अमर बलिदानी क्रांतिकारी सिद्धो-कान्हू

 


स्वतंत्रता का स्वभाव

भारतीय संस्कृति में छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं है, डॉ भीमराव अंबेडकर ने शूद्रों की खोज नामक पुस्तक में लिखा है कि वेदों में वर्ण व्यवस्था का वर्णन है और मनुस्मृति भी वेदों पर आधारित है उसमें भी जातियों का कोई वर्णन नहीं किया गया है। तो ये जातियां आयी कहाँ से यह विचारणीय प्रश्न है! उसी पुस्तक में डॉ आंबेडकर लिखते हैं कि ये वो शूद्र नहीं है क्योंकि वैदिक काल में ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता है। फिर आगे लिखते हैं कि ये इस्लामिक काल की देन हैं, हमे यह ध्यान देना है कि दास प्रथा, गुलाम बनाने की प्रथा, मनुष्यों को बेचने की परंपरा हमारे वांग्मय में कहीं नहीं है और यदि यह होता तो उसका प्रत्यक्ष रूप से कहीं न कहीं हमें प्रकट रूप से दिखाई देता। ये परम्परायें इस्लाम और ईसाईयत में पाई जाती है उनके यहाँ बहु पत्नी प्रथा ऊँच नीच का भाव आज भी प्रत्यक्ष पाया जाता है। जैसे शिया, सुन्नी, बहाई, क़ादियानी इत्यादि एक दूसरे की मस्जिदों में नही जा सकता इतना ही नहीं ये दूसरे के कब्रिस्तान में भी दफनाया नहीं जा सकता, इसी प्रकार ईसाईयों में भी कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, ऑर्थोडॉक्स इत्यादि एक दुसरे की चर्च में नहीं जा सकता कब्रिस्तान में भी यही पद्धति है। लेकिन हिन्दू समाज में सभी को सभी मंदिरों में पूजा अर्चना की छूट है कोई छोटा बड़ा नहीं सभी के श्मसान घाट एक ही रहता है। जिन जातीय समूहों ने मुसलमानों से संघर्ष किया जब वे सत्ता में आये तो उन्हें अछूत घोषित किया। जिसे आज हम दलित, जनजाति समझते हैं वे संघर्षशील जातियां हैं उन्होंने वैदिक धर्म और देश की सुरक्षा के लिए संघर्ष किया और अन्तिम समय तक लड़ते रहे।

धर्म नहीं छोड़ा संघर्ष किया

मुसलमानों से जब संघर्ष हुआ सारा समाज सतर्क हो गया हमारे लोग यह नहीं जानते थे कि ये आततायी आतंकी कौम इतने धोखेबाज और अविष्वसनीय होता है इन बर्बर जातियों से जब पाला पड़ा तो हमारे लोगों को धयान में आया कि ये हमारे जैसे नहीं है। समाज ने संघर्ष किया धर्म नहीं छोड़ा बल्कि जंगलों के रहना और पलायन करना स्वीकार किया। चूंकि ये लोग राजवंश से जुड़े हुए थे इसलिए स्वभाव में ही स्वतंत्रता थी। एक ओर जहाँ मुगलों को पराजित कर चेरों ने पलामू में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया, उसी समय संथालों ने छोटा नागपुर में अपना राज्य स्थापित किया लेकिन संघर्ष जारी रहा लगातार हमलों के कारण और अपने धर्म को सुरक्षित रखने हेतु इनका पलायन हुआ और ये बंगाल बिहार के पूर्वी हिस्से इत्यादि स्थानों पर फैल गए लेकिन स्वतंत्रता संग्राम जारी रहा। एक कथा मैं लिखना उपयुक्त समझता हूं-- "स्वामी रामानंद जी ने बचपन में जब सन्यास लिया तो वे प्रयागराज से काशी जा रहे थे रास्ते में एक स्थान पर रात्रि विश्राम करने के क्रम में संध्या वंदन के समय कुछ लोग वहाँ आये थे बालक स्वामी जी ने उनसे पूछा कि यहां जंगल में कैसे ? उन लोगों ने बताया कि मलेक्षों के उत्पीड़न के कारण हम लोग धर्म बचाने के लिए वनगमन किये हैं, स्वामी जी ने अपने प्रवचन में कहा कि तुम लोग सनातन धर्म के नीव के पत्थर हो ये पेड़ पौधों में भी ईश्वर का वास है, तुम लोगों ने अपने धर्म की रक्षा हेतु जंगल में आये हो तो सब "धर्म योद्धा" हो। हमें लगता है कि रामानंद स्वामी का उपदेश काम किया और वनबासी समाज प्रकृति पूजक हो गया आज जिसे हम "सरना पूजा स्थल" कह रहे हैं ये वही है।

मालगुजारी वसूलने का काम कंपनी ने अपने हाथ में लिया 

सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में मुस्लिम आक्रमणकारियों से इनका संघर्ष रुका नहीं आक्रांताओ के आतंकी स्वभाव के कारण पराजित हो छोटा नागपुर छोड़ना पड़ा। इधर एक और घटना घटी भारतीय राजाओं से इस्टइंडिया कंपनी ने मालगुजारी वसूलने के लिए निवेदन किया हमारे राजा उदारमना थे उन्होंने बिना विचार किये उन्हें काम दे दिया राजाओं को लगा कि ये मालगुजारी वसूली ही करेंगे। इसलिए राजाओं ने इस्टइंडिया कंपनी के निवेदन को स्वीकार कर लिया, यहीं से धोखा देना शुरू कर दिया पहले मालगुजारी फिर राजाओं से निवेदन किया कि हमें सिक्योरिटी गार्ड की आवश्यकता है राजाओं को लगा कि कोई बुराई नहीं है लेकिन सिक्योरिटी गार्ड के स्थान पर उन्होंने सेना की भर्ती शुरू कर दिया। 1765-66 में बंगाल, उडीसा, और बिहार की मालगुजारी का अधिकार अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया। इसी के साथ दमन का सिलसिला शुरू हो गया।

