा तो नहीं सरकार अपनी कमी व असफलता को ढ़कने के लिए यह काम किया और देखते ही देखते अहिंसा के पुजारी के अनुयायियों यानी कांग्रेसियों ने पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों का कत्लेआम शुरू कर दिया। यह गांधी जी के विचारों की प्रथम बार हत्या करने का काम किया और आज तक करते आ रहे हैं।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>सरनेम देखकर हिंसा ब्राह्मणों पर हमला </u></span></h3><p>महाराष्ट्र के कपहरे गांव के एक परिवार को इसलिए जिंदा जला दिया गया क्योंकि उस परिवार के सरनेम के आगे गोड्से लिखा था, जबकि उस परिवार का नाथूराम गोडसे से कोई लेना-देना नहीं था। गाँधी वादियों के निशाने पर चितपावन ब्राह्मण थे देखते ही देखते अहिंसा के पुजारियों ने सभी ब्राह्मणों को निशाना बनाना शुरू कर दिया उस समय जिसका भी उपनाम गोखले, कुलकर्णी, आप्टे, गोड्से, रानाडे, देशपांडे, जोशी उपनाम मिला अहिंसा वादी भीड़ उनपर हमलावर हो गई। जबलपुर के एक अखबार "उषाकाल" ने लिखा--</p><p>"महाराष्ट्र के सतारा जिले के चार सौ गाओं में हज़ारों ब्राह्मणों पर हमले हुए और करीब पंद्रह सौ ब्राह्मणों के घर जला दिए गए। उड़तारे गांव में एक कुलकर्णी परिवार की महिला और उसके पोते को जिंदा जला दिया गया। वहीं पंचनगी में एक स्कूल को इसलिए जला दिया गया क्योंकि इसका संचालन एक ब्राह्मण कर रहा था। सांगली में एक कपड़ा मिल और टीबी अस्पताल को आग लगा दी गई। कोल्हापुर में आरएसएस के नेता जी.एच. जोशी का पूरा कारखाना जला दिया गया और शहर के माने जाने फोटोग्राफर भालजी पेंढारकर का ढाई लाख रुपये का स्टूडियो पूरी तरह भस्म कर दिया गया।"</p><p>बम्बई विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइसचांसलर और भारत रत्न से सम्मानित 'पी.वी.काने' एक पत्र सरकार में बैठे कई नेताओं को लिखा था, "गांधी जी की हत्या के बाद गुंडों ने बम्बई में ब्राह्मणों के घरों को जला दिया है, यहां तक कि औरतों पर भी हमले किया है और उनके साथ बदसलूकी की गई। ऐसा तो हिंदू-मुस्लिम दंगो में भी नहीं होता।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कांग्रेस का दंगाई स्वभाव</i></u></span></h3><p>कहने को तो सभी कांग्रेसी गांधी वादी यानी अहिंसावादी थे लेकिन अब वे गांधी जी के विचारों की हत्या करने पर उतारू थे, महाराष्ट्र के ब्राह्मण बिरोधी दंगे के लिए केवल काग्रेसी कार्यकर्ता ही दोषी नहीं थे बल्कि उनका नेतृत्व बड़े बड़े नेता कर रहे थे। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिस्र के अनुसार इस हिंसा में कहीं न कहीं काग्रेसी योजना लग रही थी, द्वारका प्रसाद मिश्र की पुस्तक "लिविंग एन एरा" में लिखा है!</p><p>"गांधी जी की हत्या के बाद ब्राह्मणों के घरों और दुकानों पर हमला करने के साथ उन्हें आग के हवाले करने का भी प्रयास किया गया। ब्राह्मणों द्वारा संचालित संस्थाओं को भी नहीं बक्सा गया। नागपुर के जोशी हाईस्कूल में आग लगा दी गई और फायरब्रिगेड जब पहुंचा तो भीड़ ने उसे वापस लौटने को मजबूर कर दिया। ब्राह्मणों के विरुद्ध हिंसा के भयंकर और दिल दहला देने वाले मामले में ज्यादातर कांग्रेसी थे। इनमें से कुछ तो कांग्रेस के पदाधिकारी भी थे।" </p><p>द्वारका प्रसाद मिश्र ने साफ-साफ लिखा है कि ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा करने वाले न केवल कांग्रेस कार्यकर्ता थे, बल्कि इसमें कांग्रेस के बड़े नेता शामिल थे, मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मिश्र ने जब इसे रोकने की कोशिश की तो ऊपर से दबाव आने लगा। उन्होंने अपनी किताब में यह सब लिखा है।</p><p>"हिंसा के आरोप में सैकड़ों कांग्रेसियों को गिरफ्तार किया गया था लेकिन इन्हें रिहा करने के लिए मुझ पर काफी दबाव बनाया गया। नागपुर में बड़े कांग्रेसियों की बैठक हुई जिसमें हमारी काफी आलोचना की गई।और लोगों ने धमकी भी दी कि मेरी शिकायत दिल्ली में सरदार पटेल से करेंगे। तब मैंने इन लोगों को कहा कि क्या वे दिल्ली से एक ऐसा आदेश ला सकते हैं, जिसमें कांग्रेसियों को कानून में हिंसा करने की छूट दी गई है?"</p><p>ब्राह्मणों के खिलाफ हिंसा में कांग्रेस के नेता सम्लित थे। साठ के दशक में प्रकाशित हुए एक शोध पत्र का शीर्षक 'द शिफ्टिंग फॉर्चुनस् ऑफ चितपावन ब्रहमिन्स फोकस ऑन 1948' है, इसमें पैटरसन ने लिखा है।</p><p>"गोड्से के कृत्य की वजह से गैर ब्राह्मणों को चितपावनो से उनके एक लंबे समय प्रभुत्व का बदला लेने का मौका मिल गया।कथित तौर पर मराठा राजनेताओं द्वारा संचालित भीड़ ट्रकों में भरकर आयी और बदले की भावना से ब्राह्मण मुहल्लों में जा घुसी। फरवरी 48 में आधिकारिक तौर पर उनके एक हजार मकान जला दिए गए और अनगिनत लोग मारे गए।" नेहरू ने इस सच्चाई छुपाने का काम किया</p><p>देश भर में देश विभाजन में बीस लाख लोग मारे गए स्थान-स्थान पर उनके आकड़े मिल जायेंगे, इतना ही नहीं देशभर में जो हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए अलीगढ़, मुरादाबाद, मेरठ, रामपुर, भागलपुर व गुजरात इत्यादी दंगों के रिकार्ड मिल जायेंगे, उनके रिकार्ड मौजूद हैं लेकिन ब्राह्मण बिरोधी दंगो हिंसा का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलेगा। ब्राह्मण बिरोधी दंगे तो हुए लेकिन इसमें कितने ब्राह्मण मारे गए इसका कोई जिक्र नहीं मिलेगा। गाँधी टोपी पहनने वाले अहिंसा के पुजारियों ने कैसा खूनी खेल खेला यह समझा जा सकता है। पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों की हत्याएं हुई लेकिन नेहरू सरकार ने इस सच्चाई को कभी बाहर नहीं आने दिया, किसी भी रिचर्स स्कालर को 1948 के ब्राह्मण बिरोधी दंगों के बारे में पुलिस उन फाइलों तक पहुंचने नहीं दिया। गांधी हत्या के बाद सर्वाधिक हिंसा हिन्दुराष्ट्रवादियों के गढ़ मुम्बई, पुणे और नागपुर के साथ साथ सतारा और कोल्हापुर में भी हुई। हज़ारों चितपावन ब्राह्मणों ने अपना गांव छोड़ दिया और मुंबई, पूना जैसे शहरों में जाकर बस गए।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>एन.वी. गाइडगिल तत्कालीन मंत्री</i></u></span></h3><p>गाइडगिल स्वयं चितपावन ब्राह्मण थे उन्होंने अपनी पुस्तक "गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड" में लिखते हैं,-- "गांधी जी की हत्या के कुछ घंटों बाद मुझे सूचना मिली कि बम्बई में ब्राह्मणों को उनके घरों से निकाल कर मारा जा रहा है। मैंने तत्काल इसकी सूचना गृहमंत्री सरदार पटेल को दी। यहां तक कि दिल्ली में रहने वाले महाराष्ट्रीयन भी घबराये हुए थे। उस दौर में कोई भी महिला अगर महाराष्ट्रीयन साड़ी पहन कर निकलती तो उसे गोड्से समाज का कह कर फब्तियां कसी जाती थी। गांधी की हत्या के बारह दिन बाद सरदार पटेल ने मुझसे कहा कि आपको गांधी की स्मृति में दिल्ली में यमुना नदी पर होने वाले समारोह की अध्यक्षता करनी है, लेकिन कई कांग्रेसी इसका विरोध कर रहे हैं। तब मैंने पटेल से कहा, 'अगर कई कांग्रेसी यह नहीं चाहते कि एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण गाँधी के कार्यक्रम की अध्यक्षता करे तो मुझ पर थोपा नहीं जाना चाहिए।' तब सरदार पटेल ने कहा कि, "मैं उन्हें यह बताना चाहता हूं कि हम महाराष्ट्रीयनों के खिलाफ नहीं हैं।"</p><p>सच्चाई यह है कि कांग्रेस के अंदर व्यापक रूप से ब्राह्मणों के अंदर नफरत फैल चुकी थी, गोड्से ने जो किया उसके नाम पर आज भी हिंदूवादियों को बदनाम किया जाता है, लेकिन गांधी हत्या के बाद गाँधीवादियों अथवा नेहरूवादियों ने जो कुछ किया उसका हिसाब कौन देगा ? गांधीवाद और अहिंसा का ढोंग करने वाली सोच आज भी जिंदा है।दरअसल राष्ट्रवादियों को खलनायक की तरह प्रस्तुत करने वाले वामपंथी व नेहरूवादी इतिहासकारों को यह सूट नहीं करता है कि इस घटना के बारे में बताएं जिसमें ब्राह्मणों का संहार हुआ था।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKztJ--BMkPOiz7Vi3cBGYlk3xjuDFUoMnlQYMHHbFTc7RbFpNaUyZe1-js9TCHWkxYRC4n9JgfBSN6FOWpWUOL3-3NNLsDTUP1jywcp6R3VNmWQ9r1nUExgboxlLGsJV55p5ZmEa2-4P7OTRARrh3cIdRxP2tpbl8w-Qoj00tIirOP6Hk6dPditsBjouM/s479/Screenshot_20230913-072136~3.