राष्ट्रवादी महाराजा हरि सिंह और ब्यक्तिवादी नेहरू जी

 

कर्ण सिंह की नियुक्ति

उधर पटेल, शेख अब्दुल्ला की मंशा और मानसिकता दोनों को समझ रहे थे, जब पटेल ने कर्ण सिंह को रीजेंट बनाने का प्रस्ताव रखा तो उसके बाद उनकी युवराज से कुछ बात चीत भी हुई। कर्ण सिंह कहते हैं कि पटेल से वार्ता में लगा कि यह एक ऐसा ब्यक्ति है जिसके लिए यह सब इतनी जटिल समस्या नहीं है कि उसे सुलझाया न जा सके। वे स्वयं शेख अब्दुल्ला को केवल नापसंद नहीं करते थे बल्कि स्पष्टतः उस पर विस्वास भी नहीं करते थे। लेकिन पटेल महाराज हरि सिंह के रियासत से निष्कासन के लिए नेहरू व शेख का यह प्रस्ताव महाराजा हरि सिंह तक पहुँचाते हुए स्वयं भी कहीं न कहीं आहत हुए थे। महाराज हरि सिंह ने लिखा, "स्वास्थ्य के कारणों से मैंने अल्पकालिक अवधि के लिए रियासत से बाहर जाने का निर्णय किया है, इस अवधि में रियायत की सरकार से संबंधित अपने सभी अधिकारों और कर्तब्यों की जिम्मेदारी मैं युवराज कर्ण सिंहजी बहादुर को सौपता हूँ। अतः मैं निर्देश देता हूँ और घोषणा करता हूँ कि मेरी अनुपस्थिति के दौरान रियासत तथा उसकी सरकार से जुड़े मेरे सभी अधिकार और कर्तब्यों को युवराज कर्ण सिंह को सौंपा जाये। ये अधिकार और कर्तब्य चाहे विधायक हों या कार्यकारी, सभी युवराज में निहित रहेंगे।

कैप्टन दीवान सिंह

कैप्टन दीवान सिंह उन दिनों राज्य के सेना मुख्यालय में स्टाफ ऑफिसर थे, कोई भी आवश्यक डाक महल तक पहुचाना उनका काम था। ऐसे अवसर पर दीवान सिंह महल में डाक लेकर गए तो महाराजा के निजी सचिव भीमसेन जो बहुत उदास दिखाई दे रहे थे, दीवान सिंह के पूछने पर उन्होंने सहज भाव से कारण बता दिया वहीं दीवान सिंह ने अपना स्थिफ़ालिखा और महराज के चरणों में रख दिया। उसके बाद वे महाराजा हरि सिंह के साथ चले गए हरि सिंह के शासन से मुक्ति होने के साथ मुंबई में उनके एडीसी बनकर रहना स्वीकार किया और 1961 में महाराजा की मृत्यु के बाद ही वापस जम्मू आये। 20 जून, 1949 को हरि सिंह के साथ मुंबई जाने वालों में कैप्टन दीवान सिंह प्रमुख थे।

नेहरू के खिलाफ प्रदर्शन

जम्मू कश्मीर के लोग महाराजा के साथ हुए इस ब्यवहार से धोखे से बहुत नाराज थे लोगों ने नेहरू के खिलाफ प्रदर्शन किया और नारे लगाए इस प्रदर्शन के उत्तर में नेहरू ने गरजते हुए कहा, जिस ब्यक्ति ने मुझे गिरफ्तार किया था क्या अब मैं उसे वापस आने दूंगा ? महाराजा हरि सिंह भी यह समझ रहे थे कि नेहरू अब उन्हें जम्मू वापस जाने नहीं देंगे। अब वे अपना भवन निर्माण में लग गए उन्हे लग गया कि अब उन्हें यहीं रहना है छह माह में भवन बनकर तैयार हो गया उसका नाम हरि सिंह भवन रखा गया। हरि सिंह इस भवन के छठी मंजिल पर रहने लगे। महराज अकेले थे महारानी ने भी उन्हें छोड़कर अपने मायके चली गई थी। उनके एक ही बेटा कर्ण सिंह था जिसने नेहरू और शेख अब्दुल्ला का हाथ पकड़ रखा था। अब महाराजा नेहरू के शिकार हैं! जो उनसे सहानुभूति रखेगा उसका नाम सूची से कट जाएगा। इसलिए कर्ण सिंह वर्ष में एकाध बार अपने पिता हरि सिंह से मिलने जाते थे वे अपने पिता का पैर भी छूते थे लेकिन इससे आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा पाते थे क्योंकि नेहरू का भय उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था।

