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कर्तब्य बोध----?
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धर्म विजय की आड़ में मौर्य राजा देश की रक्षा तथा अपने कर्तब्यों की जिस प्रकार उपेक्षा कर रहे थे, पुष्यमित्र शुंग को उससे बहुत उद्देग हुआ, उसने यत्न किया कि मगध शासन तंत्र को अपने कर्तब्यों का बोध कराएँ, पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली फिर मजबूर हो उन्होने इस निर्विर्य राजा को समाप्त कर पाटलीपुत्र का शासन अधिग्रहित कर लिया।
पुष्यमित्र का उदय
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मौर्य सासन के पतन और शुङ्ग वंश के अभ्युदय के काल की धार्मिक दशा के विषय में अनेक प्राचीन साहित्य मौजूद हैं, ''एक प्रसिद्द इतिहासकार के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब में बौद्धों ने ग्रीक आक्रान्ताओं का खुले तौर पर साथ दिया, जिसके कारण पुष्यमित्र उनके प्रति वैसा ब्यवहार करने को विबस हुआ था, जैसा की देश द्रोहियों के साथ किया जाता है-! ''बौद्ध अनुश्रुति में पुष्यमित्र के बौद्धों के प्रति विद्वेष भाव का सजीव वर्णन किया गया है, वहां लिखा गया है की उसने बहुत से बौद्ध स्तूपों का ध्वंस कराके 'शाकल नगरी' में यह घोषणा की थी, कि जो कोई किसी श्रवण का सिर लायेगा उसे सौ सुवर्ण मुद्राएँ पारितोषिक के रूप में दी जाएगी, (लगता है कि वामपंथियों ने वायस्ठ होकर लिखा है) ये कतिपय ऐतिहासिक तथ्य है जो मौर्य साम्राज्य के ह्रास और पुष्यमित्र के उदय से सम्बंधित तथ्य है ।
शंकराचार्य के स्वप्नों का भारत-----------------------------------
कहते हैं ''कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य'' ने शास्त्रार्थ कर जिस बौद्ध मत को समाप्त किया और वैदिक धर्म की सार्थकता सिद्ध की उसकी ब्यवहारिक पुष्टि 'सेनानी पुष्यमित्र' ने की यानी जिसकी कल्पना शंकराचार्य ने किया अथवा जो विचार दिया उसे सेनानी ने राजनैतिक दृष्टि से ''भारतवर्ष'' में लागू किया ''शंकर'' के द्वारा दिए गए विचार के वैदिक गुरुकुलों की संरचना धीरे-धीरे खड़ी हो रही थी उसी गुरुकुल के आचार्य दंडपानी और महर्षि पतंजलि थे जिनको आधार बनाकर सेनानी ने पुनः बिर्यहीन शासन से मुक्ति दिला ''चन्द्रगुप्त मौर्य और बिन्दुसार'' के महान पराक्रमी शासन की याद ताज़ा कर दिया, यदि यह कहा जाय कि शंकराचार्य के विचारों का वे राजनैतिक अभिब्यक्ति थे तो यही उपयुक्त होगा ।
अश्वमेध यज्ञ--!
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मगध का शासन तंत्र अपने हाथ में लेने के पश्चात् सिन्धु तट पर यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया, यह बात महाकबि कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्रम' नामक नाटक में किया है, इसकी पुष्टि अयोध्या से प्राप्त एक उत्कीर्ण लेख द्वारा हुई है जिसमे पुष्यमित्र को 'द्विर्श्वमेघ्याजी' कहा गया है।
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मगध का शासन तंत्र अपने हाथ में लेने के पश्चात् सिन्धु तट पर यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया, यह बात महाकबि कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्रम' नामक नाटक में किया है, इसकी पुष्टि अयोध्या से प्राप्त एक उत्कीर्ण लेख द्वारा हुई है जिसमे पुष्यमित्र को 'द्विर्श्वमेघ्याजी' कहा गया है।
बौद्धों द्वारा समाप्त की हुई वैदिक संस्कृति को पुनः जीवित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया, सुदूर पूर्वी प्रदेश असम, बंगाल आदि से लेकर दक्षिण तक तथा गंधार-बाल्हिक (कंधार-बगदाद) तक के प्रदेशो को विजित कर विशाल साम्राज्य की स्थापना की, षड्यंत्रों के केंद्र बने हुए बौद्ध मठों की निरंकुशता पर प्रभावी अंकुश लगाया, देश की भाषा विदेशियों एवं सांप्रदायिक मत-मतान्तरों के कारन जो खिचड़ी जैसी बन गयी थी उसे शुद्ध करने के लिए महर्षि पतंजलि की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना कर भाषा को एक रूपता प्रदान की, अपने 38 वर्ष के शासन काल की छोटी सी अवधी में वे विशाल कार्य किये जो शताब्दियों में भी होना शरल नहीं था, उनके पश्चात् पुत्र अग्निमित्र एयं पुत्र बशुमित्र आदि ने उनकी कीर्ति अक्षुण बनाये रखी।