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="289" data-original-width="479" height="121" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKztJ--BMkPOiz7Vi3cBGYlk3xjuDFUoMnlQYMHHbFTc7RbFpNaUyZe1-js9TCHWkxYRC4n9JgfBSN6FOWpWUOL3-3NNLsDTUP1jywcp6R3VNmWQ9r1nUExgboxlLGsJV55p5ZmEa2-4P7OTRARrh3cIdRxP2tpbl8w-Qoj00tIirOP6Hk6dPditsBjouM/w200-h121/Screenshot_20230913-072136~3.jpg" width="200" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जेल से गोड्से की प्रतिक्रिया</i></u></span></h3><p></p><p>14 नवंबर 1949 को गोड्से ने माडखोलकर को एक समाचार पत्र के लिखे लेख के जबाब में एक पत्र लिखा जो बाद में पुणे से प्रकाशित 'सोबत' में छपा!</p><p>"आपको इस बात का दुःख है कि हत्या करने वाला आपके समाज में से ही एक है। इससे आपको दुःख और लज्जा महसूस हुई होगी। गांधी हत्या के बाद जो घटनाएं (ब्राह्मण बिरोधी हिंसा) हुई थी, उसे जानने के पश्चात मेरी भावनायें भी कुछ हद तक आपके जैसे ही हो गई थी। लेकिन गांधी जी ने शुरू से ही हिंदुओ से दया के नाम पर भयानक आघात किया। दिल्ली की ठंढ में हिंदू शरणार्थी जब पेड़ो के नीचे नहीं रह पाए तो अपनी जान बचाने के लिए मस्जिदों के छत के नीचे चले गए। लेकिन गाँधी जी ने अपने प्राणों को दांव पर लगाकर उन्हें मस्जिदों में नहीं रहने दिया। शरणार्थियों को रहने की जगह न देकर गांधीवादी सरकार ने हजारों पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को ठंड के दिनों में गटर और सड़क के किनारे रहने को मजबूर किया। श्री माडखोलकर जी सिर्फ एक पल के लिए सोचिए उन हज़ारों विस्थापित पंजाबी महिलाओं में से एक आपकी धर्मपत्नी होती तो-? नहीं.. नहीं.. इस कल्पना को पल भर से ज्यादा अपने मन में न रखें। किन्तु यह सवाल मैं आपसे पूछता हूं कि आप इस तरह के अत्याचार करने वाले मनुष्य के विषय में किस भावना से लिप्त होंगे? ये कहानी भावनात्मक कल्पना नहीं है, बल्कि हकीकत है।"</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सावरकर से नेहरू को भय और डॉ आंबेडकर</i></u></span></h3><p>देश विभाजन से हिन्दुओं के जन धन के नुकसान पहुंचा था हिन्दुओं के अंदर गाँधी, नेहरू के खिलाफ प्रतिक्रिया थी नेहरु जी को भय था कि आरएसएस और हिंदू महासभा की लोकप्रियता बहुत तेज बढ़ रही है। अभी तो नेहरु मनोनीत प्रधानमंत्री थे उन्हें लगता था कि यदि चुनाव हुआ तो कहीं हिंदू महासभा, वीर सावरकर की लोकप्रियता आगे न आ जाये। इस कारण नेहरु गाँधी हत्या का उपयोग ठीक प्रकार से कर रहे थे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण, आरएसएस के कार्यकर्ताओं तथा हिंदूवादियों को कुचल दिया जाय ये योजना बना रहे थे। जहाँ एक ओर ब्राह्मणों पर हमले हो रहे थे दूसरी ओर संघ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था और फिर वीर सावरकर कैसे छूट जाते जो उस समय नेहरु जी से कहीं अधिक लोकप्रिय हो रहे थे। गांधी हत्या में सावरकर को उम्र कैद हो जाय इसके लिए सरकारी सिस्टम जी जान से जुटा हुआ था। इस मामले में गंभीरता इस बात से समझा जा सकता है कि खुद प्रधानमंत्री नेहरु पर भी यह आरोप लगा कि वे सावरकर को फसाना चाहते हैं। नेहरु की नियति पर शक करने का कोई और नहीं बल्कि डॉ आंबेडकर थे। असल में लालकिले की अदालत में गाँधी हत्याकांड का केस चल रहा था, तब सावरकर के वकील एल वी भोपटकर को अम्बेडकर ने मिलने के लिए बुलाया था। इस मुलाकात के बारे में मलगावकर लिखते हैं।</p><p>"ट्रायल के दौरान अक्सर भोपटकर हिंदू महासभा के दफ्तर में रुक जाए करते थे। भोपटकर ने बताया कि एक सुबह उनके लिए फोन आया, जब उन्होंने फोन उठाया तो रिसीवर पर आवाज आयी कि मैं बी आर अम्बेडकर बोल रहा हूँ, क्या शाम को आप मुझसे मथुरा रोड के छठे मील पर मिल सकते हैं? उस शाम जब भोपटकर खुद कार चलाकर तय स्थान पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि डॉ आंबेडकर पहले से ही उनका इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने भोपटकर को अपनी कार में बैठने को कहा, जिसे वह खुद चला रहे थे। कुछ मिनटों बाद उन्होंने कार रोका और भोपटकर को बताया, 'तुम्हारे मौक्किल सावरकर के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं है, पुलिस ने बेकार के सबूत बनाये हैं। नेहरु कैबिनेट के कई सदस्य इस मुद्दे पर उनके खिलाफ है, लेकिन दबाव में कोई कुछ नहीं कर पा रहा। फिर भी मैं तुम्हें बता रहा हूँ कि सावरकर पर कोई केस नहीं बनता, तुम जीतोगे। हैरान भोपटकर ने पूछा कि 'तो दबाव कौन बना रहा है... जवाहरलाल नेहरू? लेकिन क्यों?.."</p><p>31 जनवरी 1948 की सुबह बम्बई में गाँधीवादियों का तांडव जारी रहा ब्राह्मणों के साथ हिंदू वादियों पर हमले हो रहे थे। सुबह 10 बजे के आस पास एक भीड़ सावरकर सदन के बाहर आकर जमा हो गई 64 वर्ष के सावरकर बीमार चल रहे थे प्रतिदिन की तरह वे अपने कमरे में आराम कर रहे थे तभी भीड़ ने उनके घर पर हमला बोल दिया सावरकर सदन पर सैकड़ो पत्थर फेंके जा रहे थे सावरकर की समृद्ध लाइब्रेरी तहस नहस कर दिया गया। अब किसी वक्त सावरकर पर हमला हो सकता था कि पुलिस पहुंच गई भीड़ को तीतर बितर कर दिया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>गाँधी के विचारों की हत्या </u></span></h3><p>वीर सावरकर तो जैसे-तैसे बच गए लेकिन उनके छोटे भाई स्वतंत्रता सेनानी 'डॉ नारायण सावरकर' शिवाजी पार्क में ही रहते थे, भीड़ ने पहले उनके घर पर पथराव किया फिर दरवाजा तोड़कर नारायण सावरकर को किसी अपराधी की तरह घसीट कर बाहर निकाला, सड़क पर उन्हें लाठी डंडों से से पीटा नारायण सावरकर जब सड़क गिर गए गाँधी वादी अहिंसा के पुजारियों ने उनपर ईट पत्थरों की वरसात शुरू कर दिया। यह स्वतंत्रता सेनानी जबतक बेहोश नही हो गया तब तक अहिंसावादियों ने उन्हें मारने बंद नहीं किया। वास्तव में इन अहिंसावादियों कांग्रेसियों को आज़ादी कैसे मिली उसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ी इसका कोई ज्ञान इनके पास नहीं था। क्योंकि ये तो गीत गाते रहे "दे दी आजादी हमे खड्ग बिना ढाल", इन्हें क्या पता कि सावरकर वन्धुओं ने देश आजादी के लिए कितना कष्ट उठाये हैं, उन्हें क्या पता कि हजारों क्रांतिकारियों ने अपनी आहुति दी है, उन्हें क्या पता कि देश विभाजन के साथ बीस लाख हिंदुओं - लोगों की हत्या हुई थी। और इसका जिम्मेदार जो था ! उसी की तो साजिश थी और उसी साजिश के शिकार सावरकर बंधु व राष्ट्रवादी लोग थे, यह सब साजिश करके नेहरू अपना भविष्य सुरक्षित करना चाहते थे।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-68075538920419530642023-10-01T00:30:00.001+05:302023-10-01T13:53:40.667+05:30भारतवर्ष की आत्मा<p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBLQk5AY6faUi7vxbMEI7SOMr5nbApgBMPnRGHmVnR61ZPYpHdwHua3HzZGf_07S0SYNv4f90KfZ4TY56RZJb7ABgKhwS11oWuWR_f3Ybithm3AxGQ1LtqdTr4uC4F0H7W3R-UxkGxonC_IXAG4Iyt8bWL-1fDfSuN_tNDiiirdi8f8pWrmcVa1GG4gsIt/s1207/Screenshot_20230727-224119~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1207" data-original-width="976" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiBLQk5AY6faUi7vxbMEI7SOMr5nbApgBMPnRGHmVnR61ZPYpHdwHua3HzZGf_07S0SYNv4f90KfZ4TY56RZJb7ABgKhwS11oWuWR_f3Ybithm3AxGQ1LtqdTr4uC4F0H7W3R-UxkGxonC_IXAG4Iyt8bWL-1fDfSuN_tNDiiirdi8f8pWrmcVa1GG4gsIt/s320/Screenshot_20230727-224119~2.jpg" width="259" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>राष्ट्र की आत्मा</u></span></h3><p></p><p>जब हम भारत और भारतीय राष्ट्र के बारे में विचार करते हैं तो यह ध्यान में आता है कि यह राष्ट्र हजारों लाखों वर्ष ही नहीं तो करोङो वर्ष पुराना है। हमारा देश हमारा राष्ट्र वैदिक कालीन राष्ट्र है, काल गणना के अनुसार यह राष्ट्र ''एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष'' पुराना है यह काल गणना सत्य पर आधारित है। महाभारत के शान्ति पर्व में 'बाण शैया' पर पड़े भीष्म पितामह युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं, "न राज्यम न राजशीत न दंडो न दण्डिका।" पितामह कहते हैं कि हे पुत्र जब ये राज्य नहीं थे, जब कोई राजा नहीं था उस समय न कोई गलत काम करता था न कोई दंडाधिकारी ही था। वह काल वैदिक काल था। उस समय ऋषियों के बताए हुए मार्ग पर समाज चलता था, तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है, "चलहिं स्वधर्म सुनै श्रुति नीति।" उस समय राष्ट्र जागरण का काम ऋषियों मुनियों के अनुसार होता था। "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान।" ये वेदों की उद्घोषणा थी जिसे पुरोहित पूरा करते थे जिसका प्रमाण आज भी गांवों में हमारे पुरोहित दर्शाते रहते हैं।