महाराजा हरि सिंह की अंतिम पारिवारिक जिम्मेदारी

गृहस्थ आश्रम की एक जिम्मेदारी महाराज के पास थी जो सामान्यतया सभी को होती है वह अपने पुत्र का विवाह। कर्ण सिंह अपने पिता की इकलौती संतान थे, महाराजा ने विवाह के लिए पंडितों से शुभ मुहूर्त निकलवाया, 5 मार्च का दिन तय हुआ। महाराजा हरि सिंह को जम्मू से निकले आठ महीने हो चुके हैं नौवा महीना शुरू हो गया था।शादी नेपाल राजघराने राणा परिवार में तय हुई थी विवाह धूमधाम से हुआ, कर्ण सिंह के शब्दों में- इस अवसर पर पिताजी ने भी राजसी वेषभूषा पहनी, हीरे और पन्ने जवाहरात से जड़ा शानदार मुकुट और तलवार, अपनी छाती पर उन्होंने तमाम तमगे भी सजा रखे थे।इन तमगों से वे हमेशा गर्व महसूस करते थे।

जम्मू कश्मीर में संविधान सभा

महाराजा हरि सिंह का जम्मू कश्मीर से निष्कासन शेख़ अब्दुल्ला और नेहरू की जोड़ी की जीत और देश की पराजय थी लेकिन असली लड़ाई तो महाराजा अब लड़ने वाले थे। कर्ण सिंह तो रियासत में महाराजा के प्रतिनिधि मात्र थे, अतः भारत सरकार यह अच्छी तरह जानती थी कि रियासत में नई संविधान सभा चुनने की अधिसूचना जारी करने का अधिकार महाराजा हरि सिंह के ही पास है। इसलिए हरि सिंह के सामने तीन प्रश्न थे। महाराजा हरि सिंह ने पटेल को पत्र लिखकर सचेत किया! 10 दिसंबर 1950 को उन्होंने लिखा, "घोषणा पत्र के उद्देश्य और भावना से मैं सहमत हूँ, लेकिन जिस संविधान सभा के गठन का इरादा जताया जा रहा है, उसके अधिकार और कर्तब्य, सुस्पष्ट, अच्छी तरह परिभाषित और उपयुक्त शब्दों में होने चाहिए, साथ ही जो विषय उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं रखे गए हैं वे उसकी जांच और अधिकार क्षेत्र के दायरे में नहीं आने चाहिए। संविधान सभा को उस अधिकारी को रिपोर्ट करनी चाहिए जिसने उन्हें सत्ता दी और वह अधिकारी रियासत का शासक है। शासक उस मामले में भारत की संसद की राय मांगेगा।" दुर्भाग्य से महाराजा के पत्र लिखने के पांच दिन बाद ही 15 दिसंबर को सरदार पटेल का देहांत हो गया। अब जम्मू कश्मीर में नेहरू शेख की जोड़ी के समस्या मूलक प्रयोग रोकने वाला कोई नहीं रहा।

राष्ट्रवाद बनाम ब्यक्तिवाद

अब लड़ाई राष्ट्रवाद बनाम ब्यक्तिवाद  की शुरू हो गई है, आयंगर ने 5 अप्रैल1951में अपने पत्र में महाराजा हरि सिंह को स्पष्ट शब्दों में बता दिया था, "भारत सरकार संविधान सभा बुलाने के लिए वचनवद्ध है। इसके लिए राज्य में काफी तैयारियां चल रही हैं। संविधान सभा तो अब बुलाई ही जाएगी, चाहे औपचारिक घोषणा पत्र जारी हो अथवा न हो।" अब शेख अब्दुल्ला सार्वजनिक सभाओं में धमकियां ददे रहा था और नेहरू सरकारी पत्रों से धमकियां दे रहे थे। अयंगर के इस पत्र के चार दिन बाद ही शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में एक सार्वजनिक सभा में बोला, "केवल हरि सिंह ही नहीं बल्कि उनकी पत्नी तारा देवी पर भी जम्मू में साम्प्रदायिक दंगे करवाने और मुसलमानों की हत्या करवाने के आरोप लगाने के साथ उनके बेटे को भी धमकियां दी कि यदि ठीक रास्ते पर नहीं आये तो उसका भी वही हस्र कर दिया जाएगा जो उनके बाप का किया गया है।"  हरि सिंह ने संविधान सभा गठित करने की घोषणा पर हस्ताक्षर करने का निर्णय अपने बेटे कर्ण सिंह के विवेक पर छोड़ दिया और नेहरु के टाइगर ने 21 अप्रैल, 1951 को घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये। इससे भी आगे, "शेख अब्दुल्ला ने कहा शेख दुनिया में किसी से भी नहीं डरता, मैं भारत हो या पाकिस्तान, अमेरिका हो या कोई और देश, किसी के आगे सिर नहीं झुकाऊंगा।" अमेरिका और ब्रिटेन के षड्यंत्र कारियों ने शेख अब्दुल्ला को समझाना शुरू कर दिया कि यदि कश्मीर आज़ाद हो जाये तो वह एशिया का स्वीटजरलैंड बन सकता है, शेख अब्दुल्ला जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से आगे त्रिराष्ट्रवाद के रास्ते पर आगे बढ़ रहा था।

