दिग्विजयी ऋषि दयानंद -भाग 2

गुरुदेव की आज्ञा की ओर
  


गुरु आज्ञानुसार स्वामी जी देश भ्रमण पर निकल पड़े वे हरिद्वार कुम्भ मेले में वैदिक धर्म, वेदों के प्रचार के लिए पहुंचे, उन्होंने वहां "पाखंड खंडनी पताका" फहराया और उसके नीचे लोगों का आह्वान किया लोगों ने उनके संदेश का स्वागत किया, स्वामी जी ने विचार किया कि वैदिक धर्म प्रचार के लिए सर्वप्रथम तपस्वी बनाना चाहिए वे तप करने लगे उसके बाद उन्होंने वैदिक सिद्धांत के प्रचार का वीणा उठाया, हिन्दू समाज ने दयानन्द को अपने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक नेता के रूप में दर्शन किया वे देश की गुलामी से ब्याथित थे उन्होंने राष्ट्रवाद और देशभक्ति का घोल मिलाकर हिन्दू समाज को सौंपना शुरू किया वे भली प्रकार समझते थे कि अंग्रेजों ने भारतीय राजाओं से मिलकर "सिक्योरिटी गार्ड" के नाम पर "अपनी सेना" का गठन कर दिया है। स्वामी दयानंद सरस्वती यह भली भांति जानते थे कि हिंदू समाज में जब तक धर्म को आगे नहीं किया जाएगा तब तक यह समाज खड़ा नहीं होगा, वे देश को हज़ार वर्ष की गुलामी से मुक्ति चाहते थे वे जानते थे कि अंग्रेजों ने बड़ी धूर्तता पूर्ण ब्यवहार द्वारा भारतीय राजाओं के साथ छल कपट किया है अंग्रेजों को भारत की कमजोरी का भी पता था कि भारतीय राजाओ में एकता का अभाव है इसलिए जिस नीति का उपयोग मुगलों ने किया था उसी नीति का उपयोग ब्रिटिश साम्राज्य ने करना शुरू किया।

भ्रमण शुरू

स्वामीजी गुरु से आज्ञा लेकर आगरा पहुंचे जहां यमुना नदी के किनारे भैरव मंदिर के निकट 'लाला गल्लामल रूपचंद अग्रवाल' के रुके थे वहां उनकी भेंट एक 'कैलाश पर्वत' नाम के सन्यासी से हुई स्वामी जी के सद्गुणों व पाण्डित्य को देखकर वे स्वामीजी के प्रशंसक बन जाते हैं उन्होंने अपने कई हितैषियों व धर्म के जिज्ञासुओं को परामर्श दिया कि "स्वामी दयानंद बहुत बड़े संस्कृति व ब्याकरण के विद्वान हैं, आप लोग इनसे संस्कृति व धर्म शास्त्र का अध्ययन कर सकते हैं"। वहीं रायबहादुर सर सुन्दरलाल ने कहा "स्वामी जी संस्कृति तो मृत भाषा है इसके पढ़ने में ब्यर्थ परिश्रम क्यों किया जाय," इस पर कैलाश पर्वत तो कुछ न बोले लेकिन "स्वामी दयानंद जी" ने उत्तर दिया-- बंधुवर! "संस्कृति मृत भाषा नहीं बल्कि देव भाषा है", संसार की सभी भाषाओं की जननी है, आर्य जाति के गौरव और प्राचीन सभ्यता तथा संस्कृति को सुरक्षित रखने वाला बृहदकोश है, यदि संस्कृति रूपी सूर्य अस्त हो गया तो आर्य जाति का भविष्य सदा के लिए अंधकार मय हो जाता।इससे प्रेरित होकर पंडित सुंदर लाल और बालमुकुन्द आदि सज्जन स्वामीजी से अष्टाध्यायी पढ़ना शुरू कर देते हैं।
इस प्रकार स्वामी जी सुधार कार्य करते हुए मथुरा से आगरा, धौलपुर, ग्वालियर, जयपुर, अजमेर होते हुए "पुष्कर तीर्थ" पहुंचे, वहां वे "ब्रम्हा जी" के मंदिर में ठहरे उस मंदिर के महंत मानपुरी जी महाराज एक सज्जन ब्यक्ति हैं, जब मूर्ति पर चढ़ा हुआ दूध स्वामीजी के लिए आया तो उन्होंने पीने से मना कर दिया महंत जी कुछ रूष्ट हुए लेकिन कुछ दिन बाद जब महंत जी को स्वामी दयानंद सरस्वती का दृष्टिकोण समझ में आया तो दोनों के संबंध मधुर हो जाते हैं। एक दिन स्वामीजी आसन पर बैठे हैं एक बुढ़िया उनके दर्शन के लिए आई! स्वामीजी ने पूछा माता जी कहाँ से आ रही हैं-? बृद्धा बोली-- "ब्रम्हाजी के दर्शन करके आ रही हूं" स्वामीजी तुरंत पूछा कि क्या ब्रम्हाजी ने कोई उपदेश भी दिया है ? वह बोली हाँ दिया है तब तो स्वामीजी उठ खड़े हुए, उस महिला को साथ लेकर ब्रह्मा जी की मूर्ति के सामने खड़े हो गए और कहा कि माता जी इस मूर्ति से कहो कि मेरे सामने बोले, वह देवी है प्रत्युत्पन्नमति, हँसकर बोली-! स्वामीजी यह मूर्ति तो क्या ? आपके सामने तो बड़े बड़े मनुष्य चुप हो जाते हैं, जो बोलता है वह पीठ के पीछे बोलता है।

