मानवीय संस्कृति
जब राक्षस आर्यावर्त के अंदर उत्पात मचाने लगे, राक्षसों की संस्कृति ही कुछ अलग थी जिससे मानवता त्राहि त्राहि कर रही थी ऋषि मुनि जिसका सारा जीवन मानवता के लिए जो पशु- पक्षी, जीव -जंतु तथा प्रकृति के लिए ही जीते थे, उन ऋषियों को यज्ञ- हवन से वंचित करना, उन्हें परेशान करने का काम करना, उसी बीच "ऋषि विस्वामित्र" 'बक्सर आश्रम' में रहते थे गुरुकुल शिक्षा के बल मानवता के उत्थान हेतु सब कुछ समर्पित लेकिन राक्षस उस कार्य में विघ्न डालने का काम करते थे "महर्षि विश्वामित्र" 'राजा दशरथ' के यहाँ उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को यज्ञों की सुरक्षा हेतु मांगने के लिए गए, राजा दशरथ से राम और लक्ष्मण को माँगा "राजा दशरथ" ने उन्हें ऋषि के हवाले कर दिया।पृथ्वी पालक
पृथ्वी पर जब सृष्टि की रचना हुई मानव जीवन जंगलों व नदियों के किनारे हुआ करता था खेती नहीं होती थी अनाज पैदा करने की कोई विधा नहीं था लेकिन सभी धर्मानुसार जीवन जीते थे, धर्म क्या है? मनुष्यों के ब्यवहार को ही धर्म कहा गया उपासना पद्धति को धर्म का स्थान नहीं मिला कहते हैं कि "भगवान सूर्य" के पुत्र "विवस्वान", उनके "विवस्वान मनु" फिर मनु सम्राट हुए, मनु भगवान को लगा कि मनुष्य के लिए एक नियम होना चाहिए इसलिए उन्होंने "मनुस्मृति" नाम का एक ग्रंथ लिखा जब हम भगवान श्री राम के बारे में विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि जो "भगवान मनु" ने लिखा श्री राम ने अपने जीवन से उसे सार्थक किया ऐसे थे राम, किसी भी राष्ट्र की पहचान उसके महापुरुष जिन्होंने एक मानवतावादी संस्कृति को निर्माण किया ऐसे महापुरुष उस देश के आदर्श होते हैं, जो देश अपनी संस्कृति अपना इतिहास भूल जाता है वह देश समाप्त हो जाता है, हमारे महापुरुषों ने जो भी ग्रंथ लिखे चाहे रामायण हो या महाभारत अथवा कोई पुराण सभी मे संपूर्ण भारतवर्ष की कथाएँ हैं इतिहास है भूगोल है इसीलिए महाभारत को "पंचम वेद" कहा जाता है और हमारे पूर्वजों ने ऋषियों ने बताया कि "भागवत कथा", "महाभारत कथा" "उपनिषद" का पाठ करना उसका अध्ययन करने से मुक्ति मिलती है इसका अर्थ यह है कि "सम्पूर्ण हिन्दू वांग्मय" को समझने में ही राष्ट्रभक्ति, सभी तीर्थों के बहाने देश भ्रमण यानी तीर्थाटन यही देशभक्ति है हमारे ऋषियों ने इस प्रकार हमे छोटी छोटी बातों द्वारा महान ज्ञान दर्शन कराया।
राष्ट्रभक्ति से भटकाने का प्रयत्न
एक हज़ार वर्ष की गुलामी अथवा संघर्ष में हमने अपनी सुरक्षा संस्कृति की सुरक्षा हेतु जो भी नियम बनाये वह रूढ़ हो गया आगे चलकर कालबाह्य होने के बावजूद पीछा नहीं छोड़ रहा, मध्य काल में साधू सन्यासियों ने संघर्ष कर हिन्दू समाज को सुरक्षित रखने का काम किया ब्रिटिश काल में "स्वामी दयानंद सरस्वती" ने "आर्य समाज" की स्थापना कर तथा वेदों का भाष्य, "सत्यार्थप्रकाश" की रचना तथा शास्त्रार्थ कर "वैदिक धर्म" की सार्थकता सिद्ध किया, लेकिन जो हिंदुत्व के खिलाफ बुद्ध से षड्यंत्र शुरू हुआ वह ब्रिटिश काल में वामपंथियों द्वारा, मैक्समूलर इत्यादि के द्वारा धर्म ग्रंथों के प्रति निष्ठा को समाप्त करने का पुरजोर प्रयास किया सबसे बड़ी चुनौती तो तब हुई जब देश आजाद हुआ सारे के सारे तीर्थों