धर्म रक्षक संत सूरदास जी


सार-सार सूरा कही, तुलसी कही अनीठी।
रही सही कबीरा कही, और कही सब झूठी।।

 भारतीय सांस्कृतिक विरासत के महान संत सूरदास

भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपरा एक अनूठी परंपरा है, कभी कभी लगता है कि क्या यह संस्कृति बच पाएगी, क्या हमारा सहिष्णुतावादी समाज इन आततायियों से लड़ कर विजयी हो सकता है, कभी कभी समाज में निराशा का भाव भी आता है लेकिन यह हिंदू समाज ऐसा है कि समाप्त होते होते फिर अचानक कोई महापुरुष आता है और पूरा समाज और देश उसके साथ खड़ा दिखाई देता है। जिस समय पूरा देश अहिंसा के नाम पर कायरता कापुरुषता के आवरण से देश को ढक लिया और परकीय हमले शुरू हो गए, इतना ही नहीं हमने अपनी महान दिग्विजयी, चक्रवर्ती और अश्वमेध यज्ञ जैसी परंपरा को भुला बैठे वह इतिहास की बात कथा कहानी की बात बन कर रह गई। ऐसे समय कुमारिल भट्ट और आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने इस चुनौती स्वीकार कर दिग्विजय यात्रा शुरू किया, फिर आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य ने विशाल हिंदू साम्राज्य खड़ा कर दिया। जब पश्चिम से इस्लामिक आतंकी हमले हुए तो उसके जबाब में कोई रामानुजाचार्य, स्वामी रामानंद, बल्लभाचार्य इत्यादि संतों ने चुनौती स्वीकार किया और संत कबीर, संत रविदास, संत तुलसीदास जैसे क्रातकारी संत खड़े हुए जिन्होंने सम्पूर्ण भारतीय जीवन दर्शन पर अपनी आध्यात्मिक चेतना को जगाने का काम किया उसी समय स्वामी बल्लभाचार्य के शिष्य संत सूरदास जी सामने आ गए जिस प्रकार तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखकर भारतीय समाज में चेतना का संचार किया उसी प्रकार सूरदास जी ने भगवान श्री कृष्ण की बाल लीला, सूरसागर लिखकर हिंदू समाज को झकझोर दिया। इस प्रकार भारतीय संतों ने इस्लामीकरण की चुनौती को स्वीकार किया।

सूरदास का जन्म

सूरदास जी का काल मुगल आक्रांताओं का काल था तुलसीदास, कुम्भनदास का समय था जहाँ हमारे राजा, महाराजा मुस्लिम आक्रांताओ से संघर्ष कर रहे थे वहीं संतो ने सारे समाज में जागरण पैदा कर इन्हें मलेक्ष घोषित कर दिया। कोई भी हिंदू किसी भी जाति का होगा मुसलमानों का छुवा हुआ पानी नहीं पी सकता भोजन की बात तो बहुत दूर था। ऐसे समय में सूरदास जी का जन्म मथुरा और दिल्ली के बीच "सीही" नामक गाँव में पंद्रहवीं शताब्दी के अंत में (सन1485- वैशाख शुक्ल पंचमी संवत 1535) और स्वर्गवास सोलहवीं शताब्दी के अंत में हुआ था। वे जन्मांध थे उनके पिता उदासीन रहने लगे, घर वाले भी प्रायः उनकी उपेक्षा किया करते थे। धीरे-धीरे बालक सूर के मन में स्वाभाविक रूप से घर के प्रति वैराग्य उत्पन्न होने लगा उन्होंने घर के बाहर एकांत स्थान पर रहने का निर्णय किया। गांव के थोड़ी दूर पर एक सरोवर के किनारे पीपल के पेड़ के नीचे छः वर्ष की आयु में रहने लगे, भगवान की ऐसी कृपा की जो वे कहते सभी सत्य हो जाता, दूर दूर तक उनका यश फैलने लगा दिन भर कुटी के सामने भीड़ लगी रहती थी। एक दिन एक जमींदार जिसकी गाय खो गई थी आया स्वामीसूर ने गाय का पता बता दिया, वह उनके चमत्कार से बहुत प्रभावित हुआ, उनके लिए एक सुंदर सी कुटिया बनवा दिया। उनकी मान-प्रतिष्ठा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी, अब वे सूरदास स्वामी के नाम से जाना जाने लगे। लेकिन वे तो भगवत भक्ति के लिए घर से निकले थे ऐसा विचार कर मथुरा के लिए प्रस्थान कर दिया। थोड़े ही दिन में वे एक सिद्ध महात्मा के नाते विख्यात हो गए, अब वे अट्ठारह वर्ष के हो गए हैं। उनकी भगवत रचना विजयनगर साम्राज्य के श्रीमदाचार्य वल्लभ के कनकाभिषेक की घटना चारों ओर प्रसिद्ध हो गई थी। सूरदास जी महाप्रभु से मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे, महाप्रभु अरैल से ब्रज आ रहे थे। गऊघाट पर उन्होंने अस्थायी निवास बनाया, वल्लभ स्वामी सूरदास जी से मिलने के इक्षुक हो गए और सूर की कुटिया में पधारे।