भागवत पुराण ब्यास कृत नहीं

स्वामीजी के मन में द्वंद्व चलता रहता था वे सम्पूर्ण देश के पाखंड को समाप्त करना चाहते थे, बहुत सारे ढोंगियों ने पंडों ने अवैदिक शास्त्रों की रचना की और वैदिक ग्रंथों में अपने तरफ बहुत श्लोकों को डाल दिया है, "वे मनुस्मृति जैसे पवित्र ग्रंथ में आधे से अधिक श्लोकों को जो मनुकृत नहीं है क्षेपक है" मानते थे ऐसे ही पुराणों के बारे में भी है, इसलिए वे जहाँ साधू संत मिलते थे उनसे शास्त्रार्थ करने, बात चीत करते थे उन्हें सत्य मार्ग  चलने के लिए प्रेरित करते उनका मानना था इस्लाम और चर्च के गुलामी के कारण यह सब क्षेपक आया है बहुत लम्बे समय से वेदों पर काम भी नहीं हुआ है। दूसरी तरफ "बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता" यह उनका दृढ़ मत था इसलिए दोनों दिशाओं में वे चिंतन और कार्य करते थे। पुष्कर में एक अघोरी बाबा अच्छे संत रहते थे स्वामी दयानंद सरस्वती से उनका शास्त्रार्थ हुआ, वार्ता समाप्त होने पर अघोरी बाबा ने स्वामी जी के बारे में लोगों को बताया कि "स्वामी दयानन्द विद्वान संत हैं इनका कथन सत्य है इनसे झगड़ा मत करना"। स्वामीजी अघोरी बाबा के यहाँ से लौट रहे थे रास्ते में उन्हें एक पंडा मिला, उसने कहा- "महाराज ! मैं सन्यासियों का पुरोहित हूँ, मुझे कई सन्यासियों ने श्लोक बनाकर दिया है, कृपा करके एक श्लोक आप भी बनाकर दे दीजिए," स्वामीजी ने हँसकर कहा "अरे ! तुम मेरा भी पुरोहित बनना चाहता है", उन्होंने श्लोक तो बनाकर नहीं दिया, परंतु उपदेश देकर उसके गले की कण्ठी उतरवा दिया, स्वामीजी ने कहा "देखो भाई-! जैसे तुम भिन्न भिन्न लोगों से श्लोक बनवा कर सबको सुनाते फिरते हो, वैसे तो अनेक श्लोक और महात्म्य के श्लोक धूर्त लोगों ने बनाकर तमाम आचार्यों के नाम पर प्रसिद्ध कर दिया है, इसी प्रकार भागवत भी व्यासकृत नहीं है" ।

