1857 स्वतंत्रता संग्राम के विजेता-- बाबू वीर कुँवर सिंह


जिसे भारतवर्ष के बारे में कल्पना नहीं है वे भारत को समझ नहीं सकते! भारतवर्ष एक राष्ट्र अनेकों राज्यों का समूह हुआ करता था जिसमें चक्रवर्ती सम्राट की ब्यवस्था थी। चक्रवर्ती सम्राट की व्यवस्था तो थी लेकिन किसी के मातहत कोई राजा नहीं रहता था सभी की अपनी अपनी स्वतंत्रता थी भारत में गुलाम बनाने की व्यवस्था नहीं था। धीरे-धीरे समय काल परिस्थितियों से चक्रवर्ती व्यवस्था समाप्त सी हो गई और छोटे छोटे राज्यों में भारत बटने लगा इसके बावजूद भारत एक राष्ट्र बना रहा।  संघर्ष का भी कल आया लेकिन हमारे राजाओं ने अपनी सार्थकता सिद्ध किया। बप्पारावल से लेकर राणा राजसिंह तक मेवाङ भारतीय संस्कृति भारतीय राष्ट्र का केन्द्र विन्दु बना रहा। इस्लामिक आतंकवाद हमले होने लगे हिंदू समाज इस्लाम को समझ नहीं पाया। हिंदू समाज यह समझता रहा कि जैसे मेरा धर्म है उसी प्रकार इस्लाम भी है लेकिन इस्लाम कोई धर्म न होकर वह केवल इस्लामिक सेना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और उसका काम केवल अपने राज्यों का विस्तार करना। 

महाराणा प्रताप आदर्श

महाराजा दाहिरसेन से लेकर बप्पारावल, राणा सांगा, पृथ्वीराज चौहान और क्षत्रपति शिवाजी महाराज सहित तमाम राजाओं ने इस्लामिक सेनाओं से संघर्ष भी किया और विजय भी प्राप्त किया। जब हमारे राजाओं ने देश को इस्लामिक चँगुल से मुक्त किया। उसी समय ब्यापारी के रूप में दूसरे लोग आ गए हमारे राजाओं से अनुमति लेकर ब्यापार करना शुरू किया फिर अपनी चाल चलना शुरू किया अनुमति माँगी कि मैं आपकी मालगुजारी वसूली करुगा अनुमति मिल गई फिर कहा कि अपनी सुरक्षा के लिए सिक्योरिटी गार्ड चाहिए उसकी भी अनुमति मिल गई फिर क्या था सिक्योरिटी गार्ड के नाम पर सेना की भर्ती शुरू कर दिया और फिर आगे देश को पता है कि क्या हुआ ? पूरा देश का मन तड़प रहा था लेकिन अनुभव कुछ लोग कर रहे थे क्योंकि देश ने गुलामी इस प्रकार की देखी नहीं थी। लोग अंग्रेजों से मुक्ति चाहते थे दुर्भाग्य कैसा है कि मुस्लिम आक्रांताओ से मुक्ति मिली ही थी कि अंग्रेज आ गया लेकिन समाज गुलामी झेलने को तैयार नहीं था। भारत में गुरिल्ला युद्ध के जनक महाराणा प्रताप थे उन्होंने अकबर को कई बार पराजित किया था उन्हीं को आदर्श मानकर क्षत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध से औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिया था और आज उसी अस्त्र का प्रयोग वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध कर बहुत सारे स्थानों पर अंग्रेजों को पराजित किया था।

वीर कुँवर सिंह का जन्म

वीर कुंवर सिंह का जन्म जगदीशपुर स्टेट बर्तमान में भोजपुर जिला बिहार में पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोजवंशी थे और उनकी माता का नाम पंचरत्न कुँवर था के यहाँ 13 नवंबर 1777 में हुआ था। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह थे। बचपन में घुड़सवारी करना, तलवार चलाना और अन्य युद्ध उपकरणों को सीखने का शौक था। उन्होंने मार्शल आर्ट, छापामार युद्ध का विशेष अभ्यास किया था। वे महाराणा प्रताप और क्षत्रपति शिवाजी महाराज को अपना आदर्श मानते थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम 1857 ने उन्हें महाराणा प्रताप और शिवाजी महाराज के समकक्ष खड़ा कर दिया।