सूरदास जी के जन्म के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं मिलता है उन्होंने स्वयं अपने बारे में लिखा है--- 

            "गुरु परसाद होत यह दरसन, सरसठ वरस प्रवीन।

             शिव विधान तप कियो बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन।।"

कुछ लोग "सुरसारावली" के आधार पर सूरदास जी की आयु सरसठ वर्ष बताते हैं। वे बल्लभाचार्य के "पुष्टि-मार्ग" के अनुयायी थे, वैसे वल्लभाचार्य द्वारा भक्त कबि परमानंददास, कुम्भनदास, कृष्णदास, चतुर्भुज दास, नंद दास और सूरदास जी, गोविन्दस्वामी तथा छीतस्वामी इन सभी आठ कृष्ण भक्त कवियों में सूरदास सर्वश्रेष्ठ हैं। 

आचार्य महाप्रभु से भेंट

1510 में यहीं उन्हें वल्लभाचार्य का दर्शन लाभ हुआ। आचार्य इनसे कुछ पद सुनकर बहुत प्रभावित हुए, किंतु उन्हें दैन्य रचनाये अच्छी नहीं लगी। उन्होंने आदेश दिया-- "सूर हैं कैई ऐसो को घिघियात है यानी तू वीर है ऐसा क्यों घिघियाता है, कुछ भगवत लीला वर्णन करि।" और फिर उन्होंने सूर को दीक्षा दिया और कृष्ण लीला से अवगत कराया। दीक्षा के पश्चात वल्लभाचार्य उनको अपने साथ गोकुल लेकर चले गए और वहां उन्हें नवनीत-प्रिय के दर्शन कराये। यहां सूर ने "सोभत कर नवनीत लिये" पद गाये। यहीं पर वल्लभाचार्य ने भागवत कथा की सारी लीला सूर के हृदय में स्थापित कर दिया।गुरू द्वारा अपेक्षित शक्ति सूरदास जी के अणु अणु में उजाला कर रही थी, "अंतर्तम सूर जाग उठा" सूर ने स्वयं को स्वयं के भीतर देखा। कुछ दिन यहाँ रहने के पश्चात सूर को ब्रज लेकर चले गए, आचार्य जी ने इन पर प्रसन्न हो कर श्रीनाथ जी मंदिर का कीर्तन करने का भार सौंप दिया। यहीं पर कीर्तन करते हुए सैकडों पद्दो की रचना की, अब इनकी प्रसिद्धि सर्वत्र फैल गई। तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने मिलने की इक्षा प्रकट किया। वल्लभाचार्य के निधन के बाद पुष्टि सम्प्रदाय का आचार्यत्व गोस्वामी बिट्ठलनाथ ने ग्रहण किया। और 1602 संवत में अष्टछाप कवियों की स्थापना की, इन आठों में सूरदास जी का स्थान सर्वोच्च था।