</p><p> राष्ट्र क्या है ? क्या राष्ट्र जमीन का टुकड़ा है? क्या राष्ट्र एक समुदाय है ? क्या राष्ट्र जड़ बस्तु है ? नहीं! जब हम भारतीय राष्ट्र की बात करते हैं तो यह राष्ट्र एक जीता जागता हुआ विराट पुरूष के समान है। जो जड़ नहीं चेतन है जो जमीन का टुकड़ा नहीं बल्कि कण कण में देवता का वास यानी श्रद्धा वसती है इसलिए हमारे ऋषियों ने तीर्थों का निर्माण किया उत्तर में कैलाश मानसरोवर से पहले दक्षिण रामेश्वरम पूर्व में परसुराम कुंड से सुदूर पश्चिमी भाग में द्वारका हिंगलाज माता ये तीर्थाटन श्रद्धा केन्द्रों की रचना जीता जागता हुआ राष्ट्र में ही हो सकता है। ऋषि अगस्त से लेकर वशिष्ठ, विश्वामित्र, कणाद, गौतम भृगु ऋषि और जमदग्नि तक वैदिक काल में इस राष्ट्र को जागृत कर भारतीय राजाओं को संस्कारित कर समाज के प्रति जबाबदेह बनाया। जैसे ऋषि महर्षि हुए ठीक उसी प्रकार हमारे यहाँ राजा, चक्रवर्ती सम्राट हुए कोई राजा हरिश्चंद्र, राजा सुदास, राजा दियोदास, राजा मनु, विवास्वानु मनु, इक्ष्वाकु, राजा अज जिन्होंने इस महान संस्कृति के निर्माण में अहम भूमिका निभाई और धरती के प्रथम राजा पृथु राजा बिदेह जनक जिन्होंने धरती पर कृषि करना गोपालन करना सिखाया और जन मानस को आत्म सम्मान से जीवन जीना सिखाया। यह राष्ट्र निर्माण की एक लंबी प्रक्रिया है जो हमारे जिंश में घुल मिल गई है इस नाते हमे किसी भी विदेशी राष्ट्र से राष्ट्रीयता सीखने की आवश्यकता नहीं है।</p><p> यद्यपिभारतीय शब्द धर्म अंग्रेजी शब्द रिलीजन के पर्याय बन गया है लेकिन इन दोनों के अर्थ एक जैसे नहीं है। धर्म ब्रम्हांड के व्याख्यागत नियमों की व्याख्या करता है जबकि रिलीजन विश्वासों एवं अनुष्ठानों को निरूपित करता है। धर्म मनुष्य के कर्मो से जुड़ा है और यह सामाजिक जीवन को नियमित एवं नियंत्रित करता है, इस प्रकार धर्म का अर्थ रिलीजन के क्षेत्र से अधिक व्यापक है। सामान्यतः धर्म के तीन पक्ष होते हैं-- धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकांड, धार्मिक विस्वास एवं संगठन। अनुष्ठान धार्मिक व्यवहारों से संवंधित है, जबकि विस्वास का सम्वन्ध आस्था के श्रोतों और प्रतिमानों से है। वह क्रियाविधि जिसके द्वारा धर्म सदस्यों का व्यवहार, अपेक्षाओं, परिस्थिति एवं भूमिका का प्रबंधन करता है, यह धर्म के संगठन का पक्ष है। भारतीय समाज अभी भी काफी हद तक धर्म एवं परंपरा केंद्रित समाज बना हुआ है, परंतु भारतीय राष्ट्र राज्य अपने उपनिवेशवादी विरासत के कारण भारत एवं इसके नागरिकों को धर्म निरपेक्ष बनाने पर जोर देता रहता है। सरकारी स्तर पर धर्म निरपेक्षता का एक अर्थ सभी धार्मिक परंपराओं से समान दूरी का भाव रहा है तो दूसरी ओर इसका अर्थ राज्य के कार्य व्यवहार में अधार्मिक बुद्धिवाद अथवा यूरोपीय ज्ञानोदय द्वारा प्रचारित आधुनिक नास्तिकता का प्रसार हो रहा है। दोनों ही अवधारणाओं के प्रवक्ता राज्य द्वारा दी जाने वाली शिक्षा को धर्म निरपेक्ष बनाने पर जोर देते रहे हैं, फलस्वरूप भारतीय समाज एवं भारतीय राज्यों में धर्म के संबंध में अंग्रेजी राज्य के समय से ही अंतर्विरोध रहा है।</p><p>इसके विपरीत भारत में आज भी लोग जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त धार्मिक बन्धन से मुक्त नहीं है, भारतीय समाज केवल पूजा- पाठ या संस्कारों में से ही धर्म की आवश्यकता नहीं पड़ती बल्कि उनका प्रत्येक कार्य चाहे वह समाजिक हो अथवा ब्यक्तिगत, धर्म के बंधन से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि भोजन-जलपान, आना-जाना, लेन-देन और सोना-जगना इत्यादि सभी बातों में धर्म की छाप दिखाई देती है, भारत के प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी 'धर्म' शब्द मत व सम्प्रदाय के अर्थ में प्रत्युक्त नहीं हुआ, वरन सर्वत्र स्वभाव और कर्तब्य के ही अर्थों में इसका प्रयोग किया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसका जो स्वभाव है वही उसका धर्म है। धर्म का सम्बंध मनुष्य की उत्कृष्ट आकांक्षाओं से भी है, इसे नैतिकता का प्रसाद माना जाता है। इसमें ब्यक्तिगत आंतरिक शांत एवं सामाजिक व्यवस्था के स्रोत निहित होते हैं, मानव जाति प्रायः अनिश्चितता की स्थिति में रहता है। जीवन की परिस्थितियों पर नियंत्रण करने की मानवीय क्षमता सीमित है, एतएव ऐन्द्रिक अनुभवों से इतर मानवीय वास्तविकता से संबंध बनाने की आवश्यकता होती है, इस आवस्यकता की पूर्ति धर्म के द्वारा होती है।</p><p> भारत में जिसे धर्म कहते हैं वे इस प्रकार से है-- सनातन जिसमे हिंदू, बौद्ध, जैन और सिक्ख इनके मूल भारत की प्राचीन धार्मिक परंपरा में दिखाई देते हैं। भारत के प्रत्येक गाँव अथवा शहर में धर्म के प्रतीक मंदिर, बौद्ध स्तूप, जैन मंदिर और गुरुद्वारा के रूप में मिलते हैं। भारत में धर्म के दो पहलू है ब्यक्तिगत और सामुहिक, भारत में धर्म के सामूहिक पहलू पर सर्वाधिक बल दिया जाता है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भारतीय जीवन पद्धति यानी धर्म</i></u></span></h3><p>अपने समाज में धर्म का संबंध वस्तुतः समुदाय से है न कि व्यक्ति से। भारतीय परंपरा वैयक्तिक विस्वासों की स्वायत्तता तथा व्यक्ति द्वारा ईश्वर तत्व की खोज की महत्ता को रेखांकित करती है, इस तरह के व्यक्तिगत प्रयत्नों को आध्यात्मिकता कहा जाता है जबकि समाजशास्त्र में सामान्यतः धर्म की परिकल्पना नैतिक जीवन को सुनिश्चित करना सामुहिक प्रयास के रूप में की जाती है।</p><p>आनंद कुमारस्वामी, ए. के. सरण एवं विद्यानिवास मिस्र जैसे विद्वानों का मत है कि हिंदू धर्म वर्तमानजीवी धर्म है, वह सत्य और ऋत का गठबंधन है। यह मनुष्य स्वभाव में है कि वह अतीत, वर्तमान और भविष्य में एक साथ जिये बिना नहीं रह सकता, अतीत से जुड़ने के पीछे पलायन का भाव यूरोपीय समाज में मिलता हो पर भारत में अतीत से जुड़ने का अर्थ वर्तमान की संभावनाओं का विस्तार है, वर्तमान से पलायन नहीं! वर्तमान केवल अतीत से सनातन शास्वत मूल्य को भविष्य की यात्रा के पाथेय के रूप में सौपने वाला एकमात्र माध्यम है, एकमात्र माध्यम होने के कारण वर्तमान अतीत और भविष्य दोनों से अधिक महत्वपूर्ण है। पश्चिमी दृष्टि में प्रकृति या प्रकृति की शक्तियां मनुष्य से अलग है और इसीलिए इन दोनों में स्पर्धा है, पश्चिमी मनुष्य के मन में प्रकृति को जीतने की बात आती है और प्रकृति के शक्तियों के प्रतिरूप देवता इस विजय यात्रा में बाधा पहुचाते हैं। इसके ठीक विपरीत हिंदू विश्व-दृष्टि में मनुष्य और प्रकृति दोनों अविलग हैं, इसलिए मनुष्य और देवता में स्पर्धा न होकर सहकार - भाव रहता है। मनुष्य देवता को प्रभावित करता है, देवता मनुष्य को। भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र यज्ञ संस्था है और यह संस्था मनुष्य और देवता, अभ्यन्तर और बाह्य, व्यक्त और अव्यक्त, चर और अचर-रूपी युग्मों का एक दूसरे के लिए अपेक्षी बनाने वाली विधि है। इसलिए यहां पश्चिमी चिंतन मनुष्य को केंद्र में रखता है, मनुष्य की विवेक बुद्धि को केंद्र में रखता है, प्रकृति पर मनुष्य की विजय को मनुष्य का पुरुषार्थ मानता है तथा पूरी सृष्टि को मनुष्य का उपभोग्य मानता है, वहाँ मनुष्य का चिंतन बहुकेन्द्रित है। मनुष्य के लिए देवता केंद्र है, देवता के लिए मनुष्य। यहां प्रकृति पर विजय नहीं बल्कि प्रकृति में सामंजस्य और समग्र अस्तित्व में परम सामंजस्य स्थापित करना ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। </p><p>समकालीन हिंदू धर्म में भी यह विस्वास कायम है कि ईश्वर किसी न किसी रूप में सर्वब्याप्त है तथा हम किसी भी स्वरूप में ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। हिंदू जीवन पद्धति विस्वासों और अनुष्ठानों के संदर्भ में बहुत लचीली है कोई भी अनुष्ठान हिन्दुओं में एक जैसे नहीं होता है मतों एवं पंथों की विविधता हिंदुओं की एक विशिष्ट पहचान है। जाती व्यवस्था व संयुक्त परिवार हिंदू समाज की मूलभूत संस्थाएं है, हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से मिलती है। वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदू सामाजिक संगठन लोकप्रिय उदाहरण है, यह नैतिक समुदाय की आदर्श रूपरेखा है जिसका संदर्भ ऋग्वैदिक काल से मिलता है। हिंदू समाज में चार वर्णों को-- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कहते हैं। