महाराजा हरि सिंह की जम्मू वापसी---!
हरि सिंह और नेहरू
राष्ट्रवाद का अंतिम संघर्ष जारी था एक ओर महाराजा हरि सिंह राष्ट्रवाद के प्रहरी बनकर खड़े थे दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू व्यक्तिवाद अथवा राष्ट्र के विरोध में खड़े नजर आ रहे थे। जहाँ महाराजा हरि सिंह जम्मू कश्मीर के पूर्ण विलय के पक्ष में थे वहीं नेहरु जी राजा की हैसियत बताने में ब्यस्त थे, जहाँ महाराजा हरि सिंह 370 के विरोध में थे वहीं नेहरु जी शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाने में लगे थे और शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर को स्वतंत्र स्विट्जरलैंड बनाने का ख्वाब देख रहे थे। अब नेहरू महाराजा हरि सिंह के विरोध में इतना आगे जा चुके थे कि संविधान को अपनी जेब समझने लगे थे और यदि यह कहा जाए कि यह केवल नेहरू की गलती थी तो ऐसा नहीं कह सकते आखिर इतनी ताकत नेहरू को कैसे मिली? यह देश का दुर्भाग्य कैसे हुआ जब हम इस पर विचार करेंगे तो ध्यान में आएगा कि जब कांग्रेस कमेटी में नेहरू को एक वोट नहीं मिला तो आखिर ये प्रधानमंत्री कैसे हुआ ? इतना ही नहीं जब राजर्षि टण्डन कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए नामांकन किया तो नेहरू ने एक पत्र टंडन जी को लिखा कि " को परंपरा वादी और हिंदू वादी हैं और कांग्रेस पार्टी का संविधान सेकुलर है इसलिए आप अध्यक्ष नहीं बन सकते।" यह सब दस्तावेज उपलब्ध है कि नेहरु कितना हिंदू विरोधी थे और राष्ट्र विरोधी? अब हम समझ सकते हैं कि जिसे कोई वोट नहीं मिला वो प्रधानमंत्री कैसे बना ? तो एक ब्यक्ति का मोह और चाहत देश व जम्मू कश्मीर की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है।
गायिका मलिका पुखराज को स्वप्न
अब हरि सिंह थकने लगे हैं वे केवल राष्ट्रविरोधियों से ही संघर्ष नहीं कर रहे थे बल्कि अपने घर में अपने पुत्र के कर्मों से भी प्रसन्न नहीं थे। अपने अंतिम समय में नितांत अकेले थे, उनके भीतर के दर्द को सुदूर नेपाल से आई कर्ण सिंह की पत्नी की संवेदनशीलता आँखे समझ रही थी उसने उनसे कहा, "बापू जी यदि आप की तबियत ठीक नहीं है तो हम अपनी विदेश यात्रा रद्द कर देते हैं।" महाराजा ने उदास मन से कहा, नहीं बेटा तुम लोग जाओ, कर्ण सिंह पाँच दिन अपने पिता के साथ रुके और फिर विदेश यात्रा पर निकल गए। उधर24 अप्रैल को पाकिस्तान की जानी मानी गायिका मलिका पुखराज को स्वप्न आया, पहले मलिका पुखराज महाराजा हरि सिंह के दरबार में नृत्यांगना रह चुकी थी विभाजन के पश्चात वह पाकिस्तान चली गई।उसने जो स्वप्न देखा, "महाराजा हरि सिंह अपने दरबार में बैठे हैं, उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, जम्मू बहुत सुंदर है, है न! हाँ बहुत सुंदर है, मैंने कहा। क्या तुम जानती हो कि मैं अब जम्मू जा रहा हूँ? महाराजा ने कहा और उसके बाद ही मेरा स्वप्न खत्म हो गया, नींद टूट गई।" कहते हैं कि भोर (अति सुबह) का सपना सत्य होता है।
महाराजा की अंतिम यात्रा
