शतपथ ब्राह्मण के प्रवचन कर्ता---- ऋषि याज्ञवल्क्य

       

सदानीरा

"ऋषि याज्ञवल्क्य" को सदानीरा कहा गया है क्योंकि उनका जन्म कहाँ हुआ तो सुदूर पश्चिम में सौराष्ट नाम का एक विस्तीर्ण प्रान्त था उसका भाग आनर्त कहाता था उसकी राजधानी चमत्कारपुर थी, आनर्तपुर राज्य का एक और प्रधानपुर विख्यात नगर था, नागर ब्राह्मणों  का वही उद्गम माना जाता है, 'स्कन्द पुराण' नागर खंड (174-55) के अनुसार चमत्कारपुर के समीप ही कहीं "याज्ञवल्क्य" का आश्रम था, योगी याज्ञवल्क्य पूर्व खंड (1-1) तथा याज्ञवल्क्य स्मृति 1-2 मे मिथिला मे बताया गया है संभव है की उनके कई आश्रम रहे होगे 'राज़ा जनक' के यहाँ शास्त्रार्थ हेतु जाया करते थे उनकी राज़ा जनक से गुरु शिष्य जैसा संबंध था, वे समस्त भारतवर्ष का भ्रमण किया करते थे, वे जहां पांडवों का राजसूय यज्ञ कराते हैं तो जनमेजय के पुत्र शतानिक को वेद पढाते हैं, वे दीर्घजीवी भी हैं, राजा जनक के यहाँ भी हैं इसी कारण उन्हे "सदानीरा" भी कहा गया है।

क्षत्रिय कुलोत्पन्न ब्राह्मण

वे "कौसिक" कुल के हैं इससे यह सिद्ध होता है की भारत मे जातीय ब्यवस्था कर्मणा थी न कि जन्मना क्षत्रिय कुलोत्पन्न ब्राह्मण हैं, वायु औए विष्णु पुराण के अनुसार "याज्ञवल्क्य" के पिता का नाम ब्रम्ह्वाह था श्रीमदभगवत के अनुसार "देवरात" था, दोनों पर्याय वाची हो सकता है, देवरात "शुनःशेप" का पुत्र था जो "अंगिरा" कुल का था, जिसे 'ऋषि विश्वामित्र' ने अपना पुत्र मान आध्यात्मिक उत्तराधिकार दिया, चुकी वह 'शुनःशेप' 'विश्वामित्र' का पुत्र बन गया इस कारन 'कौसिक' कुल हुआ वैदिक ग्रंथों में विश्वामित्र का निज नाम 'विश्वरथ' था, विश्वामित्र कुल के लोग 'कौसिक' कहलाते हैं "महाभारत" सहित कई ग्रंथों में "याज्ञवल्क्य" को कौसिक ही कहा गया है, इस कारन कोई संसय नहीं कि ये देवरात शुनःशेप के पुत्र हैं देवरात को ही कई ग्रंथों में ब्रम्हारात कहा है इस कारन यह सिद्ध है कि ऋषि याज्ञवल्क्य पुत्र देवरात पुत्र 'शुनःशेप' पुत्र विश्वामित्र ही है और ये "कौसिक गोत्री" हैं।    