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार यह एक आदर्श एवं सांकेतिक प्रारूप है वास्तविक श्रम विभाजन नहीं। ब्राह्मण वर्ग बौद्धिक विकास से जुड़े थे, क्षत्रिय देश की सुरक्षा, वैश्य वाणिज्य से जुड़े थे एवं शूद्र का काम विभिन्न प्रकार के शिल्प एवं श्रम (सर्विस) से समाज का काम करना था। इस प्रकार श्रम विभाजन का आधार प्रतीकात्मक था, इस व्यवस्था के अंतर्गत स्थानीय जातियाँ एवं जनजातियां अपना कार्य व्यापार चलाती हैं।</p><p>आश्रम व्यवस्था वर्ण व्यवस्था की पूरक संस्था है, यदि वर्ण व्यवस्था सामाजिक संगठन का सिद्धांत देती है आश्रम व्यक्ति के जीवन को संगठित करने का सिद्धांत है। वर्णाश्रम की अवधारणा जीवन को चार भागों में बाटती है-- ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। आश्रम का महत्व पुरुषार्थ पर निर्भर करता है यह माना जाता है कि एक आदर्श हिंदू को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समान महत्व देना चाहिए, हिंदू मान्यता के असंतुलित जीवन के लिए भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पहलुओं को समान महत्व देना चाहिए।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>वैदिक धारा और श्रमण धारा</i></u></span></h3><p>वैदिक और श्रमण दोनों में अपनी अपनी कुछ अलग अलग विशेषताएं हैं पर साथ ही दोनों में परस्पर समावेशक तत्व भी है। हिंदू धर्म एक स्तर पर सर्व समावेसक है तो दूसरे स्तर पर इसकी विशिष्ट पहचान भी है। हिंदू धर्म में सबको अपने अपने रास्ते अपने विवेक से चलने की स्वतंत्रता है, कोई भी रास्ता एक मात्र रास्ता नहीं है, आपका अपना पथ प्रदर्शक एक मात्र पथ प्रदर्शक या मसीहा नहीं है। ऋषि परंपरा के अंतर्गत मनुष्य का चरम प्रयोजन आत्मविस्तार है, अपने को इतना हल्का कर लेना या सबमे समा सकना अथवा सबमे भर सकना सम्भव हो सकें। इन ऋणों का यथासंभव अदायगी होने पर ही जीवन की सर्वसमता और निरंतरता की पहचान स्पष्ट होती है, यही पहचान हिंदू धर्म की आधारशिला है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>ऋषियों का अद्भुत प्रयत्न</i></u></span></h3><p>भारतीय संस्कृति जहाँ नदीय व वनीय संस्कृति के कारण जानी जाती है क्योंकि हमारे ऋषि मुनियों ने जहाँ वनों, नदियों के किनारे गुरुकुल खोलकर मानव समाज को वेदों का ज्ञान दिया, वहीँ जीवन मूल्यों की ओर सतर्क भी किया जिसमें सर्वाधिक महत्व चरित्र को दिया। परिवार, समाज की रचना खड़ी की और उनके संबंध माता-पिता, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, भाई-बहन इत्यादि रिश्तों में हिन्दू समाज को बांधा जो आज भी उस रिश्ते की पवित्रता को अनुभव करता है। </p><p><u><i>मंदिर--</i></u>- हिंदू समाज की धारणा के लिए केंद्र था, समाज की सभी गतिविधियां मंदिरों से संचालित होती थी। पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन के अतिरिक्त पाठशाला, वैद्यशाला, गोशाला, वेदशाला, पाकशाला के साथ विविध कलाओं का केंद्र तथा मंदिर में कृषि भी जुड़ीं रहती थी और आज भी है। मंदिर समाज को बांधने का केंद्र था, प्रत्येक क्षेत्रों में एक विशिष्ट पहचान का मंदिर होता था जिस पर समाज का नियंत्रण होता था राज का कोई हस्तक्षेप नहीं होता था।</p><p><u><i>कुंभ---</i></u> कुंभ वैचारिक सम्मेलन की संस्था था। कुंभ चार स्थानों पर "हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक" में होता है और प्रत्येक बारहवें वर्ष प्रयाग में महाकुम्भ लगता है। कुंभ में रीति रिवाजों के बारे में विभिन्न सम्प्रदायों के आचार्यों, महंतो एवं धर्म गुरुओं के क्षेत्रीय अधिवेशन एवं महाकुंभ का अर्थ अखिल भारतीय महाअधिवेशन होता है। महाकुंभ के उपरांत 12 वर्षों में समाज के रीति-निर्धारकों की पीढ़ी बदल जाता है रीति रिवाजों एवं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक एवं भौगोलिक परिस्थितियों में हुए बदलाओं के बारे में समीक्षा समाज एवं संस्कृति में आवश्यक परिवर्तन करने के बारे में तात्विक एवं रणनीतिक परिचर्चा का काम कुंभ के दौरान होता था। अलग अलग सम्प्रदाय के धार्मिक प्रवचन यथावत होते रहते हैं विभिन्न सम्प्रदायों के समलित अधिवेशन में होने वाले सभ्यतामूलक विमर्श एवं राष्ट्रीय चिंतन होता था। साम्प्रदायिक सौहार्द को मजबूत करने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि से विकास पर बल दिया गया है-- स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो, परमहंस योगानंद, महर्षि महेश योगी, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी रामदेव जैसे संतों के प्रभाव से धर्म, अध्यात्म, योग एवं साधना का विज्ञान तकनीकी के साथ रचनात्मक संबंध स्थापित हुआ है। अंतरात्मा, आत्म परिष्कार एवं योग की लोकप्रियता बढ़ी है।</p><p>सूबेदार</p><p>धर्म जागरण</p><p>संकटमोचन मंदिर सोनपुर</p><p>सारण</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-35714417964836319812023-09-21T08:42:00.002+05:302023-10-02T08:06:21.691+05:30जनजाति मूलतः वैदिक सनातन धर्मी <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYQLQI2biN2Es5H6jNKJYEdaRxFRG7forD7wRe5r0Cveq_r2cP6pjLnZykNQwkE1PB7pkP6hwYE5OmAMA97LasLw9ZApxj2ZHVUcaOsjTH7dkXeHQEA6CfZNsgZ3HdhhH0lVdFOSqgZGlmCGO8emD-ux3iJEAcyRvVfhf6ezs1j1X91vALAKzdDD2nXn68/s524/Screenshot_20230913-122205~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="271" data-original-width="524" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiYQLQI2biN2Es5H6jNKJYEdaRxFRG7forD7wRe5r0Cveq_r2cP6pjLnZykNQwkE1PB7pkP6hwYE5OmAMA97LasLw9ZApxj2ZHVUcaOsjTH7dkXeHQEA6CfZNsgZ3HdhhH0lVdFOSqgZGlmCGO8emD-ux3iJEAcyRvVfhf6ezs1j1X91vALAKzdDD2nXn68/s16000/Screenshot_20230913-122205~2.jpg" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जनजाति अवधारणा</i></u></span></h3><p></p><p>बिहार में अंग्रेजों की योजना अनुसार चर्च ने अपने हाथों को मजबूत बनाने का काम करती रही है, धीरे-धीरे वनवासी समाज को चर्च, मिशनरियों की करतूतें समझ में आने लगी थी। चर्च की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को समाज समझने लगा, इसी बीच सन 1895 में बिरसा मुंडा का उदय होता है। बिरसा मुंडा ने मुंडा (सनातन) धर्म में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर उसकी धार्मिक पवित्रता और तप पर आधारित किया। अपने अनुयायियों को यज्ञोपवीत धारण करवाया मांस और मदिरा सेवन से परहेज करना सिखाया, बिरसा मुंडा के अनुयायी ब्रम्हा, विष्णु, काली, दुर्गा, सीता, गोविंद, तुलसीदास और सगुण, निर्गुण की पूजा पुनः आरम्भ किया जैसा कि पहले होता था और चर्च ने विकृति किया था। विरसा मुंडा ने जो लोग ईसाई धर्म में गए थे उन्हें सनातन धर्म में वापस लाए मात्र २८वर्ष में विधर्मियो से लड़ते चले गए और भगवान बन गए। उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में छोटानागपुर के आस पास अनेक आध्यात्मिक भगतों का उदय हुआ। अंग्रेजों की दमनकारी नीति और धर्मांतरण का विरोध शुरू हो गया। जात्रा भगत ने उन्हें झाड़-फूक, आत्मा की पूजा, पशु बलि, मांसाहार त्यागने और गाय, बैलों से खेती करने का आह्वान किया उनके अनुयायी गौरक्षणी भगत कहलाये। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भूमिज क्षत्रिय</i></u></span></h3><p>1831 में सिंहभूमि जिले में छोटानागपुर के मुंडाओं के साथ विद्रोह में शामिल हो गए। वे प्राचीन तौर तरीकों को बचाने और जनजातीय देवताओं की पूजा करने के इक्षुक हुए, छोटानागपुर बड़ाभूम के लोग हिंदी भाषी थे। बीसवीं सदी के तीसरे दशक में उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। भगत जैसे आंदोलनों के जीवन में शांति पूर्ण तरीके से हिंदू प्रभाव का विस्तार हुआ, भूमिज विशेष रूप से क्षत्रियों का स्थान पाने के इक्षुक थे। 1929 के लगभग मध्यभारत की गौड़ जनजाति के लोगों के बीच बालाघाट जिले के भाऊसिंह राजनेगी ने सुधार आंदोलन शुरू किया, जिसमें उन्होंने दावा किया कि बाड़ा देव, सर्बोच्च ईश्वर, शिव के समरूप थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि गौड़ कभी विशुद्ध क्षत्रिय वर्ण के थे। सोलहवीं शताब्दी में उनके राजकुमार दलपतसिंह ने राजपूत राजकुमारी दुर्गावती से विवाह किया था, जिसने वीरता पूर्वक मुगलों का सामना किया था। भाऊ सिंह राजनेगी के अनुसार गौड़ों का पतन इसलिए हुआ क्योंकि वे भ्रष्ट हो गए मांसाहार करने लगे। भाऊसिंह ने कट्टर हिंदू धार्मिक पवित्रता का प्रचार किया और गौ मांस, सुवर के मांस और शराब पीने पर रोक का आह्वान किया।</p><p>हिंदू समाज में उच्च स्थान पाने के लिए जनजाति आकांक्षा औपनिवेशिक काल में भी जारी रही, लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात आरक्षण निति ने जनजातीय पदों को आकर्षक बनाने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी। बीसवीं शताब्दी के दूसरे और तीसरे दशक में बिहार के संथाल जनेऊ धारण करने और क्षेत्रीय होने की मांग करने लगे।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDQQ6W9dzD3syFxG2UooCHEBNXOVFrhqPFL9mxPt5StRMdNdSge4460GzDNZlAjCdlMgQJMImleUyzAxzd_3PUo0kxHsYq2l2czVaq6-1afseY-dmisgcKOFl9zSS-Gb6Fd1OycERw0ceXHogObxhEc4O9_QRvSd3GQWl7APjfyFi_5Tk5vOAIOSfONWNA/s524/Screenshot_20230913-122149~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="349" data-original-width="524" height="213" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDQQ6W9dzD3syFxG2UooCHEBNXOVFrhqPFL9mxPt5StRMdNdSge4460GzDNZlAjCdlMgQJMImleUyzAxzd_3PUo0kxHsYq2l2czVaq6-1afseY-dmisgcKOFl9zSS-Gb6Fd1OycERw0ceXHogObxhEc4O9_QRvSd3GQWl7APjfyFi_5Tk5vOAIOSfONWNA/s320/Screenshot_20230913-122149~2.jpg" width="320" /></a></div><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>जातिय ब्यवस्था</i></u></span></h3><p></p><p>जातीय ब्यवस्था में जनजातियों की बढ़ती संख्या से जनजातीय पुजारियों को ब्राह्मण का दर्जा मिला, अनेक मिश्रित जातियों के नामों से उनकी जातिय उत्पत्ति का पता चलता है। लेकिन यदि समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखे तो जनजाति और जाती में बहुत थोड़ा अन्तर है और जाति की उत्पत्ति वंश व गोत्र से है। किसी भी दृष्टि से जनजाति और जाति में अंतर का कोई भौगोलिक, सांस्कृतिक, अथवा आर्थिक आधार नहीं होता है और इसीलिए समाजशास्त्री सांतत्यक का विचार स्वीकार करने लगे हैं। कुछ खंडीय जनजाति प्रतिमान के निकट तो कुछ संघटित समाज के प्रतिमान के करीब।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>इंदल पूजा</i></u></span></h3><p>नर्मदा घाटी में इंदल पूजा की खोज भी आश्चर्यजनक है, जनजातीय भिलाला की यह सबसे महत्वपूर्ण विधि है। इसमें वर्षा और धरती के संयोजन की पूजा की जाती है, जिससे अनाज पैदा होता है। विद्वानों के अनुसार इंदल पूजा इन्द्र (वर्षा के देवता) की प्राचीन वैदिक और पौराणिक मान्यता थी, जो सुदूर जनजातीय हिस्से में आज भी अपने मूल रूप में विद्यमान है, हालांकि समाज की मुख्यधारा में इन्द्र की उपासना लगभग समाप्त हो गई है (जनजातीय-हिंदू सांत्यतक) लेकिन पशुचारी जनजातियों के विस्वासों की प्रक्रिया का खुलासा, जिसमे होली, दिवाली और पोंगल जैसे सदा लोकप्रिय त्योहारों में गोबर और पवित्र भस्म की पूजा की शुरूआत और पुरातन का पता चलता है, संभवतः जनजातीय और हिंदू धार्मिक कार्यों के आपस में मिलने का अद्वितीय उदाहरण है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हिंदू धर्म का आधार जनजातीय संस्कृति</i></u></span></h3><p>जनजातियों और तथाकथित उच्च जातियों ने भारत की देशीय परंपराओं का समान रूप से सम्मान किया है और उसे सुरक्षित रखने का काम किया है। हालांकि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कर्मकांड के प्रति जनजातीय योगदान मुख्यतः मान्य है। यह वास्तव में असाधारण है, क्योंकि जीव-विज्ञानियों और मानवजाति विज्ञानियों द्वारा मेहनत से किया गया क्षेत्रकार्य वर्णक्रम के प्रतियमानतः विपरीत छोरों के बीच निरंतर अन्योन्यक्रिया को स्पष्तः स्थापित करता है। इस अध्ययन में प्रसिद्ध राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों की खोजो को मिलाकर संयुक्त रूप से वह प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है कि जनजातीय समुदाय हिंदू संस्कृति की कुंजी और उसका आधार है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सरना पूजा स्थल धर्म सनातन</i></u></span></h3><p>धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन और समाज प्रगति यानी सोध यानी आध्यात्मिक खोज की प्रक्रिया में पूजा पद्धतियों में विकास हुआ। पहले तो सारा का सारा मानव प्रकृति पूजक ही था, लेकिन मार्ग बदले पहले दो मार्ग एक भक्ति मार्गी दूसरे ज्ञान मार्गी, भक्ति मार्ग के स्वरूप में परिवर्तन एक जो पुरातन समाज प्राकृत पूजक था । उन्होंने पेड़, पौधों, पहाड़ और नदियों में देवताओं का दर्शन किया उसमे से एक मार्ग ने उन्हीं देवताओं को मूर्तियों में देखा । इसी प्रकार पूजा पद्धतियों का विकास हुआ और धीरे -धीरे "सरना पूजा स्थल" के रूप में विकसित हो गया। इस प्रकार "सरना पूजा स्थल और धर्म सनातन" यही हमारी मूल पहचान और सांस्कृतिक परंपरा है।</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-7841525479206211102023-09-14T06:39:00.001+05:302023-09-19T22:36:04.576+05:30जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों का स्वत्व <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRF7o7v9zc5yZeRo3zJyaexXOL50mmF48ByddIGpOKHIkbZPg6QhJWxPty50Nu6XarKyq84lut5JDRHOqN7Z_jfnm-OTMQL9vbtaWdoUsnGZQlN4ehAlkX1t-W3bRBeTThoAyTbAVxEPfVNmAEhhWRt9_RJwb51mMhcUQLSeUD5Z_J-haBPkpXbfo2wEFW/s678/FB_IMG_1673671714996.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="678" data-original-width="452" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjRF7o7v9zc5yZeRo3zJyaexXOL50mmF48ByddIGpOKHIkbZPg6QhJWxPty50Nu6XarKyq84lut5JDRHOqN7Z_jfnm-OTMQL9vbtaWdoUsnGZQlN4ehAlkX1t-W3bRBeTThoAyTbAVxEPfVNmAEhhWRt9_RJwb51mMhcUQLSeUD5Z_J-haBPkpXbfo2wEFW/s320/FB_IMG_1673671714996.jpg" width="213" /></a></div><br />भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में नहीं शुरु हुआ बल्कि 1771 में तिलका मांझी ने शुरु किया था। यह हूल विद्रोह था। बाद में 1855 में "सिदो-कान्हू" ने संथाल विद्रोह यानी स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया। लेकिन भारतीय इतिहासकारों (वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों) ने संथालों के विद्रोह को लिखा ही नहीं। जबकि इसके सारे प्रमाण मौजूद हैं। "हूल दिवस" के मौके पर संथाल विद्रोहियों यानी स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहे हैं।<p></p><h3 style="text-align: left;"><u style="color: red;"><i>हूल विद्रोह : तिलका मांझी और सिदो-कान्हू सहित संताल आदिवासियों की शौर्य गाथा</i></u></h3><p>आज संताल हूल दिवस है, यानी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह दिवस। वैसे तो भारतीय इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहला विद्रोह 1857 है, मगर जब हम आदिवासियों के इतिहास को देखते हैं तो पाते हैं यह विद्रोह 1771 में ही तिलका मांझी ने शुरू कर दिया था। वहीं 30 जून 1855 को संथाल आदिवासियों ने सिदो, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो के नेतृत्व में साहेबगंज जिले के भोगनाडीह में 400 गांव के 40,000 आदिवासियों ने अंग्रेजों को मालगुजारी देने से साफ इंकार कर दिया। इस दैरान सिद्धो ने कहा था — "अब समय आ गया है फिरंगियों को खदेड़ने का।" इसके लिए “करो या मरो, अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो” का नारा दिया गया था। अंग्रेजों ने तुरंत इन चार भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश जारी किया। गिरफ्तार करने आये दारोगा का संथाल आंदोलनकारियों ने गर्दन काटकर हत्या कर दी। इसके बाद संथाल परगना के सरकारी अधिकारियों में आतंक छा गया।