सांस्कृतिक व धार्मिक संघर्ष

जहाँ स्वामी दयानंद सरस्वती ने "भारतीय वांग्मय" का अध्ययन कर वेदों को आधार बनाकर देश की एकता व स्वतंत्रता सुनिश्चित करना चाहते थे वहीं परकियों के षड़यंत्र को समझने और हिन्दू समाज को सचेत रहने का चिंतन, वे भली भांति ब्रिटिश चर्च को समझते थे ब्रिटिश साम्राज्य का संघर्ष भारत में केवल राजनैतिक नहीं बल्कि इससे ज्यादा धार्मिक और सांस्कृतिक था यदि थोड़ा सा देखेंगे तो इनका घिनौनी चेहरा साफ दिखाई देता है। यह बात सत्य है कि ब्रिटिश से पहले पुर्तगालियों ने सबसे अधिक क्रूरता दिखाई, "अफीनसो डी अल्बुकर्क" भारत में पहला गवर्नर (1509-1515) था। उसके पश्चात उक्त क्षेत्रों में धार्मिक अत्याचार प्रारंभ हो गया, भारतीयों की ईसाईकरण की नीति में तेजी आई, गोवा में "इंक्यूजीशन" से लोग ढाई सौ वर्षों (1560-1812) तक भयंकर यातनाएं सहते रहे, इनकी पीड़ा भयंकर अत्याचारों, निरंकुशता, अन्यथा तथा ब्लेकमेल से भरपूर थी अपने पूर्वजों की स्मृति में भारतीयों द्वारा कोई पर्व गैर कानूनी माना जाता था, हज़ारों हिन्दू गोवा की बस्तियों से भाग खड़े हुए, अनेकों ने चेन्नई, केरल और मैसूर में शरण ली। यह इंक्यूजीशन गोवा से 'केन ऑफ गुड होप' यानी जहाँ तक पुर्तगाली शासन था कानून लागू था। इसमें करोड़ों की संपत्ति हड़प ली गई, हज़ारों लोगों को जेल में बंद कर दिया गया, स्थानीय ब्यापारियों के ब्यापार ठप सा हो गया, गोवा में बलात ईसाईकरण तेजी से शुरू हो गया हिन्दू मंदिरों का ध्वंस, धार्मिक ग्रंथों का जलाना, जीवित हिंदुओं को जलाना, महिलाओं को खम्भे में बांधकर हाथ काट लेना, बच्चों को उछाल कर भाले पर रोकना, यह सब सामान्य बाते हो गई थी। हिन्दुओं के प्रमुख रीति रिवाजों जैसे जन्मदिन, विवाह उत्सव व मृत्यु की अर्थी ले जाने पर रोक लगा दी गई। इसलिए 'रिचर्ड वर्तन' ने वास्कोडिगामा के 'सोने के गोवा' को "भूतों का नगर" कहा है। 

लूट और चर्च 

ब्रिटिश साम्राज्य ने भी कोई कम अत्याचार नहीं किया उन्होंने साफ्ट तरीके अपनाए "ईस्ट इंडिया कंपनी" ने 150 वर्षों तक अपना ध्यान भारतीय धन की लूट में लगाया (ज्ञातव्य हो कि ब्रिटिश महारानी भारतीय छोटे- छोटे रजवाड़ों से भी दरिद्र था भारतीय राजे तो बड़े सम्पन्न हुआ करते थे)। 1760 में बंगाल पर कब्जा करते ही उनकी घृणित मनोवृत्ति भी सामने आई, अब राजनीति सफलता के पश्चात धार्मिक विजय को अपना लक्ष्य बनाया वास्तविकता यह है कि किसी भी देश पर केवल सैनिकों द्वारा ही शासन नहीं किया जा सकता यह अंग्रेज अधिकारी समझते थे। अट्ठारहवीं शताब्दी में ईसाईकरण में तेजी लाने का काम किया, कंपनी ने चर्च के माध्यम से छोटी -छोटी पुस्तकें तैयार करने शुरू कर दिया, 116 पृष्टि की पुस्तक में स्पष्ट रूप से भारत को स्थायी रूप से उपनिवेश बनाकर रखने के लिए भारत के हिंदुओं को ईसाई बनाना आवस्यक बताया, इन सबसे स्वामी दयानंद सरस्वती का मन बड़ा ब्यथित हो जाता था, उनका मानना था कि बिना हिन्दू समाज की सुरक्षा उन्नति व स्वतंत्रता के मानवता का बचना बहुत मुश्किल है स्वामी दयानंद जी पहले आचार्य थे जिन्होंने इस्लाम और ईसाइयत को पहचाना और उसके अनुरूप प्रतिकार हेतु समाज को तैयार करना यह धीरे- धीरे यह लक्ष्य बनता गया।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा- आदि शंकर

