महाभारत के पश्चात्
युगपुरुष की खोज में भारत
सम्राट अशोक की तीन पीढ़ी तक शक्ति हींन साम्राज्य पर परकियो के हमले शुरू हो गए अब पुनः भारत को एक शक्ति शाली सम्राट की आवस्यकता थी भारतमाता रत्नगर्भा है समय -समय पर अनेको महापुरुषों को मानवता के उद्धार हेतु धरती को दिया है, कोई भी देश केवल मिटटी, पहाड़ों और जंगलों व् मनुष्यों से नहीं बल्कि वहां की संस्कृति, परंपरा और महापुरुषों द्वारा बनता है, भारत की संस्कृति तो अरबों वर्ष पुरानी ऋषियों, मुनियों द्वारा सिंचित श्री राम, श्री कृष्ण जैसे महापुरुषों द्वारा आदर्शो को स्थापित करके राष्ट्र निर्माण किया है जब सम्राट अशोक द्वारा वीर्य हीनता स्थापित होकर बृहद्रथ जो अशोक का पोता था आततायी परकियो-यवनों के हमले शुरू हो गए। उसी समय ऋषि पतांजलि का शिष्य "पुष्यमित्र शुंग" मगध साम्राज्य का सेनापति हुआ उसके सामने राष्ट्र कापुरुषता को प्राप्त हो रहा था लगातार यवनों के हमले शुरू हो गए थे मगध साम्राज्य का राजा अपने महलों तक सीमित हो गया था, राजा को लगता था कि धर्म विजय लेकिन उसे शायद यह कहावत नहीं पता थीं कि 'भैंस के आगे बेन बजाए भैंस खड़ी पगुराय' जिनको यवनों के पास उपदेश के लिए भेजा उनकी हत्यायें होती रही राजा निश्चिंत अपने महल में देश संकट में अब "सेनानी पुष्यमित्र शुंग" के सामने कोई विकल्प नहीं था उसने राजा को सेना दर्शन के लिए बुलाया और उसकी हत्या कर स्वयं सम्राट बन गया फिर क्या था ? यवनों को मार-मार कर सिंध पार कराया, पुनः वैदिक गुरुकुल की स्थापनाएं होने लगी जो ग्रंथ बौद्धों ने नष्ट किया था सभी वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत और मनुस्मृति इत्यादि वैदिक ग्रंथों की खोजबीन करके संरक्षित करने का काम किया । 'शुंग वंश' के पश्चात उज्जैन राजा "सम्राट विक्रमादित्य" ने जहाँ शको को मार भगाया वहीं बौधों द्वारा नष्ट किये गए तीर्थो का पुनरूत्थान कराया, मेरी माँ पढ़ी लिखी नहीं थीं लेकिन रात्रि में वह कहानी सुनाती थीं वह कहती थी "कि ये वो अयोध्या नहीं है इसे तो राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था" तो वह अयोध्या-! वास्तविकता यह है कि सारे के सारे हिन्दुओ के श्रद्धा स्थलों को सम्राट अशोक ने नष्ट कर दिया था उसका पुनरुद्धार सम्राट विक्रमादित्य ने कराया, भारत में एक राजसत्ता, चक्रवर्ती सम्राट लगभग समाप्त हो गया अब तो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही भारतमाता का सहारा था महान ऋषियों ने पुनर्जन्म लेना शुरू किया कहीं 'देवल ऋषि' तो कहीं 'रामानुज' और फिर रामानंद स्वामी और उनके द्वादश भागवत शिष्य संत रविदास, संत कबीर दास, कुम्हन दास, चैतन्य महाप्रभु इत्यादि। लेकिन इस्लामिक आतंकवाद हमलों से लगातार संघर्ष करता संत समाज उनके नेतृत्व में तमाम राजा महाराजा भी खड़े होकर संघर्ष में आगे बढ़ने लगे कहीं महाराणा प्रताप तो कहीं क्षत्रपति शिवजी महाराज कहीं गुरू तेग बहादुर गुरु गोविंद सिंह, लेकिन विश्व को लगा कि भारत में हमला करना, लूट पाट करना उनपर शासन करना आसान है पहले अंग्रेज ब्यापारी बनकर आये औए फिर शासन करने की इक्षा करने लगे, और ईस्ट इंडिया कंपनी" ने अपने पैर जमाना शुरु कर दिया भारतीय राजाओं से कहा कि हम लोग आपकी मालगुजारी वसूलने का काम करेंगे उसके बदले कुछ कमीशन देने होंगे राजाओं को लगा कि ठीक है फिर कंपनी ने बताया कि अपनी सुरक्षा के लिए हमे "सिक्योरिटी गार्ड" की आवश्यकता है राजाओं ने इसकी भी अनुमति दे दी यही भारत के लिए खतरनाक हो गया।संभवामि युगे युगे
