चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य


 सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ?

सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य भारतीय साम्राज्य का प्रथम संस्थापक था, वह मौरिय गणराज्य का राजकुमार था। बौद्ध साहित्य में इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण स्थान महावंश का है उसमें लिखा है कि ब्राह्मण चाणक्य ने नवे धनानंद वंश का अंत करके चंद्रगुप्त को समस्त "जम्मूद्वीप" का सम्राट बनाया। यह चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय वर्ण (सूर्यवंशी क्षत्रिय ) था 'महावंश' में मौर्यों को "पिपलिवन" (मौरिय गणराज्य) का शासक बताया गया है। उसमें लिखा है पिपलिवन के मौर्यों ने मल्लों के पास महात्मा बुद्ध के अवशेष मांगने के लिए एक दूत भेजा और कहलाया कि "महात्मा बुद्ध क्षत्रिय थे और हम भी क्षत्रिय हैं।" अन्य बौद्ध ग्रंथों में भी मौर्यों को क्षत्रिय बताया गया है, संभवतः यह राजवंश शाक्य पुत्रों द्वारा निर्मित 'मौरिय नगर' का था, "दिव्यदान" में बिम्बिसार और अशोक को स्पष्ट रूप से क्षत्री ही कहा गया है।

प्रारंभिक जीवन

चंद्रगुप्त मौर्य एकछत्र भारतीय साम्राज्य का सर्व प्रथम संस्थापक था, चंद्रगुप्त का जन्म ई. पू. 345 में मोरिय अथवा मौर्यवंश के क्षत्री कुल में मौरिय गणराज्य (पिप्लावन) हुआ था। मोरिय शाक्यों की एक शाखा थी और पिपलिवन में राज्य करते थे। चंद्रगुप्त के माता पिता का नाम ठीक से ज्ञात नहीं है, महावंश की एक टीका से यह अवस्य पता चलता है कि उसका पिता मौरिय राज्य का प्रमुख था। जो एक शक्तिशाली राजा द्वारा मारा गया। यह शक्तिशाली राजा नंद राजा ही हो सकता है और उसकी मां असहाय रूप से पाटलिपुत्र में निवास करने लगी संभवतः चंद्रगुप्त का जन्म यहीं पाटलिपुत्र में हुआ हो। उसका बचपन शिकारियों और चरवाहों के बीच में ब्यतीत हुआ। वह बचपन से ही प्रतिभाशाली था और इस समय मौर्यों की हालात अच्छी नहीं थीं। चंद्रगुप्त की मां महारानी मधुरा (मुरा) अपनी पहचान छिपाए पाटलिपुत्र में जीवन यापन करने को मजबूर थी।

चंद्रगुप्त मौर्य में चाणक्य का प्रवेश

भारत के पश्चिमी सीमा पर दुश्मन दस्तक दे रहा था यह बात तक्षशिला गुरुकुल के "आचार्य चाणक्य" को पता था वे लगातार सीमा क्षेत्र के राजाओं, सामंतों और गुरुकुलों को जागृत करने का काम कर रहे थे। इसी क्रम में आचार्य चाणक्य तक्षशिला से पाटलिपुत्र भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली राजा महानंद पद्म से मिलने पाटलिपुत्र पहुँचे राजा से मिलने के क्रम में ही आचार्य चाणक्य को राजा ने अपमानित किया और गिरफ्तार करने का आदेश भी दिया लेकिन आचार्य चाणक्य वहाँ से निकल गए। वे पाटलिपुत्र की धरती पर घूम ही रहे थे कि एक बालक से भेंट हो गई जो खेल रहा था लेकिन निर्णय राजा के समान कर रहा था तभी चाणक्य ने कहा मैं गरीब ब्राह्मण दान चाहता हूं उसने आदेश दिया कि इतने गांव इस ब्राह्मण को दे दिया जाय आचार्य बिना उससे प्रभावित हुए नहीं रह सके और उसका पता पूछा फिर उसके माँ से मिलने गए और चंद्रगुप्त मौर्य को अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तक्षशिला लेकर चले गए। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चाणक्य ने उसके मामा को धन देकर उसे खरीदा था कुछ भी हो अब चंद्रगुप्त आचार्य चाणक्य का शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य बनकर शिक्षा ग्रहण के साथ पश्चिमी सीमा पर आचार्यश्री का साथ भी दे रहा था।