सिद्धो -कान्हू का जन्म

पाकुड़ और राजमहल के क्षेत्रों में गोरों की कोठियां खड़ी होना शुरू हो गई, काम पर जाने वाले स्त्री पुरुषों का दैहिक शोषण होने लगा। स्वत्व परंपरा और धर्म पर भी अतिक्रमण किया जाने लगा, ऐसे समय में स्वाधीनता और स्वाभिमान के प्रतीक बनकर नेतृत्व सिद्धो-कान्हू संथाल ने। राजमहल क्षेत्र के भीगनडीह गाँव में चुन्नू संथाल के घर 1815 मे सिद्धो और 1820 में कान्हू का जन्म हुआ। इन दोनों के अतिरिक्त चुन्नू संथाल के यहां जन्मे चाँद और भैरव ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। अंग्रेजों के विरोध में संघर्ष का नेतृत्व करते हुए सिद्धू-कान्हू ने कहा कि मरांडबुरु संथालों के देवता, महादेव ने दर्शन देकर कहा कि लोगों को इकट्ठा करोगे, अपने अधिकार के लिए संघर्ष करोगे तो तुम लोग पुनः स्वतंत्र हो जाओगे। 

संथाली राज्य की स्थापना

30 जून 1856 को पूर्णिमा के दिन दस हजार संथाल धनुष बाण, तलवार इत्यादि हथियार लेकर इकट्ठा हुए और अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। सिद्धू-कान्हू को वहां का राजा चुन लिया गया, अंग्रेजी राज्य को नकारते हुए संथाल राज्य (हिंदू राज्य) की स्थापना कर दिया गया। सिद्धो-कान्हू के नेतृत्व में संथाल सेना ने अंग्रेजी राज्य को उखाड़ फेंकने की शपथ ली और योजना बनाकर श्रृंखलावद्ध हमले शुरू कर दिये, गोरों की प्रत्येक बस्तियों पर संथालों ने हमला बोल दिया। उनका आह्वान था-- "अंग्रेजों के चाटुकार-जमींदार, महाजन अंग्रेज पुलिस और सरकारी अधिकारियों का नाश हो। लोगों ने यह प्रतिज्ञा ली कि जो भी हमारा विरोध करेगा उसे हम मार डालेंगे।

सन्थाल क्राँति

संथाल क्रांति की तैयारी बहुत ब्यापक थी फौज की कई टुकड़ियां बनाई गई, प्रत्येक टुकड़ी धनुष बाण, फरसा और अन्य हथियारों के साथ सुसज्जित थी जिसका नेतृत्व अलग अलग योद्धा कर रहे थे। इन टुकड़ियों ने हमले करने शुरू कर दिया एक टुकड़ी चंद्राय के नेतृत्व में निलहमोरे के निवासरत गांव फदकीपुर पहुंची हमला किया और मार डाला। दूसरी टुकड़ी साहबगंज की ओर बढ़ी वहां रहने वाले 'गोरे निलहे' को जैसे संथालों के सेना आने की जानकारी प्राप्त हुई वे सभी नाव में बैठकर गंगा पार कर गए। संथालों में इतना आक्रोश था कि उनके घरों को जला दिया, भागलपुर का कलेक्टर राजमहल में था उसने भागकर एक इंजीनियर के यहाँ शरण ली, वहां भी घमासान युद्ध हुआ। सन्थाल क्रांति दावानल बनकर अंग्रेजों का सर्वनाश करते हुए आगे बढ़ रही थी, अलग अलग टुकड़ियों में संथालों ने पाकुड़, महेशपुर कदम सैर, रघुनाथ पुर, और संग्रामपुर में युद्ध किया, इन युद्धों में क्रांतिकारियों के सैकड़ों योद्धा मारे गए।

और सिद्धो कान्हू का बलिदान

दस जुलाई 1855 को अंग्रेजों की एक बड़ी सैनिक टुकड़ी वहाँ पहुंची घमासान युद्ध हुआ। तीस हजार संथाल क्रांतिकारियों को दबाने के लिए चारों ओर से अंग्रेज सैनिकों ने प्रहार करना शुरू कर दिया। इस संघर्ष में चांद और भैरव बलिदान हुए, 20 नवंबर को अंग्रेजी सरकार ने फौजी कानून, मार्शल ला लागू कर दिया इस पर भी सन्थाल झुके नहीं। लगभग दस हजार क्रांतिकारी रणभूमि में बलिदान हो गए, 26 जुलाई 1856 को सिद्धो के साथ हज़ारों क्रांतिकारियों को पेड़ पर फाँसी दे दी गई। इस क्रांति की दमन के पश्चात यहाँ की सत्ता सीधे गवर्नर जनरल यानी अंग्रेजों के हाथ में चली गई, लेकिन संथालों के बलिदानी टीस सन्थाल परगना में सदैव जीवंत रही।

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