महर्षि सायणाचार्य
माध्यकाल में एक महान वैदिक विद्वान सायण हुए जिन्हें सायनाचार्य भी कहा जाता है। वे वेदों के सर्वमान्य भाष्यकार थे जिन्होंने अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया, परन्तु इनकी कीर्ति का मेरुदंड वेदों का भाष्य ही है। इनके पहले किसी का चारों वेदों पर भाष्य नहीं मिलता। वे चौबीस वर्षो तक विजयनगर साम्राज्य के सेनापति व अमात्य रहे (1364-1387), यूरोप के प्रारंभिक वैदिक विद्वान और भारत के वैदिक विद्वान आचार्य श्रीराम शर्मा ने उन्हें उत्कृष्ट वैदिक विद्वान माना है परन्तु ऋषि दयानन्द सरस्वती और महर्षि अरविन्द इनको आंशिक मान्यता देते हैं। लेकिन सभी वेदों के एक व्यक्ति द्वारा लिखे गये एक मात्र भाष्यकार होने के कारण यास्क के वैदिक शब्द कोष लिखने के बाद सायण की टीका की मान्यता वढ़ी है। उन्होंने जो भी वेदों पर काम किया साम्राज्य के प्रथम राजा महाराजा बुक्का राय के कार्यकाल में किया। उनका समय चौदहवीं था उनके पिता मायण थे और अग्रज माधवाचार्य थे जिन्होंने विजयनगर साम्राज्य संस्थापक हरिहर राय के महामंत्री और गुरु थे।
विजयनगर साम्राज्य
महर्षि शायण को समझने के लिए उनके भाई विद्यारण्य को समझना होगा। विद्यारन्य को समझने के लिए हरिहर राय और बुक्का राय को जानना होगा। हरिहर राय और बुक्का राय को क़ुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली लाकर मुसलमान बनाया था। चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिण के किसी अभियान पर ऐबक ने इन दोनों भाइयों को भेजा। लेकिन इन दोनों भाइयों ने पानी पीने के बहाने सेना से अलग होकर एक नदी के किनारे घूम रहे थे तभी स्वामी विद्यारन्य से इनकी भेंट हो गई विद्यारन्य से मिलते ही दोनों भाइयों को बचपन की सब याद ताज़ा हो गई और अपनी सब जीवन गाथा स्वामी जी को कह सुनाया स्वामी जी ने फिर उन्हें मुस्लिम सैनिक छावनी में नहीं जाने दिया और उनकी सुद्धि कर पुनः हिंदू धर्म में शामिल कर लिया। अब ये दोनों योद्धा हिंदू बन चुके थे स्वामी विद्यारन्य ने उनका साहस बढ़ाते हुए सैनिको का गठन कर हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया जिसे हम विजयनगर साम्राज्य के नाते जानते हैं। अब हम यह समझ चुके हैं कि स्वामी विद्यारन्य विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक थे उसके प्रथम सम्राट हरिहर राय हुए। जिस प्रकार चाणक्य का स्थान मौर्य साम्राज्य में था उसी प्रकार स्वामी विद्यारन्य का स्थान विजयनगर साम्राज्य में था। शायण का जन्म दक्षिण भारत के एक विद्वान परिवार में चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुआ था। शायण स्वामी विद्यारंय के छोटे भाई थे जो महान विद्वान अनेक ग्रंथों पर पूर्ण अधिकार रखने वाले थे।
वेदों के भाष्य
जहाँ स्वामी विद्यारंय विजयनगर साम्राज्य के महामंत्री थे वहीं शायण साम्राज्य के वास्तु शिल्पकार थे, आगे चलकर शायण विजयनगर साम्राज्य के महामंत्री नियुक्त हुए। हरिहर राय के पश्चात् उनके छोटे भाई "बुक्का राय" राजा हुए उन्ही के काल में सभी ग्रंथों का भाष्य, टीका व संस्कृत व्याकरण पर कई पुस्तकें लिखी। राजा के मन में सनातन धर्म के ग्रंथों के बारे में अपार श्रद्धा थी वे चाहते थे कि कोई इन ग्रंथों पर काम करें। शायण तो महामंत्री थे