जब भी हम राष्ट्रवाद पर विचार व चिंतन करेगें तो हमें लगता है कि बिना आद्य शंकराचार्य के राष्ट्रवाद का चिंतन अधूरा रहेगा, शंकर का चिंतन था कि जातियों के उत्थान, पतन और उनके जीवन दर्शन की श्रेष्ठता अथवा निम्नता पर निर्भर रहता है, श्रेष्ठ जीवन दर्शन को प्राप्त करके भी जो जाति उसे जीवन में साकार नहीं करती वह जाति उन्नति नहीं कर सकती, इसलिए एक महान दर्शन को जीवंत रूप प्रदान करने के लिए किसी दृष्टिवान महापुरुष, किसी दार्शनिक ऋषि या द्रष्टा का जन्म लेना अति महत्वपूर्ण है, इस दृष्टिकोण से भारत में आदि शंकराचार्य का अवतरण भारत के विगत तीन ढाई हजार वर्ष के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। आर्यावर्त की करोड़ों संतानों को जागरण का महामंत्र सुनाकर अपनी सार्थकता को पुनः सिद्ध कर देने वाले महापुरुषों में भगवान श्री कृष्ण के बाद जगद्गुरु शंकराचार्य को ही माना जा सकता है, केवल नौ साल की आयु में वेद, वेदाङ्ग तथा अन्य ग्रंथों का अध्ययन पूरा कर वे डूबती हुई भारतीय संस्कृति को बचाने उसकी सार्थकता को सिद्ध करने के लिए सन्यास धारण कर श्री गुरू के चरणों में 'अमरकंटक' जा पहुंचे, उन्होंने उत्तर से दक्षिण पूर्व से पश्चिम तीन बार भारत की प्रदक्षिणा कर धर्म विजय का शंखनाद कर पूरे भारत को पुनः आर्य वैदिक यानी हिन्दू धर्म में प्रतिष्ठित किया, जिसके कारण वे इतिहास के यशोमंदिर में चिरंतन काल तक पूजे जाते रहेंगे। वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रंथ है भारतीयों की प्रतिष्ठा के साथ विश्व का आदि ज्ञानकोष है, विकृत बौद्ध के कुप्रभाव के कारण वेदों की निंदा की जा रही थी, "त्रयो वेदस्य कर्तारः, भांड, धूर्त, निशाचरा:"। अर्थात तीनों वेदों के कर्ता भांड, धूर्त तथा निशाचर हैं। शंकराचार्य के समकालीन महान विद्वान कुमारिल भट्ट एक काशी में रास्ते से जा रहे थे उनके ऊपर किसी महिला के आँसू गिरा, उन्होंने आँख उठाकर देखा क्या हुआ माता  ? वह राजा सुंधवा की रानी थीं बोली हाय क्या करूँ कौन बचाएगा इस वैदिक धर्म को कौन करेगा वेदों का उद्धार ? कुमारिल बोल उठे मैं ''कुमारिल भट्ट'' उद्धार करूँगा वैदिक धर्म का, वेंदो का और फिर कुमारिल भट्ट ने शास्त्रार्थ के बल सभी नास्तिक पंथों को पराजित ही नहीं किया बल्कि शंकराचार्य जी को रास्ता भी दिखाया। 

बौद्ध विदेशियों की जाल में 

शंकराचार्य ने जहाँ चांडाल को गले लगाकर अद्वैत सिद्धांत की सार्थकता सिद्ध की वहीं वे अखंड भारतवर्ष और भारतीय संस्कृति को अक्षुण रखने के लिए बौद्धों से शास्त्रार्थ करते हुए कहते हैं कि किस प्रकार बौद्धों ने परकियों भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया, वे कहते हैं कि शक, हूण बौद्ध धर्म में इसलिए दीक्षित नहीं हुए कि उन्हें बौद्ध धर्म बड़ा प्रिय था अथवा उन्हें भगवान बुद्ध की अहिंसा से प्रेम था या वे अपने जीवन को अलौकिक बनाना चाहते थे, किन्तु उन्होंने बौद्ध धर्म को अपने राजनीतिक चंगुल में फसाया--- इसी अपनेपन के कारण तुम उनके अत्याचारों में सहयोग देते रहे, कनिष्क ने बौद्ध धर्म का पुनः संस्कार भी किया और साथ में भारतवर्ष की स्वतंत्रता का गला घोंटता रहा। वे जानते थे कि यदि भारत की प्राचीन परंपरा बनी रही, उसकी सामाजिक ब्यवस्था बनी रही तो यह देश कभी उनके चंगुल में नहीं आएगा, इसके विपरीत स्वतंत्रता की चाह को समाप्त करने का सबसे सरल मार्ग है, राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता का विनाश । इन शब्दों में जगद्गुरु शंकराचार्य के महान राष्ट्रीय दृष्टिकोण के दर्शन होते हैं। ऋषि दयानन्द सरस्वती ने इसका अनुसरण करते हुए चर्च व अंग्रेजों के षड़यंत्र को समझने का प्रयास कर वे एक कदम आगे बढ़ने यानी "वेदों की ओर चलो" की उद्घोषणा करते हुए कहते हैं कि "बिना स्वराज के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता"।