देश के अंदर बड़ी ही कुशलता से कंपनी ने सिक्योरिटी गार्ड के नाम पर सेना में भर्ती शुरू कर दिया देखते देखते सारे राजा गिरफ्त में आने लगे और कंपनी ने ब्रिटिश महारानी को शासन सौंप दिया अब देश में अंग्रेजों का शासन सा हो गया यह बात ठीक है कि सम्पूर्ण देश में अंग्रेजों की सत्ता नहीं थी लेकिन जगह जगह उन्होंने अपने जिलाधिकारी नियुक्ति किये और भारतीय राजाओं से मेलमिलाप कर एक दूसरे को लड़ना शुरू किया किसी एक कि सहायता फिर उस पर शासन यही नीति अपनाई भारतमाता कराहने लगी कौन आएगा भारत का उद्धारक कौन सभी राजाओं को एक करेगा और कौन इन इस्लामिक व अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकेगा यह प्रश्न भारत के सामने खड़ा था क्या केवल सत्ता बदल देने से भारत आजाद हो सकता है क्या ? केवल सीमा सुरक्षित रखने से देश बच सकता है या समग्र आज़ादी औऱ वह आजादी कैसी कौन करेगा यह सब किसकी बात समाज, राजा और देश के विचारक मानेंगे। यह प्रश्न खड़ा था तभी भारतमाता के (गुजरात काठियावाण के मोरवी राज्य में एक छोटे से गाव टंकारा ) गर्भ में एक सपूत पल रहा था एक सम्पन्न धार्मिक ब्राह्मण परिवार जो वेदपाठी, धार्मिक सामवेदी औचित्य ब्राह्मण "अम्बाशंकर" के यहाँ उस बालक ने संवत् १८८१ तदनुसार २६फरवरी १८२३ को जन्म लिया, उनके पिता शिव के अनन्य भक्त थे अपनी श्रद्धा भक्ति के अनुरूप बालक का नाम मूलशंकर रखा, बालक मूलशंकर बचपन से ही वीतराग एवं सत्यान्वेषी था वे बड़े मेधावी और प्रतिभाशाली थे, उन्होंने समृद्धि की गोद में अपने वचपन विताया उनके पिता की प्रसिद्धि दूर-दूर तक गावों तक थी वे मोरवी राज्य में एक बड़े महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त थे ग्राम से कर वसूल राजा के यहाँ भेजा करते थे, धीरे धीरे मूलशंकर कि आयु दस वर्ष की हो गयी तब माता के आग्रह पर "शिवरात्रि" ब्रत रहना शुरू कर दिया उन्होंने एक बार ब्रत रखा, शिवमंदिर गाव के बाहर था अपने पिता व् अन्य लोगो के साथ शिवमंदिर में रात्रि जागरण कर रहे थे, वे जागते रहे लोगो को मीठी मीठी झपकी आ गयी पर वे अडिग थे आधी रात्रि का समय था भगवान शिव ने उन्हें अपनी ज्योति-कृपा प्रदान की, मूलशंकर ने देखा कि शिव कि पिंडी पर चढ़े अक्षत खाने के लिए चुहिया इधर उधर फुदक रही है उनकी अंतरात्मा ने शिव दर्शन का संकल्प लिया, पाषाण प्रतिमा में प्रतिष्ठित शिव के चैतन्य स्वरुप को समझने के लिए उन्होंने अपने पिता को जगाया, पिता उनके प्रश्न का उचित समाधान नहीं कर सके मूलशंकर घर पर आये उन्होंने अपनी माँ से यह घटना बताई और शिव तत्व को समझाने के लिए आशीर्वाद लिया, पिता की आज्ञा से अपनी जमीदारी का काम सम्हालने चले गए पर शिव दर्शन की स्मृति बनी रही.
