भगवान परशुराम जयंती पर --मानवता के उद्धारक -------!

      आर्य संस्कृति का उषा काल

आर्य संस्कृति का उषा काल ही था जब भृगुवंशी महर्षि जमदग्नि और रेणुका के गर्भ से अक्षय तृतीया के दिन एक शिशु का जन्म हुआ जिसका नाम राम रखा गया, जब सरस्वती और द्वीसती नदियों के बीच फैले आर्यावर्त यदु, पुरु, भरत, तत्सु, तर्वस, अनु, द्रुह, जन्हु तथा भृगु जैसी जातियां निवासित थीं, जहां विश्वामित्र, जमदग्नि, वशिष्ठ, अंगिरा, गौतम और कण्व ऋषि आदि महापुरुषों के आश्रम से वेदों के गुंजरित ऋचायें आर्य संस्कृति का संस्थापन कर रही थीं लेकिन दूसरी ओर सम्पूर्ण आर्यावर्त नर्मदा से मथुरा तक शासन कर रहे "हैहयराज सहस्त्रअर्जुन" के लोमहर्षक अत्याचारों से त्रस्त था, ऐसे में युवा अवस्था में प्रवेश कर रहे परसुराम ने आर्य संस्कृति को ध्वस्त करने वाले हैहयराज की प्रताड़ना को चुनौती दी और अपनी तेजस्विता, संगठन क्षमता, साहस और अपरिमित शौर्य के बल विजयी हुए यह समय प्रथम राष्ट्र निर्माण का दौर था।

ब्रिटिश व बामपंथियों का भ्रमजाल--!

भगवान परसुराम का जन्म (वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीय) अक्षय तृतीया (१३मई) के दिन हुआ था वे भगवान विष्णु के २४वे अवतार माने जाते है कुछ लोग उन्हे भगवान शंकर का भी अवतार मानते हैं उनके विषय मे बड़ी ही गलत भ्रान्ति ब्याप्त है  कि वे क्षत्रियों के संहारक थे--! कहते हैं कि उन्होने २१वार धरती क्षत्रियों से विहीन कर दिया था यदि यह सत्य है तो भारत मे सर्बाधिक जनसंख्या वाला यह जागृत स्वाभिमानी समाज आज स्वाभिमान के साथ जीवित ही नही है बल्कि भारतीय राजनीति मे अपना अस्तित्व बनाए हुए है भारत मे सबसे अग्रगड़ी है, इसका अर्थ यह है कि हमारे इस महापुरुष को बदनाम कर आपस मे मत भिन्नता पैदा करने का काम परकिय शासन मे किया गया और हमने बिना अपने पुर्बजों को पढे, समझे ही इन बातों को स्वीकार का लिया वास्तविकता यह है की त्रेता युग में भगवान श्रीराम के पहले दक्षिण के हैय-हैय वंशीय क्षत्रिय राजवंश की निरंकुशता के खिलाफ उत्तर पूर्व के राजाओं का संयुक्त प्रयास जिसके नेतृत्व करता (योजक) परसुराम थे, ब्रिटिश व बामपंथी इतिहासकारों ने सुनियोजित तरीके से समाज को विभाजित करने हेतु यह असफल प्रयास किया।