संविधान विरोधी कृत्यों की देशभर में गूँज

शेख अब्दुल्ला की चाल रियासत की जनता खासकर हिंदू, सिख और बौध्द के लिए यह स्थिति उनके भविष्य के आगे एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा सकती थी। महाराजा हरि सिंह इस खतरे को ठीक प्रकार से समझ रहे थे। लेकिन हरि सिंह के विरोध में नेहरू इतने आगे बढ़ गए थे कि उन्हें कुछ दिखाई नहीं दे रहा था और कुछ भी समझने से इनकार कर रहे थे। सरदार पटेल शेख अब्दुल्ला को अच्छी तरह समझते थे कि ये भारत विरोधी महत्वाकांक्षाओं की काट केवल हरि सिंह ही हो सकते थे, लेकिन सरदार पटेल इस दुनियां से जा चुके थे। 12 जून 52  को जम्मू कश्मीर संविधान सभा में राज्य के लिए निर्वाचित अध्यक्ष के प्रावधान का प्रस्ताव पारित किया गया। नेहरू अभी तक चुप्पी साधे हुए थे, बोलने का काम शेख कर रहा था, लेकिन अब पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा था संवैधानिक मामले की गूँज पूरे देश में उठने लगी अंत में 20 जून 1952 को नेहरु जी का मुख खुला उन्होंने कहा कश्मीर सरकार बार बार राजशाही समाप्त करने का आग्रह करती रही है। भारत सरकार ने उसकी बात स्वीकार कर लिया है। अब देश को ध्यान में आ गया कि नेहरु की इस स्वीकारोक्ति ने शेख अब्दुल्ला के आगे समर्पण कर दिया है, पहले शेख को नेहरू का आदमी कहा जाता था लेकिन पांसा पलट गया अब नेहरू को शेख अब्दुल्ला का आदमी कहा जाने लगा। अब नेहरू ने भारतीय संविधान को अपना संविधान बताकर स्वयं को संविधान से भी ऊपर मानना शुरू कर दिया था, लगता था महाराजा हरि सिंह के हटाने के मामले में नेहरू शेख के साथ बहुत दूर तक जा चुके थे। लेकिन नेहरु के इस पाप को देश विरोधी काम को केवल कश्मीर की ही नहीं पूरे देश की जनता भी कभी माफ नहीं करेगी।

काटजू को महाराजा हरि सिंह का पत्र 

महाराजा हरि सिंह ने नेहरू, शेख के बयानों को लेकर रियासती मंत्री काटजू को पत्र लिखा, काटजू केवल मंत्री ही नहीं थे बल्कि वे एक अधिवक्ता भी थे। महाराजा ने पत्र में लिखा - "देश के ब्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए, मैन भारत सरकार के निर्देशानुसार जितने कदम उठाए उनमे वैधानिक प्रावधानों को भी दरकिनार कर दिया ताकि राष्ट्रीय हितों को नुकसान न हो।" "संघीय संविधान सभा में अनुच्छेद 370 के चलते मैंने मानलिया था राज्य की संविधान सभा अपनी एकतरफा कार्यवाही से राज्य प्रमुख को नहीं हटा सकती। वैधानिक दृष्टि से अनुच्छेद 370 में संशोधन किये वगैर सम्भव नहीं है।" "संघीय संविधान ने राजप्रमुख के नाते मुझे जो विशेषाधिकार व प्रिवीपर्स दिए हैं राज्य विधानसभा एक तरफा कार्यवाही से निरस्त नहीं कर सकती।" "मैं समझता हूँ कि जम्मू कश्मीर भारत संघ का एक अभिन्न अंग है, लेकिन जम्मू कश्मीर की वर्तमान संविधान सभा भारत के आधारभूत संविधान के प्रावधानों को समझ नहीं पा रही है, इसलिए मुझे राजप्रमुख के पद से हटाने का काम कर रही है, जो संघीय संविधान का उल्लंघन है।" महाराजा हरि सिंह ने जो मुद्दे उठाए थे वे वैधानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे ही लेकिन राष्ट्रीय हितों से भी ताल्लुक रखते थे। जब हरि सिंह उन उपायों की खोज कर रहे थे जिससे संघीय ब्यवस्था में रियायत के एकीकरण की प्रक्रिया तेज हो, उस समय शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान की सीमा पर रणबीर सिंहपुरा में राज्य की स्वायत्तता से भी आगे लगभग स्वतंत्र राज्य की कल्पना के ख्वाब को परिणीति करने के रास्ते में थे।

