सभी धर्मो को छोड़कर तुम मेरे शरण [हिन्दू धर्म ] में आओ मै तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूँगा -------भगवान श्री कृष्ण

         
           भगवान श्रीकृष्ण गीता क़ा उपदेश करते हुए कहते है हे अर्जुन जिस ज्ञान को श्री ब्रम्हाजी ने विवस्वान मनु को दिया था जिसका उपदेश मनु ने ईक्षाकू को दिया मै वही ज्ञान तुमको देने जा रहा हू ।
    '' सर्व  धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज।
     अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामी मा सुचिः''।।
           सभी धर्मो को छोड़कर तुम केवल मेरे ही शरण में आओ मै तुम्हे सभी पापो से मुक्त कर दूगा, डर मत.---मुझ में अपना मान रख, मेरा भक्त हो, मेरा यजन कर, और मेरी वंदना कर, मै तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करके कहता हू तू ही मुझमे आ मिलेगा, क्यों कि तू मेरा प्यारा भक्त है । 
        नैतिकता, सदाचार, कर्तब्य, क्षमा, दान तथा विश्व कल्याण की इच्छा सभी को देने के लिए धर्म क़ा उपयोग किया गया है तथा ध्यान योग के साधक को भी इन तीनो गुणों से युक्त होना चाहिए। 
१-ज्ञान पूर्वक ध्यान द्वारा सभी धर्मो क़ा परित्याग।
२- मेरे शरण में आकर चिंता व शोक क़ा परित्याग करना ही इस साधना क़ा पुरस्कार मोक्ष है ।
       अर्जुन को निमित्त बनाकर अंत में भगवान सभी को आश्वासन देते है, नाना धर्मो की गड़बड़ में न पड़कर 'मुझे अकेले ही भज ' मै तेरा उद्धार कर दूगा , इहलोक और परलोक दोनों जगह तुम्हारा कल्याण होगा डरो मत यही कर्मयोग कहता है और यही गीता क़ा सार भी है।
                                           'सर्वधर्मान्परित्यज्य'
                   [सभी धर्मो को छोड़कर ]
         आत्मस्वरुप के अज्ञानता के कारण मनुष्य अपनी शरीर, मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य न होकर एक परिछिन्न, मृतक के समान जीवन निर्वाह करता है और अपने शारीरिक सुख को ही धर्म समझता है, ऐसा मनुष्य संसार के सभी दुखो क़ा भोग करता है जो शारीरिक सुख को ही जीवन परियन्त, जीवन-मृत्यु को ही धर्म समझते है. वस्तुतः यह मानव क़ा शुद्ध स्वरुप धर्म नही है. ये धर्म गौड़ होने के कारण उसका परित्याग करने के लिए यह उपदेश भगवान ने दिया है इसका परित्याग क़ा अर्थ ही अहंकार क़ा ही त्याग है, इस कारण सभी धर्मो क़ा परित्याग करने क़ा अर्थ है ''शरीर, मन, बुद्धि के उपाधियो साथ हम जिस आत्म भाव से तादात्म किया है, अर्थात अपने स्वरुप को समझा है, वह मिथ्या [काल्पनिक] तादात्म क़ा त्याग कर'' आत्मनिरीक्षण और आत्म शोधन  ही भगवान के कथन क़ा मूल अभिप्राय है।
                  ''मामेकं शरणं ब्रज ''
                  [ मेरे शरण में ही आओ ]
        मन के बहिर्मुखी प्रबृति क़ा बिरोध तब-तक संभव नही जब-तक हम उसके अंतर्मुखी प्रबृति को बिकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलंबन प्रदान न कर दे। अपनी एकमेव अदुतीय  सच्चिदानंद परमात्मा के ध्यान द्वारा हम अनात्म उपाधियो को तादात्म रूप से त्याग कर सकते है. साधना के निषेधात्मक पक्ष को केवल बताने मात्र से हिन्दू दार्शनिक संतोष नही कर सकता। निषेधात्मक आदेश की अपेक्षा सकारात्मक उपदेशो पर अधिकतम विश्वास  करता है, यह हिन्दू दर्शन की स्वाभाविक विशेषता है -इस श्लोक में भी हमें यही विशेषता दिखाई देती है. भगवान कृष्ण स्पष्ट घोषणा करते है, ''तुम मेरे शरण में आओ, मै तुमको मोक्ष प्रदान करुगा'' ।
        ' मा शुच;'    [तुम शोक मत करो ]
        मन शांत होते हुए भी शांत नही है, तिस पर भी शांत मन क़ा उपयोग आत्मस्वरूप में दृढ़ता के लिए करना पड़ता है, परन्तु दुर्भाग्य से आत्म साक्षात्कार की उत्कंठा से इस शांति को हम भंग कर देते है, चिंता क़ा संकेत पाते ही स्वप्न के समान यह शांति लुप्त हो जाती है, वाह्य विषयों तथा शरीर इत्यादि योग द्वारा मन क़ा ध्यान निबृत करके उसे आत्मस्वरूप में समाहित करते हुए साधक को ''साक्षात्कारो की उत्कंठा'' को भी त्याग करना पड़ता है, इस प्रकार की उत्कंठा भी चरम उपलब्धि में बाधक न बन सके।
        'अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यमी'
       [मै तुमको सभी पापो से मुक्त करुगा ]
      हमारे कर्म ही हमारी शक्ति क़ा ह्रास करते है, क्यों कि मन और बुद्धि के बिना सहयोग के हम कोई कार्य नही कर सकते संक्षिप्त में कहा जाय तो कर्म द्वारा मनुष्य के अन्तःकरण में वासनाओ क़ा प्रवेश हो जाता है, जिससे प्रेरित होकर मनुष्य बार-बार कर्म से प्रबृत होते जाते है, साधक जितना अधिक मात्र में अनात्म के साथ तादात्म्य त्याग करके सफलता प्राप्त कर सकता है, उसी मात्र में वह आत्मदर्शन प्राप्त करता है, इस अनुभव के आधार पर वह अपनी सूक्ष्म वासना के प्रति अत्यधिक जागरूक रहता है, वासनाओ की अनुभूति अत्यंत कष्ट दायक होता है, अतः भगवान श्रीकृष्ण ने आश्वासन  देते हुए यहाँ कहते है --!
          ''तुम शोक मत करो मै तुमको सभी पापो से मुक्त कर दूगा'' ।
            क्या है हिन्दू धर्म----?
 सर्वे भवन्तु  सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
  सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःख भागभवेत।।
       यह मंत्र उपनिषद से लिया गया है इसमें भगवान से कहा गया है कि-- हे ईश्वर, सभी सुखी हो, सभी स्वस्थ रहे, सभी क़ा कल्याण हो किसी भी प्रकार कि आपत्ति-बिपत्तियो से मनुष्य दुखी न हो, वेद मनुष्य को किसी भी प्रकार से घृणा करने की शिक्षा नही देता, पारस्परिक समन्वय ही स्वस्थ जीवन क़ा आधार स्तम्भ है।
         बौद्ध काल में आदि शंकराचार्य, मुग़ल कालमे रामानन्दाचार्य, ब्रिटिश काल में महर्षि दयानंद सरस्वती व स्वामी श्रद्धानंद जी ने इन्ही भगवान कृष्ण के आदेशानुसार विधर्मी हुए बंधुओ को राष्ट्र भावना की प्रेरणा से, स्वधर्म में वापसी की शास्त्रार्थ द्वारा हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध किया, ''आज धर्मजागरण समन्वय विभाग'' भगवान के आदेश व इन्ही महापुरुषों की प्रेरणा से इस पुनीत राष्ट्र कार्य को कर रहा है, आइये किन्ही कारणों से बिधर्मी हुए जिनकी मानसिकता -चिंतन भारतीयता से बिलग हो रही है उन्हें भगवान क़ा आदेश मानकर पुनः हिन्दू,मानव धर्म, अपने घर में वापसी कर राष्ट्रोत्धार में पुण्य के सहभागी बने सभी समस्यायों क़ा समाधान इसी में है।
 ''एकै साधे सब सधै, सब साधे-सब जाय''