अखंड भारतवर्ष के द्रष्टा

शंकराचार्य के पास बहुत कम समय था उन्होंने भ्रमण कर विकृति बौद्ध धर्म के नास्तिकवाद को पराजित किया तथा इस महान विशाल देश के चारों कोनों पर चार मठ "बद्रिकाश्रम, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी और द्वारिका" ऐसे चार मठ स्थापित किया जो सभी भारतवासियों के लिए तीर्थ वन गया सभी का देश दर्शन तीर्थाटन के रूप में हो गया, हिमालय से कन्याकुमारी तक सारे भारत की सांस्कृतिक एकता कायम रखने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, शंकर ने भारत की अनेकानेक भिन्न भिन्न मत पंथों का समन्वय स्थापित करके भारतवर्ष को वह अध्यात्म दिया जो विश्व के तमाम झंझावातों के बीच विनष्ट न हो सका। शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत ने उन्हें विश्व मनीषा का मुकुटमणि सिद्ध कर दिया, उसी अद्वैत दर्शन के द्वारा उन्होंने समाज में एकता का मन्त्र फूंका।

शंकराचार्य के अधूरे काम पूरा करने के लिए जन्म

ऋषि दयानंद सरस्वती ने भारतवर्ष के इतिहास का गहनतम अध्ययन किया उन्होंने शंकराचार्य जी की नीतियों को भी समझा उनके ध्यान में था कि किसी देश को समाप्त करना है तो उस देश की संस्कृति व धर्म को समाप्त करने चाहिए जैसे शक और हूणों ने करने का प्रयास किया ठीक उसी रास्ते पर उनसे एक कदम आगे थे अंग्रेज! वास्तविकता यह थी कि हिन्दू समाज को दोहरे मोर्चे पर लड़ना था एक तरफ इस्लाम और दूसरी तरफ ईसाई स्वामी जी बहुत सतर्कता के साथ इस कार्य को अंजाम देने में लग गए। ऋषि दयानन्द सरस्वती केवल आध्यात्मिक नेता ही नहीं थे बल्कि यदि यह कहा जाय कि वे 'आध्यात्मिक राष्ट्रवाद' के उत्प्रेरक थे तो कम नहीं होगा क्योंकि उन्होंने आजीवन यही कार्य किया, वे इसे ठीक प्रकार से समझते थे कि भारतीय राष्ट्रवाद का संघर्ष कब से कुछ लोग केवल अंग्रेजों के संघर्ष को ही स्वतंत्रता आंदोलन कहते नहीं थकते लेकिन स्वामी जी इसे 712 से देखते हैं, कोई इसका प्रारंभ मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से तो किसी ने महमूद गजनवी या मुहम्मद गोरी, गजनी अथवा बाबर के आक्रमण से बताते हैं लेकिन कुछ लोग हज़ार वर्ष का संघर्ष और कुछ लोग बारह सौ वर्षों के संघर्ष की चर्चा करते हैं। लेकिन भारतीय राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम का मूलाधार क्या है ? इसकी मूल चेतना का स्वरूप क्या है ? चिंतन का आधार सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक रहा अथवा राजनैतिक ? आखिर राष्ट्रीय चेतना की पृष्ठभूमि कब कैसे और किसने तैयार की भारत का मूल चिंतन की आत्मा कहाँ ? राष्ट्रीय जागरण की मूलधारा भारत का अध्यात्मवाद यही चिंतन वे अपने प्रवचन में बोलते थे। स्वामी जी शंकराचार्य के पश्चात सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जागरण के प्रथम पुरूष थे उन्होंने भारतीय समाज के नैतिक उत्थान, बौद्धिक जागरण के साथ राष्ट्रीयता का भाव पैदा करने में सफलता प्राप्त की उनके गौरवमय अतीत से अवगत कराया, आधुनिक भारत में पहली बार "भारत भारतीयों के लिए" यह उद्घोषणा की। 

