महान हिंदू सम्राट सेनानी पुष्यमित्र शुङ्ग -----पाटिलीपुत्र

         

धर्म विजय नहीं कायरता        

 ईशा के २२५ वर्ष पूर्व मौर्य साम्राज्य का पतन सम्राट अशोक की 'धर्म विजय निति' का परिणाम स्वरूप देश की सुरक्षा और जनता के प्रति कर्तब्य का उपहास कर, धर्म विजय के नाम प़र उसके उत्तराधिकारियों ने भारतीय अखंडता के साथ खिलवाड़ किया, उस समय आर्य पुष्यमित्र सम्राट बृहद्रथ मौर्य के सेनापति थे, बृहद्रथ की विलासी प्रकृति और अशोक की धर्म विजय निति का समर्थक था के कारण सेना को काषाय वस्त्र तथा बौद्ध धर्म राजाश्रित धर्म होने के कारन तथा-कथित कायर कर्तब्य हीन (काहिल) जनता 'कासाय वस्त्र' धारण कर जगह -जगह ''बौद्ध बिहारों'' में जीवन ब्यतित करने लगी देश पर परकीयों के हमले शुरू हो गए पुनः यवन आक्रमण कारी साकेत तक आ गए लेकिन पाटली पुत्र का शासन "अहिंसा परमो धर्मः" ही करता रहा, ''युग पुराण" में मौर्य राजा शशिकुल के लिए 'धर्मवादी और अधार्मिक' विशलेषणों का प्रयोग कर ब्यंग के साथ यह भी कहा गया की इस 'मोहत्मा' (मूढ़) ने धर्म विजय स्थापित की। 

कर्तब्य बोध----?

धर्म विजय की आड़ में मौर्य राजा देश की सुरक्षा तथा अपने कर्तब्यों की जिस प्रकार उपेक्षा कर रहे थे, पुष्यमित्र शुंग को उससे बहुत उद्देग हुआ, उसने यत्न किया कि मगध शासन तंत्र को अपने कर्तब्यों का बोध कराएँ, पर इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली फिर मजबूर हो उन्होने इस निर्विर्य राजा को  समाप्त कर पाटलीपुत्र का शासन अधिग्रहित कर लिया। 

पुष्यमित्र का उदय

मौर्य सासन के पतन और शुङ्ग वंश के अभ्युदय के काल की धार्मिक दशा के विषय में अनेक प्राचीन साहित्य मौजूद हैं, ''एक प्रसिद्द इतिहासकार के अनुसार, ऐसा प्रतीत होता है कि पंजाब में बौद्धों ने ग्रीक आक्रान्ताओं का खुले तौर पर साथ दिया, जिसके कारण पुष्यमित्र उनके प्रति वैसा ब्यवहार करने को विबस हुआ था, जैसा की देश द्रोहियों के साथ किया जाता है-! ''बौद्ध अनुश्रुति में पुष्यमित्र के बौद्धों के प्रति विद्वेष भाव का सजीव वर्णन किया गया है, वहां लिखा गया है की उसने बहुत से बौद्ध स्तूपों का ध्वंस कराके 'शाकल नगरी' में यह घोषणा की थी, कि जो कोई किसी श्रवण का सिर लायेगा उसे सौ सुवर्ण मुद्राएँ पारितोषिक के रूप में दी जाएगी, (लगता है कि वामपंथियों ने वायस्ठ होकर लिखा है) ये कतिपय ऐतिहासिक तथ्य है जो मौर्य साम्राज्य के ह्रास और पुष्यमित्र के उदय से  सम्बंधित तथ्य है । 

शंकराचार्य के स्वप्नों का भारत

कहते हैं ''कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य'' ने शास्त्रार्थ कर जिस बौद्ध मत को समाप्त किया और वैदिक धर्म की सार्थकता सिद्ध की उसकी ब्यवहारिक पुष्टि 'सेनानी पुष्यमित्र' ने की यानी जिसकी कल्पना शंकराचार्य ने किया अथवा जो विचार दिया उसे सेनानी ने राजनैतिक दृष्टि से ''भारतवर्ष'' में लागू किया ''शंकर'' के द्वारा दिए गए विचार के वैदिक गुरुकुलों की संरचना धीरे-धीरे खड़ी हो रही थी उसी गुरुकुल के आचार्य दंडपानी और महर्षि पतंजलि थे जिनको आधार बनाकर सेनानी ने पुनः बिर्यहीन शासन से मुक्ति दिला ''चन्द्रगुप्त मौर्य और बिन्दुसार'' के महान पराक्रमी शासन की याद ताज़ा कर दिया, यदि यह कहा जाय कि शंकराचार्य के विचारों का वे राजनैतिक अभिब्यक्ति थे तो यही उपयुक्त होगा । 

अश्वमेध यज्ञ--!

