ब्रह्मवादिनी ऋषिका "गोधा "

 

ब्रह्मवादिनी गोधा

ऋग्वेद में एक ऋचा है "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता " वेद अपौरुषेय है "एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष" पहले सृष्टि निर्माण के साथ ही ईश्वर ने हमे वेद प्रदान किया पहले चार ऋषियों आदित्य, अग्नि, वायु और अंगिरा के अंतर्मन में आया फिर इन ऋषियों ने ब्रह्म जी को दिया। उस काल से ईश्वर ने हमें वेदों के माध्यम से राष्ट्रवाद की नैतिक शिक्षा दी है, इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने इसे वेदों को राष्ट्र की आत्मा का पुकार मान अपना जीवन राष्ट्रहित को समर्पित कर दिया। जितने भी ऋषि व ऋषिकाएं मंत्रदृष्टा है सभी ने मानव जीवन को कैसे जीना, किस प्रकार परिवार, समाज व राष्ट्र सांस्कृतिक सजगता पूर्ण जीवंत रहे सतत जागृत रहे उसमें जीवन लगाया, वेद मंत्रो का अनुभव किया प्रत्यक्ष दर्शन किया इसलिए उन्हें मंत्र दृष्टा माना गया वे तब से आज हमारे आराध्य हैं। इसीलिए भारत में धर्म संस्कृति और राष्ट्र एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।

"घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्नीशत।

ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्तस्य स्वसादिति:।।

इन्द्राणी  चेंन्द्रमाता च  सरमा  रोमशोर्वशी।

लोपामुद्रा च नद्यश्चा यमी नारी च शश्वीती।।

श्रीर्लाक्षा सार्पराग्यी वाक्यश्रद्धा मेधा च दक्षिणा।

रात्री  सूर्या च  सावित्री  ब्रह्मवादिन्य ईरिता:।।"

कीट से लेकर ब्रह्म तक को अपने उदर में धारण करने वाली नारी सृष्टि की प्रथम कृति एवं ईश्वरीय करुणा -कोमलता, पवित्रता, वात्सल्य व औदार्य की साकार अभिव्यक्ति है। वर्तमान में नारी सम्मान, स्वाभिमान, सशक्तिकरण और उसकी अस्मिता की रक्षा के लिए स्त्री विमर्श के विविध विषयों को भारतीय परिपेक्ष में देखने और समझने की आवस्यकता है। वैदिक मंत्रदृष्टा ऋषिकाओं से लेकर आधुनिक भारत की सामर्थ्यवान मातृसत्ता का परिवार-समाज व राष्ट्र निर्माण में अतुल्य योगदान है।

ऋषिका गोधा 

गोधा "ऋग्वेद की दशम मण्डल के 234वें सूक्त" की मंत्रदृष्टा हैं, वे मैत्रेयी, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, घोषा, विश्ववारा आदि विदुषी ऋषिकाओं के साथ वैदिक दृष्टाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। ब्रम्हवादिनी गोधा, वैदिक भारत की एक विदुषी महिला थीं, जिन्हें ऋग्वेद में मंत्रदृष्टा माना जाता है। वह उन नारियों में से एक थीं जिन्होंने वेदों को अंतर्मन में अनुभव किया और अपौरुशेय वेदों में ऋग्वेद, ऋचा की मंत्रदृष्टा बन मंत्रदृष्टाओं में अपना स्थान बनाया। ऋषिका गोधा ऐसी मंत्रदृष्टा है जिनका उल्लेख सामवेद में भी मिलता है, वह इंद्र देवता से सम्वन्धित मंत्रदृष्टा के नाते जानी जाती हैं। 

सामवेद में ऋषिका गोधा तीन मंत्रो की दृष्टा हैं जिनमें दो इंद्रदेव से सम्वन्धित है, एक मंत्र में गोधा ने इंद्र को "बलादधिसहसो जात ओजस:" (बल से उत्पन्न, तेजस्वी) के रूप में सम्बोधित किया है। दूसरे मंत्र में उन्होंने इंद्र से प्रार्थना की है कि वे उनकी रक्षा करें और उन्हें सही मार्ग दिखाएं। गोधा को "देवजामय इन्द्रमातर" (इंद्र की माता) के रूप में भी जाना जाता है, जो मातृत्व और शक्ति के प्रतीक के रूप में उनके महत्व को दर्शाता है। गोधा का उल्लेख "गोधा ऋषिका"के रूप में किया गया है, जो उन्हें एक मंत्रदृष्टा और आध्यात्मिक गुरु के रूप में स्थापित करता है। वे वैदिक साहित्य में वर्णित कई महिलाओ में से एक है जिन्होंने वेदों के ज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

संक्षेप में ऋषिका गोधा एक महत्वपूर्ण महिला ऋषिका हैं जिन्होंने सामवेद में अपने मन्त्रों के माध्यम से इंद्रदेव की स्तुति की है और वैदिक साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान किया है।

ब्रह्मवादिनी ---!