मौलिक चिंतन 

 ऋषि दयानन्द सरस्वती का मूल चिंतन ''ब्रम्हा जी'' से लेकर ''ऋषि जैमनी'' के काल तक के वैदिक साहित्य को ही था, 'श्रीअरविंद' ने उनके बारे में लिखा कि "राममोहन राय उपनिषद पर ही रूक गए, दयानन्द ने और उनके पीछे देखा और पहचाना कि हमारे यथार्थ का मूल बीज वेदों में है"। ''स्वामी दयानंद सरस्वती जी वैदिक ग्रंथों में अटूट आस्था और श्रद्धा रखते थे'', उन्होंने हिंदुओं को वेदों की ओर लौटने का आह्वान किया, उन्होंने तथाकथित विदेशी विद्वानों को लताड़ा जो वेंदो को 'गड़ेरियों का गीत' कहकर उपहास करते थे सत्य का साक्षात्कार करते हुए 1874ई में विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ ''सत्यार्थप्रकाश'' की रचना की।

शसस्त्र क्रान्ति की तैयारी

स्वामीजी भारतीयों के मानसिक ता को पहचानते थे, पानीपत का युद्ध इसका उदाहरण था इसलिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने सर्वप्रथम भारतीय राजाओं को राष्ट्रवाद और देशभक्ति का घोल तैयार कर उन्हें परोसने का तय किया उन्होंने शिवाजी महाराज के शासन ब्यवस्था का पूरा अध्ययन किया हुआ था जब तक मराठे शिवाजी महाराज को आदर्श मानते रहे वे विजयी घोषित होते रहे एक समय ऐसा था कि मराठों ने अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का साम्राज्य विजयश्री कर लिया था बाजीराव पेशवा तृतीय विश्व प्रसिद्ध योद्धा था लेकिन पानीपत के तीसरे युद्ध में किन्ही कारणों से मराठा साम्राज्य का सबसे ताकतवर होल्कर लड़ने नहीं गया उस युद्ध में उस समय की ताकतवर रियासत भरतपुर भी मराठों का साथ नहीं दिया परिणाम मराठों की पराजय हुई आखिर ऐसा क्यों हुआ एक तो अतिविश्वास ने लापरवाह बना दिया। उस समय ऐसा था कि मराठे सभी युद्धों को जीत लिया करते थे इस युद्ध में उन्होंने तय किया था कि युद्ध जीतेंगे हरिद्वार स्नान करके काशी विश्व्नाथ, अयोध्या श्री राम मंदिर का दर्शन करेंगे संगम स्नान करके वापस लौट जाएंगे लेकिन कुछ और ही लिखा था। 

स्वराज्य की तैयारी

 उधर ग्वालियर राज्य का राजा नाबालिग था अंग्रेजों ने एक सलाहकार समिति बना दिया था जिसके विना सलाह के राजा कोई कार्य कर नहीं सकता था स्वामी दयानंद जी ने पहले मराठों से मिलकर देश आजाद कराने के लिए शसस्त्र युद्ध के लिए तैयार करने की बात कहते थे उसी की तैयारी हेतु वे बड़ौदा के महाराजा गायकवाड़, पुणे के पेशवा, सतारा भोशले, महिस्मतीपुर होल्कर, नागपुर सभी स्थानों पर जाकर अध्यात्म के नाम पर महीनों रहकर शसस्त्र क्रान्ति के लिए तैयार करते उन्होंने सर्वप्रथम मराठों को संगठित करने का काम किया उन्हें प्रोत्साहित किया और आगे बढ़ गए उन्होंने तात्या टोपे का भी उपयोग किया वे "बिठूर" आकर 'नानासाहेब पेशवा' से भी संपर्क किया उन्हीं को माध्यम बना कर महारानी लक्ष्मीबाई को स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार किया इन्हीं के माध्यम से लखनऊ की बेगम हजरत महल को आकर्षित कर स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार कर लिया।