मथुरा से अयोध्या के रास्ते में मलेक्ष

अंधा सूरज मथुरा से अयोध्या के रास्ते जा रहे थे बड़ी धूप थी एक पेड़ के नीचे कुछ चना चबैना खा कर विश्राम किया वे आगे का रास्ता भूल गए और एक मुसलमानों के गांव में जा पहुँचे उनका स्वभाव था वे कृष्ण भक्ति में लीन रहते थे, कुछ भजन गाये जा रहे थे तभी काफिर आया की आवाज आयी और हमला हो गया। सूरस्वामी को बहुत मारा वे तो अंधे थे गांव के लोग महिला पुरूष सभी प्रसन्न थे कि काफिर की पिटाई हो रही है। उस गांव में मौलाना का बड़ा बोल बाला था जो वह कहता गांव भर वही मानता था। एक मुस्लिम तेली नूर खां का बैल मर गया था उसने सूरस्वामी को तेल निकालने वाला बैल के स्थान पर बैल बना दिया लेकिन सूरस्वामी अहं ब्रम्हास्मि के अनुयायी थे कभी विचार करते कि मैं बैल हूँ वे कोल्हू में नाचते सोच रहे थे-- 'सर्वखल्वमिदं' ब्रम्हा।'! उनकी बड़ी पिटाई करता वे कृष्ण भक्ति में लीन रहते रहते वे गा उठे "रे मन गोविंद के है रहिये।" और भजन गाते रहते जितना ही भजन गाते उतना ही मुसलमान उन्हें मारते, अनेक बेपर्दा औरतें धर्म की दृष्टि से इसे अच्छा मानती कुफ़्र की यही सजा है। अब आस पास के गाओ में यह बात हवा के समान फैल गयी कि किसी साधू को इस गॉव के मुसलमानों ने कोल्हू का बैल बनाया है और उसकी पिटाई करते हैं। दुःख सुख जो भी हिस्से में आये उसे ग्रहण कर ऐसा सोचते! सूरस्वामी को एक पखवारा बीत चुका था तभी अयोध्या के एक उजागरमल सेठ अपने पसाच सवारों और हाली महालियो के हुजूम के साथ काशी से लौट रहे थे। सुना तो उल्टे रास्ते लौट पड़े और चार बैलों के दाम चुका कर सूरस्वामी को मुक्त कराया। 

तन से बुरी तरह टूटे हुए मन में द्विविध बिरह तप्त एक चक्कर में निरंतर चलते चलते पैर ऐसे बंध गए थे कि सीधे चलते ही नहीं बनता था। सेठ उजागर मल उन्हें घोड़े पर बैठाकर अगले गांव तक लाये और वहाँ से डोली में बैठाकर भगवान श्री राम की जन्मभूमि की ओर चल पड़े।