क्षत्रिय कुमार

तो गुरुदेव मुझे योगिन्द्रों के जंगल में बुला रहे हैं या तो मैं वहाँ जाऊं या अलक्षेन्द्र का सामना करूँ। तीसरा कोई रास्ता मेरे पास नहीं है। चंद्रगुप्त मौर्य आचार्य चाणक्य के पास आया गुरु यानी आचार्य चाणक्य ने स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा उसकी आँखों में आँख डाला कहा:- "देख पुत्र मैं अपनी बात तुमसे कह देता हूँ वह ध्यान से सुन! बाद में तू चाहेगा तो मैं तुम्हें जाने की आज्ञा दे दूंगा। यह जो कुछ तू कहता है वह मुझे अत्यंत प्रिय लगता है, यह कोई और नहीं बोल रहा है केवल तेरा सत्व बोल रहा है। मैं तेरे उस सत्व को कुछ कहना चाहता हूँ, देख, पता है कि तुझे तू कौन है-?" मैं? मैं कौन हूँ ? मैं क्षत्रिय हूँ! निंदक भले ही हमें कुछ भी कहें, तो भी मैं क्षत्रिय तो अवश्य हूँ, मैं सूर्यवंशी क्षत्रिय हूँ आचार्य!" 
"तू केवल क्षत्रिय ही नहीं है चंद्रगुप्त! तू राजकुमार भी है। तू मौरिय गणराज्य का राजकुमार है। तुझ पर तो बहुत भारी पितृ-ऋण है, वह ऋण तुझे उतारना है सर्वप्रथम! तू राजपुत्र है तेरा राज्य मगध साम्राज्य के हाथों नष्ट हुआ है, तेरा पिता मगध के हाथों मारा गया है। तेरे ऊपर यह ऋण है यह तुझे उतारना है--- तू तू इसे उतरता है कि यहाँ रहता है--यह तू स्पष्ट बता, फिर मैं तुझे जाने की आज्ञा देता हूँ और अपना मृगचर्म उठाकर अपनी राह पकड़ू।"

मगध पर आक्रमण और प्रेरणा

एक समय ऐस आया कि चाणक्य और चंद्रगुप्त ने सेना इकट्ठा करते हुए मगध पर आक्रमण कर दिया परंतु बुरी तरह पराजय का मुख देखना पड़ा। वास्तविकता यह थी कि मगध साम्राज्य ताकतवर था उसके सामने इनकी ताकत कुछ भी नहीं थी। चाणक्य और चंद्रगुप्त का मगध पर आक्रमण बहुत बड़ी भूल थी लेकिन वे निराश नहीं हुए और पुनः इधर उधर भटकने लगे। एक दिन एक गांव में एक बुढ़िया के यहां चंद्रगुप्त रुका हुआ था, गृह स्वामिनी बुढिया ने एक बच्चे को खाने के लिए एक रोटी दी, आतुरता वश बच्चे ने रोटी को बीच से ही खाना शुरू कर दिया उसका मुख जल गया। माँ ने लड़के से कहा कि तुम्हारा कार्य चंद्रगुप्त के ही समान है, बच्चे ने पूछा "माँ मैं क्या कर रहा हूँ और चंद्रगुप्त ने क्या किया था ?" माँ ने उत्तर दिया, "मेरे पुत्र तुम चारो ओर का भाग छोड़कर बीच का भाग खा रहे हो। चंद्रगुप्त सम्राट बनने की अपेक्षा रखता है, उसने सीमा प्रांतो को अधीन किये बिना ही राज्य के मध्य नगरों पर आक्रमण किया, इसी कारण जनता उसके खिलाफ खड़ी हो गई और सीमा प्रान्त से हमला कर उसकी सेना को नष्ट कर दिया। ऐसा करना मुर्खता थी, यह सब चंद्रगुप्त सुन रहा था उससे उसे अत्यधिक प्रेरणा मिली, उसे अपने राजनीतिक भूल का पता चल गया। फलस्वरूप चंद्रगुप्त और चाणक्य ने साम्राज्य के सीमा प्रदेशों पर आक्रमण करने की योजना बनाने शुरू कर दिया।

सिकंदर और उत्तरापथ

बहुत से इतिहासकारों का मत है कि सिकंदर भारत में विजेता बनने के बाद वापस जा रहा था लेकिन यह बात पचती नहीं है क्योंकि जनता जीती हुई सेना पर हमले नहीं करती और जीता हुआ राजा सिकंदर के समान नहीं जाता, सिकंदर विजेता था यह केवल पश्चिम के इतिहासकार लिखते हैं और बामपंथी उनके सुर में सुर मिलाते हैं। वास्तविकता यह थी कि सिकंदर पराजित योद्धा था सिंध की उपत्यकाओं में वह जूझ रहा था और चंद्रगुप्त विद्रोह की चिनगारी सुलगा रहा था। सिकंदर के यूनान की ओर मुख मोड़ते ही सीमा प्रान्त की देशभक्त जनता ने यूनान के क्षत्रप फिलिप की हत्या कर दिया। 323 ई.पू. बेबीलोन में सिकंदर की अकाल मृत्यु हो गई। चंद्रगुप्त ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और यूनानियों के रहे सहे भग्नावशेष को समाप्त करके उत्तरापथ पर अधिकार कर लिया।

