वेदों के प्रणेता ऋषि आदित्य, अग्नि, वायु और अंगिरा

 

वेदों के मूल में कौन हैं चार ऋषि ? 

जब ईश्वर ने सृष्टि निर्माण किया तो उसी समय भगवान ने वेदों को सामान्य मनुष्यों के लिए दिया। ईश्वर ने चार ऋषियों के आत्मा, कंठ में ऋषियों की समाधि अवस्था में "वेदज्ञान" दिया। वे ऋषि थे आदित्य, अग्नि, वायु और अंगिरा। इन ऋषियों ने इस "वेद ज्ञान" को ब्रह्म जी को दिया। ब्रह्म जी ने सरस्वती नदी के किनारे प्रथम गुरुकुल खोलकर वेदों का ज्ञान सारे समाज को देने का कार्य प्रारम्भ किया। इन्हीं कारणों से सरस्वती नदी को विद्या की देवी, ज्ञान की देवी कहा जाता है। इंच चारों ऋषियों के कंठ में तो वेद आया जो ईश्वर प्रदत्त था, इसीलिए वेद अपौरुषेय है। लेकिन इन ऋषियों की विशेषता यह है कि ये ऋषि मंत्र दृष्टा भी हैं जिन्होंने इन मंत्रो का दर्शन किया यानी प्रत्यक्ष अनुभव किया। इन ऋषियों की विशेषता यह है कि किसी की उपमा सूर्य से की गयी है किसी की अग्नि से किसी की वायु से की गई है इन देवों की विशेषता है कि ये कुछ लेते नहीं बल्कि प्रकृति को मनुष्य को जीव- जंतुओ को पेड़-पौधों को पशु-पक्षियों को देते ही देते हैं। इन ऋषियों ने समाज से कुछ न लेकर समाज को मानवता को दिया ही दिया है इसलिये इनकी उपमा इन देवताओं से की गयी है।

वैदिक ऋषि आदित्य

आदित्य का पर्यायवाची शब्द है सूर्य, ईश्वर ने आदित्य ऋषि को यह ज्ञान दिया, ये कौन हैं आदित्य ऋषि ? आज हम इस विषय पर चर्चा करेंगे। ऋषि आदित्य मंत्र दृष्टा हैं। ऋग्वेद में कई ऋचाओं के वे मंत्र दृष्टा हैं। आदित्य सौर देवताओं के एक समूह को दर्शाता है, ये सभी ऋषिका अदिति की संताने हैं। आदित्य नाम एक वचन में सूर्य देवता को संदर्भित करने के लिए लिया जाता है। वैदिक अथवा पौराणिक ग्रंथों के अनुसार आदित्य बारह होते हैं और इनमें विवस्वान, आर्यमन, त्वष्ट्र, सविता, भग, धात्री, मित्र, वरुण, अंश, पुषण, इंद्र और विष्णु (वामन ) माने जाते हैं। ऋग्वेद में भी इनका वर्णन मिलता है, जहाँ इनकी संख्या 6-8 है और सभी पुरुष हैं। वहीं ब्राह्मण ग्रंथों में इनकी संख्या बढ़कर 12 हो जाती है, महाभारत में ऋषि कश्यप को इनका पिता माना गया है, कहा जाता है प्रत्येक माह एक आदित्य अलग- अलग चमकते हैं। संक्षेप में आदित्य आदित्य वेदों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं जो सूर्य देवों, ब्रह्मांडीय व्यवस्था के रक्षकों और धार्मिकता के प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। वैदिक ऋषि आदित्य एक महत्वपूर्ण वैदिक देवता हैं जो कश्यप ऋषि और अदिति के पुत्र हैं। वेदों में आदित्यो को सूर्यदेव के रूप में माना जाता है।

सूर्य देव :

आदित्यो को सूर्य देव के रूप में माना जाता है और वे प्रकाश, ऊर्जा और जीवन के प्रतीक हैं। आमतौर पर बारह आदित्य के रूप में जाना जाता है। आदित्यो का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जो हिंदू धर्म का सबसे प्राचीन व अपौरुषेय ग्रन्थ है। 

ऋषि अग्नि देव

वेदों में अग्नि देव ऋषि जो ऋग्वेद में एक मंत्र दृष्टा के कारण जाना जाता है और उन्हें वेदों में अग्नि देव भी माना जाता है जो ऊर्जा, प्रकाश और गर्मी के श्रोत हैं। उन्हें यज्ञों में देवताओं तक हवि पहुंचाने वाले देव के रूप में पूजा जाता है। अग्नि को ऋग्वेद में एक शक्तिशाली और महत्वपूर्ण देवता माना गया है उन्हें "पुरोहित" (मुख्य पुजारी) "होता" (आह्वान करने वाला) और "ऋत्युज" (यज्ञ करने वाला) जैसे विश्लेषणों से सम्बोधित किया जाता है। वैदिक ऋषियों ने अग्नि को ज्ञान, प्रकाश और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक माना है। अग्नि का उल्लेख ऋग्वेद के कई सूक्तों में मिलता है, जिनमें से अग्नि सूक्त (ऋग्वेद 1.1) विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, यह सूक्त मधुछन्दा वैश्वामित्र द्वारा अनुभव किया गया है और इसमें अग्नि देव के महिमा का वर्णन है। वैदिक ऋषि अग्नि एक बहुआयामी देवता हैं, जिन्हे आग, प्रकाश, ज्ञान जैसे विभिन्न पहलुओं से जोड़ा गया है।