मलेक्षों का अत्याचार

पिछले आठ नौ वर्षो से चले आ रहे प्रलय काल में जिन सुहागिनों की ससुरालें मथुरा के आस पास के गांवों में और कस्बों में है वे तीज के दिन अपने मायके नहीं जाकर शहर के भीतर आस पास के मुहल्लों के लगे गाओ जिनके ससुराल है उनके दिलों में तीज का उल्लास यानी पत्थर पर घास उगाना जैसे ही था। मृत्यु की भयानकता भी जीवन के सांस्कारिक उत्सव को जड़ नहीं बना सकता था। हाथों में मेहदियाँ रची कजरी मल्हार गाये जाने लगे---! मल्हार पर घमासान मच गया खुंनामल के घर में घुसकर उनके कर्जदार पठान ने खूनी तीज मना डाला, न इज्ज़त बची न लक्ष्मी। कुछ वर्षपहले ही सिकंदर सुल्तान ने गद्दी पर बैठते ही महावन से मथुरा आकर ये मार काट मचा दिया। जो मुसलमान जबरन मुसलमान बनाये गए थे वे सर्वाधिक उग्र थे, मथुरा के सैकड़ों घरों में लाशें पड़ी हैं, अनेक मुहल्ले धू-धू जल रहे हैं। काजियों मुल्लों की जय-जय कार बोलकर दीन की हिचकियाँ ले-ले कर मुसलमान गुंडे हिंदू बस्तीयों को लूट रहे हैं। "काफिर का काबा" मथुरा और मथुरावासियों को बड़ी ओछी दृष्टि से देखा जा रहा था। अंधा सूरज मुख उठाकर बोला-- "मैं क्या बताऊँ यह सब इन्हीं गुरू महराज की ही कृपा है, दो घड़ी रात तक सब ठीक हो जाएगा।" हाँ ठीक हो जाएगा पर मेरे लिए रात्रि में मथुरा ठहरने की समस्या होगी, बस्ती में प्रवेश करना कठिन होगा! कोई नहीं रहता गुरू जी --? "बहुत से घाटों पर गऊ माता के सिर कटे हुए हैं, भय उत्पन्न कर दिया गया है यहाँ आने पर चोटी कट जायेगा दाढ़ी कट जायेगा घाट बंद कर दिया है, स्नान-पूजा, यज्ञ-कीर्तन सब कुछ लोप हो गया है, हे प्रभु।" एक गहरी सांस लेकर सूरदास चुप हो गए। सभी घाटों पर स्नान की मनाही है गुरु जी सूरज ने बताया, लेकिन श्री वल्लभ भट्ट ने सभी को निस्तेज कर वहीं बैठकर भागवत कथा कहा। अब "सूरज" उस विलक्षण महापुरुष के बारे में बिचार करने लगे! और अपने महापुरूषों के बारे में। "महाराणा प्रताप" के स्वतंत्रता संघर्ष के बारे में। विलुप्त होते उत्थान होते हिंदू धर्म के बारे में। अब तो हिंदू समाज को जगाना ही होगा तुलसीदास को, मीरा बाई को, कुम्भनदास को आगे आना ही होगा! तभी तो महाराणा प्रताप जो सम्पूर्ण भारत वर्ष के राजा हैं विजयश्री प्राप्त करेंगे और उनका साहस बढ़ेगा।

हिंदू धर्म रक्षा हेतु भागवत कथा प्रारंभ

कथा आरम्भ होती "हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो" से। फिर भागवत पुराण सुनने की परंपरा का बखान किया करते! वेदब्यास जी के जन्म की कथा विस्तार से गायी। महाभारत के विभिन्न प्रकरण सुनाए, राजा परीक्षित के शाप की कथा सुनाई। मृत्यु से पहले उन्होंने भागवत पुराण सुनने की कामना किया और फिर कथाओं का क्रम चल पड़ा। जहाँ कोई भक्ति प्रसंग आ जाये वहां कथा रुक जाती और "हरि हरि हरि हरि सुमरिन करो" का सामुहिक कीर्तन होने लगता। सूरस्वामी सबको हरि का मौन ध्यान कराते और फिर कथा आगे बढ़ाते, बीच बीच में पद भी सुनाते चलते। गोकुलाष्टमी के दिन अहिर-गुजर नर-नारियों ने दिन ढले डंडा रास रचाया। दाऊ बाबा गदगद थे सूरस्वामी आनंदमग्न। अब धीरे धीरे हिंदू समाज की सुरक्षा हेतु भक्ति मार्ग में भागवत कथा का प्रचलन सूरदास जी ने शुरू किया और हिंदू जन-मानस में ब्याप्त हो गया समाज में भागवत ने आत्म चेतना, आत्म सम्मान जगाना शुरू कर दिया वास्तव में भारतीय राष्ट्र की आत्मा भारतीय धर्म में बसती है इसलिए सूरस्वामी ने भागवत कथा को धर्म रक्षा का हथियार बनाया।

