हिंदू धर्म रक्षक, मुगल विजेता, महाराजा सूरजमल

 

मुगल मर्दक महाराजा सूरजमल 

महाराजा सूरजमल जाट राजवंश से आते थे मुगलों ने कोई युद्ध नहीं लड़ा जिसमें वे विजयी हुए हों, हमारे राजाओं महाराजाओं को आपस में लड़ाकर राज करते थे। एक तो इतिहास को वामपंथियों ने कांग्रेसियों ने भ्रमित कर दिया है जिन युद्धॉ को हमारे राजाओं ने जीता इतिहास में नहीं मिलता। जैसे पृथ्वीराज चौहान ने सत्तरह बार मुहम्मद गोरी को पराजित किया उसका वर्णन इतिहास में नहीं मिलता, महाराणा प्रताप ने सारे युद्ध जीते लेकिन केवल हल्दी घाटी का युद्ध मिलता है। वह भी जीते हुए युद्ध को पराजय दिखाया गया है। देश का दुर्भाग्य ही था कि देश का पहला प्रधानमंत्री के अंदर भारतीय चिति के लिए कोई स्थान नहीं था। उसने भारत का प्रथम शिक्षा मंत्री एक विदेशी मदरसा छाप को बनाया। दुस्परिणाम यह हुआ कि हमें हिन्दुओं के पराजय के इतिहास को पढ़ाया गया जबकि असलियत कुछ और ही है। मुगल ढह रहे थे उनके अत्याचार वढ़ रहे थे, लेकिन हिन्दुओं ने अलग अलग ही सही पर अपना हिन्दू साम्राज्य कायम कर रखा था। मुगलों को लगभग सौ वर्ग किमी में समेट कर रख दिया था। उसी समय एक "हिन्दुवां सूरज" जाट राज्य के संस्थापक राजा "बदन सिंह" के यहाँ पैदा हुआ जिसका नाम था "सूरजमल"। सूरजमल का जन्म 13 फ़रवरी 1707 को हुआ, युवा अवस्था में ही पिता बदन सिंह के साथ युद्ध कला में प्रवीण राजनैतिक कुशलता में तज्ञ गंभीर स्वाभाव और गजब की नेतृत्व छमता थी। पराजय तो सीखा ही नहीं था लगता था ये सारा का सारा संस्कार क्षत्रपति शिवाजी महराज से मिले हों ऐसा चरित्र दिखाई देता है।

जाट राज्य के संस्थापक बदन सिंह 

उथल पुथल से भरी अठरहवीं शताब्दी की लगभग पांचवे दशक तक न कोई जाट राज्य था, न कोई राजनैतिक दृष्टि से संगठित जाट राज्य और न कोई जाट शासक जिसे सर्वमान्य नेता कहा जा सकता हो। मिर्जा राजा जयसिंह ने बदन सिंह से मेवों की उत्तश्रृंखल गतिविधियों का दमन करने को कहा। जो भरतपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में बसते थे। इस्लाम मतावलम्बी "मेव" बड़े खूंखार थे, इनकी जीविका का साधन सिर्फ लूट पाट था। बदन सिंह ने मेवों को निपटाने का उत्तरदायित्व अपने किशोर पुत्र सूरजमल को सौपा, सूरजमल ने अपने उत्तरदायित्व को बड़ी निष्ठा से निभाया और परिणाम बहुत संतोषजनक रहा। बागडू के युद्ध का सजीव वर्णन कवि सूदन ने 'सुजान चरित्र' काव्य में और बूँदी के राजकबि ने भी किया है। सूरजमल की प्रशंसा में उसने इस आशय की पंक्तियाँ लिखी है.....

