धर्मवीर छत्रपति संभाजी राजे---!


होनहार विरवान के होत चीकने पात

कुशल उत्तराधिकारी

उन्होंने बचपन में ही शिवाजी महराज जैसे पिता के नेतृत्व में राजनीति, संघर्ष और स्वाभिमान के साथ जीना सीखा था। वे राजभवन के षडयंत्र से बच नहीं सके उनके ऊपर तमाम प्रकार के गलत अनर्गल प्रकार के आरोप लगाकर शिवाजी के अन्तरंग लोगो ने साम्राज्य को कमजोर करने का जाने- अनजाने षडयंत्र करते रहे। क्षत्रपति बनने के पश्चात् वे लगातार १२ वर्षो तक मुग़ल सम्राट औरंगजेब, पुर्तगालियो, दक्षिण के मुस्लिम सासको तथा इष्ट इण्डिया कंपनी से संघर्ष के साथ-साथ हिन्दू साम्राज्य का विस्तार कर संभाजी राजे ने यह सिद्ध कर दिया की वे हिन्दू पदपादशाही के कुशल उत्तराधिकारी हैं। वे संकल्प शक्ति के धनी थे उन्हें अपने महान पिता व माता जीजा बाई का बराबर स्मरण रहता था वे केवल संकल्प ही नहीं तो वीर योद्धा और कुशल सेनापति भी थे। अपने नौ वर्षो के शासन में १२० युद्ध लड़ी किसी में उन्हें हार का सामना नहीं करना पड़ा। तमाम युद्ध बहुत कम आयु में शिवजी के नेतृत्व में लड़ चुके थे कहीं न कहीं वे शिवाजी महाराज से भी कर्मठ और योग्य हिन्दू धर्म रक्षक थे। जिन्होंने हिन्दू समाज, अपने पिता सहित गुरु समर्थ रामदास के मर्यादा की भी रक्षा की। यदि कहा जाय तो अपने सम- कालीन ही वीरबन्दा वैरागी के सामान क्रन्तिकारी और धर्म रक्षक थे। 

''होनहार विरवान के होत चीकने पात' जैसी चरितार्थ कथा यथार्थ यदि देखना हो तो ''क्षत्रपति शिवाजी महाराज'' के पुत्र 'संभाजी राजे' को देखा जा सकता है। धरती पर कदम रखते ही संघर्षो का जिसका साथ रहा हो जिसने ५-६ वर्ष की आयु से ही पिता के कंधे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया हो। जिसके पास 'हिन्दू पद्पाद्शाही' से 'क्षत्रपति' तक का अनुभव रहा हो। जिसने 'शिवाजी राजे' की संघर्ष शील छत्र क्षाया में प्रशिक्षण प्राप्त किया हो। ऐसे 'संभाजी' के ऊपर उनके "अष्ट प्रधानो" द्वारा ही अपने निजी स्वार्थ के कारन उन्हें लांछित करने का प्रयास किया जा रहा हो। एक तरफ औरंगजेब की पांच लाख की सेना का आक्रमण तो दूसरी तरफ साम्राज्य की अंतर कलह ऐसी विकट परिस्थिति में जिस महापुरुष ने २२ वर्ष की अल्प आयु में क्षत्रपति जैसे दायित्व का भार सुशोभित किया । जिसने नौ वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन ही नहीं किया बल्कि 'हिन्दवी साम्राज्य' का विस्तार भी किया । ऐसे महान देश भक्त 'धर्मवीर सम्भाजी राजे' ही हो सकते है 'संभाजी' का जन्म 14 मई १६५७ में हुआ आठ वर्ष की आयु में पिता की आज्ञा से मुग़ल दरबार में पांच हजारी लेकर राजा की उपाधि ग्रहण की लेकिन वे तो हिन्दवी स्वराज्य संस्थापक 'शिवाजी महाराज' के पुत्र थे। उन्हें यह नौकरी बर्दास्त नहीं थी, लेकिन पिता की आज्ञा मानकर मराठा सेना के साथ छह वर्षो तक औरंगजेब के यहाँ रहे १४ साल की आयु में उन्होंने तीन ग्रंथ संस्कृति मे लिखे वे कितने मेधावी थे इससे यह पता चलता है। 