लेकिन उनका मन राज -काज में कम ग्रंथों में अधिक लगता था उन्होंने सनातन धर्म के प्राचीन ग्रन्थ वेदों पर भाष्य करना शुरू किया। उन्होंने चारों वेदों पर तो भाष्य किया ही साथ में कई "एत्रेय, त्रेतरेय, ब्राम्हण ग्रन्थ, संहिताउपनिषद" अन्य उपनिषदों पर भाष्य किये और महर्षि कहलाये, जो भी वेदों के भाष्यकार थे महिधर, उलूक, रावण इत्यादि भाष्यकारों में अपना नाम लिखवाया। वहाँ के राज संरक्षण में उन्होंने व्याकरण इत्यादि पर बड़ा काम किया और सारे भारत वर्ष में हिंदू धर्म की प्रतिष्ठा की व्यापकता वढ़ना शुरू हो गई। शायण केवल वेदों के भाष्यकर ही नहीं थे बल्कि वे गणितज्ञ, खगोलशास्त्री और अन्य विद्याओं में तज्ञ थे।
अन्य रचनाएँ
सायण वेदभाष्यकार होकर प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं लेकिन उन्होंने बुक्का राय के आदेश पर कई वैदिक ग्रंथों व पौराणिक ग्रंथों की भी रचना की। जिनमें सुभाषित सुधानिधि, प्रयासश्चित सुधानिधि, अलंकार सुधानिधि, पुरुषार्थ सुधानिधि, आयुर्वेद सुधानिधि, यज्ञ तंत्र सुधानिधि,धातुवृत्ति इत्यादि रचनाये शामिल हैं। उन्होंने तेरह ब्राह्मण अरण्याकों के ऊपर अपने भाष्यों का निर्माण किया। सायण ने अपने भाष्यों का माधवीय वेदार्थप्रकाश के नाम से अभिहित किया है इन भाष्यों के नाम के साथ माधवीय विशेषण को देखकर इन्हें अनेक आलोचक इन्हे सायण की निःसंदिग्ध रचना मानने से परांडमुख होते हैं, लेकिन इस संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है। सायण के बड़े भाई विजयनगर साम्राज्य के राजाओं के प्रेरणास्पद उपदेष्ठा थे, उन्ही के उपदेश से महराज हरिहर और बुक्कराय ने साम्राज्य की स्थापना की थी।
वैदिक धर्म आग्रही महाराजा
तेनमायणपुत्रणा सायणेनमनीषणा।
आख्ययामाधवीयेयं धातुवृत्तिर्विरच्चयते।।
मैसूर में एक शिलालेख का यह उल्लेख मिलता है जो विक्रम संवत 1343 का जिससे यह पता चलता है कि वैदिक मार्ग प्रतिष्ठापक महाराजाधिराज हरिहर राय ने विद्यारंय श्रीपाद स्वामी के समक्ष चतुर्बेद भाष्य प्रवर्तक नारायण वाजपेयी, नरहरि सोमपायजी तथा पंढरि दीक्षित नामक तीन ब्राह्मणों को अग्रहार देकर सम्मानित किया था। इस शिलालेख का समय और विषय दोनों महत्वपूर्ण है, इसमें "चतुर्वेद -भाष्य -प्रवर्तक" शब्द इसका द्योतक है। इससे यह संभव हो सकता है कि इतना बड़ा कार्य अकेले संभव न रहा हो अन्य विद्वानों ने वेद भाष्य में सायण की सहायता की हो जैसा कि राजाज्ञा से ज्ञात होता है चुकि राजा वैदिक सनातन धर्माग्रही थे इस कारण उन्होंने सारे आर्यावर्त्त में वैदिक सनातन धर्म के लिए अपने साम्राज्य का दरवाजा खोलदिया। उस समय भारत विपरीत परिस्थिति से निपट रहा था विजयनगर साम्राज्य इसका जीता जगता सबूत के तौर पर है।
1 टिप्पणियाँ
आचार्य सायण वेदों के भाष्यकार थे वे अकेले आचार्य हैं जिन्होंने लम्बे समय बाद विपरीत परिस्थिति में वेद भाष्य किया। ऋषि दयानन्द सरस्वती ने किसी की कोई आलोचना न करते हुए उनका मत है कि सायण, महिधर इत्यादि निघँटु का ज्ञान नहीं था अथवा उपयोग नहीं किया जबकि निघँटु वेदों का व्याकरण है, बिना निघँटु के वेदों के शब्दार्थ को स्पष्ट करना संभव नहीं है। इसके वावजूद सायण प्रसंशनीय हैं जिन्होंने इतना वड़ा कार्य किया।
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