</p><p>बताया जाता है जब कभी भी बनवासी समाज की परंपरा, संस्कृति और उनके जल, जंगल जमीन को विघटित करने का प्रयास किया गया तो प्रतिरोध की चिंगारी भड़क उठी। 30 जून 1855 का हूल इसी कड़ी का एक हिस्सा है। महाजनों, जमींदारों (अंग्रेजी जमींदार) और अंग्रेजी शासन द्वारा जब आदिवासियों की जमीन पर कब्जा करने का प्रयास किया गया तब उनके खिलाफ वनवासियों का गुस्सा इतना परवान चढ़ा कि इस लड़ाई में सिद्धो, कान्हू, चांद, भैरव और उनकी बहन फूलो, झानो सहित लगभग 20 हज़ार संथालो ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपना बलिदान दे दिया। इसके पूर्व गोड्डा सब-डिवीजन के सुंदर पहाड़ी प्रखंड की बारीखटंगा गांव का बाजला नामक संथाल युवक की विद्रोह के आरोप में अंग्रेजी शासन द्वारा हत्या कर दी गई थी। अंग्रेज इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर ने अपनी किताब ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है कि अंग्रेजो का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिंदा न हुआ हो। अपने कुछ विश्वस्त साथियों के विश्वासघात के कारण सिद्धो और कान्हू को पकड़ लिया गया और भोगनाडीह गांव में सबके सामने एक पेड़ पर टांगकर फांसी दे दी गयी। 20 हज़ार संथालों ने जल, जंगल, जमीन की हिफाजत के लिए अपनी आहुति दे दी थी।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हांसी हांसी चढ़बाऊ फांसी </i></u></span></h3><p>अंग्रेजों ने प्रशासन की पकड़ कमजोर होते देख आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को मैदान में उतारा और मार्शल लॉ लगाया गया। हजारों संथाल वनवासियों को गिरफ्तारी किया गया, लाठियां चली, गोलियां चलायी गयी। यह लड़ाई तब तक जारी रही, जब तक अंतिम आंदोलनकारी जिंदा रहा। इसके पूर्व 1771 से 1784 तक तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संताल परगना) के आमगाछी पहाड़ निवासी करिया पुजहर और सिंगारसी पहाड़ निवासी जबरा पहाड़िया भारत के आदिविद्रोही हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला आदिविद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदि विद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने क्लीवलैंड को मार डाला। बाद में आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह तिलका मांझी जीवित था। बतया जाता है कि खून में डूबी उसकी देह तब भी गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थीं। अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने "जबरा पहाड़िया" उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। (तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785) बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए – "हांसी-हांसी चढ़बो फांसी …!" – वह आज भी हमें इस आदिविद्रोही (क्रान्तिकारी ) की याद दिलाते हैं।</p><p>तिलका मांझी संथाल थे या पहाड़िया इसे लेकर विवाद है। आम तौर पर तिलका मांझी को मूर्म गोत्र का बताते हुए अनेक लेखकों ने उन्हें संथाल आदिवासी बताया है। परंतु तिलका के संथाल होने का कोई ऐतिहासिक दस्तावेज और लिखित प्रमाण मौजूद नहीं है। वहीं, ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार संथाल आदिवासी समुदाय के लोग 1770 के अकाल के कारण 1790 के बाद संथाल परगना की ओर आए और बसे। ‘द एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’, 1868 के पहले खंड (पृष्ठ संख्या 219-227) में सर विलियम विल्सर हंटन ने साफ लिखा है कि संथाल लोग बीरभूम से आज के सिंहभूम की तरफ निवास करते थे। 1790 के अकाल के समय उनका पलायन आज के संथाल परगना तक हुआ। हंटर ने लिखा है, ‘1792 से संथालों का नया इतिहास शुरू होता है’ (पृ. 220)। 1838 तक संथाल परगना में संथालों के 40 गांवों के बसने की सूचना हंटर देते हैं जिनमें उनकी कुल आबादी 3000 थी (पृ. 223)। हंटर यह भी बताता है कि 1847 तक मि. वार्ड ने 150 गांवों में करीब एक लाख संथालों को बसाया गया था (पृ. 224)।</p><p>1910 में प्रकाशित ‘बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संताल परगना’, वोल्यूम 13 में एल.एस.एस. "ओ मेली" ने लिखा है कि जब मि. वार्ड 1827 में दामिने कोह की सीमा का निर्धारण कर रहा था तो उसे संथालों के 3 गांव पतसुंडा में और 27 गांव बरकोप में मिले थे। वार्ड के अनुसार, ‘ये लोग खुद को सांतार कहते हैं जो सिंहभूम और उधर के इलाके के रहने वाले हैं।’ (पृ. 97) दामिनेकोह में संथालों के बसने का प्रामाणिक विवरण बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: संथाल परगना के पृष्ठ 97 से 99 पर उपलब्ध है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>साहित्यकारों का कथन</i></u></span> </h3><p>इसके अतिरिक्त आर. कार्सटेयर्स जो 1885 से 1898 तक संथाल परगना का डिप्टी कमिश्नर रहा था, उसने अपने उपन्यास ‘हाड़मा का गांव’ की शुरुआत ही पहाड़िया लोगों के इलाके में संथालों के बसने के तथ्य से की है। बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी के जीवन और विद्रोह पर बांग्ला भाषा में एक उपन्यास ‘शालगिरर डाके’ की रचना की है। अपने इस उपन्यास में महाश्वेता देवी ने तिलका मांझी को मुर्मू गोत्र का संथाल आदिवासी बताया है।</p><p>वहीं हिंदी के उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने अपने उपन्यास ‘हूल पहाड़िया’ में तिलका मांझी को "जबरा पहाड़िया" के रूप में चित्रित किया है। बहरहाल, हूल विद्रोह की जो वजहें 18वीं सदी में थीं, उसी तरह की परिस्थितियां आज भी वनवासी इलाकों में कायम हैं। पूंजीवादी घरानों के लिए आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से वंचित किया जा रहा था। लेकिन वर्तमान सरकार ने वनवासियों की जल, जमीन और जंगल के अधिकारों को देने की आवश्यकता समझ रही है और उस पर कार्यवाही शुरू कर दिया है। ऐसे में हूल विद्रोह की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है।</p><p>सूबेदार</p><p>धर्म जागरण </p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4662696190142895447.post-60201060831886424442023-09-07T10:30:00.001+05:302023-09-07T10:51:53.573+05:30भारतीय राष्ट्र और मेवाड़ <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJH0ZpIqrZm-CBjbrmQYnVmv0RhTWkdQlwoguMYp5KRhSZr7hZ1lZxx3nlw-GXxmeUWjDdWgDtKUWKz5X555qWB4u3MctQ51LVnxSkDsrgmWJWp1IlrhYwpsFKajqEhO5XPYXgxjrxLQjVGmwYwC7THMg86t52678J6GiWZL3afwTXJQNDgo6Op0y7v18b/s478/Screenshot_20230831-062805~2.