मानव सृष्टि व जगत का निर्माण

 ऋषियों का 'महर्षिमनु' के पास आगमन

मनु धरती के प्रथम राजा थे समाज रचना के लिए ऋषि लोग मनु के पास आये वे ध्यानस्थ बैठे थे फिर ऋषियों से संवाद स्थापित किया।  जब परमात्मा ने सृष्टि की रचना की पहले हिम मानव जो सैकडों हज़ारों की संख्या में थी विभिन्न प्रकार के जीव जंतुओं की रचना की। समाज ब्यवस्था हेतु ऋषि लोग महर्षि मनु के पास आये और प्रश्न किया! भगवान मनु बोले---! यह सब दृश्य मान जगत सृष्टि रचना के पूर्व प्रलय काल में तम अर्थात मूल प्रकृति रूप में एवं अंधकार से आच्छादित था, स्पष्ट रूप से जानने योग्य कुछ भी नहीं! सृष्टि का कोई लक्षण उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान लगाने जैसा था सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर सब कुछ सोया सा पड़ा था। "यह सब जगत सृष्टि से पहले प्रलय में अंधकार से आवृत्ति आच्छादित था। उस समय न किसी।के जानने न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिन्हों से युक्त जानने योग्य होता"। प्रलयकाल में यह जगत मूल प्रकृति के रूप में था, यह अंधकार में विलीन था, कुछ भी जानने योग्य नहीं था सब ओर अवकाश रूप था। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमात्मा से यह जगत ब्याप्त था उसको परमात्मा ने अपने सामर्थ्य से कारण रूप से कार्यरूप में परिणित करके सृष्टि रूप बना दिया।

मकड़ी जाला के समान

राजा जनक के दरबार में अष्टावक्र का मिथिला राज्य राजपुरोहित ''बंदी'' से विश्व प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें ब्रम्हांड के उत्पत्ति और संहार के प्रश्न पर राजपुरोहित उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाला बुनती है और स्वयं ही उसे निगल जाती है उसी प्रकार ईश्वर सृष्टि की रचना करता है और स्वयं ही उसे समाप्त कर ता है जिसे हम प्रलय कहते हैं।

न मृत्युरासीदित्यादिकं सर्वं सुगमर्थमेषामर्थ भाष्ये वक्ष्यामि।।

जब जगत नहीं था, तब मृत्यु भी नहीं था, क्योंकि जब स्थूल जगत संयोग से उत्पन्न होके वर्तमान, पुनः उसका और शरीर आदि का वियोग हो तब मृत्यु कहा जाता है जो शरीर आदि पदार्थ उत्पन्न ही नहीं हुए थे। जिस परमेश्वर के रचने से जो यह विभिन्न प्रकार का जगत उत्पन्न हुआ है वही इस जगत को धारण करता है और वही मालिक भी है।जो मनुष्य परमेश्वर को अपनी बुद्धि से जानता है वही परमेश्वर को प्राप्त होता है। जो अकाश के समान व्यापक है उसी ईश्वर में सब जगत निवास करता है और जब प्रलय होता है तब भी जगत कारण ईश्वर के सामर्थ्य में रहता है, और फिर उसी से उत्पन्न होता है।

हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः परिरेक आसीत।

सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमा कस्मै देवाय हाविशां विधेम।।

हिरण्यगर्भ जो परमेश्वर है, वही सृष्टि के पहले भी था और वर्तमान में भी है। जो परमेश्वर इस जगत का स्वामी है और वही पृथवी से लेकर सूर्य पर्यंत सब जगत को रच के धारण कर रहा है। इसलिए उसी सुख स्वरूप परमेश्वर ईश्वर की ही उपासना करें अन्य की नहीं क्योंकि वहीं इस सृष्टि का नियंता है। जो प्रजापति अर्थात जगत का स्वामी है वही जड़ और चेतन के भीतर और बाहर अन्तर्यामी रूप से सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। जो सब जगत को उत्पन्न करके अपने आप सदा अजन्मा रहता है जो उस परब्रह्म की प्राप्ति का कारण, सत्य का आचरण और सत्यविद्या है, उसको विद्वान लोग ध्यान से देखकर परमेश्वर को सब प्रकार से प्राप्त होते हैं। उसी परमात्मा में ज्ञानी लोग भी सत्य निश्चय से मोक्ष (सुख) को प्राप्त करते, जन्म मरण आदि बंधनो से मुक्त, सदा आनंद में रहते हैं।