प्रवचन में स्वतंत्रता संग्राम 

अब उन्होंने जगह पर शास्त्रार्थ का भी बिगुल बजाया क्योंकि कहीं अंग्रेजों को स्वतंत्रता संग्राम का संदेश न हो जाय इस नाते स्वामी जी सतर्क भी थे, अब उनका ध्यान राजपुताना की ओर था वे सर्वप्रथम "हिन्दू कुल सूर्य अजेय स्वतंत्रता के वाहक मेवाड़" की राजधानी उदयपुर गए वहां वे महाराणा के महल में रुके महीनों रहकर तैयारी करते रहे जहाँ वे वेदों का उपदेस देते वहीँ वे कहते कि बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता स्वामी जी का प्रवचन कुछ लोगों को अपच सा हो जाता लेकिन स्वामी जी तो निर्भीक वक्ता थे वे सत्य ही बोलते थे उनके प्रवचन सुनने के लिए हिन्दू, मुसलमान और ईसाई समुदाय के सभी लोग आते थे, बाद में वे सशस्त्र क्रान्ति की तैयारी करते वे भली प्रकार जानते थे कि भारतीय राजाओ के प्रति जनता में श्रद्धा भाव है यदि स्थान स्थान पर राजवाड़े संघर्ष पर उतर आए तो जनता अपने आप खड़ी हो जाएगी, स्वामी जी वहां से बीकानेर, जयपुर, जोधपुर इत्यादि राजपुताना के सभी राजाओं से महीनों तक मिलकर स्वतंत्रता संग्राम की योजना बनाते रहे। स्वामी जी पंजाब के लाहौर, कराची जाकर शासत्र स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करने में लगे रहे, अब उन्होंने उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल की ओर रुख किया चाहे 'बेगम हजरत महल' हो या बिहार के 'कुँवर सिंह' वे भागलपुर, मुंगेर सभी स्थानों पर धार्मिक ब्याख्यान के नाम पर स्वतंत्रता के लिए अपने को भारतमाता के चरणों में बलिदान देने वाले लोगों को तैयार करना था।

नाना साहब का आह्वान

अब वे तैयार कर चुके थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया वे अकेले सन्यासी थे जिन्होंने पूरे भारतवर्ष में घूम घूम कर स्वतंत्रता संग्राम की उद्घोषणा की जिसके नेतृत्व में सारे देश के राजाओं ने तन मन और धन समर्पित कर दिया और 1857 का वह दिन आ गया भारत के जितने राजे- राजवाड़े हैं उन सभी के अंदर यदि अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने की इच्छा उत्पन्न हो गई तो एक क्षण में अपना देश अपने हाथ में आ जायेगा यह बात स्वामी जी को ध्यान में आ गया था, सारे राजाओ के यहां स्वतंत्रता के लिए नाना ने प्रत्येक दरबार में अपना दूत भेजना शुरु कर दिया। कोल्हापुर, दक्षिण की सारी पटवर्धनी रियासतों अयोध्या के जमींदारों और दिल्ली से मैसूर तक तक की सारी राजधानियों में नाना के दूत और उनके पत्र सारे हिंदुस्तान को स्वतंत्रता युद्ध के लिए उठने की चेतना देते हुए घूम रहे थे, अंग्रेजी सत्ता के नीचे स्वराज्य और स्वधर्म की कैसी छीछालेदर होती जा रही है, जो रियासतें आज जीवित हैं वे भी कल किस तरह नामशेष होनेवाली हैं तथा अंग्रेजों की विस्वासघाती गुलामी में अपने प्राणप्रिय हिंदुस्तान की कैसी बर्बादी हो रही है, यह सब स्पष्ट और मार्मिक रूप से जनता के मन में भरते हुए साधू, सन्यासी और पंडित सारे भारतवर्ष में गुप्त रीति से विचरण करने लगे, दासता और गुलामी के प्रति गुस्सा उत्पन्न करते हुए हिंदुस्तान के हृदय में हिंदुस्तान की तलवार कैसे धसाई जा रही है और भारतीय समाज स्वदेश के लिए मर मिटने के लिए तैयार हो जाय तो एक क्षण में उन्हें अपना देश फिरंगियों के चंगुल से मुक्त कराना कितना सरल है, यह सब राजा से रंक तक प्रत्येक भारतीय हृदय को वे राजनैतिक सन्यासी भली प्रकार समझाकर कहते थे, हम सब देश बन्धु एक हो जाय तो मुट्ठी भर गोरों को धूल चटाकर स्वदेश को क्षण भर में स्वतंत्र कर सकते हैं।








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