वीरबंदा बैरागी------- मै बैरागी हू और गुरु क़ा बन्दा-------------.


विजय पर्व


आज पूरे पंजाब में बीर बन्दा बैरागी क़ा ३००वां विजय दिवस मनाया जा रहा है, दुर्भाग्य है कि भारत की सेकुलर (हिन्दू बिरोधी यू.पी.ए.) सरकार को यह विजय पर्व दिखाई नहीं पड़ रहा है आज क़े तीन सौ वर्ष पूर्ब मई १७१० में बन्दा बहादुर की सेना ने सूबेदार वजीर खान को पराजित कर सरहिंद पर अपना अधिकार कर लिया था, गुरु गोविन्द सिंह जब दक्षिण भारत पहुचे तो नादेंण में राजा लक्ष्मणरोंव उन्हें तपस्वी वेश में मिले। बन्दा सिंह बहादुर एक महान सेनानायक थे, उन्हे बन्दा बहादुर, लक्षमण देव के नाम से जानते थे, वे भारद्वाज गोत्र के सारस्वत ब्राह्मण थे। बन्दा के जन्म के विषय में महंत माधो दास बैरागी और बन्दा बहादुर भी कहते हैं। उनका मूल नाम लक्ष्मण देव था। उनका जन्म 27 अक्टूबर, 1670 को राजौरी में हुआ था। बहुत कम आयु में वे सन्यासी बन गए और उन्हें "माधोदास बैरागी" के नाम से जाना जाने लगा

गुरु की शरण में वैरागी

गुरुजी ने उन्हें उपदेश दिया अनाथ अबलायेँ तुमसे रक्षा की आशा करती हैं, गो माता मलेक्षों की छूरियों क़े नीचे तडपती हुई तुम्हारी तरफ देख रही हैं, हमारे मंदिर ध्वस्त किये जा रहे हैं, यहाँ किस धर्म की आराधना कर रहे हो तुम एक बीर अचूक धनुर्धर, इस धर्म पर आयी आपत्ति काल में राज्य छोड़कर कोई तपस्वी हो जाय यह गुरु गोविन्द सिंह को अभीष्ट नहीं था। 
और फिर समर्पण
मै आपका बन्दा हूँ, लक्ष्मण ने घुटने टेक कर कहा और उसी दिन से वे सचमुच गुरु के बन्दा हो गए, गुरु गोविन्द सिंह ने स्वयं उन्हें अपनी तलवार प्रदान की, बन्दा बैरागी क़ा जन्म कश्मीर क़े राजौरी गाँव में एक राजपूत किसान परिवार में हुवा था सन्यासी बनने क़े पश्चात् वे ''माधोदास बैरागी'' हो गए, छद्म वेशी तुर्कों ने धोखे से 'गुरुगोविन्द सिंह' की हत्या करायी, बन्दा को पंजाब पहुचने में लगभग एक वर्ष लग गया सभी शिक्खो में यह प्रचार हो गया की गुरु जी ने बन्दा को उनका जत्थेदार यानी सेनानायक बनाकर भेजा है देखते -देखते सेना गठित हो गयी और रावी से यमुना क़े बीच क़ा सारा भूभाग जीत कर उन्होने गुरु नानकदेव व गुरु गोविन्द सिंह क़े नाम क़ा सिक्का जारी किया, वे सरहिंद क़े वजीर खाँ से बदला लेना चाहते थे जिसने जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह को जिन्दा दीवाल में चुनवा दिया था, चपद्चिनी क़े युद्ध में वजीर खाँ और उसके पुत्र को समाप्त किया, बन्दा तो बैरागी थे वे दो स्थानों पर ही मिलते थे एक समर क्षेत्र में या तो पर्वत की सिखा पर ध्यानस्थ। 

अद्भुत योद्धा और वैराग्य


 दिल्ली क़े सम्राट बहादुर साह प्रथम स्वयं सेना लेकर बन्दा क़ा सामना किया और उन्हें बंदी बनाने में सफल हो गया, लोहे की जंजीरों में जकड बन्दा बैरागी को हाथी पर ले जाया जा रहा था, सिंह को छल पुर्बक बंदी बनाया था, महायोगी बन्दा ने अपने आप को सम्हाला प्राणों को स्थिर किया और जंजीरे जिनमे वे जकड़े थे, तड-तड टूट गयी, समीप क़े यवन सैनिक क़े घोड़े उसकी तलवार लेकर अस्व की पीठ पर बैठे बन्दा अपने सभी बंदी साथियों को अकेले छुड़ा लिया, हिमाचल क़े पास लौहगढ़ को उन्होंने राजधानी बनायीं लगभग ६ बर्षो तक सिक्खों क़ा शासन हुवा उन्होंने मुगलों क़े जमींदारी से सभी को मुक्त कराया, एक दुर्भाग्य क़ा दिन आया मुग़ल फूट डालने में कामयाब हो गए वे कुछ सैनिको क़े साथ दुर्ग में घिर गए दुर्ग की खाद्य सामग्री समाप्त हो गयी, बन्दा और उनके ७८४ साथी पकड़ लिए गए बन्दा को सिंह क़े पिंजरे में बंद करके हाथी पर दिल्ली भेजा गया।


इस्लाम ने अपना असली रूप दिखाया


तुम इस्लाम धर्म स्वीकार लो, तुम्हे जीवन दान दिया जायेगा उन्होंने स्वीकार नहीं किया, प्रतिदिन १०० सिक्खों क़े सिर काटे जाते यह क्रम सात दिनों तक चला, उनका मस्तक गौरवमय प्रतीत हो रहा था। 9 जून १७१६ क़ा वह मनहूस दिन आया इस्लाम क़े नाम पर जो यह कहते नहीं थकते- कुरान प्रेम, मुहब्बत सिखाता है, उनका प्रेम तो देखो बन्दा को नगर से बाहर लाया गया। बन्दा क़े सम्मुख उनके इकलौते पुत्र की छाती फाड़ कर जल्लादों ने उसका  कलेजा निकाल लिया और बल पूर्बक बन्दा क़े मुख में ठूसा गया, तपाई गयी गर्म सलाखों से पीटा गया जब उनका सरीर झुलस गया। तब गरम चिमटो से उनका मांस नोचा जाने लगा वे मुस्करा रहे थे सबने देखा बैरागी क़े मुख पर बेदना क़े तनिक भी चिन्ह नहीं थे, अंत में इस्लाम दया करने वाला धर्म, मुहब्बत क़े सन्देश देने वालो ने उन्हें हाथी क़े पैरो नीचे कुचलवाया, 'बन्दा' वास्तव में 'गुरु' क़े 'बन्दा' थे।

रबिन्द्रनाथ ठाकुर ने बन्दा बहादुर के सम्मान में एक कविता लिखी है ...

"बंदी वीर" पंच नदीर तीरे, वेणी पाकायी शीरे।

देखिते देखिते गुरूर मंत्रे, जागिया उठीचे सिख।।
निर्मम निर्भीक-------