पुरूष सूक्त ऋग्वेद दसम मंडल

सहस्त्राशीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात।

स भूमि& सर्वत स्पृत्वा$त्यतिष्ठाद्दशांगुलम।।

इस मन्त्र में पुरूष शब्द का विशेष्य और अन्य सब पद उसके विशेषण है। पुरूष उसको कहते हैं कि जो इस सब जगत में पूर्ण हो रहा है अर्थात जिसने अपनी ब्यापकता से इस जगत को पूर्ण कर रखा है। सहस्त्र नाम है सम्पूर्ण जगत का जिसके बीच में सब जगत के असंख्य सिर, आँख और पैर हैं, उसको सहस्त्राशीर्षा, सहस्त्राक्ष और सहस्त्रपात भी कहते हैं क्योंकि वह अनंत है। जैसे अकास के बीच सब पदार्थ रहते हुए आकाश सबसे अलग दिखाई देता है अर्थात किसी के साथ बढ़ता नहीं है, इसी प्रकार परमेश्वर को समझना चाहिए। पाँच स्थूल भूत और पांच सूक्ष्म ये दोनों मिलकर जगत के दस अवयव होते हैं। तथा पांच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार ये चार और दसवाँ जीव और शरीर में जो हृदयदेश है, वह भी दश अंगुली से प्रमाण लिये जाता है।जो इन तीनों में ब्यापक होकर इनके चारो ओर भी परिपूर्ण हो रहा है, इससे वह पुरूष कहलाता है । वही सब जगत को बनाने वाला है, वही ईश्वर है।

ब्राह्मणों$स्य मुखमासीद बाहू राजन्य: कृत:।

ऊरु तदस्य यद्वैश्य: पदश्या शूद्रों अजायत।।

ईश्वर की आज्ञानुसार मानव जीवन में जो विद्या सत्य भाषण आदि गुण कर्मों से युक्त होता है उसे मानव समाज का मुख यानी ब्राह्मण कहा जाता है यानी मुखस्य ब्राह्मण:, ईश्वर ने बल पराक्रम आदि गुणों से युक्त मनुष्य को क्षत्रिय (बाहू राजन्य: कृत), खेती, ब्यापार इत्यादि करने वाले को वैश्य वर्ण बताया है यानी (ऊरू तदस्य.) तथा मूर्खतापूर्ण, गवांर को शूद्र वर्ण कहा है (पदभ्या: शूद्रों)। अब इसमें कई मत हो सकता है क्योंकि यहाँ भाष्य करने विचार रखने की स्वतंत्रता है। ये ऋग्वेद के "दशम मण्डल" का "पुरूष सूक्त" है महीधर व वेद भाष्यकार सायण कहते हैं कि मुख से ब्राह्मण भुजा से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैर से शूद्र पैदा होता है। वहीं संविधान प्रमुख ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष पं. डॉ आंबेडकर कहते हैं कि ऋग्वेद का दसम मंडल क्षेपक है वे तर्क देते हैं कि क्या मुख से मनुष्य पैदा हो सकता है तो नहीं! वे कहते हैं कि वैदिक काल में तीन वर्ण ही थे, लेकिन महान विद्वान वेदों के भाष्यकार ऋषि दयानंद सरस्वती का मत कुछ इस प्रकार है, मानव जीवन में जो विद्वान है योग्य है जो समाज को शिक्षित करने का काम करते हैं वे समाज के प्रवक्ता के रूप में है यानी मुख से ब्राह्मण। समाज की सुरक्षा यानी भुजा यानी भुजा से क्षत्रिय। मानव समाज का उदर भरने वाले यानी ब्यापार, कृषि करने वाले वैश्य और सेवा यानी किसी भी प्रकार का कार्य करने वाले चाहे सरकारी नौकरी अथवा प्राइवेट कंपनी में कर्मचारी जिसे शूद्र वर्ण का बताया गया है, वास्तव में यही वैदिक अथवा मनुस्मृति की वर्ण व्यवस्था है।