ब्रह्मवादिनी उन्हें माना जाता है जो वैदिक अध्ययन, मंत्रो के अनुभव और ब्रह्म की साधना (ज्ञान) की खोज यानी वेदों में लीन रहती थीं। ब्राह्मवादिनी का अर्थ है "वह महिला जो ब्रह्म के बारे में ज्ञान रखती हो अथवा ब्रह्म (आत्मा) की खोज करने वाली हो।" वे जो अविवाहित रहकर वेदों का अध्ययन करतीं थीं वैदिक जीवन अपनाती थीं, जो ऋषिका होती थीं, गुरुकुल की शिक्षा, पठन-पाठन, गुरुकुल में शिष्यों को सम्हालना आदर्श गृहणी काम काज में व्यस्त जीवन ऐसे ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं। वेदों के अध्ययन और ज्ञान के प्रचार -प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका, जब हम इन ऋषिकाओं को देखते हैं पढ़ते हैं तो ध्यान में आता हैं कि वैदिक काल में भारतीय नारी कैसी थी? उनका स्थान क्या था? वैदिक काल में महिलाओ को शिक्षा और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार था, ब्राह्मवादिनी ऐसी महिलाएं थीं जिन्होंने वेदों का अध्ययन किया था और मंत्रदृष्टा थीं। आज दुर्भाग्य है कि बिना कुछ पढ़े लिखे कुछ भी बोल देना और अपने आप ही विद्वता का प्रमाण पत्र ले लेना।

ऋषिका गोधा का चिंतन 

ऋषिका गोधा ने अपने मन्त्रों के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया है कि धर्म का स्वरुप कोई बाहरी आरोपण नहीं है, बल्कि जीवन का सहज़ अंग है। श्रुति में वर्णित यज्ञ कर्म, मंत्र स्त्रोत और हवि सेवा का उद्देश्य केवल ईश्वर को प्रसन्न करना नहीं, बल्कि लोककल्याण और समाज हित की व्याख्या को सुदृढ़ बनाना है। वे कहती हैं कि हम किसी भी कर्म में सिथिलता नहीं दिखाएं और श्रुति के अनुसार आचरण करें, यह विचारधारा वैदिक काल की नारी की जागरूकता और समाज में उसकी निर्णायक भूमिका को प्रमाणित करती है। 

यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाय तो गोधा का चिंतन न केवल धार्मिक आस्था में रमा है, बल्कि जीवन की समस्याओ का वैज्ञानिक समाधान खोजने की प्रवृति भी उसमें निहित है। गोधा का यह कथन कि कर्म, धर्म और आचरण में कोई त्रुटि नहीं होनी चाहिए, वैदिक समाज में न्याय, विवेक और अनुशासन की वैज्ञानिक व्याख्या का परिचायक है।

गोधा द्वारा सृजित मंत्रो में इंद्र को 'मधवन' सम्बोधन द्वारा उनकी ऐश्वर्याशीलता और पराक्रम का आदरपूर्वक स्मरण किया गया है। वह देवों से प्रार्थना करतीं है कि वे उन्हें उनके अपराधों से मुक्त करें और जीवन में दीर्घायु एवं कल्याण प्रदान करें। यह प्रार्थना मात्र भय या अनुरोध नहीं है, बल्कि समाज और मानवता के लिए नियामक भी है। यह स्पष्ट करता है कि वैदिक जीवन दर्शन कर्म और धर्म का आतंरिक समन्वय है।

गोधा के मंत्रो में मातृत्व के गौरव को भी उच्च स्थान दिया गया है, वह इंद्र जैसे तेजस्वी और पराक्रमी पुत्र को जन्म देने वाली जननी अदिति की स्तुति करती है। वैदिक युग में मातृत्व को नारी जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि और सामाजिक उन्नति का आधार माना गया। परन्तु यह मातृत्व केवल संतानोत्पत्ति तक सीमित न होकर धर्म, नीति और राष्ट्र-निर्माण में भी समान रूप से सहभागी था। 

गोधा की वाणी मे वैदिक स्त्री विमर्श का वह पक्ष प्रकट होता है, जहाँ नारी केवल गृहणी नहीं है, बल्कि विचारधारा और नीति की सशक्त निर्णायक बन समाज को दिशा देने वाली सत्ता भी है। उनकी ऋचाएं इस तथ्य का प्रमाण है कि वैदिक युग की नारी ने अपनी बौद्धिक क्षमता, धर्म निष्ठा और सामाजिक दायित्व का उदाहरण स्वयं प्रस्तुत किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-श्रोत बनी।

ब्रह्मवादिनी गोधा के मंत्र आज भी भारतीय संस्कृति की उस चेतना का प्रतीक है, जो मातृत्व, धर्म, आचरण और लोकहित के समन्वय से समाज को सुदृढ़ और उन्नत बनाती है। यह नारी सशक्तिकरण का वह आदर्श स्वरुप है, जो केवल अधिकारों की माँग नहीं करता, अपितु कर्तव्यों और दायित्यों के माध्यम से समाज में नेतृत्व की भूमिका निभाता है। गोधा का यह चिंतन आज के सन्दर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना वैदिक युग में था।


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