      "नहीं जाटनी ने सही व्यर्थ प्रसव की पीर,

      जन्मा उसके गर्भ से सूरजमल... सा वीर।

      शत्रुदमन वह और था प्रिय उसको आमेर,

      जूझ पड़ा वह मल्हार से रंच न लागी देर।

      सूरज था ज्यों सूर्य, और होल्कर था ज्यों छाँह,

      दोनों की जोड़ी फवी युद्ध भूमि के माँह।

१८वीं शताब्दी के लगभग मध्यकाल के हिंदुस्तान में दयनीय काल की व्यथा व्यक्त करते हुए कुंवर नटवर सिंह लिखते हैं.... "हिंदुस्तान का इतिहास विस्वासघात, कलह, भ्रष्टाचार, सम्भ्रम, विध्वँस तथा आक्रमण का विशाद जनक विवरण है। दिल्ली का सम्राट न शासन करता था, न राज करता था, उसका आचरण न भव्य था, न गौरव पूर्ण। उसके दरबारी सामंत चाटुकारिता की ओछी कला में निपुण थे। सच्चरित्रता उनमे नाम मात्र न थी, अपनी गिरावट और किसी काम में व्यस्त न रहने के कारण वे मदिरा, स्त्रियों और तम्बाकू के शिकार हो गए थे।"

जाटों का प्लेटो महाराजा सूरजमल 

1757ई. में अफगानिस्तान के शाह अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा पर आक्रमण किया और आदेश दिया... "मथुरा शहर हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ स्थल है, इसे तलवार के घाट उतार दिया जाय। आगरा तक एक भी ईमारत खड़ी न रहने पाए।" अफगानों की शक्ति को भलीभांति जानते हुए भी ब्रजभूमि के किसान जिसमे बहुसंख्यक जाट थे राजकुमार जवाहर सिंह के नेतृत्व में रास्ते में अड़ गए। नीरद चौधरी, लिखते हैं कि... 'मथुरा से आठ मील दूर चौमुहा में दस हज़ार जाट नौ घंटे तक लड़े, जब तक कि वे पराजित न हो गए।' राजस्थान के रजवाड़ों से हिन्दू उम्मीद लगाए बैठा था लेकिन उधर से सहायता नहीं मिली। हर एक कुटिया में एक-एक वैरागी का सिर कटा पड़ा था उनके मुख के साथ एक मरी हुई गाय का मुँह लगाकर उसे रस्सी से उसकी गर्दन में बांध दिया गया था। लेकिन अब्दाली की सेना जाट सेना के आगे पराजित सा हो गई थी यह उसी प्रकार हुआ जैसे सिकंदर तो चला था भारत विजय के लिए लेकिन महाराजा पोरस से पराजित हो थकी हारी सेना ने सिकंदर को जबाब दे दिया ठीक उसी प्रकार सूरजमल ने इतना इस्लामिक सेना को छकाया कि अब्दाली की सेना के सैनिक थक हार कर जबाब देने लगे। अब अब्दाली की हालत "खिसयानी बिल्ली खंभा नोचने" जैसे हो गई अब वह वापस जाने का रास्ता खोजने लगा। इसलिये अब्दाली ने महाराजा सूरजमल को पत्र भेजे, जिसमे धमकी दी गई थी कि यदि वह कर देने में आनाकानी करेगा तो उसके भयंकर परिणाम होंगे। महाराजा सूरजमल को जाट जाति में वही स्थान प्राप्त है जो विदेशी जातियों में प्लेटो, नेपोलियन और लूथर को प्राप्त था। हिन्दू इतिहासकारों ने इन्हें 18वीं शताब्दी का कनिष्क और मुसलमानो ने अंतिम हिन्दू प्रतापी नरेश लिखा है। उन्हें श्री कृष्ण जैसी नैतिकता और भीम जैसी दृढ़ता इन्हें प्राप्त थी।