ऋषि दयानंद सरस्वती से भेंट

हरिद्वार में कुंभ मेला लगा हुआ था स्वामी दयानंद सरस्वती राजस्थान से होते हुए कई स्थानों पर देश आज़ादी यानी स्वराज के लिए छोटी- छोटी सत्संग करते हुए स्वामी जी हरिद्वार पहुँचे थे। यह समय 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी का था ऐसा नहीं था कि यह संग्राम अचनाक हो गया इसके लिए संतो सन्यासियों की टोली राजा- महाराजाओं सभी योजना में शामिल होने के लिए 1855 कुंभ मेला क्षेत्र में हरिद्वार के लिए रवाना हो गए थे। जिसमें प्रमुख रूप से तात्याटोपे, बाबू वीर कुंवर सिंह, अजीमुल्ला खां, बालासाहेब इत्यादि प्रमुख थे। बैठक में कुँवर सिंह ने स्वामी दयानंद सरस्वती से पूछा कि स्वामीजी आज़ादी कब तक मिलेगी-- स्वामीजी ने उत्तर दिया देश को गुलाम बनाने में सैकड़ों वर्ष लगे हैं और समाज की मानसिकता ही गुलामी की हो गई है इसी गुलामी को स्वतंत्रता समझ रहा है इसलिए लड़ते रहना है स्वतंत्रता मिलेगी ही यह विस्वास रखने की आवश्यकता है और आज़ादी का अलख जगाने का काम शुरू हो गया। इस टोली ने अलग- अलग योजनाओं और टोलियों का गठन किया। साधू सन्यासियों की अलग, राजा महाराजाओं की अलग और क्रांतिकारियों की अलग टोली बन गई सारे देश में जागरण होने लगा। कैसे सेना में विद्रोह कराना है कैसे राजाओं के अंदर राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाना है और कैसे अंग्रेजों में भय पैदा करना है यह सारी योजना इसी हरिद्वार मेले में तय कर लिया गया।

 प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ

1857 में अंग्रेजों को भगाने स्वराज्य को लाने के लिए 27 अप्रैल 1857 को वीर कुँवर सिंह के नेतृत्व में 'आरा नगर' पर स्वराज्य वादियों ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजी फौज पर कब्जा करने के लिए बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान युद्ध हुआ। बाबू कुँवर सिंह के नेतृत्व में विजय श्री प्राप्त करते हुए जगदीशपुर की ओर बढ़े उसी समय अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर हमला कर दिया। वीर कुँवर सिंह और अमर सिंह को जगदीशपुर छोड़ना पड़ा, बाबू कुँवर सिंह और अमर सिंह अंग्रेजों से छापा मार युद्ध करते रहे। कहते हैं कि राणाप्रताप और क्षत्रपति शिवाजी महाराज के बाद वीर कुँवर सिंह को ही याद किया जाएगा। रामगढ़ के वीर सिपाहियों के साथ बाँदा, रीवा, आजमगढ़, काशी, बलिया, गाजीपुर और गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते हुए विजय प्राप्त कर रहे थे यह बात भी ठीक है कि अंग्रेज पुनः उस स्थान पर कब्जा कर लेते थे। ब्रिटिश इतिहासकार "होम्स" ने लिखा है कि "उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन बान के साथ लडाई लड़ी। गनीमत रही कि युद्ध के समय कुँवर सिंह की उम्र अस्सी वर्ष के आस पास थी अगर वह नव जवान होते तो अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़कर जाना पड़ता।"