नेहरू द्वारा महाराजा हरि सिंह का अपमान और राष्ट्र विरोध

राजा हरि सिंह ने जो पत्र रियासती मंत्री काटजू को लिखा था, लेकिन उसका उत्तर नेहरू ने इस प्रकार दिया! जिसका रियासत की सच्चाई से कोई मतलब नहीं था, नेहरु जी ने लिखा, "आप स्वयं अनुभव कर रहे होंगे कि जम्मू कश्मीर के इस परिदृश्य में आपकी कोई हैसियत नहीं है, वास्तव में जम्मू कश्मीर के लोगों को अपना भविष्य स्वयं तय करना है। यदि जनमत में यह निर्णय होता है कि कश्मीर को भारत के साथ नहीं रहना है तो स्वाभाविक ही हमें इस निर्णय को स्वीकार करना होगा। इस स्थिति में आपके ब्यक्तिगत अधिकारों का कोई मतलब नहीं है। यदि कश्मीर के लोग भारत के पक्ष में निर्णय करते हैं, जिसका हमें विस्वास है, तभी भविष्य में आपकी स्थिति के बारे में वहां के लोग फैसला लेंगे।" "भारत में जिन शासकों, महाराजाओं ने इन घटनाक्रमों और नव क्रियाशील शक्तियों को थोड़ा बहुत समझ ही नहीं लिया बल्कि उसके अनुरूप ढाल भी लिया। उनकी शक्ति और सत्ता तो खत्म हो गई हो लेकिन अपने लिये सम्मानजनक स्थान उन्होंने तब भी प्राप्त कर लिया। कश्मीर युद्ध ग्रस्त रहा और भारत ने वहां अपना खून और खजाना दोनों बहाये हैं।"

नेहरु ने महाराजा को लिखा- "सैद्धांतिक, वैधानिक रूप से आपकी कोई भी हैसियत हो! लेकिन ब्यवहारिक रूप अब आपके पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जिसके बल पर आप कश्मीर के भविष्य को प्रभावित कर सको! हमने आपको सम्मानजनक स्थान देने का प्रयास किया था लेकिन आप नए अवश्यम्भावी परिवर्तनों के रास्ते में आने का दुस्साहस करेंगे तो आपका बचा हुआ स्थान भी खतरे में पड़ सकता है। आपने अपने राज्य के लोगों का विस्वास और प्यार दोनों खो दिया है इसलिए आपके अधिकार भी उसी समय समाप्त हो गए। और इतना कहा कि आपके पत्र का अधिकृत उत्तर काटजू देगें। डॉ कैलाशनाथ काटजू केवल मंत्री ही नहीं थे बल्कि वे एक अधिवक्ता देश के जाने माने विधि विशारद भी थे। प्रश्न केवल महाराजा हरि सिंह और उनके पद का नहीं था बल्कि मूल प्रश्न तो अनुच्छेद 370 के ब्याख्या का था। मीडिया में नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच 24 जुलाई 1952 को बने सहमति के इन मुद्दों को प्रचरित किया गया।"

अनुच्छेद 370 --!