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="364" data-original-width="478" height="244" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhJH0ZpIqrZm-CBjbrmQYnVmv0RhTWkdQlwoguMYp5KRhSZr7hZ1lZxx3nlw-GXxmeUWjDdWgDtKUWKz5X555qWB4u3MctQ51LVnxSkDsrgmWJWp1IlrhYwpsFKajqEhO5XPYXgxjrxLQjVGmwYwC7THMg86t52678J6GiWZL3afwTXJQNDgo6Op0y7v18b/s320/Screenshot_20230831-062805~2.jpg" width="320" /></a></div><br /><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भारतीय सत्ता का केंद्र</i></u></span></h3><p></p><h3 style="text-align: left;"><u><i style="font-weight: normal;">पूर्व पीठिका-सेकुलर जिहाद</i></u></h3><p>पिछले हजार वर्षों से भारतीय दिलों यानी राष्ट्र पर भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक मेवाड़ वंश का शासन रहा है, सेकुलर व वामपंथी विचारधारा के इतिहासकारों ने भारतीय परिदृश्य से इस वंश को भारतीय इतिहास से समाप्त करने की बहुत कोशिश किया लेकिन जो सत्य है वह जन-मन में किवदंतियों जनश्रुतियों के माध्यम से आ ही जाता है। दिल्ली डायनिस्टी नाम की कोई चीज नहीं लेकिन मुगलों को स्थापित करने के लिए नेहरू वादी इतिहासकारों ने पुरजोर प्रयास किया लेकिन सफलता नहीं मिली और सत्य भारतमाता के दिल से बाहर आ ही गया। वैसे तो इस्लाम में सैकड़ों प्रकार के जिहाद है और आज तक सैकड़ों वर्षों से मुसलमानों के संपर्क में रहने के बावजूद हिंदू समाज जिहाद क्या है यह नहीं समझ सका। देश विभाजन के पश्चात वोट बैंक बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने सेकुलर की परिभाषा गढ़ी और वे स्वयं कहते थे कि "मैं बाई एक्सीडेंट हिंदू घर में पैदा हुआ हूँ, संयोग से हिंदू, कल्चर वाई मुस्लिम मैं संस्कृति से मुसलमान हूँ।" लेकिन उन्होंने सेकुलर जिहाद चलाने का काम किया इसी योजना के तहत उन्होंने अपने नाम के आगे पंडित शब्द जोड़ लिया और वे पंडित जवाहरलाल नेहरू कहलाने लगे सारे ब्राह्मणों तथा हिंदू समाज को मूर्ख बनाने का काम किया। देश विभाजन के पश्चात सारे पाठ्यक्रम से हिंदू स्वाभिमान जैसी सभी हटा दिया गया महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी महाराज, वीर छत्रशाल गुरु गोविंद सिंह जैसे हिंदू धर्म रक्षक, देश भक्तों को भटके हुए पढ़ना भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल इत्यादि को आतंकवादी बताना यही सेकुलर की परिभाषा लिखी गई और ये हो भी क्यों न बड़े योजनाबद्ध तरीके से नेहरू ने शिखा मंत्री एक विदेशी कट्टर मुस्लिम को बनाया जिसे बड़े प्रेम से मौलाना आजाद कहते थे, ये भारतीय नहीं थे, इन्होंने किसी अंग्रेजी, हिंदी स्कूल व कालेज में प्रवेश नहीं लिया था। इनकी योग्यता थी कि ये "जमायते इस्लामी हिन्द" के अध्यक्ष थे, जमायते इस्लामी हिंद का उद्देश्य था कि अखण्ड भारत और जो गजवाये हिंद का स्वप्न है पूरा करना यानी भारतवर्ष का इस्लामीकरण करना इसी उद्देश्य से मौलाना आजाद भारत आये थे और यही रह गए। वे जब तक जीवित रहे तब तक शिक्षा मंत्री रहे और उसके बाद भी शिक्षा मंत्री सेकुलर गिरोह का ही ब्यक्ति बनाया गया। सेकुलर जिहाद की परिभाषा नेहरू और मौलाना आजाद ने तैयार किया।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u>कौन नायक और कौन खलनायक?</u></span></h3><p>हमें कहा गया कि औरंगजेब के उल्लेख अब इस्लामी कट्टरपंथी अथवा इस्लामी विजेता के रूप में नहीं किया जाएगा। और शिवाजी को महाराष्ट्र की पुस्तकों में अधिक प्रतिष्ठा नहीं दी जाएगी। यह कहना साफ दुष्टता है कि शिवाजी महाराज की प्रतिष्ठा केवल महाराष्ट्र में है, हमारा सौभाग्य है कि सारा का सारा हिंदू समाज शिवाजी महाराज का सम्मान करते हैं चाहे वह भारत के किसी भी कोने में रहते हों इतना ही नहीं सम्पूर्ण विश्व का हिंदू समाज उनके प्रति श्रद्धा भाव रखता है। भारत के किसी भी प्रान्त के कबि लेखक हैं सभी ने शिवाजी महाराज के बारे में अपने अपने तरीके से प्रसंशा किया है, सभी ने नायक सिद्ध किया है। शिवाजी के ब्यक्तित्व और भारतीय इतिहास में उनकी भूमिका के साथ पूरा न्याय कर सके, ऐसे इतिहासकार को जन्म लेने अभी बाकी है। कुछ बौने राजनीति कर्मी जो इतिहासकार होने का स्वांग रचते हैं, शिवाजी को अपने कद में लाना चाहते हैं, वे सूर्य पर थूकने वाले लोफरों जैसे हैं।</p><p>जहाँ तक औरंगजेब की बात है, हमारे सेकुलरवादी अच्छी तरह समझते हैं कि उसे 'इस्लाम का नायक' की छबि देना असुविधा जनक है, क्योंकि उसके छबि साथ ही इस्लाम की छबि भी दिखाती है। और वह छबि सुखद होने से बहुत दूर है, यदि उस छबि को लोगों की नज़र से बचाकर न रखें तो हमारे सेक्युलर जिहादियों के लिए धर्म और संस्कृति के रूप में इस्लाम का दावा प्रस्तुत करना और बचाना कठिन हो जाता है। लेकिन मानव इतिहास में ऐसे तथ्यों की भरमार है जो बिल्कुल सुखद नहीं है, उन तथ्यों को केवल इसलिए नहीं मिटाया जा सकता क्योंकि कुछ लोग उसे पसंद नहीं करते या उसका सामना नहीं कर सकते। औरंगजेब वैसा ही एक तथ्य है, स्टालिन दूसरा वैसा तथ्य है और यह कहना कि औरंगजेब इस्लाम का बड़ा नायक नहीं था कुछ वैसा ही कहना है जैसे स्टालिन कम्युनिस्ट नहीं था और हिटलर नाजी नहीं था। और वह इस्लाम जिसे औरंगजेब ने नहीं दर्शाया वह न कुरान में मिलता है,न प्रोफेट मुहम्मद के सुन्ना यानी व्यवहार में।वैसा इस्लाम सेकुलरवादियों द्वारा कपोल कल्पित किया गया है और दूसरी ओर मध्यकाल और आधुनिक काल में इस्लाम के संरक्षकों द्वारा लिखे गए अनेक इतिहास ग्रंथ है जिसमें औरंगजेब को इस्लाम का महानायक कहकर खूब प्रसंशा की गई है। </p><p>'राष्ट्रीय एकता' के लिए इस धूर्तता पूर्ण योजना का पूरा मिजाज शिक्षा मंत्रालय के अगले निर्देश में बिलकुल सामने आ जाता है, मध्यकाल को काला युग या हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष का काल के रूप में दिखाना मना है। जबकि इसका परिणाम पाकिस्तान के रूप में आ चुका है फिर भी जिहाद तो कौम का एक हिस्सा है उस काम को तो करना ही है। इतिहासकार मुसलमानों को शासक और हिंदुओं को शासित के रूप में नहीं दिखा सकते, बिना धर्म के वास्तविक प्रभाव की जाँच पड़ताल किये राज्य को धर्मसत्तात्मक नहीं बताया जा सकता। राजनीति संघर्ष में धर्म की भूमिका को बढ़ा चढ़ा कर दिखाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है और न ही मेल-जोल की प्रक्रियाओं, प्रवृत्तियों की उपेक्षा होनी चाहिये। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>कैसा युग अंधकार या चमत्कार-?</i></u></span></h3><p>निस्संदेह, इस बारे में दो राय हो सकता है कि भारतीय इतिहास का मध्य काल अर्थात मुस्लिम शासन में भारत अंधकार युग था अथवा चमकदार, यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि किस दृष्टि से कोई उसे देखता है। इस्लाम की दृष्टि से देखने पर यह सचमुच एक शानदार जमाना था इस्लाम ने ऐसे अनेक बड़े बड़े साम्राज्य कायम किया जो अपने वैभव में अतुलनीय था। इस्लाम को इससे भारी संतोष था क्योंकि !</p><p>1.लगातार जिहाद में लाखों लाख घृणित काफिरों को दोजख भेज दिया गया। </p><p>2. मूर्ति पूजा के हज़ारों स्थलों और तीर्थों को नष्ट और अपवित्र किया गया। </p><p>3. हज़ारों ब्राह्मणों और भिक्षुओं को मार डाला गया और बाकियों को जबरन गोमांस खिलाया गया। </p><p>4. भारी मात्रा में बहुमूल्य चीजें लूटी गई और उसे प्रोफेट द्वारा तय किए गए नियम के अनुसार मोमिनों में बांटा गया। </p><p>5. लाखों लाख पुरुषों और स्त्रियों, बच्चों को पकड़कर दूर इस्लामिक देशों में गुलाम और रखैलों के रूप में बेचा गया।</p><p>6. बड़ी संख्या पर सत्ता और सुविधा हथियाई गई, जिसे दासता यानी गुलामी में रखा गया ।</p><p>7. तलवार के बल पर इस्लामी मजहबी किताबों का वर्चस्व बनाया गया। </p><p>मुस्लिम शासकों ने अपने लिये बड़े किले, महल कब्जा कर लिया विलासिता पूर्ण जीवन के लिए, अनेक मस्जिदें व मदरसे बनवाये और मिल्लत की मजहबी ताकत बनाये रखने के लिए असंख्य मुल्लों को संरक्षण दिया। </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>झूठ परोसा</i></u></span></h3><p>इस भवन निर्माण वैभव में अन्य कलाएं और कारीगरी, पोशाक और कलात्मक हस्तलेख, सचित्र पांडुलिपियां, फ़ारसी पद्य और गद्य, कुरान और हदीस पर अरबी व्याख्यान, दरबारी संगीत और नृत्य, इस्लाम के संतों-सूफियों के संवाद जोड़ कर, भारत में इस्लामी विरासत की प्रदर्शनी में इन सब को इकट्ठे देखकर निश्चित तौर पर छाप पड़ेगी कि मुस्लिम शासन में मध्यकालीन भारत सचमुच शान्ति और उन्नति का स्वर्ग ही था। मगर जहाँ तक हिंदुओं का प्रश्न है, यह काल अंधकार का लंबा युग था जो तभी खत्म हुआ जब 18वीं सदी के मध्य में मराठों, जाटों, सिखों और राजपूतों ने इस्लामी साम्राज्यवाद की कमर तोड़ दी। मुस्लिम शासन में हिंदुओं की स्थिति का वर्णन तारीखे-वसाफ के लेखक ने इन शब्दों में किया है, "बूतपरस्ती को झुकाने और बुतों (मूर्तियों) को तोड़ने के लिए मजहबी जुनून की रौ ऊंची फड़कती थी। मुहम्मदी सेनाओं ने इस्लाम के लिए उस नापाक जमीन पर बाएं -दाये, बिना देखे बिना किसी मुरौवत के मारना और कत्ल करने शुरू किया और खून के फौवारे छूटने लगे। उन्होंने इस पैमाने पर सोना और चांदी लूटा जिसकी कल्पना नहीं हो सकता, भारी मात्रा में जवाहरात और तरह तरह के कपड़े, उन्होंने बड़ी संख्या में सुंदर और छरहरी लड़कियों,लड़कों और बच्चों को कब्जे में लिया, जिसका कलम वर्णन नहीं कर सकती..! </p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>संक्षेप में</i></u></span></h3><p>"मुहम्मदी सेनाओं ने देश को बिलकुल ध्वस्त कर दिया और वहाँ के रहने वालों की जिंदगी तबाह कर दिया, शहरों को लूटा गया और उनके बच्चों का कब्जा किया अनेकों मंदिर उजाड़ दिया देवमूर्तियाँ तोड़ डाली गई उन्हें पैरों के नीचे रौंदा जिसमे सबसे बड़ा सोमनाथ मंदिर था, मूर्तियों के टुकड़े कर दिल्ली लाया गया और जामा मस्जिद के रास्ते में बिछा दिया गया ताकि लोग याद रखें और शानदार जीत की चर्चा करते रहे। सारी दुनिया के मालिक अल्लाह की शान बनी रहे।" इस्लामी विरासत की महत्ता दिखाकर हिंदू समाज को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता और न ही बनाना चाहिए। यह महत्ता उसी अनुपात में बढ़ी जिस अनुपात में हिंदुओं की दुर्गति, पीड़ा, तबाही और मौत हुई, यह जले पर नमक छिड़कने के समान है।