परसुराम विश्वामित्र की प्रतिक्षाया

"परसुराम" के बारे मे तथाकथित जो कुछ प्रचार प्रसार है लगता है कि कुछ अधिक ही है उनका स्वभाव मानवतावादी है वे समग्र समाज को आर्य बनाना चाहते थे, उन्होंने कृतवीर्य अर्जुन से यदुवंशियों की यानी "यदु गोत्र" की रक्षा करने का काम किया उन्हें "महिष्मती" 'नर्मदा तट' से 'सरस्वती नदी' के किनारे तक लाकर यदुवंश की रक्षा की, वे वनवासियों, अंत्यजों, तथा दस्यु जातियों को आर्य (श्रेष्ठ) बनाने का काम किया। आर्यावर्त के गुरुकुल जो अधिकांश भृगुवंशियों के थे सभी लोगों को शिक्षा दीक्षा की अनुमति थी यदि यह कहा जाय कि परसुराम ऋषि विश्वामित्र के कृति थे तो यह अतिसयोक्ति नहीं होगा, इन्हीं कारणों के कारण वशिष्ठ ऋषि ने ऋषि अगस्त से नाता तोड़ कर अलग हो गए थे, ऋषि वशिष्ठ गौत्र शुद्धि के पक्ष में थे वहीं अगस्त, विश्वामित्र मानव शुद्धि के पक्ष में थे यानी जो दस्यु, जनजातियां इत्यादि जातियां थी उनकी शुद्धि, विचारणीय है कि भगवान परसुराम विश्वामित्र धारा के अनुयायी हैं न कि वशिष्ठ धारा के विना "विश्वामित्र के ऋषी जमदग्नि" का कोई अस्तित्व ही दिखाई देता दोनों एक आत्मा दो शरीर हैं। सहस्त्रबाहु ने केवल गुरुकुल पर ही हमला नहीं किया यह तो 'आर्य संस्कृति' पर हमला था, सारा आश्रम नष्ट हो गया ऋषि जमदग्नि सहित परसुराम की माँ रेणुका आश्रम के सभी लोग मारे गए केवल विश्वामित्र ही मरते मरते बचे, जिससे आर्यावर्त की शिक्षा -दीक्षा ही समाप्त हो गई इस कारण "कृतवीर्य अर्जुन" को समाप्त किया, एक प्रकार से कहा जाय तो वे "ऋषि विश्वामित्र" की प्रतिक्षाया थे, अदभुत पराक्रम, अन्यायियों से संघर्ष ।

अर्जुन सहस्त्रबाहु का संहार--!

''भगवान परसुराम'' के पिता ''ऋषि जमदग्नि'' और माता ''रेणुका'' थी जो 'इक्ष्वाकु वंश' की पुत्री थीं उनकी तपस्थली नर्मदा तट था कर्म क्षेत्र पूरा भारतवर्ष था 'हयहय वंश' के क्षत्रियों मे श्रेष्ठ ''सहस्त्रबाहु'' 'महिस्मतीपुर' का राजा बड़ा ही आततायी प्रजा पालक न होकर निरंकुश, अत्याचारी तथा बिधर्मी था पश्चिम भारत मे हयहय बंश का ही प्रभाव था 'परसुराम' ने ''भगवान शंकर'' की तपश्या कर ''परसु'' नाम का अस्त्र प्राप्त किया तब से उनका नाम 'परसुराम' हो गया पहले इनका नाम राम था 'महिष्मतीपुर' का राजा 'सहस्त्रबाहु'' ''भगवान दत्तात्रेय'' की तपस्या कर अजेय बना हुआ था परसुराम ने उसके संहार हेतु ''भगवान विष्णु'' की तपस्या की और वरदान प्राप्तकर 'कीर्तिवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु' पर आक्रमण किया परसुराम को 2० बार भागना पड़ा २१वी बार उन्होंने सहस्त्रबाहु को मार गिराया इस प्रकार उन्होंने २१ बार क्षत्रियों का संहार किया यह वर्णन अतिशयोक्ति ही नहीं समाज का विभाजन करने वाला है,  उन्होंने पूरे देश का प्रवास कर राजाओ को संगठित किया 'अयोध्या' 'राजबंश' के नेतृत्व मे यह न्यायोचित युद्ध लड़ा यह संहार ब्रह्मण ऋषि परसुराम द्वारा नहीं उनके जनकल्याण कार्यों मे सहयोगी राजाओ के नेतृत्व मे युद्ध हुआ और न्याय पक्ष विजयी हुआ यह बात ठीक है कि पश्चिम के राज़ा कमजोर नहीं थे, यह युद्ध कई बार हुआ इस प्रकार महान पराक्रमी विश्व विजेता 'सहस्त्रबाहु' का संहार 'भगवान विष्णु' द्वारा दी हुई शक्ति से हुआ, जिसकी योजना परसुराम जी द्वारा बनाई गयी थी, आखिर वे हमारे महापुरुष थे वे गलत कर ही नहीं सकते उन्होंने समता मूलक समाज के निर्माण हेतु यह काम किया होगा न कि कोई बदला लेने के लिए समदृष्टि रखने वाला जिसने अपने गुरुकुल में बिना किसी भेद के शिष्य रखा हो जिसके गुरुकुल में महाभारत के 'युगपुरुष भीष्म' जैसे शिष्य रहे हों फिर आप कैसे यह आरोप लगा सकते है कि परसुराम क्षत्रियों के संहारक हैं, उन्हेंं किसी जाती में बाधना उन पर अत्याचार करना है।