षड़यंत्र के शिकार

शिवाजी महराज की मृत्यु के पश्चात् २० जुलाई १६८० में उनके दरबारी संभाजी के स्थान पर उनके छोटे भाई राजाराम को गद्दी पर बिठाना चाहते थे लेकिन तत्कालीन सेनापति मोहिते ने इसे कामयाब नहीं होने दिया १० जनवरी १६८१ को संभाजी राजे का बिधिवत राज्याभिषेक हुआ। उन्होंने अनेक युद्ध लड़ा पुर्तगालियो को पराजित कर किसी राजनैतिक कारन से वे संगमनेर में रहने लगे अपने साथ केवल २०० सैनिको को रख सभी सेना को रायगढ़ भेज दिया। यह केवल मराठो को ही पता था। सम्भाजी के साले "गणेश जी सिरके" ने गद्दारी कर मुग़ल सेना सरदार इलियास खान ५००० सेना सहित गुप्त रास्ते से आ गया। यह रास्ता केवल मराठे ही जानते थे वे घिर गए युद्ध के प्रयास करने पर भी २०० सैनिको के साथ वे कुछ कर नहीं सके। उन्हें १फ़रवरी १६८९ को जीवित पकड़ लिया। मुगलों को उनका सबसे प्रबल शत्रु मिल चुका था महराज के साथ उनके मित्र, सलाहकार, "कबि कलस" भी थे दोनों के मुख में कपड़ा ठूसकर बढ़कर घोड़े पर लादकर उन्हें मुग़ल छावनी लाया गया। औरंगजेब ने उन्हें मुसलमान बनाने की कोसिस की मुग़ल छावनी में उन्हें बास में बाधकर घसीटा गया शरीर का अंग-अंग कट गया, कपडे फट गए, कबि कलश और संभाजी दोनों ने इस्लाम स्वीकार करने से मना के दिया वे वीर पिता के धर्मवीर पुत्र थे। औरंगजेब ने महराज से कहा की यदि मेरे चारो पुत्रो में से कोई भी तुम्हारे जैसा होता तो मै पूरे हिंदुस्तान पर सासन करता! पूरे मुग़ल छावनी में उनका अपमान पुर्बक जुलुस निकाला गया उनका सिर मुडाया गया था। वे पहचान में नहीं आते थे वे निश्प्रिय लग रहे थे जैसे कोई सन्यासी हो कुछ हो ही न रहा हो (इतिहास बताता है की उस जुलूस में बल पूर्बक एक लाख हिन्दुओ को सम्लित किया गया था)। उन्होंने कहा की मै धर्मवीर पिता का पुत्र हूँ यदि तुम अपनी पुत्री हमें देदो तो भी मै इस्लाम नहीं स्वीकार करुगा ! उनकी जबान काट ली, जब उन्होंने 'औरंगजेब' को घूर तो उसने उनके आखो में गरम सलाखे डाल दी। उनके हाथ काट लिया और अंत में एक दिन ११ मार्च १६८९ को उनके तुकडे-तुकडे कर (हत्या कर) तुलापुर की नदी में फेक दिया। उस नदी के किनारे रहने वालो ने उस भयंकर भयभीत दसा में क्षत्रपति संभाजी के लॉस के तुकडे को इकठ्ठा कर सिलकर जोड़ दिया और महराज का बिधि पूर्बक दाह संस्कार किया आज उनको लोग "सिवले" के नाम से जानते है। 

संभाजी का बलिदान मुगल सत्ता की आखिरी कील

औरंगजेब को लगता था कि ''क्षत्रपति संभाजी'' के समाप्त होने के पश्चात् हिन्दू साम्राज्य समाप्त हो जायेगा। जब 'सम्भाजी' मुसलमान हो जायेगा तो सारा का सारा हिन्दू - मुसलमान हो जायेगा। लेकिन वह नहीं जानता था कि वह 'वीर पिता' का 'धर्म वीर' पुत्र वह बिधर्मी न होकर मौत को गले लगाएगा! उसकी बुद्धि काम नहीं की वह नहीं जनता था कि ''सम्भाजी'' किस मिट्टी का बना हुआ है। सम्भाजी मुगलों के लिए रक्त बीज साबित हुआ। प्रत्येक हिन्दू सम्भाजी बनकर खड़ा हो गया। सम्भाजी की मौत ने 'मराठो' को जागृत कर दिया और सभी इकठ्ठा होकर लड़ने लगे उससे हिन्दवी साम्राज्य का बिस्तार तो हुआ ही पूरा 'भारत' खड़ा हो गया। 'मुगलों' का सासन केवल दिल्ली तक ही सिमट कर रह गया। औरंगजेब की कब्र भी वहीँ बन गयी वह लौटकर वापस अपनी राजधानी नहीं जा सका। 'सम्भाजी' का जीवन बहुत अल्प था केवल ३१ वर्ष कि आयु में चले गए।लेकिन हिंदुत्व के लिए उन्होंने एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया जैसे वीरबंदा बैरागी ने किया इन्ही धर्मवीरो ने भारत और हिन्दू धर्म की रक्षा की आज हमें उनसे प्रेरणा लेने की आवस्यकता है। 'क्षत्रपति संभाजी महराज' हिन्दू इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं उन्हें ''गुरु गोविन्द सिंह, वीरबन्दा बैरागी, राणाप्रताप तथा शिवाजी'' की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करेगा, भविष्य का इतिहास और सम्पूर्ण हिन्दू समाज उन पर गर्व करेगा।