महाराजा नितांत अकेले थे, उनके साथ 1949 से छाया के समान रहने वाले कैप्टन दिवान सिंह भी किसी काम से बाहर गए हुए थे। 26 अप्रैल 1961 का दिन था, सुबह सुबह महाराजा हरि सिंह को खाँसी का दौरा पड़ा। खाँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी इसी खाँसी से उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनके हृदय ने आज तक न जाने कितने आघात सहे थे लेकिन शायद वह भी थक चुका था। तुरंत डॉक्टर को बुलाया गया डॉक्टर ने टिका लगाया, सारी उम्र वे किसी भी टीका से डरते थे लेकिन आज वे इस टिके का विरोध नहीं कर पा रहे थे। अब शायद उन्होंने नियति से समझौता कर लिया था, उन्होंने डॉक्टर की ओर देखकर कहा, डॉक्टर मैं जा रहा हूँ और एक घंटे में वे सच मुच चले गए। लेफ्टीनेंट जनरल हिज हाईनेस श्री मान राजराजेश्वर महाराजाधिराज श्री सर हरि सिंह इन्द्र महेंद्र बहादुर सिपार-ए-सल्तनत महाराजा जम्मू कश्मीर अब इस संसार में नहीं रहे थे, डॉक्टर निस्तब्ध खड़ा रहा। लम्बे समय से महाराजा के साथ रहने वाले कर्मचारी जो अब एक प्रकार से महाराजा के परिवार के ही अंग बन गए थे आँखों में आँसू भरे निष्प्राण हो चुके अब हरि सिंह की शरीर को देख रहे थे। कर्ण सिंह रोम घूमने की योजना बना ही रहे थे कि इटली में भारतीय राजदूत एस. एन. हक्सर उनसे मिलने होटल में आये, जब कर्ण सिंह उनसे हाथ मिला चुके थे तभी हक्सर ने उनसे कहा, "आपके लिए बुरी खबर है, आपके पिता का देहांत हो गया है।"
जम्मू की सड़कों पर हिंदू समाज
रोम में महाराजा हरि सिंह की मृत्यु का समाचार कर्ण सिंह को एक कश्मीरी एस एन हक्सर ने दिया और जम्मू में यह समाचार आकाशवाणी द्वारा प्रसारित होने पर आग के समान देहांत का समाचार फैल गया। ज्यों ज्यों लोगों को समाचार मिलता गया लोगों ने अपने आप अपनी दुकानें बंद करने लगे इसके लिए किसी ने कोई अपील नहीं किया लेकिन देखते देखते सभी बाजार बंद हो गया। दूर दराज की दुकान भी बन्द होने लगी और सभी जम्मू राजमहल की ओर बढ़ रहे थे, अश्रुपूरित नेत्रों से लोग घरोँ से निकलकर बाजारों में आ रहे थे। लेकिन अपना दुःख कहा बाटे ? राज परिवार का कोई ब्यक्ति जम्मू में था ही नहीं! कर्ण सिंह सपत्नीक रोम में थे महारानी तारा देवी कांगड़ा अपने मायके में थीं। लगता था कि सारा जम्मू सड़क पर उतर आया है, लेकिन लोग अपने शोक का इजहार कहाँ, किसके सामने करते ? लोग अपने आप स्वप्रेरणा से पंडित प्रेमनाथ डोगरा के घर की ओर चल पड़े, पंडित जी प्रजा परिषद आंदोलन के जन नायक थे। अब लोग चुपचाप राजमहल की ओर चल पड़े, लगता था जम्मू के सभी मार्ग केवल राजमहल की ओर जा रहे हैं। राजमहल के आगे चारो ओर लोगों का समुद्र लहरें मार रहा था, लेकिन राजमहल खाली पड़ा था, फिर भी अपने दिवंगत महाराजा के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए वहां सारा जम्मू नतमस्तक था। कुछ देर रुकने के साथ शोकाकुल लोग तवी नदी के किनारे स्थिति श्मशान घाट की ओर चल पड़े। घाट पर जन ज्वार उमड़ पड़ा था, स्त्रियां विलाप कर रही थीं, लोगों के अपने महाराजा हरि सिंह अब इस संसार में नहीं रहे।
महाराजा की वसीयत