विशाल सैन्य संगठन और मगध पर आक्रमण

चंद्रगुप्त और चाणक्य का उद्देश्य केवल उत्तरापथ पर अधिकार करना ही नहीं था बल्कि उनकी दृष्टि तो आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के सांस्कृतिक भारत को राजनैतिक भारत का स्वरूप देना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए चाणक्य ने पर्वतीय प्रांतो के राजा पर्वतक से राजनैतिक संधि की, इस प्रकार चंद्रगुप्त के पास एक विशाल सेना हो गई। जिसमें पंजाब, गंधार, कम्बोज, किरात, मृतक, पारसिक, शक,यवन आदि सैनिक सम्लित थे। विशाल सेना के साथ चंद्रगुप्त मगध की ओर प्रस्थान किया, विशाखदत्त के "मुद्राराक्षस" में धनानंद और चंद्रगुप्त के युद्ध का वर्णन है। पौराणिक, जैन, बौद्ध साहित्यिक ग्रंथों में उनके संघर्ष का उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त ने पर्वतक के साथ मगध साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा पर आक्रमण किया, बौद्ध ग्रंथों के अनुसार नंद की विशाल सेना का सेनापति भट्टशाल था। दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य विजयी हुआ धनानंद की सपरिवार हत्या कर दी गई इस प्रकार नंदवंश हमेशा के लिए समाप्त हो गया।

राज्यारोहण

धननंद के समाप्त होने के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य का राज्याभिषेक ई.पू.323 और ई.पू.321 के मध्य किया गया और आचार्य चाणक्य उनके मंत्री बनाये गए। मुद्राराक्षस में लिखा है कि चाणक्य ने राजा पर्वतक की हत्या करवा दिया। पर्वतक के पुत्र मलयकेतु ने राक्षस के साथ मिलकर विद्रोह किया तो बड़ी ही योजना से मलयकेतु का षड्यंत्र समाप्त कर चंद्रगुप्त मौर्य का रास्ता साफ कर चंद्रगुप्त मौर्य का मार्ग निष्कंटक कर दिया गया। ऐसा लगता है कि यह सब षड्यंत्र पर्वतक ने किया होगा इसीलिए साम्राज्य के महामंत्री चाणक्य ने पर्वतक की हत्या करवा दिया।

सेल्युकस का आक्रमण

सिकंदर के मृत्यु के पश्चात सिकंदर के सेनापतियों में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया महत्वाकांक्षायें टकरायीं और अंत में सेल्युकस विजयी हुआ। सिकंदर के ऐशियाई प्रदेशों पर सेल्युकस का कब्जा हो गया ई.पू. 306 में सेल्यूकस का राज्याभिषेक हुआ। सेल्यूकस अत्यंत वीर योद्धा और महत्वाकांक्षी था, वह भी भारत विजय का स्वप्न देख रहा था उसे लगता था कि सिकंदर यदि हारकर वापस आ गया तो मै सकता बदला लूँगा लेकिन उसे यह नहीं पता था कि भारत पहले से कहीं अधिक संगठित और ताकतवर हो कर उसका सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य हो गया है जो स्वयं एक योग्य सेनापति है। सेल्यूकस ने काबुल की ओर से सिन्ध पार करते ही उसका सामना चंद्रगुप्त मौर्य से हुआ। बिकट युद्ध हुआ सेल्युकस की सेना परजित हुई उसे संधि करनी पड़ी, इस संधि में सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त मौर्य से करना पड़ा और उपहार में गांधार, काबुल, हेरात ओर बलूचिस्तान के कुछ भाग चंद्रगुप्त मौर्य को उपहार में देने पड़े। बदले में चंद्रगुप्त मौर्य ने पांच सौ हाथी सेल्यूकस को दिए। सेल्यूकस ने अपने एक दूत मेगस्थनीज को चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार पाटलिपुत्र में भेजा।

