अष्ट्रावक्र जिन्हें राजा जनक ने गुरु स्वीकार किया ----- !

गर्भ में ही चेतना 

''अष्ट्रावक्र'' 'कहोड़ ऋषि' के पुत्र थे बहुत बड़े वैदिक आचार्य ऋषि थे उनका गुरुकुल शिक्षा के लिए प्रसिद्द था, उस समय गुरु माता भोजन की ब्यवस्था करती थी ऋषि अपने शिष्यों को शिक्षा देने का काम करते थे उस समय की शिक्षा आधुनिक शिक्षा भौतिक न होकर वह मानवता और जगत के उद्धार हेतु नए -नए शोध पर आधारित थी नदियों और वनों से हमारी वैदिक संस्कृति का विकाश हुआ, उस समय गुरु माँ गर्भवती थी ऋषि अपने शिष्यों को प्रति दिन पढ़ाते गर्भ में ही शिशु पूरी शिक्षा ग्रहण करता एक दिन गुरुकुल (आश्रम) में एक घटना घट गयी पढ़ाते- पढ़ाते ऋषि कुछ गलत बोल गए, तब-तक कही से आवाज़ सुनाई पड़ी की पिता जी आप गलत पढ़ा रहे है! कहोड़ ऋषि ने इधर-उधर देखा और समझ नहीं सके की आवाज़ कहा से आ रही है उन्होंने फिर पढ़ना शुरू कर दिया फिर दुबारा आवाज आती है कि पिता जी आप गलत पढ़ा रहे है जब ऋषि ने ध्यान दिया ! अरे ये तो मेरी पत्नी के गर्भ से आवाज़ आ रही है वे बड़े ही चिंतित हो गए, यह गर्भ से ही हमारा बिरोधी है तो जन्म लेने के पश्चात् क्या करेगा ? उन्होंने क्रोधित हो उस गर्भ में ही पलने वाले शिशु को श्राप दे दिया कि तुम जाओं तुम आठ अंगो से टेढ़े हो जाओ ।

और शास्त्रार्थ के  चुनौती लिए

 गर्भ के ही अन्दर शिशु को बड़ा ही कष्ट अनुभव हुआ गर्भ में ही वह भगवत भजन में लग गया लेकिन पिता के प्रति कोई द्वेष नहीं वह ईश्वर से प्रार्थना करता कि पिता का अनुराग उससे बना रहे और उसके पिता का क्रोध समाप्त हो जाय, शिशु धरती पर गिरते ही वह तो अद्भुत था लेकिन आठ अंगो से टेढ़ा-मेढ़ा कुरूप सा था इस नाते उसका नाम अष्ट्रावक्र पड़ा, धीरे बड़ा होने लगा वह तो उत्कृष्ट मेधावी था क्यों कि माँ के गर्भ में ही शिक्षा ग्रहण कर प्रवीण हो चूका था कहोड़ ऋषि के जल समाधी लेने पर कहोड़ ऋषि की पत्नी 'सुजाता' अपने पिता उद्दोलक ऋषि के यहाँ चली गयी धीरे-धीरे वह बालक आठ वर्ष का हो गया एक दिन खेलते-खेलते कुछ बच्चो ने उसे चिढाया कि तुम्हारे पिता जी कहा हैं, रोता हुआ अपनी माता के पास गया माता ने कोई बहाना बना दिया क्यों की कहोड़ ऋषि ने कहा था की उसे नहीं बताना की मै कहा हू, लेकिन माँ कितना दिन बहाना करती, एक दिन अष्ट्रावक्र ने अपनी माता से जिद किया बच्चे की जिद के आगे माँ को झुकना पड़ा माँ ने सच- सच बात बता दिया कि राजा जनक के यहाँ शास्त्रार्थ में पिता जी को हार के कारन जल समाधी लेनी पड़ी, आखिर वह तो स्वाभिमानी बालक बहुत मेधावी था उसे वेदों का ज्ञान था, किसी से शास्त्रार्थ का आग्रह कर सकता था अपने पिता का बदला लेने वह राजा जनक के यहाँ चल पड़ा, शास्त्रार्थ में शर्त थी कि जो हार जायेगा उसे जल समाधी लेनी पड़ेगी उस समय तक भारत वर्ष के बहुत बड़ी संख्या में पंडितो को जल समाधी दी जा चुकी थी धरती विद्वानों से खाली हो गयी थी ऐसे समय में बालक अष्ट्रावक्र ने बंदी ( जनक के राज पुरोहित ) शास्त्रार्थ कि चुनौती दी।

राजा के दरबार में विद्वान नहीं चर्मकार !