इस महायात्रा पर जाने से लगभग एक वर्ष पहले ही उन्होंने4 मार्च 1960 को अपना वसीयतनामा लिख दिया था और उसमें अपने अंतिम संस्कार को लेकर स्पष्ट निर्देश दिए थे। "मेरे परिवार के किसी सदस्य को मेरा एवं उससे जुड़ी प्रथाओं को करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। मेरा अंतिम संस्कार आर्य समाज विधि से, वसीयत के निष्पादको द्वारा चयनित किसी योग्य ब्यक्ति द्वारा सम्पन्न किया जाएगा।" वसीयतनामा में निर्देश था कि उनका अंतिम संस्कार बम्बई में ही किया जाय, लेकिन जम्मू को वे अब भी नहीं भूले थे, जम्मू उनके रग रग में समाया हुआ था। "मेरी अस्थियों को समुद्र में विसर्जित कर दिया जाय, लेकिन मेरी राख को चांदी के कलश में रखकर एक विशेष विमान से मेरी जन्मभूमि जम्मू शहर पर बिखरा दिया जाय।" कर्ण सिंह 28 अप्रैल की सुबह मुम्बई पहुंचे, उनके पहुचने से पहले अंतिम संस्कार किया जा चुका था, 29 अप्रैल को कर्ण सिंह महाराजा हरि सिंह की राख लेकर जम्मू पहुंचे। जम्मू में केवल कर्ण सिंह ही आएंगे, लेकिन आज अप्रैल 1961 में पूरे बारह वर्ष बाद कर्ण सिंह, महाराजा हरि सिंह को लेकर जम्मू आ रहे थे। 1949 में जम्मू के लिए छूटा डी. सी.3 महाराजा को अन्ततः1961 में मिला, लेकिन अब उसमें उनकी राख थी जो चाँदी के कलश में थी।
कर्ण सिंह के कर्तब्य
महाराजा हरि सिंह ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनकी मृत्यु के बाद किसी प्रकार का अनुष्ठान न किया जाय। लेकिन आश्चर्य--! जिस कर्ण सिंह ने बम्बई जाने से पहले अपने माता पिता की यज्ञोपवीत संस्कार की इच्छा को पूर्ण करने के लिए उस समय केश मुंडन की परंपरा का पालन भारी दबाव के चलते भी नकार दिया था, वही कर्ण सिंह वसीयत में मना किये जाने के बावजूद महाराजा की तेरहवीं करने को अपना कर्तब्य बता रहे थे। जब महाराजा हरि सिंह जिंदा थे तो कर्ण सिंह ने "रीजेंट न बनने" के उनके आदेश को नहीं माना और जब हरि सिंह इस संसार में नहीं रहे तो कर्ण सिंह ने, "मेरे धार्मिक अनुष्ठान न किये जांय" के दिये गए आदेश को नहीं माना। महाराजा हरि सिंह और कर्ण सिंह के संबंधों को क्या कहा जाय ?
समालोचना
26 अप्रैल 1961 को महाराजा हरि सिंह ने अंतिम साँस ली, उसके बाद जम्मू कश्मीर ने अनेक उतार चढ़ाव देखे। जम्मू कश्मीर पर तीन बार पाकिस्तान ने आक्रमण किया। जवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने भी इस संसार से विदा लिए, इतिहास पर न जाने कितनी पर्ते जम गई। लेकिन जम्मू कश्मीर की जनता के मन से महाराजा हरि सिंह विस्मृत नहीं हो पाए, वे जम्मू कश्मीर के लिए अप्रासंगिक नहीं हो पाए जम्मू के डोगरों को एक दर्द सालता ही रहा,उनके अपने राजा को उनके अपने घर में चिर निद्रा में सो जाने के लिए भी एक कोना नसीब नहीं हो पाया।
जम्मू के लोगों का दर्द
महाराजा अपने घर से दूर हो गए थे लेकिन हरि सिंह अपने भागते हुए अश्वों को दूर तक देखते हुए, अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर दबा लेते थे। हरि सिंह अपनी ही सरकार का दिया हुआ दर्द भोगने के लिए श्रापित थे लेकिन जम्मू के उनके अपने लोग इतने वर्ष बाद भी उनको भुला नहीं पा रहे थे। वे हरि सिंह के साथ किये गए ब्यवहार से स्वयं को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। अन्ततः उन्होंने अपने महाराजा के इस संसार से चले जाने के पांच दसक बाद एक अप्रैल, 2012 को उनकी भव्य मूर्ति तवी नदी के सेतु पर स्थापित कर स्वयं को उऋण किया, यही महाराजा हरि सिंह की घर वापसी थी।
संदर्भ ग्रंथ.... सरदार पटेल, कश्मीर और हैदराबाद 2. जम्मू कश्मीर की अनकही कहानी, 3. डा श्यामाप्रसाद मुखर्जी और कश्मीर समस्या, 4. व्यथित जम्मू और कश्मीर, 5. जम्मू और कश्मीर, ... डा कर्ण सिंह
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