मगध का शासन तंत्र अपने हाथ में लेने के पश्चात् सिन्धु तट पर यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ किया, यह बात महाकबि कालिदास ने 'मालविकाग्निमित्रम' नामक नाटक में किया है, इसकी पुष्टि अयोध्या से प्राप्त एक उत्कीर्ण  लेख द्वारा हुई है जिसमे पुष्यमित्र को 'द्विर्श्वमेघ्याजी' कहा गया है।
बौद्धों द्वारा समाप्त की हुई वैदिक संस्कृति को पुनः जीवित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया, इतना ही नहीं वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ जो लुप्त परे हो गए थे सभी को गुरुकुलो,मठ मंदिरों आचार्यो द्वारा पुनः प्रतिष्ठापित कराना, सुदूर पूर्वी प्रदेश असम, बंगाल आदि से लेकर दक्षिण तक तथा गंधार-बाल्हिक (कंधार-बगदाद) तक के प्रदेशो को विजित कर विशाल साम्राज्य की स्थापना की, षड्यंत्रों के केंद्र बने हुए बौद्ध मठों की निरंकुशता पर प्रभावी अंकुश लगाया, देश की भाषा विदेशियों एवं सांप्रदायिक मत-मतान्तरों के कारन जो खिचड़ी जैसी बन गयी थी उसे शुद्ध करने के लिए महर्षि पतंजलि की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना कर भाषा को एक रूपता प्रदान की, अपने 38 वर्ष के शासन काल की छोटी सी अवधी में वे विशाल कार्य किये जो शताब्दियों में भी होना सरल नहीं था, उनके पश्चात् पुत्र अग्निमित्र एवं पुत्र बशुमित्र आदि ने उनकी कीर्ति अक्षुण बनाये रखी।         