 जो ब्रम्हा जी का ज्ञान है वही अत्यंत आनंद देने वाला और उस व्यक्ति की उसमें रूचि बढ़ाने वाला होता है जिस ज्ञान को ज्ञानी लोग अन्य मनुष्यों के आगे उपदेश देकर आनंदित कर देते हैं। (यस्तवैवं ब्राह्मणों.) जो मनुष्य इस प्रकार से ब्रम्हा जी को जनता है उसी विद्वान के सब मन आदि इन्द्रिय वश में हो जाता है अन्य लोगों के नहीं।

देवा:  पितरों  मनुप्या   गंधरवाप्सरश्च ये।

उच्छिष्टाअज्जझिरे सर्वे दिवि देवा दिनविश्रित:।.(अथर्ववेद)

ईश्वर ने विभिन्न प्रकार की रचना की है और वही सभी रचनाओं को यथावत जानता है और jo जगत में विद्वान, साधक, संत, ऋषि इत्यादि होते हैं वे भी कुछ कुछ इस परमेश्वर की रचनाओं के गुणों को जानते हैं। वह परमेश्वर सब को रचता है और स्वयं उस रचना में नहीं आता। प्रकाश करने वाले प्रकाशस्वरूप सूर्यादि लोक और अर्थात चन्द्रमा, पृथ्वी आदि प्रकाश रहित लोक वे भी उसी के सामर्थ्य से उत्पन्न हुए हैं।

अमैथुनी सृष्टि

जब ईश्वर ने ब्रह्मांड की रचना की यानी सूर्य, पृथ्वी, बृहस्पति, मंगल, शनि इत्यादि ग्रहों सहित सब भगवान सूर्य की परिक्रमा करते हैं ऋग्वेद में एक ऋचा जिसे हम गायत्री मंत्र के नाम से जानते हैं जिसके मंत्रद्रष्टा ऋषि विश्वामित्र हैं जो स्पष्ट करते हैं कि ब्रह्मण्ड में जो भी ग्रह हैं सभी भ्रमणशील हैं सभी कहीं न कहीं सूर्य का चक्कर लगाते हैं और उसमें से एक आवाज निकलती है वह आवाज है "गायत्रीमंत्र"। अपने वेदों सहित विभिन्न शास्त्रों में अमैथुनी सृष्टि का उल्लेख है, जिसे हम ब्रह्मा के मानस पुत्र कहते हैं। पहले तो पश्चिम के लोगों को यह बात समझ में नहीं आई लेकिन आज वैज्ञानिकों ने यह माना है कि अमैथुनी सृष्टि है, जो दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव में पाया जाता है जिसे हम हिम मानव कहते हैं।

सृष्टि की उत्पत्ति--!

"प्रलय के पश्चात जब सृष्टि निर्माण का समय आता है तब ईश्वर उन सभी तत्वों को सूक्ष्म पदार्थो को इकट्ठा करता है, उसकी प्रथम अवस्था में प्रकृति रूप स्थूल होता है उसका नाम महत्तत्त्व और उससे कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच- सूक्ष्म भूत श्रोत, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक,हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा, ये पांच कर्म इन्द्रियाँ हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंच तन्मात्राओं से अनेक स्थूलवस्थाओं को प्राप्त करने क्रम से पाँच स्थूलभूत जिनको हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं, उत्पन्न होते हैं। उनसे कई प्रकार की औषधियां, बृक्ष, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य, और वीर्य से शरीर होता है, परंतु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती, क्योंकि जब स्त्री-पुरूष के शरीर को परमात्मा बनाकर उनसे जीवों का संयोग करा देते है तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।" (सत्यार्थप्रकाश)