हिंदू धर्म हेतु संतो का सीधा संघर्ष

बारह वनों और चौबीस उपवनों वाली ब्रजभूमि जहाँ पहुँच कर मनुष्य अपने राग, अनुराग, काम, क्रोध, मद, लोभ, भय, ईर्षा, द्वेष इत्यादि सभी भली बुरी बृत्तियां श्रीकृष्णर्पित करके उनकी अविराम लीलाओं में रम जाता है। भारत के चारों दिशाओं से जाने कौन-कौन बड़े-बड़े महात्मा सिद्ध संत पुरूष यहाँ पधार कर अपना जन्म सार्थक कर चुके हैं। अब उसी ब्रज भूमि में अपने भक्त समुदाय के साथ मेवाड़ की "महारानी मीरा" जिसको "कृष्ण कोकिला" कहा जाता है वह मीराबाई पधार रही हैं। मीरा झूम गई अनुमान से पहचान लिया ये सूरदास जी हैं। उनकी ओर हाथ बढ़ाकर खिले मुख से एक पंक्ति गायीं, "या कुब्जा ने जादू डाला री जिन मोहरों श्याम हमारा।" खिलखिलाकर हँस पड़ी फिर पास आकर माथा टेककर प्रणाम किया, बोली "मेरे मन मोहन को अपनी आंखों में छिपाये सौत बनी मेरी कुब्जा जीजी यहाँ बैठी है।"

मीरा तो क्षत्राणी है वह भी महाराणा की महारानी है मुगल भी घबड़ाते हैं, मीराबाई के साथ सेना की एक टुकड़ी चलती थी। मीरा मुगलों को चुनौती देते चलती है हिन्दुओं का मनोबल बढ़ाते चलती है। अब तुलसीदास, कुम्भनदास सब इकट्ठा होने लगे अकबर घबड़ाया बारी-बारी सभी संतों को बुलाने की चेष्टा करता लोभ लालच का शिकार बनाने का प्रयत्न, लेकिन वह मीराबाई को नहीं बुला सकता था! पूरब से पश्चिम सारे धर्म रक्षक संत खड़े होकर हिंदू समाज को जागृत करने में लगे हैं। कहीं शंकरदेव हैं तो कहीं चैतन्य महाप्रभु हैं सभी भक्ति के साथ शक्ति के उपासक हैं।

 सूरस्वामी का साहस देखने योग्य है--- ये सब लोग यमुना स्नान करने जाते हैं सूरस्वामी स्नान करने के बाद बाहर निकलते हुए कहते हैं "अरे देख त कोई मलेक्ष तो नहीं है, नहीं तो छू जाय!" 

अकबर ने संत तुलसीदास जी को मनसबदारी देने के लिए बुलाया तुलसीदास जी ने उसे उत्तर लिख भेजा- "हम चाकर रघुवीर के पट्टो लिखो दरबार, अब तुलसी का होइहैं नर को मनसबदार।" 

अकबर सभी संतो को लोभ लालच देकर अपने पक्ष में करना चाहता था इस कारण वह इन क्रान्तिकारी हिंदुत्व निष्ठ संतों को अपने दरबार में बुलाता था इसीक्रम में उसने "संत कुम्भनदास" को भी अपने दरबार में बुलाया, कुम्भनदास से कुछ सुनाने के लिए कहा, कुम्भनदास ने कहा.!

"संतन को सीकरी सो काम, 

आवत जात पनहिया टूटत विसरि जात हरि नाम।

संतन को सीकरी सो काम.!" 

और आगे कड़े शब्दों में-- 

"जाको मुख देखत अघि लागत, ताको करन पड़ी परनाम। संतन को सीकरी सो काम।।" कुम्भनदास क्षत्रिय समाज से आते थे स्वाभाविक निडर भी थे।

एक दिन सूरदास जी से मिलने के लिए संत तुलसीदास जी बृंदावन उनकी कुटिया पर पधारते हैं जब वे पहुंचते हैं.. तो.! 