अग्नि देव का स्वरुप

"अग्नि" को देवताओं को प्रसन्न करने और "हवि" पहुंचाने का देवता माना जाता है। अग्नि को मनुष्यों और देवताओं के आराधना का माध्यम भी माना गया है। अग्नि को ऊर्जा, परिवर्तन और गतिशीलता का प्रतीक भी माना गया है। अग्निदेव के अनेक रूप है जिनमें पांच प्रमुख है, यज्ञग्नि, जठराग्नि, दावाग्नि, भोजाग्नि और शरीर को पांच तत्वों में विलीन करने वाला अग्नि। अग्निदेव को पूजा, यज्ञ, हवन और विवाहो में देवताओं के पूजा का माध्यम माना जाता है। अग्निदेव को "अग्रणी" भी कहा जाता है क्योंकि वे देवताओं में सबसे आगे रहते हैं। अग्निदेव का रथ भेड़ और घोड़े का रथ है जिसे बकरियों और तोतों द्वारा खींचा जाता है। और उनकी पत्नी "स्वाहा" हैं। अग्नि देव सनातन धर्म में आग के देवता हैं, वो सभी देवताओं के लिए यज्ञ वस्तु भरण करने का माध्यम हैं। इसीलिये उन्हें भारत भी कहा जाता है, वैदिक काल से ही अग्नि सभी देवों में श्रेष्ठ माने जाते हैं। पौराणिक युग में भी अग्नि पुराण नामक ग्रन्थ की रचना हुई। इन्हें ब्रह्मा जी का मानस पुत्र माना गया है।

वैदिक ऋषि "वायुदेव"

वायु देव जिन्हें पवन देव भी कहा जाता है सनातन धर्म में वायु देवता हैं। उनका वेदों में वर्णन है, उन्हें प्राण वायु का भी प्रतीक माना गया है, सनातनी उनकी पूजा करते हैं। वैदिक ऋषि वायु हवा के देवता हैं और वेदों में इनका महत्वपूर्ण स्थान है। उन्हें सर्वोच्च विश्वारूप की सांस से उत्पन्न और सोमरस पीने वाले पहले व्यक्ति के रूप में वर्णन किया गया है। उपनिषदों में वायु को प्राण या विश्व जीवन शक्ति के रूप में प्रशंसा की गई है, उन्हें अक्सर इंद्र के सारथी के रूप में भी पाया गया है। वायु देव को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर महत्वपूर्ण माना जाता है, शरीर और प्राण के रूप में और ब्रह्माण्ड में जीवन शक्ति के रूप में हैं।

मुख्य देवों में

ऋग्वेद में वायु के स्वरुप पर दृष्टि डालने का तीन दृष्टिकोण पर आधारित है, अधिवैदिक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक। ऋग्वेद में वायु का स्वरुप देवता का बोधक है वायु देव समस्त देवों के जीवन रूप हैं, आत्मरूप प्राण है और भुवनो की संतान हैं। वायु समस्त देवताओं में मुख्य देवता हैं "वायोमंदानों अग्रिम:"। इतना ही नहीं वे एकेश्वरवाद के प्रेरणा श्रोत भी हैं इसलिये उन्हें ईश्वर भी मान लिया गया है। द्यावा पृथ्वी ने धन के लिए वायु को उत्तम किया है, श्रेष्ठ किया है। अतः ऐसे उत्तम धन एवं अन्न, गौ, पुत्र समस्त कार्यों को सम्पन करने के लिए वायुदेव स्वर्ण रथ का उपयोग करते हैं। वह रथ उज्वल है, आकाश को स्पर्श करने वाला है, रथ में जोते जाने वाले अश्वओं की संख्या अलग- अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। कहीं यह संख्या नवतिनव है "युक्तासो नवतिनव" कहीं सौ तो कहीं सहस्त्र है, "शतीनिभिरह वरं सहस्त्रिणिभि:" कहीं-कहीं यह संख्या दो भी बताई गई है। वायु के अश्व बड़े बलशाली हैं, शीघ्रगामी हैं, उनकी गति रोकना उतना ही कठिन है जितना सूर्य की किरणों को रोकना।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि समस्त देवों के प्राणस्वरुप सर्वशक्तिमान ईश्वर अमृत शक्ति संपन्न, लोक का कल्याण करने वाले, पापों से मुक्ति दिलाने वाले समृद्धि दाता वायु दैवी गुण संपन्न देव हैं, जो सैकड़ो हज़ारों घोड़ों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवारी करते हैं। ऋग्वेद में वायु को "वात" भी कहा गया है, संभवतः यह भौतिक वायु का द्योतक है और आध्यात्मिक भी है। ऋग्वेद में वायु की उत्पत्ति विराट पुरुष के प्राणो से की गयी है।