 अष्ट्रावक्र राजा जनक के दरवार में पहुचे तो उन्हें देखकर सभी विद्वान जन हँसने लगे वे तो कुरूप और टेढ़े -मेढ़े थे उन्होंने राजा से पूछा कि मैंने तो यह सुना था कि ''राजा जनक'' के यहाँ विद्वान लोग रहते है, यहाँ तो तो सभी मुझे ''चर्मकार'' लग रहे है यह सुनकर सभी आश्चर्य चकित हो गए राजा ने हस्तक्षेप किया और परीक्षा हेतु कुछ प्रश्न किया वह पुरुष कौन है ? जो तीस अवयव, १२अंश, चौबीस वर्ष और ३६५ अक्षरों वाली वास्तु का ज्ञानी है ? राजा जनक के प्रश्न को सुनते ही अष्ट्रावक्र बोले की चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओ वाला, बारह महीनो वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला सम्बत्सर आपकी रक्षा करे, अष्ट्रावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा ने फिर प्रश्न किया की वह कौन है जो सुसुप्ता अवस्था में भी आख बंद नहीं करता ? जन्म लेने के पश्चात् चलने में असमर्थ रहता है ? कौन ह्रदय विहीन है ? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है ? अष्ट्रावक्र ने उत्तर दिया हे राजन ! मछली सुसुप्ता अवस्था में आख बंद नहीं करती, जन्म लेने के पश्चात् अंडा चल नहीं सकता, पत्थर ह्रदय विहीन होता है और नदिया तेज गतिमान होती है, अष्ट्रावक्र के उत्तर को सुनकर जनक बहुत प्रसंद हो गए और बंदी से शास्त्रार्थ के लिए अनुमति दे दी।

और शास्त्रार्थ शुरू हो गया !

 शास्त्रार्थ शुरू हुआ राजपुरोहित बंदी को लगा यह टेढ़ा-मेढ़ा कुरूप आठ वर्ष का बालक क्या शास्त्रार्थ करेगा ? सारे विद्वान इक्कट्ठा हो गए अष्ट्रावक्र ने राजा के विद्वान पुरोहित बंदी को पराजित कर जल समाधी के लिए राजा से आग्रह किया राज पुरोहित बंदी ने पराजय स्वीकार करते हुए कहा कि हे महात्मन मैंने किसी को जल समाधी नहीं दी है मेरे पिता वरुण देवता है वह एक यज्ञ का अनुष्ठान किये है उसमे विद्वान पंडितो कि आवश्यकता थी मैंने शास्त्रार्थ में पंडितो को पराजित कर उन्हें जल समाधी द्वारा पाताल लोक भेज दिया हूँ, अब वह यज्ञ समाप्त हो गया है मै उन सभी पंडितो को जल मार्ग से बाहर अपने देश में आने का आवाहन करता हू, हे विद्वान ऋषि कहोड़ पुत्र अष्ट्रावक्र तुम्हारे जैसा पित्र भक्त, राष्ट्र भक्त को मै सादर प्रणाम करता हूँ और इस भारत भूमि, देव भूमि से गए हुए विद्वानों को शीघ्र ही बुलाता हू और यदि आप इस पर भी संतुष्ट नहीं हुए तो मै जल समाधी लेने को तैयार हू और उसके बाद राजा जनक ने अष्ट्रावक्र को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।

मेधा अपने देश के लिए होनी चाहिए 

अष्ट्रावक्र ने विजय कर केवल अपने पिता को ही नहीं बल्कि अपने देश के पाताल लोक गए सभी विद्वानों, वैज्ञानिको को लाने का काम किया ऋषि कहोड़ ऐसे पुत्र को पाकर धन्य हुए, पिता को देखते ही उन्होंने पिता के चरण स्पर्श किये ऋषि कहोड़ ने उन्हें आशिर्बाद दिया कहा की तुम जाकर समांग नदी में स्नान करो जिससे तुम मेरी शाप से मुक्त हो जाओगे, वे समांग नदी में स्नान कर शाप मुक्त हो जाते है और उनका शरीर रोग मुक्त होकर सुन्दर सुडौल हो गया, आज हमारे देश के इंजिनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक और प्रोफ़ेसर जो विश्व के दूसरे देशो की उन्नति में अपनी उन्नति समझ रहे है, आज आवश्कता है कि वे अपने देश में आकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करे आज वह अष्ट्रावक्र कहाँ है ? जो भारत की प्रतिभाओ को भारत में लायेगा ? आज भारत उस अष्ट्रावक्र को बुला रहा है, हे अष्ट्रावक्र तुम अपने मेधा के बल सभी भारतीय नचिकेताओ को भारत के उद्धार में लगाओ तभी भारतीयता, मानवता और हिंदुत्व सुरक्षित रहेगा।   
             आओ अष्ट्रावक्र  तुम्हे प्रणाम करे ! 
सूबेदार सिंह 
पटना    

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3 टिप्पणियाँ

  1. भारतीय जनता की सेवा करने के लिए किया गया आपका यह प्रयास विफल नहीं है। आप लिखते रहे,,,,

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  2. बहुत अच्छा आप लिखते रहें

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