"हो" वीर "घासी सिंह"
जैसा कि हमनें पिछले कुछ जनजाति क्रांतिकारियों के बारे मैं लिखा है कि जनजातियां स्वभाव से स्वतंत्रता प्रेमी होते हैं उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति की सुरक्षा हेतु वनों में रहना स्वीकार किया विधर्मी होना स्वीकार नहीं किया। इसलिए ध्यान में आता है कि जनजातियों में बहुत सी जातियां हैं जिनकी संख्या तो बहुत कम है लेकिन उनमें आज भी राजा की परंपरा कायम है वे भारतीय संविधान को तो मानते हैं लेकिन अपने स्वतंत्रता में हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते। झारखंड में सिंहभूमि क्षेत्र में "हो" जनजाति का प्रभाव था उन्होंने अपना राजा मुखिया चुन रखा था भारतीय पद्धति में कोई भी राजा, महाराजा और चक्रवर्ती सम्राट भी कोई हस्तक्षेप नहीं करता था।लेकिन जब विदेशी आक्रांताओं के हमले होने शुरू हो गए कहीं न कहीं मुस्लिम आक्रांताओ ने बलात सत्ता हथियाने का प्रयास किया तो संघर्ष स्वाभाविक ही था। मुस्लिम आक्रांता मीर कासिम ने बंगाल की गद्दी पर बैठते ही मेदिनीपुर का क्षेत्र इस्टइंडिया कंपनी को दे दिया। उस समय छोटानागपुर मेदिनीपुर का हिस्सा माना जाता था, जब कंपनी ने इस क्षेत्र पर कब्जा करने की नियति अंग्रेज रेजिडेंट फर्ग्यूसन के नेतृत्व में एक फौजी टुकड़ी विजय अभियान पर निकली। सिंहभूमि की 'हो जनजाति' स्वतंत्रता की आराधक है सबसे पहले अंग्रेजों इन्हीं 'हो जनजाति' से मुकाबला पड़ गया। जिसका नेतृत्व "हो वीर घासी सिंह" ने किया, 1760 में जब अंग्रेजों ने इस पर कब्जा करना चाहा तो वीर हो वनवासियों ने पराधीनता को अस्वीकार कर दिया। यह संघर्ष वर्षों तक चलता रहा और 1813 में सिंहभूमि क्षेत्र को छोड़कर समूचे छोटा नागपुर पर कब्जा कर लिया।
राजा का आत्मसमर्पण और "हो वीरो" का युद्ध
दुर्योग से राजा ने तो आत्मसमर्पण कर दिया लेकिन अब इस्टइंडिया कंपनी को सिंहभूमि को विजित करना था, इसके लिए वहाँ राजा ने अंग्रेजों के साथ 1820 फरवरी में एक समझौता किया। राजा भले ही लालच भय बस अंग्रेजों के अधीन हो गया हो लेकिन "हो जनजाति" स्वतंत्र थी उनका अपना राज्य था अपना शासन था। अपने रीति-रिवाज, परम्परायें, मान्यताएं थीं और उसी के अनुरूप वे अपना जीवन यापन करते थे। हो जनजाति अपने स्वतंत्रता में कोई बाधा नहीं चाहती थी, मेजर रफसेस अपनी सेना लेकर चाईबासा पहुंची। हो वनवासियों ने मोर्चा सम्हाला और पानी के बांध को काट सारा पानी बहा दिया,अंग्रेज सैनिक पानी के बिना परेशान होने लगे "हो वीरों" ने मेजर रफसेस की सेना को घेर लिया। अंग्रेज सेना की सहायता के लिए आने वाले अंग्रेज फौज को घेर दोनों सेनाओं से संघर्ष हुआ हो वीरों ने धनुष बाण, तीर तलवार से युद्ध किया अंग्रेजों के पास सुसज्जित हथियार थे, वनवासियों के मरने वालों की संख्या बढ़ने लगी और वे जंगलों में चले गए। अंग्रेजी फौज ने वनबासियो के गांव के गांव जलाने शुरू कर दिया लेकिन वनवासियों ने हार नहीं मानी, वे कोटियालोर में इकट्ठा हुए और अंग्रेजों पर बाण वर्षा शुरू कर दिया लगातार संघर्ष होता रहा। 1820 अप्रैल 6 को गमदिया क्षेत्र पर हो वीरों ने हमला आक्रमण किया मेजर रफसेस जान बचाकर भागा बाबू अजेबर सिंह से सहायता ली और सिंहभूमि से भाग खड़ा हुआ।
घासी सिंह कैद किये गए
जब गेंहू की फसल कटाई का समय आया तो अंग्रेजी सेना के हमले बढ़ने लगे, हो वनवासियों ने एकत्रित होना शुरू किया। अंग्रेजों के प्रतिनिधि और बरकाकाना के सूबेदार ने "हो के अग्रगणी नायक घासी सिंह" को कैद कर लिया अब हो वीरो का गुस्सा अनियंत्रित हो गया। उन्होंने 6फरवरी1821को सिनेपुर किले पर हमला बोल दिया, सभी सड़को घाटों की नाकाबंदी कर दिया ताकि मेजर रफसेस की सेना प्रवेश ही न कर सके।
अंतिम समय तक संघर्ष
"हो वीरों" का सब्र टूटने लगा, उन्होंने अपनी टोली को इकट्ठा किया फरवरी 1830 में कोई बारह सौ क्रांतिकारियों ने जयंतगढ़ पर आक्रमण कर दिया वहाँ का कंपनी का शासक रघुनाथ भाग गया, यह वही जयंतगढ़ था जो अंग्रेजी शासन का प्रतीक, शोषक की गद्दी बन गया था। "हो वनबासियो" ने इसे समूल नष्ट कर दिया, जयंतगढ़ की पराजय से अंग्रेज तिलमिला गए थे उन्होंने जयंतगढ़ पर पुनः अपना एजेंट नियुक्त किया। अब वनवासियों ने एक बड़ी सेना एकत्र किया और रांची जिले के परगना सोनपुर में दिसंबर1831को स्वाधीनता युद्ध की शुरुआत कर दिया, यह वनवासियों का संयुक्त प्रयास था। यह आक्रमण छोटानागपुर से आगे बढ़ता हुआ अवध की सीमा तक जा पहुंचा। जिसका नेतृत्व जनजातियों में से लरका कोल नामक वनवासी ने किया इतिहास में इस विप्लव को कोल बिद्रोह के नाम से जाना जाता है। यह संघर्ष एक फरवरी 1837 तक चला, ''हो समाज'' सिंहभूमि के पुत्रों ने अपनी स्वाधीनता के निरंतर अंतिम समय तक युद्ध किया।
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