को समाप्त करने का प्रयास जिससे देशभक्ति हो सब नष्ट करने शुरू हुआ "श्रीराम मंदिर" का संघर्ष मुगल काल से चल रहा है सेकुलरों ने राम को ही काल्पनिक बताना शुरू किया जो राम "राष्ट्रवाद" के प्रतीक हो! उन्हें कल्पना बता भारतीय राष्ट्रीयता के साथ खिलवाड़ करने का काम किया, भगवान श्री राम हमारे राष्ट्रीयता के प्रतीक हैं जो प्रत्येक भारतीयों के हृदय में समाए हुए हैं जो हमारे आदर्श है हमारे प्रत्येक स्वास में बसे हुए हैं।
भगवान श्री राम जी ने जो किये उसका अनुशरण ही विकल्प
"भगवान श्री राम" धरती के सम्राट हैं जहां उन्होंने वनवासियों को गले लगाकर, "शबरी" के जूठे बेर खाकर समरसता का महत्व समाज के सामने रखा, जब "ऋषि विस्वामित्र" के साथ गए तो उनका प्रशिक्षण तो हुआ लेकिन उन्होंने जो ऋषियों के यज्ञ में ब्यवधान डालते थे शोध की प्रक्रिया को बाधित करते थे श्री राम ने उन्हें समाप्त कर अच्छे कार्य में आने वाली बाधाओं को दूर किया, उन्होंने अपने पिता "राजा दशरथ" से कहा कि यदि आप हमको बहुत चाहते हैं तो "मेरी माँ" को क्षमा कर देना कौन सी मां "कैकेयी" जिसने राम को वन जाने के लिए कहा था "श्री राम" ने "बानरराज सुग्रीव" से कहा राजा तो आप होगें लेकिन "राज़महिषी तारा" ही होगी, "राक्षस राज विभीषण" से कहते हैं कि लंका के राजा तो आप होगें लेकिन "रानी मंदोदरी" ही होगी इस प्रकार महिलाओं की प्रतिष्ठा को बढ़ाने का काम किया, दूसरी ओर भरत ने अयोध्या में भगवान श्री राम की योजनाओं को प्रतिष्ठित किया कोई भी बेरोजगार नहीं किसान खेती करता था लेकिन पुरोहित, बढ़ई, लोहार, कोहार, पनेरी, नाई, धोबी इत्यादि सभी का हिस्सा था किसान की खेती में वह काम के बदले वर्ष में दो बार अपने हिस्से का अनाज ले जाया करता था सभी लोग सुखी सम्पन्न हुआ करता था इस प्रकार रामराज्य में समरसता, कर्तब्य परायणता की भावना थी जिसके प्रेरणा स्रोत भगवान श्री राम थे समय की आवश्यकता है कि आज भारतवर्ष को श्री राम को आदर्श मानते हुए रामराज्य की ओर बढ़ना चाहिए।
समरसता के प्रतीक
श्री रामचन्द्र जी का जीवन वैभव का जीवन नहीं बल्कि संघर्ष का जीवन है सम्पूर्ण पृथ्वी पर मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं हो इसकी चुनौती, "ऋग्वेद" में चार वर्णों की चर्चा है उसमें 53 ऋचायें "महर्षि मनु" की है जो मानव मात्र के लिए है जिसमें कोई भी मनुष्य अपने कर्मों द्वारा किसी भी वर्ण में जा सकता है, "दीर्घतमा - कवष ऐलूष" सूद्र कुल के होने के बाद भी वे ब्राम्हण हो गए "मंत्रद्रष्टा" बन जाता है भगवान श्री राम ने चाहे वनबासी "हनुमानजी" हो वनवासी "राजा सुग्रीव" हो वन में रहने वाले बानर, भालू, रीक्ष सभी को गले लगाया सभी के साथ समान ब्यवहार सभी को गले लगाना "माता शबरी" के जूठे बेर खाना उन्होंने मनुष्य में कोई भेद नहीं किया उत्तर से दक्षिण सभी को जोड़ने का काम किया आज हम "राम मंदिर" निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं तो हमारा दायित्व और बढ़ जाता है कि "भगवान पुरुषोत्तम श्री राम" के आदर्शों पर चल पड़े और एक समरस समाज का निर्माण करें जिसमें कोई बड़ा -छोटा नहीं कोई भेदभाव नहीं समता -ममता और बंधुत्व के आधार पर समाज की रचना खड़ी करें "पुरानी नीव नया निर्माण"।