महाराजा सूरजमल का अब्दाली को उत्तर

महाराजा सूरजमल ने बहुत चतुराई से पत्र लिखा पत्र में अब्दाली को यह जरूर समझ में आ गई होंगी कि सूरजमल कोई अकर्मन्य राजा नहीं है। महाराजा सूरजमल ने बुद्धिमत्ता पूर्ण लिखा....   "हिंदुस्तान के साम्राज्य में मेरी कोई महत्वपूर्ण भूमिका और शक्ति नहीं है। मैं रेगिस्तान में रहने वाला एक जमींदार हूँ और मेरी कोई कीमत नहीं है, इसलिए इस काल के किसी भी सम्राट ने मेरे मामले में दखल देना अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं समझा। अब हुजूर जैसे एक शक्तिशाली सम्राट ने युद्ध के मैदान में मुझसे मिलने और मुकाबला करने का दृढ़ निश्चय किया है और इस नगण्य से ब्यक्ति के बिरुद्ध अपनी सेनाएं ला खड़ी की है। दुनिया कहेगी कि ईरान और तुरान के शाह ने बहुत ही ज्यादा डरकर, अपनी सेनाएं लेकर एक कंगाल बंजारे के ऊपर चढ़ाई कर दी। केवल ये शब्द ही मुकुट देने वाले हुजूर के लिए कितनी शर्म की चीज होगी! फिर अंतिम परिणाम भी अनिश्चितता से पुरी तरह रहित नहीं है। यदि मुझ जैसे कमजोर को बर्बाद कर देने में सफल हो जायँ तो उसमें आपको क्या यश मिलेगा? परन्तु यदि भगवान की इच्छा से, जो किसी को मालूम नहीं है मामला कहीं उलट गया, तो उसका परिणाम क्या होगा? यह सारी शक्ति और प्रभुत्व जो हुजूर के बहादुर सिपाहियों ने ग्यारह वर्षो में जुटाया है, पल भर में गायब हो जायेगा।'

आगे पत्र में लिखा कि... यदि मैं चाहूँ कि आपके दैवी दरबार की देहरी पर उपस्थित होऊँ, तो भी मेरे मित्रो की प्रतिष्ठा मुझे ऐसा करने नहीं देगी। ऐसी दसा में यदि न्याय के निर्जर हुजूर मुझे, जो तिनके के समान कमजोर है, क्षमा करें और अपना ध्यान किन्ही अन्य महत्वपूर्ण अभियानों पर लगाएं, तो उससे आपकी प्रतिष्ठा को कोई हानि न पहुंचेगी। मेरे इन तीन किलों (भरतपुर, डीग और कुम्हेर) के बारे में, जिन पर हुजूर को रोष है और जिन्हें हुजूर के सरदारों ने मकड़ी के जाले सा कमजोर बताया है, सच्चाई की परख असली लड़ाई के पश्चात् होगी। भगवान ने चाहा तो वे सिकंदर के गढ़ जैसे ही अजेय रहेंगे। "

दृढ महाराजा 

महाराजा सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और वह युद्ध की तैयारी करता रहा। उसने अहम्दशाह के दूतों से कहा, "अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाये हैं, यदि आपने एक अनुभवहीन बालक जिसका कि दिल्ली पर अधिकार था, अपने अधीन कर लिया, तो इसमें घमंड की क्या बात है। अगर आपमें सचमुच में दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?" शाह जितना समझौते का प्रयत्न करता रहा वीर योद्धा सूरजमल का अभिमान और दृढ़ता बढ़ती गई। फिर आगे राजा ने कहा, मैंने किलों में बहुत रूपया लगाया है यदि शाह मुझसे लड़े तो यह उसकी मुझपर बड़ी कृपा होगी। इन सारे विषयों पर मंथन करते हुए शाह जाटों के किलों की मजबूती से डर कर शाह वापस चला गया। इस प्रकार जाटों मथुरा के विरुद्ध अब्दाली का अभियान सैनिक दृष्टि से असफल रहा और राजनैतिक दृष्टि से उसे कुछ भी न मिला। राजनयिक एवं सूझबूझ दृष्टि से राजा सूरजमल ने अब्दाली से अधिक सूझबूझ दिखयी। कु. नटवर सिंह ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि... "यह स्वीकार किया गया कि हिंदुस्तान में केवल भरतपुर के जाट ही ऐसे लोग थे जो अपने धर्म स्थलों की रक्षा के लिए प्राण देने के लिए उद्दत रहते थे।" सभी प्राप्त बृतांतो एवं लेखों के अनुसार उस समय सूरजमल हिंदुस्तान में सबसे धनी और सबसे बुद्धिमान राजा था। उसकी जैसी चतुराई, बहादुरी एवं रणकौशल का उदाहरण बिरला ही था, वही मात्र एक ऐसा था, जिसने मराठों को 'चौथ' और 'सरदेशमुखी' न देते हुए भी उससे अच्छे सम्वन्ध बनाये रखे। अब्दाली को जिस चतुराई, होसियारी एवं बुद्धिमत्ता से चकमा दिया, वह भी उसकी बुद्धिमत्ता का उत्कृष्ट उदाहरण है।