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5 टिप्पणियाँ

  1. हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए एक बेहद सुन्दर आलेख लिखा है आपने। आज वास्तव में इसकी जरूरत हो गयी है की अपने धर्म को सच्चे अर्थों में समझा जाए।

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  2. हमारे धर्म ग्रन्थों के ज्ञान को पुनःश्च जन जन तक पहुँचाने की आवश्यकता है, जनता व्याकुल है और ढ़ोंगी उसका लाभ उठा रहे हैं। जरूरत है सच्चे लोगो को आगे आने की और इस कार्य को अपने कंधों पर लेने की। आप का प्रयत्न सराहनीय है। धन्यवाद।

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  3. यह काम संतो का है। कोई संत ही भटके लोगो को वापस घर ले कर आ सकता है। आलेख से कुछ नही होने वाला है। हमारी सनातन यात्रा मे क्षत्रियो के क्षय के कारण कुछ स्वजन बिछुड गए है, उनकी वापसी के लिए आपकी चिंता जायज है।

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  4. आपका ज्ञान से ओतप्रोत लेख, राम और कृष्‍ण को प्रेरक बना कर जीवन सफल बनाया जा सकता है।

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  5. samay ki aawasyakata ki bidharmi hue bandhuo ki sasamman wapasi ki jay.

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