सत्य कि खोज में
एक बार परिवार के किसी विशेष अवसर पर नृत्योत्सव में सम्लित हुए, थोड़ी ही देर में अपनी चौदह वर्ष की बहन के बीमारी की सूचना मिली बहिन को देखने गए दो घंटे वाद वह परलोक सिधार गयी मृत्यु का रूप मूलशंकर की आखो में नाच उठा, संसार के नश्वर शरीर के प्रति उनके मन में घृणा उत्पन्न हो गयी, कुछ ही दिनों बाद उनके चाचा का भी देहावसान हो गया, मूलशंकर बहुत क्षुब्ध हुए।, उन्होंने लोगो से अमरता का बहुत उपाय पूछा, लोगो ने योगाभ्यास व् बैराग्य की ओर संकेत किया, इन सब घटनाओ ने मूलशंकर को गृहत्याग का संकल्प कराया, वे युवा अवस्था में प्रबेश कर रहे थे उनकी आयु कोई बीस वर्ष हो रही थी, मूलशंकर सत्यदर्शी थे उनका विस्वास डिग गया वास्तव इश्वर जिससे कोई बड़ा कराना चाहता है उसे इसी प्रकार कुछ न कुछ घटनाओ द्वारा तत्वदर्शी बना देता है, घर में धीरे धीरे विबाह की बात चलने लगी लेकिन वे तो ब्रम्हचर्य जीवन बिताना चाहते थे, उन्होंने विवाह रोकने की प्रार्थना की, माता- पिता को लडके का लक्षण कुछ परिवार गृहस्ती से विरक्त लगने लगा पिता ने तुरंत बालक का विवाह संस्कार संपन्न होनेका निष्चित कर दिया, जब मूलशंकर को अपने विवाह के बारे में पता चला तो विवाह तिथि के एक सप्ताह पूर्व ही घर छोड़ दिया, रात्रि को वापस नहीं आने पर परिवार की चिंता बढ़ गयी उन्हें खोजने के लिए चारो तरफ हरकारा भेजे गए मूलशंकर गाव से बहुत दूर नहीं जा सके थे कोई २-३ किमी पर एक घने बृक्ष के ऊपर चढ़कर छिप गए उसी पेड़ पर रात्रि बितायी अब वे घर छोड़ चुके थे, सद्ज्ञान प्राप्ति के लिए पथ प्रदर्शक कि खोज में निकल चुके थे।
गुरू की खोज
मूलशंकर सम्पन्न परिवार के होने के कारण हाथ में सोने का कंगन गले में सोने का चैन इत्यादि पहने हुए थे अब वे आध्यात्मिक खोज में थे उस समय शैलनगर मे एक 'लाला भक्त' नाम के एक प्रसिद्ध योगी हुआ करते थे मूलशंकर उस योगी से मिलने जा रहे थे रास्ते में एक बैरागी मिला जो बड़ा ही लालची था उसकी निगाह इनके पहने हुए आभूषण पर गई, कहा इन आभूषणों के रहते योग्याभ्यास कठिन है, मूलशंकर ने पहना हुआ सारा आभूषण उसे दे दिया। लालाभक्त योगी से योग सीखने लगे, लेकिन वे अधिक दिन टिक नहीं पाए, उन्हें पता चला कि अहमदाबाद में कोई अच्छे योगी आये हुए हैं वे अहमदाबाद चल पड़े, वैरागियों के साथ 3 माह रहे, उन वैरागियों के साथ एक महिला योगी भी थी मूलशंकर पूर्ण यौवन पर थे रेशमी कपड़ा पहनते थे बड़े ठाट बाट से रहते थे। वह महिला मूलशंकर को अपने जाल में फसाना चाहती थी लेकिन वे शतर्क थे उन्हें लोग ब्रम्हचारी के नाम से पुकारते थे।