गौर वर्ण के एक साधू जटा दाढ़ी युक्त एक तेजस्वी संत हाथ में कमंडल लिए हुए कुटी में पधारे हैं -- सीताराम !! गोपाल ने बताया की कोई संत आया है तब-तक तुलसीदास जी ने साष्टांग प्रणाम किया। सुरस्वामी आनंद से गा उठे -- "ठुमुक चलत रामचंद्र वाजत पैजनिया " तुलसीदास जी गदगद हो उठे ।

अकबर के दरबार में तानसेन ने सूरदास का एक पद सुनाया अकबर बहुत प्रभावित हुआ उसने सूरदास जी से मिलने की इच्छा किया, अकबर ने तानसेन, राजा टोडरमल के साथ संवत 1623 वि. को मथुरा की यात्रा की । जहां उसका दरबार लगा था वहीं राजा टोडरमल तानसेन द्वारा सूरदास जी को बुलवाया गया, "राजा टोडरमल" ससम्मान सूरदास जी को अकबर के दरबार में लेकर गए। अकबर ने सुरस्वामी से कहा बहुत प्रसिद्धि सुनी है आपकी! आप हमे कुछ सुनाइए तो सूरदास जी ने एक भजन सुनाया। लेकिन अकबर अपनी यश प्रसंशा में गीत सुनना चाहता था सूरस्वामी ने भगवान श्री कृष्ण के भजन गाये, अकबर बहुत प्रसन्न हुआ और बोला सूरदास जी जो चाहिए बोलो, सूरदास ने कहा कि "बस अब हमें दुबारा नहीं बुलाईयेगा।" ऐसे थे दुस्साहसी संत सूरदास जी।

इस प्रकार जहाँ तुलसीदास जी ने रामचरित मानस लिखकर रामलीला के माध्यम से हिन्दू समाज को जागृत कर धर्म की रक्षा की ठीक उसी प्रकार सूरदास जी ने भागवत कथा प्रारम्भ कर कथा की परंपरा डाल हिंदू समाज हिंदू धर्म की सुरक्षा का उपाय किया, आज जो भागवत पुराण व कथा हम सुनते हैं उसकी परंपरा सूरदास जी ने किया। वास्तव में भारतीय राष्ट्र की आत्मा हिंदू सनातन धर्म ही है उसी के जागरण से राष्ट्र जागरण हो सकता है और वही भारत के महान संत सूरदास जी ने किया। पूरा देश मेवाड़ को ही अपना शासक मानता था मेवाड़ राज्य की स्थापना कलभोज ने किया था किसके पास इकतीस लाख की सेना थी और अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक जिसका शासन था अरब के मुस्लिम इतिहासकार लिखते हैं कि मुस्लिम सेना को किसी न टिकने नहीं दिया परेशान किया तो उसका नाम कालभोज है जिसे हम बाप्पा रावल के नाम से जानते हैं। एक तरफ़ राणा प्रताप मुस्लिम आक्रांताओं से लड़ रहे थे तो दूसरी ओर संतो ने समाज को खड़ा करने का काम कर रहे थे।

अंतिम प्रयाण 

प्रयाण का समय आ चुका है गोपाल--! मेरे कंठ में भगवान का चरणामृत डाल, तुलसी चरणामृत कंठ में पड़ते ही बाबा सीधे होकर बैठ गए। सबको हाथ जोड़े मुख से अंतिम शब्द निकले, "श्री कृष्ण शरणम मम" प्राण कोकिला ब्रम्हाधरा फोड़कर निकल गयी, काया  का पिंजड़ा सूना हो गया। शाम से ही ग्रामवासियों की भीड़ परसौली आने लगी दुसरे दिन तो लगता था की मानो "पूरा ब्रज" ही उमड़ पड़ा है। महिला और पुरुषो की टोलियां सूरदास की रचनाये गा रही थीं। चन्दन चिता की लपट ऊँची उठ रही थीं मानो आज ही सूरदास ज्वाला की मीनारों पर चढ़कर पहली बार अपना ब्रजधाम देख रहे हों !    


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