अमर क्रांतिवीर स्वतंत्रता सेनानी नीलांबर-पीतांबर


स्वतंत्रता की आवाज

1857 को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहना कहीं अतिसंयोक्ति तो नहीं है! क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता का युद्ध तो राजा दाहिर की पराजय से शुरू हो गया था, भारत के अधिकांश राजाओं ने अपने अपने तरीके से यह युद्ध लड़ा लेकिन जब हम चित्तौड़ की बात करते हैं तो ध्यान में आता है कि यह स्वतंत्रता संग्राम 1947 तक इस राजवंश ने लड़ाई को जारी रखा, दक्षिण में शिवाजी महाराज, बुंदेलखंड के वीर बुंदेला वीर छत्रशाल ने कभी तलवार म्यान में नहीं रखी। जिस समूह समुदाय ने अपने धर्म की रक्षा हेतु जंगलों में रहना स्वीकार किया, उन्होंने स्वामी रामानंद जी के बताए मार्ग सभी बृक्षों में, पहाड़ों में ईश्वर का वास है ये प्रकृति पूजक है आज जिस पूजा स्थल को जिसे सरना पूजा स्थल कहा जाता है, स्वतंत्र राज्य स्थापित किया उसमे चेरों राजवंश प्रमुख है। खरवारों ने जहाँ रोहतासगढ़ को राजधानी बनाया तो संथालों ने छोटा नागपुर को ऐसे हो जनजाति, पहाड़ियां लोगों ने अपने अपने तरीके से स्वतंत्रता पूर्बक राज्य करते थे। जिन्होंने लगातार मुसलमानों से संघर्ष किया और स्वतंत्रता का यह संग्राम 16वीं शताब्दी से लगातार चलता रहा हाँ यह बात सत्य हो सकता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सामुहिक था सारे राजे महाराजे, सैनिकों का अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह, देश में स्वतंत्रता के लिए एक जागरण की लहर दौड़ रही थी इसलिए हम सभी लोग इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं। वनबासी समाज में यह आजादी की लहर सोलहवीं शताब्दी से लगातार जीवंत रहा।

खरवार जनजाति

जिन जातियों ने स्वतंत्रता पूर्वक रहने धर्म की रक्षा करने हेतु संघर्ष और वन में रहना स्वीकार किया उन्होंने हमेशा स्वतंत्रता के युद्ध को जीवंत रखा। इसलिए मेरा मानना है कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहना उचित नहीं होगा बल्कि पांच सौ वर्षों से जीवंत स्वतंत्रता संग्राम को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने राष्ट्रब्यापी बनाकर योजनावद्ध सामुहिक लड़ा गया प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। जब देश भर में 1857 के महासंग्राम की चिनगारी फूट रही थी हर तरफ एक ही विचार एक ही धारा थी देश से फिरंगियों को बाहर निकाला जाय, इस स्वतंत्रता संग्राम स्वाधीनता यज्ञ में नीलाम्बर-पीताम्बर ने झारखंड में मोर्चा सम्हाला। जिसके प्रेरणा श्रोत चेरों वंश था जो स्वतंत्रता का युद्ध लड़ते लड़ते उसी मिट्टी में विलीन हो चुका था कहते हैं कि नीलाम्बर-पीताम्बर उसी मिट्टी से निकले हुए पौध थे। 21 अक्टूबर, 1857 को उन्होंने क्रांति युद्ध की शुरुआत की चैनपुर, चतरा, टोरी, पलामू क्षेत्रों में अंग्रेजों पर हमले किए।