सिद्धपुर में योगी समागम था वे उसमे सम्लित हुए, मेले में एक परिचित ब्यक्ति से भेंट हो गई उसने जाकर उनके पिता जी को सब बताया, मूलशंकर स्थानीय शंकर जी के मंदिर में ठहरे हुए थे उनके पिता जी उन्हें पकड़ कर घर ले गए और सिपाहियों का पहरा लगा दिया, एक दिन वे अति प्रातःकाल अपनी शैया को छोड़कर चले गए दिन भर एक बृक्ष पर बैठे रहे रात्रि होने पर गांव छोड़कर बड़ौदा की ओर चल दिये, बड़ौदा के चैतन्य मठ के स्वामी ब्रम्हानंद से वेदान्त सम्वन्धी विचार विमर्श किया, जीव और ब्रम्ह की एकता में विस्वास बढ़ने लगा, चाणोद में कुछ दिनों तक निवास कर उन्होंने ज्वालानंदपुरी तथा शिवानन्दगीरी से योग क्रियायें सीखी, योग क्रियाये सीखने के पश्चात उन्हें दयानन्द के नाम से जाना जाने लगा अब वे दयानंद सरस्वती हो गए। चाणोद में उन्होंने पूर्णानंद स्वामी से सन्यास दीक्षा ली व्यासाश्रम जाकर योगानंद से योगाभ्यास सीखा, अब वे विचरण पर निकल चुके थे अहमदाबाद के दुग्धेश्वर मंदिर में कुछ दिनों रहकर दयानंद सरस्वती ने योगविद्या के गूढ़ तत्व सीखे अब आबू पर्वत की ओर प्रस्थान किया।
उन्होंने भ्रमण और तप करने में खोज भी जारी रखा वे सद्गुरु की खोज में थे "जब तक गुरु मिलै नहि साचा तब गुरु करौ दस पांचा" ऐसी दशा को प्राप्त हो रहे थे जिसे गुरु बनाते कुछ न कुछ सीखते आगे बढ़ने का क्रम जारी रहता। अब वे भारत भ्रमण पर है पश्चिम से पूर्व फिर उत्तर दिशा की ओर बढ़े कुछ तीर्थों का भ्रमण किया स्थान- स्थान साधुओं की मंडलियां मिली शान्ति नहीं वे तो वेदों के ब्याकरण की खोज में थे,कुछ साधुओं ने बताया जो आप खोज रहे हैं वह तो आपको मथुरा में स्वामी विरजानन्द मिलेंगे, उन्हें मथुरा में सद्गुरुका दर्शन हुआ वे प्रज्ञाचक्षु थे, उनका नाम विरजानन्द था वे वेद के परम मर्मज्ञ और ब्याकरण के पूर्ण पंडित थे। अब उन्हें गृहत्याग के ग्यारह वर्ष हो गए और जैसा गुरु खोज रहे थे वैसे गुरु की प्राप्ति हो गई, अब दयानन्द 36 वर्ष के विरजानन्द 80 वर्ष के हो चुके हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती जब अपने गुरू के पास पहुंचे तो विरजानन्द ने पूछा कौन आया है? स्वामी दयानंद जी बोले यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ ? विरजानंद बहुत प्रसंद हुए आज कोई शिष्य मिला है। विरजानंद के पास पहुचते ही उन्होंने कहा कि यदि तुम मुझसे सदविद्या प्राप्त करना चाहते हो तो अभी तक जो तुमनें जिन ग्रन्थों के सहारे अध्ययन आरंभ किया है यमुना जी मे प्रवाहित कर दो स्वामी दयानंद ने गुरु की आज्ञा का श्रद्धापूर्वक पालन किया, गुरू विरजानंद ने उन्हें नियम से पढ़ाना शुरू किया वे वेद, निघंटु तथा वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करने लगे गुरु के प्रति अनन्य भक्ति भाव से सेवा करते थे स्वामी विरजानंद यमुना जी के जल से ही स्नान करते थे दयानंदजी उनके लिए 12 घड़ा पानी यमुना जी से प्रतिदिन लाते थे, एक दिन गुरु ने शिष्य को बड़ी ताड़ना दी, स्वामी दयानंद झाड़ू लगा रहे थे संयोग से कहीं थोड़ा सा कूड़ा छुट सा गया गुरू विरजानंद के पैर के नीचे आ गया वे बहुत नाराज हो गए और दयानन्द को दंड से पीटने लगे पिटे जाने के बाद दयानंद दौड़कर गुरु जी का हाथ सहलाने लगे गुरू जी आपके हाथ में चोट तो नहीं लगी विरजानंद बहुत प्रसन्न हुए, गुरु जी एक श्लोक एक बार ही पढ़ाते