भगवान श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध मैदान में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहा कि जब जब धर्म की हानि होती है मैं आता हूँ! और वे आये भी कभी भगवान बुद्ध, कभी महावीर, कभी आदि शंकराचार्य और कभी वे ऋषि दयानंद सरस्वती के रूप में आये। और अपने हिसाब से दुष्टों का सँहार, मानवता का उद्धार कर नयी जीवन दृष्टि दी। लेकिन वे इस बार केशव बलिराम हेडगेवारजी के रूप में आये।
पूर्वज---!
आज के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र के ग्राम 'कंदकुरती' में एक वैदिक स्वाध्यायी ब्राह्मण परिवार सहस्त्रों वर्षों से रहता था, जिसे हेडगेवार वंशी कहा जाता था। जगद्गुरु शंकराचार्य के समय से इस परिवार में वेदों का अध्ययन अध्यापन कार्य करने की दृष्टि से महत्व था। शरीर से हिष्ट पुष्ट होना हेडगेवार परिवार व वंशजों की विशेषता थी। आन्ध्र के मुस्लिम शासन में वेदाध्ययन व सनातन संस्कृति पर आघात से चिंतित तेलंगाना क्षेत्र के अनेक हिंदू वादियों ने मराठा साम्राज्य की ओर आकर्षित हुए और आकर वसने लगे। उसी समय हेडगेवार परिवार भी आकर नागपुर में भोसले राजा की छत्रछाया में बस गया। शीघ्र ही हेडगेवार परिवार को वैदिक विद्वान के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई।
केशव का जन्म
1अप्रैल 1889 वर्ष प्रतिपदा तिथि थी, परंपरा से हिंदू समाज में घरों पर भगवा ध्वज फहराया जा रहा था, वर्ष प्रतिपदा महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा पर्व के नाम से जाना जाता है। यह दिन हिंदू समाज के मन, हृदय और विवेक को भारत के इतिहास के घटनाक्रम, राष्ट्र की अस्मिता, संस्कृति व परम्पराओ एवं वीर, वैभवशाली पूर्वजों की विरासत का यशस्वी बोध कराता है। यदि किसी के घर में इस शुभ दिन की शुभ बेला में किसी बालक का जन्म हुआ तो इसे ईश्वर की महान अनुकंपा मानी जाती है। ऐसी ही खुशी का दिन नागपुर के गरीब ब्राह्मण हेडगेवार परिवार में आयी। केशव का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि संवत 1946 विक्रमी को प्रातः काल में हुआ था।
कोलकाता में शिक्षा के बहाने क्रान्ति दीक्षा की ओर
नागपुर, रामटेक इत्यादि स्थानों पर शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात अब केशव कोलकाता मेडिकल की शिक्षा हेतु रवाना हो गए ऐसा नहीं था कि मुम्बई, पुणे में मेडिकल कॉलेज नहीं था बल्कि केशव को तो और हो कुछ शिक्षा लेनी थी उन्हें यह पता था कि विश्व की सर्बोच्च क्रांतिकारी संगठन "अनुशीलन समिती" का केंद्र कोलकाता में था इसलिए केशव मेडिकल शिक्षा के लिए कोलकाता का चयन किया। केशव 1910 ई के मध्य में कोलकाता पहुंचे थे और वहाँ लगभग 6 वर्षों तक रहे। राष्ट्रीय स्वाभिमान की मूर्ति डॉ केशव की यह तेजस्विता क्रांतिकारी जीवन के अनुरूप ही थी। श्री नलिनी किशोर गुहा ने क्रांतिकारी संस्था "अनुशीलन समिति" की प्रतिज्ञा दिलाकर उन्हें अपनी समिति में दीक्षित कर लिया। उनका दल में गुप्त नाम कौकेन रखा गया, उन्होंने श्री अरविंद घोष, रासविहारी बोस इत्यादि क्रांतिकारियों से भेंट कर लिया। और तरुण शक्ति राष्ट्रीय स्वतंत्रता यज्ञ में बढ़ चढ़कर भाग लेना उनके जीवन की दिशा तय हो गई। उग्र क्रांतिकारी गतिविधियों से डरे हुए अंग्रेज अपनी राजधानी बदलकर 11 अप्रैल 1912 को दिल्ली कर लिया। केशव ने वहां अनुशीलन समिति की सदस्यता ग्रहण कर लिया था और देश आजादी के क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। अब उनकी शिक्षा पूर्ण हो गई वे 1916 में वापस नागपुर आ गए।