वेदव्यास के शिष्य

ग्रंथों के अनुसार याज्ञवल्क्य कृष्णद्वैपायन व्यास के शिष्य करीबी रिश्ते में मामा थे, यजुर्वेद प्रवचन में कुछ मतभेद हुआ वे अलग हो यजुर्वेद संहिता पर अध्ययन कर ब्राम्हण ग्रन्थ लिखा जिसे शतपथ ब्राम्हण ग्रन्थ कहते हैं यजुर्वेद की कई शाखाएं उनकी देन हैं, उन्होंने उसके जन सुबिधा हेतु कई बिभाग किये, उन्होंने वैदिक शिष्यों की परंपरा ही खड़ी कर दी, लगता है की वेद्ब्यास से मतभेद के पश्चात वे 'जनकपुर' राज्य में आश्रम स्थापित किया उनकी दो पत्नियां थी एक ब्रम्हवादिनी "मैत्रेयी" और दूसरी स्त्रीप्रज्ञा वाली "कात्यायनी", उनके पुत्र का नाम "कात्यायन और कात्यायन" के पुत्र का नाम "बररुचि" था वाजसनेय याज्ञवल्क्य दो गुरुओं की जानकारी मिलती है उनमे से एक चरकाचार्य वैशम्पायन, पुराणों के अनुसार इस गुरु से उनका विवाद हो गया, उनका दूसरा गुरु था "उद्दालक आरुणि"। 

दीर्घजीवी ऋषि

"याज्ञवल्क्य" एक दीर्घजीवी ब्राह्मण थे 'खाण्डव-दाह' से बचा हुआ "मय" नामका विख्यात असुर जब "महाराज युधिष्ठिर" की जब दिब्य-सभा बना चुका तो उसके प्रवेश उत्सव के समय अनेक ऋषि और राजागण "इंद्रप्रस्थ" आये उसमे एक "याज्ञवल्क्य" भी थे, 'युधिष्ठिर' के राजसूय यज्ञ में भी याज्ञवल्क्य 'धौम्य द्वैपाययन' के साथ उपस्थित थे सम्राट युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ में व्यास जी कुंतीसे कहते हैं की यह पायल और याज्ञवल्क्य तुम्हारा कृत्य करायेगे, युधिष्ठिर ३६वर्ष राज्य कर चुके थे यदुवंश के नाश का समाचार सुन परीक्षित को सिंहासन देकर अंतिम प्रस्थान का निर्णय किया याज्ञवल्क्य इत्यादि को भोजन कराया महाराजा परीक्षित ने ६० वर्ष शासन किया, सम्राट परीक्षित के पश्चात जनमेजय और उसके पुत्र शतानिक ने ८०वर्ष राज्य किया राजा शतानिक को याज्ञवल्क्य ने वेद पढ़ाया, गणना से ज्ञात होता है कि याज्ञवल्क्य की उम्र २३९ वर्ष थी। 

"ब्रम्हसत्य जगत मिथ्या"

 "याज्ञवल्क्य" ने केवल "शतपथ ब्राह्मण"ही नहीं बल्कि कई ग्रन्थ लिखा १- याज्ञवल्क्य शिक्षा २- याज्ञवल्क्य स्मृति ३-योगि याज्ञवल्क्य, ये तीनों ग्रन्थ वाजसनेय प्रणीत है अथवा उनकी शिष्य परंपरा के पीछे बनाये गए हैं, याज्ञवल्क्य व जनक का संवाद और "राजा जनक" को वेदांत का ज्ञान कराना यगवल्क्य का सारा ज्ञान सुनकर राजा ने धन, दौलत, रत्न और गउवें दान दे अपने पुत्र को राज्य देकर सन्यास चले गए, यहीं इसी दरबार में "गार्गी" और याज्ञवल्क्य का प्रसिद्द शास्त्रार्थ हुआ था, और अंत में उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को बुला उनमे धन का बटवारा कर स्वयं सन्यासी हो गए अपनी पत्नियों से कहा --! ''मै स्वयं से प्रेम करता हूँ इस कारन तुम सबसे प्रेम करता हूँ मनुष्य अपनी संतुष्टि हेतु ही प्रेम करता है यही सत्य है'', वे जीते थे ''जीवन ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या'' इसी को आधार बना मानवता को केवल दिसा ही नहीं तो एक भविष्य के भारत को नयी प्रज्ञा प्रदान की, जिसे आज के  2500 वर्ष पहले आदि जगद्गुरू शंकराचार्य ने सास्त्रार्थ कर भारत को बौद्ध होने से बचा लिया और सनातन वैदिक धर्म की ध्वजा फहराई---।                      

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