जैसा कि पहले कहा गया है कि सर्व प्रथम ब्रम्हांड की रचना परमात्मा ने किया जिसमें सूर्य और अनेकों ग्रहों उसी में परमात्मा ने पृथ्वी की रचना की "क्योंकि बिना पृथ्वी के मानव जीवन संभव नहीं हो सकता इसलिए ईश्वर ने प्रथम पृथ्वी फिर अनेक जीवों की कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने थे उनका जन्म सृष्टि के आदि में परमात्मा देता है, परमात्मा ने सैकड़ों, सहस्त्रों मनुष्य उत्पन्न किया और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि अनेक माता पिता की संतान हैं।" (मनुष्या ऋष्यश्च ये। ततो मनुष्या अजायन्त-- यजुर्वेद)

जहां ऋग्वेद वेद के पुरूष सूक्त में इसे पञ्च महाभूत कहा गया है वहीं सन्त तुलसीदास ने राम चरित मानस में उसी को "छिति, जल, पावक, गगन, समीरा बताया है, सृष्टि पंचमहाभूतों से बनी है सबके अलग अलग गुण है, इन पञ्च महाभूतों का निश्चित क्रम है--1- आकाश, 2-वायु 3- अग्नि 4- जल और पृथ्वी। इसमें आकाश प्रथम स्थान पर है, इस प्रकार उसका केवल एक अपना शब्द गुण ही है, वायु दूसरे स्थान पर है अतः इसके दो गुण है प्रथम अपने से पहले वाले आकाश का शब्द दूसरा स्पर्श का गुण। इसी प्रकार तृतीय स्थानीय अग्नि में दो अपने से पहले वाले आकाश और वायु नामक भूतों के क्रमसः शब्द, स्पर्श गुण है तथा तीसरा अपना गुण। चतुर्थ स्थानीय जल के इसी प्रकार चार गुण है, शब्द, स्पर्श, रूप और रस। पंचम स्थान पृथ्वी में पाँच गुण है-- शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध। इस प्रकार सृष्टि में ये पञ्च तत्वों के गुण पाए जाते हैं और इन्हीं से सृष्टि का निर्माण परमात्मा ने किया है।

सृष्टि के प्रारंभ--!

सृष्टि के प्रारंभ में वैदिक शब्दों के द्वारा ही मनुष्यों को नाम, कर्म, विभाग आदि का ज्ञान हुआ। परमात्मा ने वैदिक शब्दों के रूप में यह सब ज्ञान दिया, "निर्ममे" यहां भाव, नाम, कर्म और विभाग आदि का ज्ञान वेद शब्दों में अंतर्निहित करके लोगों को अवगत कराने से है। मनु ने जो ब्यवस्था दी है उसमें कर्मानुसार परमात्मा निर्मित माना गया है, इस प्रकार राज्य ब्यवस्था भी हो सकता है भगवान मनु ने केवल चार वर्णो की बात कही है और वही मान्य है। उनके मत से नाई, धोबी, कहार, जुलाहा, कोयरी इत्यादि उपजाति नहीं है। और न ही ये जातियां या उनके ये कार्य ईश्वर-रचित हैं।मनु के अनुसार तो 'शिल्पकार' वैश्य का काम है चाहे वह किसी भी प्रकार का शिल्प कार्य करे वैश्य समाज का ही कहलायेगा, कुम्हार अथवा जुलाहा नहीं। मनु की ब्यवस्था अनुसार जो ब्यक्ति आज बर्तन बनाने का काम कर रहा है वह कल कपड़े बनाने का भी कार्य कर सकता है, परसों अन्य काम फिर भी वह वैश्य समाज का ही रहेगा। जाति-उपजाति की कल्पनायें वर्ण व्यवस्था की शिथिलता के कारण कार्य रूढ़ि के आधार पर पश्चिमी प्रभाव व समाज द्वारा निर्धारित की गई है, (डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'शूद्रों की खोज' में लिखा है कि पहले वर्ण व्यवस्था थी जातियां नहीं थीं, शूद्र भी थे लेकिन छुवा- छूत नहीं था) अतः उन्हें ईश्वर रचित ब्यवस्था मानकर 'महर्षि मनु' के श्लोकों में उदाहरण के रूपमें देना गलत एवं मनु की ब्यवस्था के विरुद्ध है।


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