पिता से प्रेरणा

गढ़वा से 65 किमी दूर भंडरिया प्रखंड है, इसी प्रखंड में वनांचल की गोद में बसा चेमो-सनाया गांव है, इसी गांव में एक खरवार  परिवार में माता सनिया देवी और पिता चेमो सिंह के यहां दो बच्चों का जन्म हुआ उनका नाम नीलाम्बर- पीताम्बर रखा गया। नीलाम्बर-पीताम्बर कहीं घूमने जाते तो उन्हें कुछ लोग विशेष सकल सूरत के दिखाई देते किसी से पूछने पर पता चलता कि ये परकीय हैं अंग्रेज है एक दिन अपने पिता से दोनों ने पूछा कि ये गोरे लोग कौन हैं बताया कि वे अंग्रेज हैं! यहाँ क्या करने आये हैं पिता ने बताया कि ये हमे गुलाम बना हमारे ऊपर शासन और शोषण कर रहे हैं। पलामू राज्य को समाप्त कर स्वयं राजा बन बैठे हैं। दोनों भाई इस बात को सुनकर आश्चर्य चकित हो गए आखिर बाहर से आये फिरंगी हमारे देश पर क्यों राज कर रहे हैं? बहुत सारे प्रश्न उत्तर से यह ध्यान में आया कि अंग्रेजों ने हमें पराधीन किया है इन्हें देश से निकालना होगा और दोनों भाइयों ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए युद्ध प्रशिक्षण लेने शुरू कर दिया। युवा साथियों के साथ तलवार चलाने में परंपरागत हो गए। मई 1857 में पीताम्बर किसी काम से रांची आये हुए थे उन्हें पता चला कि राँची में सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया है पीताम्बर को लगा कि इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा उन्होंने अपने बड़े भाई नीलाम्बर को बताया कि यह अवसर चुकने लायक नहीं है ।

स्वतंत्रता संग्राम में चेरों राजा के सेनापति

नीलाम्बर-पीताम्बर को अब राह मिल गई थी उन्हें विस्वास हो चला था कि अब इस देश ब्यापी युद्ध में अंग्रेजों को हम पराजित कर सकते हैं। 21 अक्टूबर 1857 को युद्ध अभियान शुरू कर दिया। चेरों राजा ने अपने सैनिकों को बुलाकर एक बैठक की ओर सैनिकों का आह्वान करते हुए कहा कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष शुरू हो गया है। इस युद्ध में हमारे राज्य का नेतृत्व नीलाम्बर-पीताम्बर करेंगे, हमें इनका साथ देना है ये हमारे सेनापति हैं, सभी सैनिकों ने नीलाम्बर के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम लड़ना स्वीकार कर लिया। नवम्बर 1857 में चतरा, टोरी से पलामू क्षेत्र में जबरदस्त संघर्ष हुआ, 27 नवंबर को भोक्ता, खरवार, चेरों के एक विशाल समूह ने राजहरा स्टेशन को घेर लिया। अंग्रेज सैनिक संकट में थे, इसीलिए अंग्रेज ग्रन्डी और मेजला चले गए।

पलामू किले में युद्ध और सदा के लिए अमर हो गए

जनवरी 1858 में पुनः पलामू किले में अंग्रेजों और नीलाम्बर-पीताम्बर के बीच संग्राम छिड़ गया, यहाँ एक तरफ नीलाम्बर-पीताम्बर की सेना तो दूसरी ओर कर्नल डाल्टन की सेना और लेफ्टिनेंट ग्रामहा की संयुक्त सेना मिलकर लड़ रही थी। दुर्भाग्य से इस युद्ध के दौरान जगतपाल खरवार अंग्रेजों से जा मिला, नीलाम्बर-पीताम्बर की रणनीति जाननी चाही। इन दोनों देशभक्तों ने जान देकर भी कुछ नहीं बताया। युद्ध में धीरे धीरे क्रांतिकारी कमजोर पड़ने लगे, नीलाम्बर-पीताम्बर को पकड़ने के लिए इनाम घोषित किया गया जागीर देने का भी प्रस्ताव रखा। अंग्रेजों ने गाँव वालों पर बहुत दबाव बनाया किसी ने मुह नहीं खोला, अपने भाई-बहनों पर अत्याचार देखकर नीलाम्बर बहुत दुःखी हो गए और उनसे मिलने पहुंचे गद्दारों ने इस गुप्त योजना को कर्नल डाल्टेन को बता दिया सूचना मिलते ही अंग्रेजी सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। अंग्रेजी सेना और नीलाम्बर-पीताम्बर के बीच युद्ध हुआ, अंग्रेजों की सेना अधिक थी और हथियारों से भी समृद्ध थी लेकिन नीलाम्बर-पीताम्बर ने युद्ध जारी रखा। अंग्रेजों ने युद्ध करते हुए नीलाम्बर-पीताम्बर रणक्षेत्र में गिरफ्तार कर लिए गए। दोनो भाइयों ने धरती माता का चरण स्पर्श किया और28 मार्च, 1858 को फांसी के फंदे को चूम कर बलिदान हो गए।

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