चन्द्रमा ममनसो जातस्वक्षों: सूर्यो अजायत।

मुख़ादिन्दुश्वग्निश्वा   प्राणाद्वायुरजायत।।

अर्थात उस विश्वरूप व विराट पुरुष का जो प्राण है वह वायु है, अतः वायु का आध्यात्मिक रूप प्राणात्मक है। यह प्राणों के रूप में प्रत्येक शरीरधारी में रहता हुआ उसकी आयु का निर्धारण करता है। अतः उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणों से भूतानामायु :, सर्वमेव ते आयुर्यन्ति ये प्राण ब्रह्मपासते। छाँदोग्य उपनिषद में भी वायु को प्राण के रूप में ब्रह्म का चतुर्थपाद कहा गया है।

       "प्राण एवं ब्रह्मणश्वतुर्थ:पाद: स वायुना ज्योतिषाभाति च तपतिच:।

अतः उस प्राणी रूपी सत की ही मात्र एक सत्ता है, उसकी शक्तियों की प्रबृतियाँ भिन्न -भिन्न है। "एकम् सद विप्रा बहुधा वदंति।" इस प्रकार हम देखते हैं कि वायु विविध स्वरूपा शरीर धारियों की आत्मा के रूप में स्थिर होकर, भौतिक जगत का विस्तार करते हुए सर्वशक्तिमान ईश्वर के रूप में विद्यमान है।

वैदिक ऋषि अंगिरा 

अंगिरा वैदिक ऋषि मंत्र दृष्टा थे, वे सप्त ऋषि मण्डल में से एक थे, वे ऋग्वेद के प्रथम, द्वीतीय, पंचम, आठवें, नौवे और दशम मण्डल में कई ऋचाओं के मंत्र दृष्टा हैं। अंगिरा ऋषि ब्रह्म जी के मानस पुत्र हैं, इनके दिव्य आध्यात्मिक ज्ञान, योग बल, तप, साधना एवं मंत्र शक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति थीं, जिनसे वंश विस्तार हुआ। इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीब्र थी कि इनका तेज व प्रभाव अग्नि देव की अपेक्षा बहुत अधिक वढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे, जब उन्होंने देखा कि अंगिरा की तपस्या और प्रतिष्ठा मुझसे अधिक वढ़ रही है तो वे दुखी होकर अंगिरा के पास गये बोले, आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज की तुलना मे अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा प्रभाव आपके आगे न्यून होता जा रहा है, मेरा प्रभाव ऐसा हो रहा है कि अब मुझे कोई अग्निदेव नहीं कहेगा। उस समय महर्षि अंगिरा विचार मग्न होकर कहा कि आपकी महत्ता कोई कम नहीं कर सकता, आप देवताओं को हवि पहुंचाने का काम करेंगे। साथ ही अग्नि देव को अपना पुत्र स्वीकार किया। तत्पश्चात अग्निदेव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं, महर्षि अंगिरा की महिमा बहुत है, ये मंत्र दृष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनका अंगिरा स्मृति में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण का बृहद वर्णन मिलता है।

  केवल मंत्रदृष्टा ही नहीं

सम्पूर्ण ऋग्वेद में ऋषि अंगिरा, उनके वंशजों तथा शिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना किसी अन्य ऋषि का वर्णन नहीं मिलता। विद्वानों का यह मत है कि ऋषि अंगिरा से संबंधित वेश व गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के मंत्र दृष्टा हैं। इनके महत्व का एक और कारण है ये केवल मंत्र दृष्टा ही नहीं हैं बल्कि समाधि अवस्था में ईश्वर द्वारा इन्हें "ऋगवेद" पदत्त हुआ था। इसके साथ ही अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तमाम सूक्तों के दृष्टा ऋषि भी हैं। जिनमें महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिंधुसित, वीतहव्य, अभिवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धन आदि प्रमुख हैं। अंगिरा ऋषि उन चार ऋषियों में से हैं जिन्हें समाधि अवस्था में ईश्वर ने चारों वेदों को प्रदान किया था और इन चार ऋषियों ने इन चारों वेदों को ब्रह्मा जी को दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषि विश्वामित्र, अगस्त, वशिष्ठ तथा जमदग्नि जैसे अनेक मंत्रदृष्टा ऋषि हुए।


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