विजय ही विजय

चंद्रगुप्त साम्राट बनने के बाद भी एक क्षण विश्राम नहीं किया उसने छः लाख सेना लेकर सम्पूर्ण भारत वर्ष जिसकी कल्पना आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने किया था जिसे हम सांस्कृतिक भारतीय राष्ट्र कह सकते हैं, सारे देश को एक करने का काम किया जहां युद्ध करने की आवश्यकता पड़ी युद्ध हुआ, उत्तर, दक्षिण पूर्व और पश्चिम सभी दिशाओं को एक क्षत्र के नीचे लाकर खड़ा कर दिया। चंद्रगुप्त ने विभिन्न विजयों के द्वारा अपने साम्राज्य की सीमा को बढ़ाया था, "उत्तर पूर्व में हिंदुकुश से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक चंद्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य विस्तृत था, कश्मीर, कलिंग और सुदूर दक्षिण के कुछ भाग इसमें सम्लित नहीं थे। कुछ प्रांतो में आंतरिक स्वतंत्रता प्रदान की गई थी जैसे लिच्छवी, वज्जि, मल्ल, भद्र आदि इसी प्रकार यवन, कम्बोज को भी कुछ स्वतंत्रता प्रदान की गई थी सौराष्ट्र तथा विंध्य मेखला पार्श्ववर्ती वन्य क्षेत्र पर्वतीय भूभागों में भी आंतरिक स्वतंत्रता थी।"

चरित्रवान सम्राट

चंद्रगुप्त का ब्यक्तिगत जीवन अत्यंत उत्तम था, उसकी आकृति आकर्षक थी उसमें दूसरे को प्रभावित करने की जबरदस्त छमता थी। बचपन में ही चाणक्य उसके ब्यक्तित्व से ही प्रभावित हुआ था, वे अन्यन्त निर्भीक और साहसी था। उसकी निर्भीकता से ही सिकंदर नाराज हुआ था, चंद्रगुप्त अत्यंत सौंदर्य और प्रकृति प्रेमी था, उसके राजभवन के चारो तरफ भब्य उपवन और सरोवर बने हुए थे, वह अत्यंत जिज्ञासु और धर्म परायण था। तथा सत्य का आलिंगन करने को हमेशा तत्पर रहता था, साहित्य में उसे विशेष अभिरुचि थी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र और जैन कल्प-सूत्र की रचना इन्ही के समय हुई थी।

विजेता चंद्रगुप्त

चंद्रगुप्त एक महान विजेता था उसने अपने बल से साम्राज्य की स्थापना की। उत्तर पश्चिम के भूभाग पर सफलतापूर्वक शासन की समस्याएं थी, विदेशी शासन के चंगुल से मुक्त करना, भारत को राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधना और एक राष्ट्र का निर्माण करना। चंद्रगुप्त ने यह दोनों कार्य बड़ी सुविधा पूर्वक सम्पन्न किया। उसने यूनानियों को भारत से बाहर खदेड़ दिया और अपनी दिग्विजय द्वारा समस्त भारत को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास किया। अट्ठारह वर्ष का लंबा समय लगाकर उसने मकदूनिया के सिपाहियों को भारत की सीमाओं से बाहर खदेड़ दिया सेल्युकस की शक्ति को क्षीण कर दिया और वह निर्विवाद सम्राट बना। एरियाना प्रदेश के बहुत बड़े भाग पर भी उसका अधिकार हो गया, ये सभी विशेषताएं उसे इतिहास के महानतम और सफलतम शासकों के बीच खड़ी करती हैं।

अंत में सन्यास की ओर

चंद्रगुप्त मौर्य चक्रवर्ती सम्राट थे वे अनथक योद्धा थे! उन्होंने आदि जगद्गुरू शंकराचार्य के सपनों को साकार किया। उन्होंने प्रथम राजनैतिक संगठित भारत का स्वरूप दिया। आंतरिक रूप से सभी राजा स्वतंत्र थे लेकिन वे सम्राट के अंतर्गत आते थे सभी प्रकार के सैन्य बल था। 24 वर्ष शासन करने के बाद एक दिन वे अचानक अपने गुरु शिक्षक और महामंत्री आचार्य चाणक्य के पास आये आचार्य अब मैं थक गया हूँ ये बिंदुसार है जो आपकी सेवा में रहेगा। और आचार्य चाणक्य ने राजकुमार बिंदुसार का राजतिलक करवाया उसी के साथ सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य सन्यासी बनकर दक्षिण दिशा में चले जाते हैं। "श्रवणबेलगोला" (कर्नाटक) में चंद्रगिरि पर्वत पर उनकी 298 ई.पू. में उनका देहांत हो गया। कुछ ग्रंथो में इतिहासकारों ने इस चन्द्रगुप्त मौर्य को सन्यास ले लिया और हिमालय की ओर गए ऐसा वर्णन आता है, लेकिन कुछ इतिहासकार कहते हैं कि जो चन्द्रगुप्त दक्षिण की ओर गया वह चन्द्रगुप्त राजा कोई उज्जैनी राजा था न कि सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य। इस नाते हम यह कह सकते हैं कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि न होकर सनातन धर्म का संन्यासी हुआ था और हिमालय की ओर चला गया था।

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