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9 टिप्पणियाँ

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  2. '===कलिग युद्ध==='
    कुछ भारतीय इतिहासकारों का मत है कि कलिग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध की शिक्षा के अनुसार शासन किया इस लिए उनके साम्राज्य का पतन हो गया, लेकिन यह सब कल्पना व कलुषित मानसिकता की बाते है। जिन इतिहासकारो ने अशोक के बारे में यह सब लिखा है, तो उन तमाम इतिहासकारो को उनके अभिलेखो का ध्यान से अध्ययन करना चाहिए।
    राज्याभिषेक से सम्बनिधत 'मास्की के लघु शिला लेख' में
    अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य कहा और वह इस मौर्य वंश का महान व प्रतापी सम्राट होने की इच्छा जाहिर की है। अशोक का विधिवत राज्यभिषेक 269 र्इ0पू0 में हुआ । जब कि राज्याभिषेक के 8वे वर्ष 261 र्इ0पू0 में अशोक द्वारा कलिग युद्ध किया गया । अर्थात एक अरियधम्मिको सम्राट होते हुए अशोक ने कलिग विजय की ।
    (गौणशिला प्रज्ञापन-।)
    कुछ ना समझ लोगों ने यह बात फैलानी शुरू कर दी है, कि बुद्ध की अहिसापरक शिक्षा से भारत देश दुर्बल हो गया। वस्तुत: यह मिथ्या बात तब प्रचलित हुइ जब कि देश से बुद्ध की मूल वाणी का नामोनिशान मिटाया गया था । भगवान बुद्ध ने किसी राज्य या देश को अजय रहने के लिए 'सात अपरिहार्य नियम बताये । जिसका पालन करते हुए लिच्छवीय गणराज्य बहुत समय तक अजय बना रहा । (महापरिनिब्बानसुत्त)
    ===अशोक भगवान बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक अनुयायी===
    कलिग-युद्ध के उपरान्त अशोक भगवान बुद्ध की शिक्षा का वास्तविक अनुयायी वन चुके थे । वह भला सेना व शस्त्रों को कैसे त्याग सकते थे ? उलटें भगवान बुद्ध की शिक्षा के अनुसार उन्होंने प्रबल सेना रखी परन्तु उसका उपयोग अपने देश की भितरी व बाहरी सुरक्षा के लिए किया न कि पड़ोसी देशों पर आक्रमण करने के लिए । अपने देश की अखण्डता एवं स्वतंत्रता पूर्ण रूप से कायम रखी । कलिग युद्ध के बाद वह मृत्यु पर्यन्त 40 वर्ष तक राज्य करते रहे । इतने लम्बे समय तक कोर्इ विदेशी दुश्मन देश की एक इंच भुमि न ले सका ।अशोक ने देश की स्वतंत्रता पर जरा भी आच नहीं आने दी । क्या यह सब सेना व शस्त्र त्याग करने से सम्भव होता ? यही नहीं उन्होंने अपने शिलालेख में आने वाली पिढि़यों को यही संदेश दिया। देवताओं के प्रिय राजा अशोक ने कहा-ऐ मेरे पुत्रो, पोतो, परपोतो और आने वाली पीढि़या 'आर्यधम्म शासन का पालन करे । यदि वे ऐसा करते है, तो कल्प के अन्त तक पुण्य को प्राप्त करेगे ।
    (शिलालेख मानसेहरा-पाकिस्तान)
    अब यदि कोर्इ शिक्षा का पालन ठीक प्रकार से ना करे तो इसके लिए शिक्षा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सम्राट अशोक इस बात को अच्छी तरह समझाते थे कि हमारे न रहने पर हमारे नितियों व शिक्षाओं को दुषित व भुला दिया जायेगा । इसलिए उन्होंने ने वृहद पैमाने पर अभिलेख लिखवाये जो कार्य उन्होंने जनता व विश्व के कल्याण के लिए किया । यही अभिलेख साहित्य संविधान है और उनकी आचार सहिता भी । जो आज 2300 वर्षों बाद जीवन्त है ।
    अब सवाल उठता है कि भगवान बुद्ध की यह अहिसापरक शिक्षा है क्या ?
    धर्मराजा अशोक कहते है उनका शिलालेख कहता है कि मुझसे पहले इस देश में बहुत से राजा हुए और सभी राजा चाहते थे कि मेरी प्रजा सुखी रहे, निर्भय रहे (अकारण प्राणी हिसा ना हो), झुठ (ठग) ना हो व्यभीचार -दुराचार ना हो, चोरी नाशाखोरी ना हो, मेरी प्रजा में धर्म हो,मेरी प्रजा शानित से रहे, बड़ो का सम्मान हो, छोटों से प्यार हो, परस्पर लड़ार्इ-झगड़े न हो । ऐसा सब चाहते थे । (स्वभाबिक है आज के भारत में भी ऐसा सभी विद्वान लोग चाहते है । हमारा भारतीय संविधान चाहता है।) शिलालेख कहता है कोर्इ सफल नहीं हुआ फिर कहते है मैं सफल हुआ । शिलालेख का लेख है, इतिहास साक्षी है। कैसे सफल हुआ ? उनका भाग्य जागा भगवान बुद्ध की शिक्षा विपश्यना विधा के सम्पर्क में आये, एक संत भिक्खु 'मोग्गलिपुत्ततिस्स के सम्पर्क में आये । विपश्यना करते-करते गहराइयों में पहुँचने पर धर्म का एक स्वभाव प्रकट होने लगता है 'ऐहिपासिसको- ऐहिपासिसको आओ तुम भी करके देखो-आओ तुम भी करके देखो शुद्ध वैज्ञानिक बात है ।शिक्षा का यह व्यवहारिक स्वभाव इस सम्राट में जागा तो उन्होंने कहा-
    कोअरिन यदा पयया पस्सतित ।
    तेन होति कोअरियानं, सब्बदुक्खापमुच्चति ।। (उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिंद)

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  3. कौन शस्त्रु (हिसा, चोरी, झुठ, व्यभीचार, आशकित) ऐसा प्रज्ञा से देखाने वाला 'कोअरि है, वह सभी दुक्खों से मुक्त हो जाता है । तब ऐसी अवस्था में अपने आपको 'कोअरिय(जो आर्य हो) कहा आज वहीं अपभ्रस होकर 'कोइरी हो गया । उन्होंने गहरार्इ से राज धर्म को समझा कि राजा की सन्तान होती है प्रजा । अरे इनको ये शिक्षा (धर्म) मिल जाये इनको ये विपश्यना विधा मिल जाये तो कितना बड़ा लोक कल्याण हो जायेगा । देश में मनुष्य-मनुष्य में भेद चलता है, सम्प्रादय-सम्प्रदाय में झगड़े चलते हैं, दूर हो जायेगे । यदि ये शुद्ध शिक्षा, धर्म विपश्यना विधा सारे लोक में फैले । तो शिलालेख कहता है कि मैं क्यों सफल हुआ । एक तो उन्होंने आमात्य बनाये और उनका कार्य था देश में घुम-घुम कर बुद्ध की कल्याणकारी शिक्षा को प्रचार करे और विपश्यना-साधना सिखाये । उसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा-
    मुनिसानं....धम्मवढि़ता.....अकालेहि धम्मनियमेन
    तत चु लहु से धम्मनियमेन निझतिया च व भुये । (शिलालेख-देल्ही सप्तम)
    अर्थात-मनुष्यों में जो धर्म की बढ़ोतरी हुर्इ है, वे दो प्रकार से है। इस समय धर्म के नियम पालन से दूसरा ध्यान (विपश्यना ) से कही ज्यादा दिखार्इ पढ़ता है । समाज में फैली तमाम बुरार्इया अपने आप खत्म होती गर्इ । बड़े पैमाने पर विहार, स्कुल विश्वविधालय, सड़क अस्पताल, आदि की स्थापना कर मानवीय सवेदनाओं से आते-प्रोत जितने भी कार्य थे सब उन्होंने अपने कार्यकाल में लागु किया । आज उन्हीं का अनुसरण हमारा भारतीय संविधान व सयुक्त राष्ट्र संघ कर रहे हैं ।