उसे याद करना पड़ता क्योंकि वे कहते कि मेरे पास समय कम है इसी में तुम्हें वेदों का ब्याकरण का विद्वान बनना है। वे पढ़ा रहे थे श्लोक याद करने में देर हुवा गुरु जी ने लाठी से दयानन्द को मारना शुरू किया लेकिन वे तो प्रज्ञाचक्षु थे उन्हें कुछ दिखता नहीं था लाठी जमीन पर गिरी स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें पकड़ कर बताया गुरू जी मैं यहाँ हूँ अब मारिये उन्होंने जब लाठी से मारा बाद में दयानंदजी उनका हाथ सहलाने लगे, विरजानंद रोने लगे औए आशीर्वाद दिया फिर कभी उन्होंने दयानन्द के ऊपर हाथ नहीं उठाया और न ही स्वामी दयानंद जी ने उन्हें ऐसा मौका दिया।
गुरू विरजानंद का नियम बड़ा कड़ा था वे दुबारा पाठ याद नहीं कराते थे कहते थे कि यदि तुम्हें याद नहीं होता तो मेरे पास नहीं आना यमुना जी मे डूब जाना ही उचित होगा, एक दिन स्वामी दयानंद पाठ भूल गए अब क्या करे गुरू की आज्ञा उन्होंने पाठ याद करने की बड़ी चेष्टा की लेकिन याद नहीं हुआ गुरू की आज्ञानुसार वे यमुना जी के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और निश्चय किया कि यदि पाठ याद नहीं कर पाऊंगा तो यमुना जी मे प्राण विसर्जित कर दूँगा, उन्हें बैठे बैठे झपकी आ गई और एक ब्यक्ति प्रकट होकर उसी पाठ की ब्याख्या की, दयानंद जी ने गुरु जी को सब घटना कह सुनाई वे बहुत हर्षित हुए और उनकी गुरुनिष्ठा व तन्मयता की प्रशंसा की, स्वामी दयानंद अपने गुरू के पास तीन साल रहे।
उन्होंने भ्रमण और तप करने में खोज भी जारी रखा वे सद्गुरु की खोज में थे "जब तक गुरु मिलै नहि साचा तब गुरु करौ दस पांचा" ऐसी दशा को प्राप्त हो रहे थे जिसे गुरु बनाते कुछ न कुछ सीखते आगे बढ़ने का क्रम जारी रहता। अब वे भारत भ्रमण पर है पश्चिम से पूर्व फिर उत्तर दिशा की ओर बढ़े कुछ तीर्थों का भ्रमण किया स्थान- स्थान साधुओं की मंडलियां मिली शान्ति नहीं वे तो वेदों के ब्याकरण की खोज में थे,कुछ साधुओं ने बताया जो आप खोज रहे हैं वह तो आपको मथुरा में स्वामी विरजानन्द मिलेंगे, उन्हें मथुरा में सद्गुरुका दर्शन हुआ वे प्रज्ञाचक्षु थे, उनका नाम विरजानन्द था वे वेद के परम मर्मज्ञ और ब्याकरण के पूर्ण पंडित थे। अब उन्हें गृहत्याग के ग्यारह वर्ष हो गए और जैसा गुरु खोज रहे थे वैसे गुरु की प्राप्ति हो गई, अब दयानन्द 36 वर्ष के विरजानन्द 80 वर्ष के हो चुके हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती जब अपने गुरू के पास पहुंचे तो विरजानन्द ने पूछा कौन आया है? स्वामी दयानंद जी बोले यही तो जानने आया हूँ कि मैं कौन हूँ ? विरजानंद बहुत प्रसंद हुए आज कोई शिष्य मिला है। विरजानंद के पास पहुचते ही उन्होंने कहा कि यदि तुम मुझसे सदविद्या प्राप्त करना चाहते हो तो अभी तक जो तुमनें जिन ग्रन्थों के सहारे अध्ययन आरंभ किया है यमुना जी मे प्रवाहित कर दो स्वामी दयानंद ने गुरु की आज्ञा का श्रद्धापूर्वक पालन किया, गुरू विरजानंद ने उन्हें नियम से पढ़ाना शुरू