नेहरु जी ने शेख अब्दुल्ला को 29 जुलाई को पत्र लिखा,  "कानूनी प्रक्रिया से यह स्पष्ट नहीं है कि अनुच्छेद 370 के अंतर्गत  क्या राष्ट्रपति बार बार अधिसूचना जारी कर सकते हैं?" शेख अब्दुल्ला के पात्र लिखने के दूसरे दिन 30 जुलाई को काटजू ने महाराजा हरि सिंह को उनके पत्र का उत्तर दिया लेकिन ताज्जुब है कि महाराजा के उठाये गए प्रश्नों किसी तरह की टिप्पणी करना उचित नहीं समझा क्योंकि प्रधानमंत्री पहले ही उत्तर दे चुके हैं जबकि प्रधानमंत्री लिख रहे हैं कि पत्र का उत्तर काट्जू देगें। काटजू ने इतना जरूर संकेत दिया कि "आप हालात को अच्छी तरह समझते ही हो, इसलिए मुझे विस्वास है, कश्मीर के और अपने परिवार के हितों को ध्यान में रखते हुए कोई कदम उठाएगें।" लेकिन इतना जरूर था कि नेहरु व काटजू दोनों ही शेख अब्दुल्ला के आग्रह की वैधानिकता को लेकर आस्वस्त नहीं थे, इसीलिए दोनों महाराजा हरि सिंह के मूल प्रश्नों से बच रहे थे। महाराजा हरि सिंह का एक और प्रश्न था जिसका उत्तर न नेहरू के पास था न किसी मंत्री के पास! प्रश्न था कि मेरे साथ हैदराबाद के निजाम से भी बदतर व्यवहार क्यों किया जा रहा है ? अब नेहरू यह तो नहीं कह सकते थे कि मैं ब्यक्तिगत प्रतिशोध ले रहा हूँ। लगता था कि नेहरु हर पग पर शेख अब्दुल्ला के आगे आत्मसमर्पण करने की मुद्रा में आ गए थे, और इस कारण हो रही आलोचना से उत्तेजित हो जा रहे थे।

महाराजा हरि सिंह का काटजू को दुबारा पत्र

महाराजा हरि सिंह ने दुबारा पत्र लिखते हुए जो मुद्दे उठाए उसमे प्रमुख रूप से उन्होंने कहा, मैंने संघीय संविधान के अनुच्छेद 370 का प्रश्न उठाया था, आपने स्पष्ट नहीं किया कि भारत सरकार अब राज्य के राजप्रमुख को हटाने का जो कदम उठाने जा रही है, वह अनुच्छेद के अनुरूप है कि नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि अनुच्छेद 370 को भी नेहरू और शेख की ब्यक्तिगत सुविधा के अनुसार ही संसोधित किया जाता रहेगा ? दुर्भाग्य से हरि सिंह ने जो मुद्दे उठाए थे उनका उत्तर न तो काटजू के पास था न ही नेहरू के पास। लेकिन महाराजा हार मानने वाले नहीं थे अब वे नेहरू को उन्हीं का शीशा दिखा रहे थे। यह लड़ाई एक ओर देश की अखंडता की लड़ाई थी दूसरी ओर हरि सिंह के अपने सम्मान की लड़ाई भी बन गई थी। महाराजा अब सारी लड़ाई राष्ट्रपति के दरबार में ले जाने का निर्णय किया। उन्होंने राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को एक ज्ञापन भेजा। ज्ञापन में सिलसिलेवार तर्क प्रस्तुत किया और नेहरू के दर्शन शास्त्र का उत्तर भी दिया।