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  4. ===महापरिनिब्बानसुत्त===
    अब प्रश्न यह है कि प्राचीन भारत के इन आठ गणराज्योें के राजवंश के लोग वर्तमान समय में कहा चले गये, असल में इन तत्कालीन राजवंशों की वंशावली आज भी वर्तमान भारत में विद्यमान है। उन्हे पता ही नही कि उनके पूर्वज राजा थे। मूल राजवंशों के राजाओं द्वारा भगवान बुद्ध कीे शिक्षा के अनुसार शासन करने के कारण प्रबुद्ध भारत अपने शिखर पर पहॅंच चुका था। इतिहास साक्षी है विश्व के लोग आकर्षित हुए प्रबुद्ध भारत के विद्या व संस्कृति, धर्म की ओर। 1500 ई0पू0 मेसोपोटामिया की सभ्यता से आये विदेशी वैदिक अपने कर्म-काण्ड पशु, नर बली संघारक अन्धमान्यताओं सोम-सुरा इस प्रकार के आचरण को उन दिनों के भारत में वैदिकों को अधोगति अनार्य सेवित धर्म की संज्ञा दी गयी।
    ===आम्बट्टसुत्त,पालिकच्चायन व्याकरण====
    वैदिक विदेशी जातिया अन्दर ही अन्दर मूल प्रबुद्ध भारत के सम्यता संस्कृति का विरोध कर रहे थे। तत्पश्चात् 190 ई0पू0 में वैदिक कुम्हरील भट्ट का शिष्य पातंजली व पुष्यमित्र शुंग ने मूल भारतीय राजवंशों का विनाश कर भारतीय जनता को वैदिक आनार्य सेवित धर्म के बल पर मानसिक गुलाम बना डाला जिससे मूल राजवंशों व प्रबुद्ध भारत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। इस घटना ने भारत देश को अन्धकार, विदेशी आक्रमण व हजारों वर्षों की गुलामी में ढकेल दिया इस देश से प्रबुद्ध भारत का विनाश का मूल कारण केवल वैदिक व मनुवादी साजिश के तहत भारतीय जनता पर अमानुषीय आक्रमण था, इस आक्रमण में हजारों लाखों हत्यायें व विहार, मूर्तिया, पुस्तकालय जलाई, तोड़ी गयी
    ===मौर्योत्तर भारत का प्रचीन इतिहास====

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  5. मुझे ताज्जुब है जो लोग अपने नाम के आगे आर्य लिखने से बच सकते थे उन्होंने अपने नाम के आगे आर्य सरनेम क्यों लिखना शुरू कर दिया जब कि मालुम है आर्य लोग विदेशी है और यहां के मूलनिवासी कतई नहीं है । उनकीइस तुच्छ बुद्धि पर मुझे तरस आता है क़ि उन्होंने जान बुझ कर अपने आपको इन विदेशी आर्यो की संगती में क्यों ढाल लिया ।

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  6. आपने लिखा आर्य विदेशी है यह अवधारणा अब ग़लत सावित हो चुकी है विश्व का सबसे पुरातन ग्रन्थ वेद जिसमें गौ, गंगा और गायत्री का वर्णन है जिसकी मान्यता केवल भारत मे है आ ग़लत आधार पर यह साबित करना चाहते हैं भारत का पुरातन ना भी आर्यावर्त है वामपन्थी इतिहास कारों की सारी अवधारणा ग़लत सावित हो चुकी है, स्वामी दयानन्द व स्वामी विवेकानन्द जैसे ऋषियों ने आर्यों का बाहर से आना ग़लत बताया है ।

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  7. आर्य नहीं मेसोपोटामिया की सभ्यता से विदेशी वैदिक आये थे .भारत का मूल सभ्यता तो सिन्धु घटी सभ्यता है संसकृति तो प्रबुद्ध भारत का इतिहास है .
    आब नया आध्याय सुरु होगा की विदेशी वैदिको भारत छोडो .....जय भारत जय भीम

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  8. वास्तव मे जय भीम का नारा लगाने वालों को अम्बेडकर साहित्य पढ़ने की आवश्यकता है बिना किसी मौलिक जानकारी के अपना विचार अम्बेडकर के मुख मे न डाले इससे डा अम्बेडकर की छबी ख़राब होती है इसका ध्यान रखे तो ठीक रहेगा !

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