कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी
सन १९२३ में मुसलमानों की ओर से तीन पुस्तकें "१९ वीं सदी का लंपट महर्षि", “कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी ” और "सीता का छिनाला" प्रकाशित हुई थी। पहली पुस्तक में आर्य समाज के संस्थापक 'स्वामी दयानंद' द्वारा लिखित ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश" के १४वें सम्मुलास में कुरान की समीक्षा से खीज कर उनके विरुद्ध आपत्तिजनक एवं घिनोना चित्रण प्रकाशित किया था। जबकि दूसरी पुस्तक में भगवान श्री कृष्ण जी के पवित्र चरित्र पर कीचड़ उछाला गया था। उस दौर में विधर्मियों की ऐसी शरारतें चलती ही रहती थी पर धर्म प्रेमी सज्जन उनका प्रतिकार उन्ही के तरीके से करते थे। लेकिन तत्कालीन देश को नेतृत्व देने वाले महात्मा गांधी ने भी इन दोनों पुस्तकों पर कुछ नहीं बोला।
प्रतिक्रिया में रंगीला रसूल
गाधी की प्रतिक्रिया
फिर क्या था महात्मा गाँधी ने अपनी मुस्लिम परस्त निति के कारण इस पुस्तक के विरुद्ध हरिजन अखबार में एक लेख लिखा एक प्रकार से मुसलमानों को उकसाने का काम किया। इस पर कट्टरवादी मुसलमानों ने महाशय राजपाल के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। सरकार ने उनके विरुद्ध १५३ए धारा के अधीन अभियोग चला दिया। अभियोग चार वर्ष तक चला। राजपाल जी को छोटे न्यायालय ने डेढ़ वर्ष का कारावास तथा १००० रूपये का दंड सुनाया गया। इस फैसले के विरुद्ध अपील करने पर सजा एक वर्ष तक कम कर दी गई। इसके बाद मामला हाई कोर्ट में गया। कँवर दिलीप सिंह की अदालत ने महाशय राजपाल को दोषमुक्त करार दे दिया। फिर महात्मा गांधी ने अपने अखबार में लिखा कि यदि अदालत से न्याय नहीं मिलता तो मुसलमानों को स्वयं न्याय करने का अधिकार है, फिर क्या था सारे मोमिन भड़क गए।
न्यायालय के विरुद्ध भड़के मोमिन
मुसलमान इस निर्णय से भड़क उठे। खुदाबख्स नामक एक पहलवान मुसलमान ने महाशय जी पर हमला कर दिया जब वे अपनी दुकान पर बैठे थे पर संयोग से आर्य सन्यासी स्वतंत्रानंद जी महाराज एवं स्वामी वेदानन्द जी महाराज वह उपस्थित थे। उन्होंने घातक को ऐसा कसकर दबोचा की वह छुट न सका। उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया गया, उसे सात साल की सजा हुई। रविवार ८ अक्टूबर १९२७ को स्वामी सत्यानन्द जी महाराज को महाशय राजपाल समझ कर अब्दुल अज़ीज़ नामक एक मतान्ध मुसलमान ने एक हाथ में चाकू, एक हाथ में अस्तुरा लेकर हमला कर दिया। स्वामी जी घायल कर वह भागना ही चाह रहा था की पड़ोस के दूकानदार महाशय नानकचंद जी कपूर ने उसे पकड़ने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे भी घायल हो गए तो उनके छोटे भाई लाला चूनीलाल जी जी उसकी ओर लपके।
महाशय राजपाल की हत्या
उन्हें भी घायल करते हुए हत्यारा भाग निकला पर उसे चौक अनारकली पर पकड़ लिया गया। उसे चोदह वर्ष की सजा हुई और तदन्तर तीन वर्ष के लिए शांति की गारंटी का दंड सुनाया गया। स्वामी सत्यानन्द जी के घाव ठीक होने में करीब डेढ़ महीना लगा। ६ अप्रैल १९२९ को महाशय राजपाल अपनी दुकान पर आराम कर रहे थे। तभी इल्मदीन नामक एक मतान्ध मुसलमान ने महाशय जी की छाती में छुरा घोप दिया जिससे महाशय जी का तत्काल प्राणांत हो गया। उस समय राजपाल महाशय की शव यात्रा में एक लाख लोग समलित हुए इससे हम समझ सकते हैं कि उनकी कितनी लोकप्रियता रही होगी अथवा आर्यसमाज की कितनी प्रतिष्ठा। पूरा शहर ठप पड़ गया था। इलमुदीन को फांसी से बचाने के लिए पूरा मुस्लिम समाज लग गया मगर आर्यों के पुरुषार्थ के आगे विफल हो गए। धर्म रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देकर महाशय राजपाल जी अमर हो गए।
(नोट-यह पोस्ट 'विवेक आर्य' के फेसबुक पोस्ट से ली गयी है )
2 टिप्पणियाँ
महाशय राजपाल का बलिदान आज के युवाओं को अवश्य जानना चाहिए।
जवाब देंहटाएंऐसी घटना का आज के समाज के सामने आना बहुत जरूरी है
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