किया वे वेद, निघंटु तथा वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करने लगे गुरु के प्रति अनन्य भक्ति भाव से सेवा करते थे स्वामी विरजानंद यमुना जी के जल से ही स्नान करते थे दयानंदजी उनके लिए 12 घड़ा पानी यमुना जी से प्रतिदिन लाते थे, एक दिन गुरु ने शिष्य को बड़ी ताड़ना दी, स्वामी दयानंद झाड़ू लगा रहे थे संयोग से कहीं थोड़ा सा कूड़ा छुट सा गया गुरू विरजानंद के पैर के नीचे आ गया वे बहुत नाराज हो गए और दयानन्द को दंड से पीटने लगे पिटे जाने के बाद दयानंद दौड़कर गुरु जी का हाथ सहलाने लगे गुरू जी आपके हाथ में चोट तो नहीं लगी विरजानंद बहुत प्रसन्न हुए, गुरु जी एक श्लोक एक बार ही पढ़ाते उसे याद करना पड़ता क्योंकि वे कहते कि मेरे पास समय कम है इसी में तुम्हें वेदों का ब्याकरण का विद्वान बनना है। वे पढ़ा रहे थे श्लोक याद करने में देर हुवा गुरु जी ने लाठी से दयानन्द को मारना शुरू किया लेकिन वे तो प्रज्ञाचक्षु थे उन्हें कुछ दिखता नहीं था लाठी जमीन पर गिरी स्वामी दयानंद सरस्वती ने उन्हें पकड़ कर बताया गुरू जी मैं यहाँ हूँ अब मारिये उन्होंने जब लाठी से मारा बाद में दयानंदजी उनका हाथ सहलाने लगे, विरजानंद रोने लगे औए आशीर्वाद दिया फिर कभी उन्होंने दयानन्द के ऊपर हाथ नहीं उठाया और न ही स्वामी दयानंद जी ने उन्हें ऐसा मौका दिया।
गुरू विरजानंद का नियम बड़ा कड़ा था वे दुबारा पाठ याद नहीं कराते थे कहते थे कि यदि तुम्हें याद नहीं होता तो मेरे पास नहीं आना यमुना जी मे डूब जाना ही उचित होगा, एक दिन स्वामी दयानंद पाठ भूल गए अब क्या करे गुरू की आज्ञा उन्होंने पाठ याद करने की बड़ी चेष्टा की लेकिन याद नहीं हुआ गुरू की आज्ञानुसार वे यमुना जी के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठ गए और निश्चय किया कि यदि पाठ याद नहीं कर पाऊंगा तो यमुना जी मे प्राण विसर्जित कर दूँगा, उन्हें बैठे बैठे झपकी आ गई और एक ब्यक्ति प्रकट होकर उसी पाठ की ब्याख्या की, दयानंद जी ने गुरु जी को सब घटना कह सुनाई वे बहुत हर्षित हुए और उनकी गुरुनिष्ठा व तन्मयता की प्रशंसा की, स्वामी दयानंद अपने गुरू के पास तीन साल रहे।
गुरुभक्ति और गुरू दक्षिणा
एक दिन की घटना है सावन का महीना प्रातःकाल का समय हरे भरे पड़े हरे दुशाला ओढ़े खड़े हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती यमुना तट पर ध्यान मग्न हो बैठे हुए थे एक महिला स्नान करके आयी, उसने देखा एक ब्रह्मचारी पद्मासन में ध्यान मग्न हो समाधिस्थ हैं श्रद्धामयी देवी ने भक्ति भाव से निकट आकर स्वामी जी के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया भीगे और शीतल बाल होने के कारण स्वामी जी की समाधि टूट गई देखा एक माँ उनके चरणों में गिरी हुई है और माता कहते हुए वे सीधे खड़े होकर वहाँ से चल पड़े। भगवान मनु का आदेश है कि ब्रह्मचारियों को स्त्रियों के दर्शन और स्पर्श नहीं करनी चाहिए अनजान में यह गलती हो गई है उन्होंने