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>सेकुलरिज्म का नशा</i></u></span></h3><p>रसिया की एक सत्य कथा है, कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी कॉमरेड रादेक जो मजाक यानी कामेडी के लिए जाना जाता है जिसमें एक चुटकुला इस प्रकार का था! एक दिन कामरेड रादेक पूरी तरह नंगा होकर पूरे दिन के उजाले में रेड स्क्वायर पर खड़ा था, किसी साहसी ब्यक्ति ने उसके पास जाकर कहा, "कॉमरेड कमिसार, क्या आपको पुलिस का डर नहीं है ?" रादेक ने उसकी ओर देखा और पलट कर कहा, पुलिस! कहाँ है पुलिस ? नागरिक ने चारों ओर दिख रहे पुलिस वालों की ओर संकेत किया और कहा, यह पुलिस वाला है दूसरा भी अरे यह तो पूरी जगह पुलिसकर्मियों से भरी पड़ी है। रादेक न ने जबाव दिया, "तुम उन्हें देख सकते हो, मैं नहीं! मैं पार्टी का सदस्य हूँ, मैं उन्हें नहीं देख सकता। पार्टी सदस्यों के लिए सोवियत रूस में कहीं भी पुलिस नहीं है।" ठीक उसी प्रकार आज भारत में सेकुलरवादी और समाजवादी शासक वर्ग उसी वैचारिक अन्धेपन की स्थिति में है। वह अपने आस पास उमड़ रही इस्लामी साम्राज्यवाद की हिंसक तरंगों को नहीं देख सकता, वैसा करना देखना पाप होगा और उसकी प्रगतिशील, उदार और विशाल हृदय छबि पर बड़ा धब्बा लगेगा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>हिंदुओं को ही भाषण</i></u></span></h3><p>महत्वपूर्ण बात यह है कि हर बार मुस्लिम सड़क पर दंगा करता है पर यह "राष्ट्रीय एकता" की फटकार तीब्र और अनियंत्रित हो जाती है। हमारा शासक वर्ग तुरंत हिंदू समाज को लंबे लंबे भाषण पिलाना शुरू कर देता है-- बेचारे अल्पसंख्यकों को मारने वाले साम्प्रदायिक बनना बंद करो; यह बड़े भाई वाला व्यवहार छोड़ो! अपने छोटे भाई की जान माल की रक्षा करो! मुसलमानों के धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों का आदर करो इत्यादि।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भारतीय चिति की भयंकर हानि</i></u></span></h3><p>1947 के पहले सैकड़ों वर्षों तक हिंदू समाज संघर्ष करता रहा न कि गुलामी स्वीकार किया असली गुलाम तो भारत पंद्रह अगस्त 1947 से हुआ। देश विभाजन के पश्चात नेहरूवादी, सेकुलरिष्ट और बामी इतिहासकारों ने भारतीय स्वाभिमान को समाप्त करने का काम किया जो दिल्ली कभी भी भारतीय सत्ता का केंद्र नहीं था उसे सत्ता का केन्द्र पढ़ाया जाता रहा। जबकि भारतीय सत्ता का केंद्र हस्तिनापुर, राजगीर, पाटिलीपुत्र, उज्जैन, कन्नौज और मेवाड़ रहा भारत में सत्ता का केंद्र बदलता रहता था लेकिन नेहरूवादी इतिहासकारों ने दिल्ली को सत्ता का केंद्र पढ़ाने का काम किया। नेहरूवादियों को भारतीय स्वाभिमान पच नहीं पा रहा था इसलिए उन लोगों ने बप्पारावल, राणा सांगा, महाराणा कुम्भा, महाराणा हम्मीर, महाराणा प्रताप, क्षत्रपति शिवाजी महाराज, गुरु गोविंद सिंह, वीर छत्रसाल, बाजीराव पेशवा इत्यादि जिन्होने कभी भी मुसलमानों को स्वीकार नहीं किया बार बार पराजित किया लेकिन यह हमें पढ़ाया नहीं गया इतना ही नहीं महारानी लक्ष्मीबाई, वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे इत्यादि 1857को नकार दिया गया, इतना ही नहीं तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस, अमर क्रांतिकारी भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल ऐसे अनगिनत क्रांतिकारियों को उदंड और आतंकी पढ़ाने का काम किया। जब हम विचार करने हैं तो ध्यान में आता है कि जितना नुकसान सैकड़ों वर्षों के संघर्ष में नहीं हुआ उससे अधिक सामाजिक धार्मिक और भारतीय स्वाभिमान का नुकसान पंद्रह अगस्त 1947 के बाद इन इतिहासकारों ने नेहरू जी के किया।</p><p>अरबियन इतिहासकारों के अनुसार राजा कालभोज (बप्पारावल) के पास 31 लाख की सेना थी, जिसका साम्राज्य अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था। उस बप्पारावल के पास जब महाराजा दाहिर का पुत्र आया और अपनी सारी ब्यथा सुनाया। महिलाओं का सेक्सस्लेव बनाना, निहत्थों की हत्या करना, महिलाओं, बच्चों तक को नहीं छोड़ना यह तो भारतीय राजाओं के कल्पना से बहुत दूर था। महाराजा बप्पारावल यह सब सुनकर आश्चर्य चकित थे और उन्होंने देर नहीं किया, आस पास के सभी राजाओं को संगठित कर खलीफा पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने अपनी विजय पताका अरब, ईरान, इराक तक फहराया जब समझौते के लिए खलीफा, उसके सिपहसालार आगे आये तो कालभोज यानी बाप्पा रावल के गुरु ने समझौते का तरीका निकाला। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य और सेल्युकस का समझौता हुआ था उसी प्रकार समझौता किया जाएगा। और खलीफा के सेनापति की पुत्री मयियाः का विवाह बप्पा रावल से हुआ, लौटते समय प्रत्येक सौ मील पर गढ़ो का निर्माण कराया और सेना की टुकड़ी स्थापित किया, परिणामस्वरूप पाँच सौ वर्षों तक आतंकी इस्लामियों की हिम्मत नहीं हुई कि वे भारत की ओर आँख उठाकर देख सकें। उसी समय यानी आठवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक मेवाड़ भारतीय सत्ता का केंद्र बना रहा।</p><h3 style="text-align: left;"><span style="color: red;"><u><i>भारत में इस्लामिक सत्ता एक मिथक </i></u></span></h3><p>आज भी जब हम चित्तौड़गढ़ पर जाते हैं तो विभिन्न देशों के राजनयिकों को रहने के आवास दिखाई देते हैं। कलि संबत के पश्चात भारत के प्रथम सत्ता का केन्द्र हस्तिनापुर था पहले चक्रवर्ती सम्राट की व्यवस्था थी। हस्तिनापुर के पश्चात पाटिलीपुत्र लगभग 2600 वर्षों तक सत्ता का केंद्र रहा है उसके पश्चात महाराजा विक्रमादित्य के साथ भारतीय सत्ता का केंद्र उज्जैन हो गया फिर महाराज हर्षवर्द्धन के समय भारतीय सत्ता का केंद्र कन्नौज बना आठवीं शताब्दी से बप्पा रावल के नेतृत्व में भारतीय सत्ता का केंद्र मेवाड़ हो गया और सत्तरहवीं शताब्दी तक रहा। नेहरू वादी बामपंथी इतिहासकारों को मुगल सम्राट को स्थापित करना था इसलिए मुगल बादशाह नामक डायनिस्टी गढ़ा। एक बात यह समझ में नहीं आती की यदि मुगल बड़े बीर थे बहादुर थे तो फतेहपुर सीकरी से भागे क्यों ? भरतपुर स्टेट आगरा से 35 किमी की दूरी पर है जो मुगलों को पराजित कर राज्य स्थापित किया था।तो इनका यानी मुगलों का शासन कहाँ था ? राजस्थान के कुछ राजाओं से समझौता कर अन्य राजाओं से सम्वन्ध बनाकर बादसाह कहलाये लेकिन हमें लगता है कि ये मुगल बादशाह केवल बामपंथी इतिहासकारों की क़िताबों के बादशाह थे न कि भारत के! और हां विश्व के जिस भी देश में मुस्लिम आक्रामक कारी गये वहाँ कोई अन्य संस्कृति धर्म नहीं बचा सभी का इस्लामीकरण हुआ ईरान, इराक, पर्सिया जैसे देश इसके उदाहरण हैं। यदि भारतवर्ष में इस्लामिक हुकुमत होती तो हम तो नहीं होते हम हैं इसका अर्थ है कि भारतवर्ष में कोई कभी इस्लामिक सत्ता नहीं रही ये आक्रमणकारी, लुटेरे आये मारे गए पीटे गए और भाग गए। इसलिए अपने इतिहास को तर्को के आधार पर पढ़ने की आवश्यकता है न कि वामपंथियों के विदेशी आक्रांताओं के लिखित इतिहास को।</p><p>सूबेदार</p><p>धर्म जागरण</p><div class="blogger-post-footer">लेख अच्छा लगा हो तो अपने परिवार के लोग और मित्रो को भी शेयर करे:-</div>सूबेदारhttp://www.blogger.com/profile/15985123712684138142noreply@blogger.com1