पानीपत के युद्ध पश्चात्

पानीपत में शानदार मराठा-सेना की भयानक पराजय (14मई, 1761) के वृतांत का वर्णन करते हुए प्रो. डा. कानूनगो अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि युद्ध में बचे हुए मराठा सैनिक दक्षिण की ओर भाग रहे थे। उनके दुर्भाग्य की इस घड़ी में किसानो ने उनके हथियार, धन और कपड़े छीन लिए। निर्वस्त और असहाय मराठा सैनिक जब जाटों के देश में पहुँचे तो उनके लिए उन्होंने अपने अतिथि दरवाजे खोल दिए तथा उनकी सहायता के लिए औषधि, वस्त्र एवं भोजन की व्यवस्था की। मराठा इतिहासकार कहते हैं, "मथुरा में उन्होंने जाटो के प्रदेश में प्रवेश किया। हिन्दू भावनाओं से प्रेरित होकर सूरजमल ने उनकी रक्षा के लिए अपने सैनिक भेजे तथा प्रतिदिन उनमे भोजन और वस्त्र बाटकर हर प्रकार से उनके दुखों का निवारण किया। जाट रानी किशोरी जो भरतपुर में थीं भागकर आये सैनिकों के प्रति अत्यधिक उदारता के परिचय दिया। तीस से चालीस हजार अदमियों को आठ दिन तक भोजन कराया, ब्राह्मणों को दूध, पेड़ा और अन्य प्रकार के मिष्ठान खिलाये गये। आठ दिन तक सभी का आराम के साथ अतिथ्या सत्कार किया गया। इस प्रकार महाराजा सूरजमल ने तीस लाख रूपये से भी अधिक धन खर्च किया। 

गोकुलसिंह (गोकुलाजाट) का बदला

1761ई. महाराजा सूरजमल के सफलता का वर्ष रहा पानीपत के महाविनाश ने भारत की प्रत्येक महाशक्ति को समाप्त कर डाला था। पीड़ित पराजित शक्तियां अपने विनाश का लेखा जोखा ले रहीं थीं उधर सूरजमल ने अब्दाली के सामने न तो सिर झुकाया, न घुटने ही टेके। यह न तो किसी मुग़ल या मराठे का अनुचार सामंत था और न किसी देशी शक्ति पर आश्रित। शेखसादी के अनुसार... "दस गरीब आदमी एक कम्बल में सो सकते हैं, लेकिन दो राजा एक राज्य में नहीं रह सकते।" परिस्थितियां सूरजमल के अनुकूल थीं युद्ध में अब्दाली पर भरी पड़े सूरजमल लालकिला तक को जीत लिया जाट सैनिकों ने कहा महाराज जीत तो हम गये हम वापस भरतपुर चलेंगे तो सबूत क्या होगा? महराज ने आदेश दिया कि लालकिले का दरवाजा उखाड़ लिया जाय, आज भी वह दरवाजा भरतपुर गेट पर लगा हुआ है। अब यह भरतपुर का शासन हरियाणा, दिल्ली और आगरा भी विजित हो गया था। 

आगरा पर अधिकार हो जाने से सूरजमल को नई शक्ति और प्रभुता प्राप्त हो गया। अब सूरजमल यमुना क्षेत्र के एकछत्र स्वामी वन गए थे। जाटों के लिए आगरा पर अधिकार एक भाऊक अवसर था, लगभग 90वर्ष पूर्व इस दुर्ग के फाटक से कुछ ही दूर गोकुलसिंह की बोटी-बोटी काटकर फेक दी गई थी। अब उसका पुनः बदला ले लिया गया था।