प्राश्चित किया एक मंदिर में3 दिन तक बिना कुछ खाये पिये ब्यतीत कर ईश्वर के ध्यान में मग्न रहे। अपने प्रिय शिष्य की यह घटना सुनकर स्वामी विरजानंद ने अपने दांतों तले उंगली दबाई और प्रसन्न हो बोले-! "दयानंद तुम धन्य हो इस कठोरता से अपने शास्त्रों की आज्ञा मनाने वाले आज कहाँ हैं तुम्हारे जैसा शिष्य पाकर मेरा अध्यात्म अध्यापन दोनों सफल रहा" यह कहते हुए गुरुजी की आखों में स्नेह के आंसू बहने लगा, उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को छाती से चिपका लिया, स्वामी जी के मथुरा में ढाई साल बीत गए उन्होंने अपने गुरू विरजानंद से अष्टाध्यायी, महाभाष्य, वेदान्त शूत्र आदि अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया वे साधारण विद्यार्थी नहीं थे जो गुरू जी पढ़ाते चुप चाप सुन लेते अन्य शिष्य गुरुजी से प्रश्न करने की क्षमता और साहस दोनों नहीं रखते थे लेकिन दयानंद सरस्वती पढ़ते पढ़ते तर्क वितर्क किया करते थे कभी कभी प्रश्नों की झड़ी लगा देते थे, गुरुजी कहते- "दयानन्द-! आजतक मैंने सैकड़ों विद्यार्थियों को पढ़ाया है परंतु जो आनंद तुम्हें पढ़ाने में आया वह कभी नहीं मिला, "दयानंद--! तुम काल-जिह्रा हो-। जैसे काल सब पर बली है वैसे ही तुम्हारी तर्क शक्ति भी प्रबल है, बाद विबाद में तुम्हें कोई जितने में समर्थ नहीं है, मुझे तुमसे बड़ी आशा है, तुम्ही मेरे आशय को पूरी तरह समझे हो" गुरुजी ने स्वामी जी को पूर्ण अधिकारी समझ कर अपने जीवन भर का अर्जित ज्ञान उन्हें सौंप कर संतुष्ट हो गए।
स्वामी दयानंद जी की अब शिक्षा पूरी हो गई है उन्हें लगता है कि अब यहाँ से जाकर देश की दशा को सुधारने का काम करना चाहिए, वे गुरू विरजानंद के पास जाना चाहते थे लेकिन गुरु दक्षिणा देना चाहिए मथुरा के वे बड़े संत थे ऐसा कौन था जो उन्हें नहीं जानता था अपने गुरू की पसंद भी पता था उन्हें लौंग बहुत प्रिय थी दयानंद किसी सेठ के यहां गुरुदक्षिणा हेतु लौंग मांगने गए बड़ी प्रसन्नता से ब्यापारी ने दयानन्द को लौंग दे दिया अब क्या था वे अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी विरजानंद के पास जा पहुंचे गुरुजी मेरी शिक्षा पूरी हो गई है मैं जाना चाहता हूँ मैं आपके लिए कुछ दक्षिणा लेकर आया हूँ विरजानंद ने पूछा क्या लाये हो स्वामी दयानंद सरस्वती ने बताया कि गुरुजी अपको तो लौंग बहुत पसंद है मैं लौंग लेकर आया हूँ। विरजानंद नाराज हो गए बोले अरे तुमको मैने सारे जीवन की कमाई देदी और तुम मुझे थोड़ी सी लौंग देकर ठगना चाहता है दयानंद परेशान गुरुजी मैं तो सन्यासी हूँ मेरे पास है ही क्या ? वे बोले जो तेरे पास है वह इस जगत में किसी के पास नहीं है तू तो बड़ा कंजूस निकला-! तो आज्ञा करिये गुरुजी! स्वामी विरजानंद ने उन्हें आज्ञा दी तेरा जीवन चाहिए देश के लिए, धर्म के लिए, वेदों के लिए---! मेरी हार्दिक इक्षा है कि तुम सँसार को वेद ज्ञान प्रदान करो, वैदिक धर्म के उत्थान में ही भारत का ही उत्थान