क्षत्रिय हन्ता गलत

उस समय आर्यावर्त को संगठित, सुसंस्कृत, ब्यवस्थित करना, गाओ की संरचना व राजनीतिक स्वरूप इन सभी की जिम्मेदारी गुरुकुलों की थी जो अधिकांश भृगुवंशियों के पास थे उस समय सम्पूर्ण पृथ्वी पर आर्यावर्त सर्वाधिक सुसंस्कृत था तो यह भृगुओं की तपस्या का परिणाम था,यह बिल्कुल कपोल कल्पित कथा सर्वप्रथम बौद्धों ने जातक कथाओं में फिर इस्लामिक काल में और फिर ब्रिटिश काल व बौद्ध वंशी बामियों ने हिन्दू समाज में भेद डालने के लिए यह प्रचारित किया कि ब्राह्मण परसुराम ने 21 बार क्षत्रियों का समूल नाश किया जिसकी वास्तविकता कुछ और ही है, ऋषिका लोमहर्षड़ी और आर्य संस्कृति के रक्षार्थ तथा भृगु आश्रम को नष्ट करना परसुराम की माँ रेणुका सहित पिता जमदग्नि गुरुकुल में रहने वाले सभी लोग मारे गए थे, उस समय परसुराम अपने ननिहाल अयोध्या गए थे ज्ञातव्य हो कि उनकी माँ रेणुका अयोध्या राजवंश से थीं, वे आकर यह दशा देखकर विश्वामित्र से पूछते हैं कि बाबा यह कैसे हो गया आप तो अकेले ही 'हैहयराज' को मार सकते थे "विश्वामित्र" कहते हैं कि पुत्र मैं सन्यासी था मैंने धर्म का पालन किया, अब इस अत्याचार को देख सारा आर्यावर्त अयोध्या नरेश के नेतृत्व में महिष्मति राजा "कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु" से युद्ध हुआ जिसकी सारी योजना "परसुराम" ने बनाई थी इसलिए इस युद्ध विजय "भगवान परसुराम" के नाम हुई।

अधर्म के प्रतिक --!

वे जब जनकपुर "भगवान श्रीरामजी" के स्वयंबर में आते हैं "शिव धनुष" को टूटा देख दुखी हो क्रोधित होते हैं जो लक्ष्मण के संवाद का वर्णन है वह बाल्मीकि रामायण में कहीं मिलता ही नहीं है, श्री राम और सीता जी के विवाह के उपरांत जब बारात वापस लौट रही थी उस समय रास्ते में 'भगवान श्री राम' की भेंट 'भगवान परसुराम' से होती है और वहीं परसुराम के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने की बात होती है और जब भगवान श्री राम उनके धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हैं परसुराम को उनके बल का थाह चल जाता है, लेकिन भगवान श्रीराम की मर्यादा देखिये उन्होंने भगवान परसुराम का सम्मान ही किया और कहते हैं की इस धनुष को तोड़ने वाला कोई गैर नहीं आपका दास ही होगा, परसुराम जी ने २१ बार अत्याचारी, बिधर्मी राजाओं का संहार किया वे अत्याचार बिरोध के प्रतीक बन गए, परसुराम 'सप्त चिरंजीवियों' में से एक हैं-- ''अस्वस्थामा बलिर्ब्यासो हनुमानश्च विभीषण, कृपा परसुरामश्च सप्तैताम चिरंजीवीनः'' वे अमर हैं, चिरंजीवी हैं आज भी हमारे बीच में हैं हम उनका स्मरण तो निर्छल भाव से करें, उनका अवतरण एक विशेष कार्य के कारन हुआ था वह भगवान श्रीराम दर्शन के साथ पूर्ण हुआ और वे वर्तमान झारखण्ड के ''टांगीनाथ'' में तपस्या हेतु चले गए।