स्वामी करपात्री जी महराज भारत के अपने समय के अदूतीय सन्यासी थे वे केवल आध्यात्मिक ही नहीं बल्कि हिन्दू राष्ट्रवाद के पक्षधर भी थे वे महान देशभक्त सन्यासी, अदूतीय विद्वान थे, उनका बचपन का नाम ''हरिनारायन ओझा'' था, वे 'सरयूपारी' गरीब ब्रह्मण परिवार 'भटनी' नामक ग्राम प्रतापगढ़ जिले के उत्तर प्रदेश मे 1907 ईसवी श्रवण मास, शूक्ल पक्ष द्वितीया को पिता स्वर्गीय श्री रामधानी ओझा माता स्वर्गीय शिवरानी के आगन मे हुआ परम धार्मिक सात्विक सनातनी परिवार था, बचपन से ही उनका मन अध्यात्म मे लगता था वे सन्यासी बनना चाहते थे तभी नौ वर्ष की आयु मे उनके पिता जी ने इंनका विबाह ''कुमारी सौभाग्यवती'' के साथ कर दिया, उनका मन गृहस्थी मे नहीं लगा उन्होने सोलह वर्ष की आयु मे सन्यास ले लिया वे परम आध्यात्मिक ब्रांहानंद सरस्वती से सन्यास दीक्षा ले दंडी स्वामी हो गए इनका नाम 'हरी नारायण' से ''हरिहर चैतन्य'' हो गया।
लौकिक शिक्षा नहीं आध्यात्मिक शिक्षा
उनकी लौकिक शिक्षा बहुत कम थी शायद हाईस्कूल, एक वर्ष वे प्रयाग आश्रम मे ब्याकरण, दर्शन शास्त्र, न्याय शास्त्र और संस्कृति वांगमय का अध्ययन किया, एक वर्ष के पश्चात उन्होने हिमालय की तरफ प्रस्थान किया, कहते हैं कि स्वामी जी ने गंगा जी की परिक्रमा किया उसी यात्रा मे उन्होने सभी ग्रन्थों का अध्ययन किया वे इतने मेधावी थे की कोई भी श्लोक एक बार देखने के पश्चात उन्हे याद हो जाता इतना ही नहीं जब वे शास्त्रार्थ अथवा प्रवचन करते तो वह श्लोक किस अध्याय किस पृष्ठ का है वे उदाहरण मे बता देते थे उन्होने केवल हिन्दू धर्म के ग्रन्थों का ही अध्ययन ही नहीं किया बल्कि विश्व के बिभिन्न मतों के साहित्यों का भी तुलनात्मक अध्ययन किया उसी दौरान वे भिक्षा ग्रहण अपने हाथों से ही करते किसी वर्तन का उपयोग नहीं करते थे और एक बार ही भिक्षा ग्रहण करते इसी कारण उन्हे स्वामी करपात्री जी कहने लगे। स्वतंत्रता सेनानी--धर्म सम्राट
वे केवल आध्यात्मिक ही नहीं वे स्वतन्त्रता सेनानी भी थे देश आज़ाद करने की दृष्टि से सन्यासियों का निर्माण किया, भारतीय संस्कृति के प्रति सचेत रहते हुए उन्होने ''रामराज्य परिषद'' नाम की राजनैतिक पार्टी का भी गठन किया जिसे 1952 के चुनाव मे 3 लोकसभा मे सफलता मिली, वे कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण नीति के बिरोधी थे इस कारण हिन्दू समाज के जागरण मे लगे रहते थे, 1967 मे जब गोरक्षा का आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होने उसकी अगुवाई की उसमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प॰पू॰ श्री गुरु जी के योजकत्व मे भारत के साधू-संत इकट्ठा हुए जिसका नेतृत्व करपात्री जी, प्रभुदत्त ब्रंहचारी, सभी शांकराचार्य आदि ने किया, बड़ी संख्या मे संत गिरफ्तार किया गए करपात्री जी को जेल मे काफी दिन रहना पड़ा जेल का उन्होने उपयोग कर 'कालमार्क्स और रामराज्य' नामक ग्रंथ लिखा जो विश्व प्रसिद्ध हुआ यह पुस्तक विश्व की सभी राजनैतिक विचारों का विश्लेषण है, वे इतने बड़े थे की उन्हे 'हिन्दू धर्मसम्राट' की उपाधि से नवाजा गया, स्वामी करपात्री जी पूरे देश मे पैदल भ्रमण करते रहते थे उन्होने 1940 मे काशी वास के दौरान 'अखिल भारतीय धर्मसंघ' की स्थापना की वे स्व के प्रेमी थे स्वदेशी, स्वधर्म, स्वराष्ट्र उनका प्राण था प्रवास के दौरान वे मध्यप्रदेश के किसी गाव मे थे अधिकांश संस्कृति ही बोलते थे भजन व पूजा के पश्चात वे नारा गुंजायमान कराते वह भी संस्कृति मे होता एक दिन एक लड़की ने उनसे कहा स्वामी जी अगर यह उद्घोष हिन्दी मे होता तो हम सभी समझ पाते! स्वामी जी को ध्यान मे आया और वहीं तुरंत उन्होने इसका हिन्दी अनुवाद 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो' का उद्घोष किया और इसी दिन से यह पवित्र उद्घोष पूरे विश्व का हिन्दू धर्म का उद्घोष बन गया, वे अपने ऊपर कितना कम खर्च हो समय का अभाव केवल ढायी गज कपड़े मे ही काम चलाते साथ एक लगोटी, अपनी अंजुली भर भिक्षा वह भी दिन मे मात्र एक बार ।
4 टिप्पणियाँ
We hindu dharm ke adhunik prawakta the ' hamesa prerna shrot bane rahege.
जवाब देंहटाएंPujya Karpatri ji jaise we hi the we hindu dharm ke adhikrit prawakta the.
जवाब देंहटाएंPujya Karpatri ji jaise we hi the we hindu dharm ke adhikrit prawakta the.
जवाब देंहटाएंस्वामी करपात्री जी महाराज वास्तव में हिंदुत्व के प्रखर प्रवर्तक थे
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