नहीं बल्कि पूरे विश्व का पूरी मानवता का उद्धार होगा मेरे लिए यही उचित गुरुदक्षिणा है मुझे तुमसे आशा है कि तुम इसे पूर्ण करोगे, दयानंदजी ने अपने गुरु के चरणों में मस्तक नत कर वचन दिया "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" और गुरु का आशिर्वाद लेकर वैदिक धर्म के प्रचार में निकल पड़े गुरुजी ने कहा दयानंद एक बात ध्यान रखना साधारण मनुष्य कृत ग्रंथ परमात्मा और ऋषि मुनियों की निंदा से पूर्ण है परंतु आर्य ग्रंथों में इस दोष का नितांत अभाव है, आर्य और अनार्य ग्रंथों की यही सबसे बड़ी परख और पहचान है, इस कसौटी को कभी हाथ से नहीं जाने देना और स्वामी दयानंद सरस्वती ने सारा जीवन देश राष्ट्र और सत्य विद्या यानी वेदों के उद्धार में लगा दिया।
स्वामी दयानंद जी की अब शिक्षा पूरी हो गई है उन्हें लगता है कि अब यहाँ से जाकर देश की दशा को सुधारने का काम करना चाहिए, वे गुरू विरजानंद के पास जाना चाहते थे लेकिन गुरु दक्षिणा देना चाहिए मथुरा के वे बड़े संत थे ऐसा कौन था जो उन्हें नहीं जानता था अपने गुरू की पसंद भी पता था उन्हें लौंग बहुत प्रिय थी दयानंद किसी सेठ के यहां गुरुदक्षिणा हेतु लौंग मांगने गए बड़ी प्रसन्नता से ब्यापारी ने दयानन्द को लौंग दे दिया अब क्या था वे अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी विरजानंद के पास जा पहुंचे गुरुजी मेरी शिक्षा पूरी हो गई है मैं जाना चाहता हूँ मैं आपके लिए कुछ दक्षिणा लेकर आया हूँ विरजानंद ने पूछा क्या लाये हो स्वामी दयानंद सरस्वती ने बताया कि गुरुजी अपको तो लौंग बहुत पसंद है मैं लौंग लेकर आया हूँ। विरजानंद नाराज हो गए बोले अरे तुमको मैने सारे जीवन की कमाई देदी और तुम मुझे थोड़ी सी लौंग देकर ठगना चाहता है दयानंद परेशान गुरुजी मैं तो सन्यासी हूँ मेरे पास है ही क्या ? वे बोले जो तेरे पास है वह इस जगत में किसी के पास नहीं है तू तो बड़ा कंजूस निकला-! तो आज्ञा करिये गुरुजी! स्वामी विरजानंद ने उन्हें आज्ञा दी तेरा जीवन चाहिए देश के लिए, धर्म के लिए, वेदों के लिए---! मेरी हार्दिक इक्षा है कि तुम सँसार को वेद ज्ञान प्रदान करो, वैदिक धर्म के उत्थान में ही भारत का ही उत्थान नहीं बल्कि पूरे विश्व का पूरी मानवता का उद्धार होगा मेरे लिए यही उचित गुरुदक्षिणा है मुझे तुमसे आशा है कि तुम इसे पूर्ण करोगे, दयानंदजी ने अपने गुरु के चरणों में मस्तक नत कर वचन दिया "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" और गुरु का आशिर्वाद लेकर वैदिक धर्म के प्रचार में निकल पड़े गुरुजी ने कहा दयानंद एक बात ध्यान रखना साधारण मनुष्य कृत ग्रंथ परमात्मा और ऋषि मुनियों की निंदा से पूर्ण है परंतु आर्य ग्रंथों में इस दोष का नितांत अभाव है, आर्य और अनार्य ग्रंथों की यही सबसे बड़ी परख और पहचान है, इस कसौटी को कभी हाथ से नहीं जाने देना और स्वामी दयानंद सरस्वती ने सारा जीवन देश राष्ट्र और सत्य विद्या यानी वेदों के उद्धार में लगा दिया।