एक जमींदार से राजा-महाराजा

एक छोटे से जमींदार के यहाँ जन्म लेकर भारत के श्रेष्ठतम शासक बन जाना अभूतपूर्व कार्य था, किन्तु यह राजनैतिक उपलब्धि उनके चरित्र की शासकीय योग्यता की एक झलक है। मुसलमान इतिहासकारों ने उनके चरित्र की प्रशंसा करते हुए उन्हें 'अफलातून' की संज्ञा दी है तथा उन्हें हिन्दुओं का सबसे प्रतापी नरेश बताया है। "सभी वृतांतो के अनुसार महाराजा सूरजमल ने विपुल संपत्ति अर्जित की थी, परन्तु उनकी संपत्ति की सही सही जानकारी कोई नहीं दे सका है। अनुमान के अनुसार मरते समय वह दस करोड़ से अधिक का कोष छोड़कर गये थे। इसके अतिरिक्त वह अपने पीछे 15000 सुप्रशिक्षित तथा सुसज्जित घुड़सवार सेना, 25000 पैदल सेना, विभिन्न प्रकार की 300 तोपे, 500घोड़े, 100हाथी, बहुत सारा गोला बारूद और सोने, चादी एवं बहुमूल्य जवाहरात छोड़ गये। 

राजनितिक कौशल, संगठन प्रतिभा और नेतृत्व के गुणों की दृष्टि से केवल शिवाजी महराज और महाराजा रणजीत सिंह ही उनसे बढ़कर थे। और उन्हीं की भांति वे भी एक निराला चमत्कार थे, इन तीनों की मृत्यु पचास से साठ वर्ष के बीच के आयु में हुई।

विजयश्री और अप्रत्यासित मृत्यु

सूरजमल ने 25 दिसंबर 1763 को शाहदरा के पास हिंडन नदी को पार किया! 6 हजार घुड़सवारों का नेतृत्व करते हुए नजीब की सेना के पृष्ठ भाग पर हमला कर दिया। कुछ समय तक भयंकर युद्ध चलता रहा, दोनों पक्षो के लगभग एक हजार सैनिक हता-हत हुए। इतिहासकार कानूनगो के अनुसार.... "युद्ध की गरमा गरमी में सूरजमल केवल तीस घुड़सवार सैनिकों को लेकर मुगलों और बलूचों की सेना के केंद्रीय भाग पर टूट पड़ा और धोखे से मारा गया। लेकिन जाट सेना का अनुशासन इतना बढ़िया था कि यद्यपि सूरजमल के मृत्यु का समाचार पुरी सेना में फैल गयी इसके बावजूद एक भी सैनिक बिचलित नहीं हुआ। वे अपनी जगह पर डटे रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो! उधर मुस्लिम फ़ौज छिन्न भिन्न होकर अपने शिविर की ओर भाग खड़ी हुई। इसके बावजूद जाट सेना विजेता की प्रभुता के साथ रणक्षेत्र से लौटी। लौटते समय राजकुमार जवाहर सिंह इतने गुस्से में था कि आगरा में स्थित अकबर की मजार को उखाड़ कर उसकी हड्डियों को जला दिया। मुस्लिम इतिहासकार लिखते हैं कि... राजा का शव सेना के साथ नहीं आया, इस कारण उनके मृत्यु की पुष्टि नहीं हो सकी, नजीब खा अपनी सेना की सुरक्षा को लेकर सारी रात्रि मोर्चे पर खड़ा रहा। शत्रु दल भयाक्रांत था उन्हें लग रहा था कि जब राजा की तेरहवीं होगी तभी उनकी मृत्यु की पुष्टि होगी। उसी समय एक ने ये विख्यात युक्ति कही... 

"जाट मरा तब जानिए जब तेरही होइ जाय।"

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1 टिप्पणियाँ

  1. हिंदुत्व के नायक मुगलों को परास्त करने वाले धर्म रक्षक महाराजा सूरजमल को महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के बगल खड़े दिखाई देते हैं इस वीर योद्धा को हिंदू समाज हमेशा याद रखेगा।

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