राष्ट्रपति को ज्ञापन

राष्ट्रपति को दिए गए इस ज्ञापन के अंत में जनता के नाम की दुहाई देने वाली नेहरू शेख की जोड़ी को हरि सिंह ने जनता के नाम पर चुनौती दी। "मैं चुनौती देता हूँ कि भारत सरकार पक्षपात से दूर रहकर, राज्य के लोगों को मेरे और शेख अब्दुल्ला के बीच निर्णय लेने दिया जाये।तब अपने आप पता चल जायेगा कि लोकमत किसके साथ है?  यही कारण है भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख़ अब्दुल्ला का वह प्रस्ताव जिसमें अनुच्छेद 370 में संशोधन करने की सिफारिश की गई थी राष्ट्रपति के पास स्वीकृति करने के लिए भेज दिया। राष्ट्रपति ने भी इस प्रस्ताव के संवैधानिक औचित्य पर अनेक प्रश्न खड़े कर दिया। उन्होंने 6 सितंबर  1952 को सरकार लिखा---- लेकिन अन्ततः वे भी नेहरु के जबाब से विवस हो गए और 15 नवंबर को अनुच्छेद 370 को संशोधित करने की अधिसूचना जारी कर दी। यह ठीक है कि महाराजा की इस वैधानिक चुनौती को स्वीकार करने की हिम्मत किसी में नहीं थी जो महाराजा के इन संवैधानिक प्रश्नों का उत्तर दे सके। लेकिन जब हरि सिंह तर्क की किताब लेकर मैदान में आये तो नेहरू ने सत्ता की तलवार निकाल लिया, उन्होंने कर्ण सिंह के पास हरि सिंह की निंदा करने का काम किया और ज्ञापन का उल्लेख करते हुए 9 सितम्बर 1952 को नेहरू ने कर्ण सिंह को पत्र लिखा, "मैंने तुम्हारे पिता का लंबा ज्ञापन देखा है, जो उन्होंने राष्ट्रपति के पास भेजा है। वह ज्ञापन गुस्से और पक्षपात पूर्ण आरोपों से भरा दस्तावेज है, तुम्हारे पिता बिल्कुल समझ नहीं पा रहे हैं कि दुनिया कितनी बदल चुकी है।" महाराजा हरि सिंह बदलती दुनिया की चाल समझ पा रहे थे या नहीं इसके बारे में अलग अलग राय हो सकता है, लेकिन शेख अब्दुल्ला की दुनिया कितनी तेजी से बदल रही थी कम से कम जवाहरलाल नेहरु नहीं समझ पा रहे थे या समझ कर भी अनदेखा कर रहे थे अथवा ब्यक्तिगत स्वार्थ में देशहित को दांव पर लगा रहे थे। असहाय नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दृष्टि फिर कर्ण सिंह के ऊपर गई उन्होंने लोहे से लोहा काटने की तैयारी शुरू कर दिया, नेहरू और शेख अब्दुल्ला यह समझ चुके थे कि राजा से टकराना जम्मू कश्मीर में विद्रोह को निमंत्रण देना है जिसे रोकना नेहरू के बस का नहीं था। 

राजशाही का अंत और विलेन कर्ण सिंह

इस समय नेहरु कर्ण सिंह का उपयोग कर शेख अब्दुल्ला का हित साधने में लगे थे, नेहरू ने कर्ण सिंह को भविष्य का सपना दिखाना शुरू कर दिया और शेख अब्दुल्ला ने महाराजा की निंदा के साथ साथ कर्ण सिंह की प्रसंशा के गीत गाने शुरू कर दिया। महाराजा के निष्कासन के समय भी उनके बेटे ने उनका साथ न देकर इसी नेहरू शेख अब्दुल्ला की जोड़ी का साथ दिया था। इस समय भी अपने पिता का साथ छोड़कर नेहरू शेख की जोड़ी के साथ मिल गए और उनकी योजना के अनुसार अपने पिता को हटाकर उनके  स्थान पर स्वयं बैठने के लिए तैयार हो गए। 20 अगस्त 1952 को महाराजा हरि सिंह के अधिकार से ही गठित हुई स्थानीय संविधान सभा ने प्रस्ताव पारित कर रियासत में से राजशाही का अंत कर दिया। नई ब्यवस्था में राज्य के संवैधानिक मुखिया के लिए "सदर-ए-रियासत" का पद सृजित किया गया, 15 नवंबर1952 को कर्ण सिंह "सदर- ए -रियासत" चुने गए और 19 नवंबर1952को पद और गोपनीयता की शपथ ग्रहणकर महाराजा हरि सिंह की जम्मू कश्मीर में वापस लौटने के सारी संभावनाओं का अंत कर दिया। कर्ण के शब्दों में-- "मैं जानता था कि मैंने अब सामंती से कभी नहीं जुड़ने वाली सीमा तक अपने संबंध तोड़ लिए है, मुझे यह एहसास भी था कि जाहिरा तौर पर हमारे संबंध कितने भी सौहार्द पूर्ण दिखे, इस नए पद को स्वीकार करने के कारण मेरे पिता मुझे आसानी से माफ नहीं करेंगे। कर्ण सिंह यह बात भूल गए कि जो पद उन्हें मिला है वह तो केवल महाराजा हरि सिंह के पुत्र होने के कारण मिला है यही उनकी योग्यता है।और कर्ण सिंह ने वंश से चली आ रही सामंती ब्यवस्था का अंतिम फल चखने की व्यवस्था कर लिया था। महाराजा हरि सिंह जिस अपमानजनक तरीके हैं राजप्रमुख से हटाए गए उसमें उनका बेटा भी शामिल था, नेहरू शेख के दिये गए जख्म को वे शायद भूल भी सकते थे लेकिन बेटे द्वारा दिये गए जख्म को भला कैसे भूल सकते थे ? उनका यह जख्म जीवन भर रिसता रहा।


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