क्रांतिवीर तिलका मांझी के जयंती पर उन्हे शत् शत् नमन् .. हुल जोहार
धर्मवीर तिलका माझी
जबरा पहाड़िया (तिलका मांझी) भारत में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देने वाले पहाड़िया समुदाय के वीर वनवासी थे। वे चर्च के षड्यंत्र को समझ चुके थे चर्च धर्मांतरण के बहाने ब्रिटिश साम्राज्य का स्थाई सत्ता स्थापित करना चाहता था। सिंगारसी पहाड़, पाकुड़ के जबरा पहाड़िया उर्फ "तिलका मांझी" के बारे में कहा जाता है कि उनका जन्म 14 जनवरी 1750 ई. में सुल्तानगंज, भागलपुर बिहार में हुआ था। 1771 से 1784 तक उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लंबी और कभी न समर्पण करने वाली लड़ाई लड़ी और स्थानीय महाजनों-सामंतों (ब्रिटिश एजेंट) व अंग्रेजी शासक की नींद उड़ाए रखा। पहाड़िया लड़ाकों में सरदार रमना अहाड़ी और अमड़ापाड़ा प्रखंड (पाकुड़, संथाल परगना) के आमगाछी पहाड़ के निवासी 'करिया पुजहर' और सिंगारसी पहाड़ निवासी "जबरा पहाड़िया" भारत के "आदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी" हैं। दुनिया का पहला आदिविद्रोही रोम के पुरखा आदिवासी लड़ाका स्पार्टाकस को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में जबकि पहला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी (आदिविद्रोही) होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर ब्रितानी हुकूमत (चर्च के षड्यंत्र) से लोहा लिया। इन पहाड़िया लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ "तिलका मांझी" हैं। इन्होंने 1778 ई. में पहाड़िया सरदारों से मिलकर "रामगढ़ कैंप" पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों को खदेड़ कर कैंप को मुक्त कराया। 1784 में जबरा ने भागलपुर के कलेक्टर क्लीवलैंड को अपने जहरीले वाणो से मार गिराया। बाद में अंग्रेज सेना कमानडर आयरकुट के नेतृत्व में जबरा की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ जिसमें कई लड़ाके मारे गए और जबरा को गिरफ्तार कर लिया गया। कहते हैं उन्हें चार घोड़ों में बांधकर घसीटते हुए भागलपुर लाया गया। पर मीलों घसीटे जाने के बावजूद वह पहाड़िया लड़ाका जीवित था। खून में डूबी उसकी देह तब भी उनकी आँखें गुस्सैल थी और उसकी लाल-लाल आंखें ब्रितानी राज को डरा रही थी। भय से कांपते हुए अंग्रेजों ने तब भागलपुर के चौराहे पर स्थित एक विशाल वटवृक्ष पर सरेआम लटका कर उनकी जान ले ली। हजारों की भीड़ के सामने जबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। तारीख थी संभवतः 13 जनवरी 1785। बाद में आजादी के हजारों लड़ाकों ने जबरा पहाड़िया का अनुसरण किया और फांसी पर चढ़ते हुए जो गीत गाए - "हांसी-हांसी चढ़बो फांसी ...!" - वह आज भी हमें इस आदि स्वतंत्रता संग्राम (विद्रोही) की याद दिलाते हैं।
उनकी श्रद्धांजलि
पहाड़िया समुदाय का यह गुरिल्ला लड़ाका एक ऐसी किंवदंती है जिसके बारे में ऐतिहासिक दस्तावेज सिर्फ नाम भर का उल्लेख करते हैं, पूरा विवरण नहीं देते। लेकिन पहाड़िया समुदाय के पुरखा गीतों और कहानियों में इसकी छापामार जीवनी और कहानियां सदियों बाद भी उसके स्वतंत्रता सेनानी (आदिविद्रोही) होने का अकाट्य दावा पेश करती हैं। आज भी साहिबगंज की पहाड़ियों में इनकी किवदंती और गीतों के रूप में याद किया जाता है उसी समय से यह जनजाति आपको नीचे नहीं पाई जाती ये लोग अब ऊंची पहाड़ियों में अपना आवास ठेगाना बना लिया और अपने धर्म पर अड़े रहे। लेकिन आज दुर्भाग्य कैसा है कि जिनके पुरखों ने अपने धर्म के लिए इतना संघर्ष किया वे इन्ही चर्च के चंगुल में फसते जा रहे हैं। ईसाई मिशनरियों ने इन्हें अपने चंगुल में फॅसा लिया है और इन्हें यह पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? और केवल पहाड़िया ही नहीं तो पूरे जनजातियों को एक तरफ चर्च दूसरे ओर रोहंगिया, बांग्लादेशी घुसपैठियों ने अपने आगोश में ले लिया है। जनजातियां अपने हिसाब से संघर्ष कर रही हैं उतना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संपूर्ण हिंदू समाज को एक जुट होकर संघर्ष करना होगा तब ही और यही संघर्ष क्रान्ति वीर तिलका मांझी को श्रद्धांजलि होगी।
1 टिप्पणियाँ
तिलका मांझी सच्चे विरों मे से एक है।
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