स्वतंत्र पैदा हुए और स्वतंत्र ही  इहलोक गए

वीर कुंवर सिंह गाजीपुर से गंगाजी के रास्ते आरा भोजपुर के लिए आ रहे थे कि कुछ भेदियों ने यह सूचना अंग्रेजों को दे दी बीच में युद्ध शुरू हो गया कुंवर सिंह के हाथ में गोली लगी कुँवर सिंह को यह ध्यान में था कि गाय की चर्बी से बना कारतूस है। धर्म वीर थे कुंवर सिंह तुरंत बिना किसी परवाह के अपने हाथ को अपनी तलवार से काटकर गंगाजी को समर्पित कर दिया। वेअंग्रेजी सेना को धोबिया पछाड़ देकर उस अस्सी वर्ष के युवा राणा कुँवर सिंह लड़ते भिड़ते जगदीशपुर के राजमहल में विजयश्री के साथ प्रवेश किया, उनका यह अंतिम प्रवेश था क्योंकि विश्व के रंग मंच पर अब कुंवर सिंह प्रकट नहीं होगा। उनके शरीर में कारतूस का विष ब्याप्त हो गया था अब स्वतंत्रता संग्राम का वह दीपक बुझने को आ गया था और जब उनका जन्म हुआ था तब उनकी जन्मभूमि स्वतंत्र थी और उनके प्राणोत्सर्ग भी स्वतंत्रता के झंडे के नीचे हुआ। उनके किले पर वही अंग्रेजों का निशान नहीं उनके स्वदेश एवं स्वधर्म का स्वतंत्रता भगवा ध्वज ही फहर रहा था। जो उनका राज्य ध्वज था उस समय भी वह किले पर लगा हुआ था। किसी राजपूत के लिए इससे अधिक पुण्यतर मृत्यु और कौन सी हो सकती है। वे स्वतंत्र ही पैदा हुए थे और अपने ही राजमहल (जगदीशपुर) भोजपुर में स्वतंत्र ही  26 अप्रैल 1858 को ईश्वर की चरणों में समर्पित हुए।

लोहतमिया राजपूत

भोजपुर में एक कहावत प्रसिद्ध है कि कुंवर सिंह ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के लिए जब अपने विस्वस्थ लोगों को राशन के साथ कुछ स्वर्ण मुद्राएं भेजी! युद्ध चल रहा था और उनके लोग भोज खा रहे थे कुंवर सिंह के साथ मलाह, बिंद तथा इस प्रकार की अन्य जातियां लड़ रही थी। लेकिन उसी समय उन भेदियों ने अंग्रेजों को समाचार दिया, जब कुंवर सिंह का देहांत हो गया तो अंग्रेज अधिकारी भोजपुर में आये जब तक कुंवर सिंह जिंदा थे तब तक कोई भी अंग्रेज अफसर भोजपुर में आने का साहस नहीं जुटा पाता था लेकिन उनके जाते ही अंग्रेज अधिकारी कैम्प किया और पूछा कि कौन कौन से लोगों ने कुंवर सिंह का साथ दिया तो जिन राजपूतों ने कुंवर सिंह के साथ स्वतंत्रता संग्राम लड़े थे उन्हें जाति वहिष्कृत कराया गया और यह अंग्रेजों ने दबाव बनाया कि इनके यहाँ कोई राजपूत शादी विवाह नहीं करे और आज भी यह परंपरा कायम है जो देश के लिए लड़े थे वे छोटे राजपूत हो गए। लोहतमिया यानी लोहा उठाया (तलवार) लेकर युद्ध किया यानी लोहतमिया राजपूत। आज भी कुछ इस प्रकार के लोग है जैसे सेकुलरिस्ट, वामी और अर्बन नक्सली हैं वे अपने को शेष समाज से सुपर (श्रेष्ट ) मानते हैं।

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1 टिप्पणियाँ

  1. लोहतमिया सूर्यवंशी राजपूत एवं भगवान राम के पुत्र लव का वंशज माना जाते हैं जिन्हें लोहथम्भ की उपाधि प्राप्त थी | लोहथम्भ का अपभ्रंश लोहतमिया है |
    लोहतमिया वंश के ही पहाड सिंह जो कि शेरशाह सूरी के सेनापति थे , हुमायूं को चौसा के युद्ध में पराजित किया था और युद्ध भूमि से भागने पर विवश किया था |
    सन् 1611 में उज्जैन राजपूत और चेरों के युद्ध में उज्जैनिया का साथ दिया था |
    कहते हैं कि लोहतमिया वंश हकीम खान सूरी के साथ मेवाड जाकर हल्दीघाटी युद्ध में भाग लिया था |

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