लोकमान्य तिलक से भेंट
अब केशव ''डॉ केशव बलिराम हेडगेवार'' बन चुके थे परिवार को भी अपेक्षा थी कि केशव डॉक्टर बनकर घर बसाएगा और धन कमायेगा लेकिन ईश्वर ने तो कुछ और ही विचार किया था, उन्हें तो देश के काम करवाने थे इसलिए उनके मन- मस्तिष्क में राष्ट्र के अतिरिक्त कुछ सूझता ही नहीं था। डॉक्टर जी के मन मस्तिष्क पर लाल, बाल और पाल की छाया घूमती रहती थी उन्हें यह ध्यान में था कि लाला लाजपतराय ने काशी में ''संत तुलसीदास'' द्वारा शुरू की गई रामलीला सारे उत्तर भारत में ''रामलीला'' कराना शुरू कर दिया, बिपिनचंद्र पाल ने जो दुर्गा पूजा घर के अंदर की जाती थी अब उन्होंने सार्वजनिक पूजा का स्वरूप दे दिया है, लोकमान्य तिलक ने गणेश पूजा को सार्वजनिक कर जनांदोलन खड़ा कर दिया। इन्हें पता था कि हिंदू समाज को धर्म द्वारा ही जगाया जा सकता है इसलिए देश आज़ादी के लिए इन महापुरुषों ने धर्म को ही हथियार बनाने का निर्णय लिया। सारे भारतीय संस्कृति, इतिहास का अध्ययन कर डॉक्टर जी लोकमान्य तिलक से मिलने पुणे पहुँचे। तिलक जी केशव बलीराम को ठीक प्रकार से समझते थे इसलिए उन्होंने कुछ समझाने का प्रयत्न नहीं किया अपने साथ एक सप्ताह रखा और चलते समय कहा डॉक्टर नागपुर जाते समय शिवनेरी के किले होकर जाना। डॉक्टर जी जब शिवनेरी के किले पर पहुंचे तो देखा कि जिस शिवाजी महाराज ने जीवन भर संघर्ष कर हिंदू पद पादशाही का निर्माण किया उन्हीं के जन्म स्थान पर मस्जिद व मजार बना हुआ है। यह देखकर डॉक्टर जी बिचलित हो उठे वे नागपुर पहुँच चिंतन करने लगे उनकी नीद बंद हो गई अब वे चिंतित न होकर चिन्तन में लग गए।
खिलाफत आंदोलन और डॉ आंबेडकर
डॉक्टर अम्बेडकर अपनी पुस्तक 'पार्टीशन ऑफ इंडिया पाकिस्तान' में लिखते हैं कि खिलाफत आंदोलन की पहली बैठक में गाँधी जी गए थे और अपने साथ स्वामी श्रद्धानंद सरस्वती को भी ले गए थे। जब मौलवियों के भाषण शुरू हुआ तो उन्होंने आह्वान किया कि काफिरों की हत्या कत्लेआम किया जाए। स्वामी श्रद्धानंद ने गाँधी से कहा कि ये तो हमे कत्ल करने की बात कर रहे हैं, इस पर गाँधी ने उत्तर दिया कि नहीं वे अंग्रेजों के लिए कह रहे हैं। अम्बेडकर आगे लिखते हैं कि जिसे यह नहीं पता है कि काफिर का अर्थ क्या है? इसलिए वे गाँधी को बहुत सारी हिन्दुओ के दुर्दशा का जिम्मेदार मानते हैं। और खिलाफत आंदोलन का गाँधी और कांग्रेस ने समर्थन किया जिसमें केवल "मोपला" में हज़ारों हिन्दुओं की हत्या की गई हज़ारों हिन्दू लड़कियों का बलात्कार किया, हजारों बहनों का बलात अपहरण किया, इतना ही नहीं हज़ारों हिंदुओं का बलात धर्मान्तरण किया गया। लेकिन गांधी व कांग्रेस ने मौन धारण कर लिया। आर्य समाज के लोगों ने मोपला का दौरा किया तमाम हिंदुओ की घर वापसी ही नहीं किया बल्कि हिंदू लड़कियों को मुस्लिम घरों से निकाला भी लेकिन गाँधी को सांप सूंघ गया था।
राष्ट्रवादी आंदोलन की मुख्यधारा से गायब
अंग्रेजों को लगा कि अब हमें जल्द ही भारत छोड़ना होगा! उसी समय ऐ ओ ह्यूम ने "सैफ्टिक वॉल्ब" हेतु एक राजनीतिक दल का गठन किया जिसका नाम कांग्रेस रखा, जिसमे किसी भी राष्ट्रवादी को प्रबेस नहीं! अब यह अंग्रेज क्रांतिकारियों से भयाक्रांत हो गया, उन्होंने बड़ी बुद्धिमानी से कांग्रेस की मुख्यधारा से लाल, बाल और पाल को बाहर किया इतना ही नहीं धीरे धीरे गाँधी को सर्वे सर्वा बनाने का काम किया। स्वामी श्रद्धानंद को हरिद्वार में गुरुकुल खोल, महर्षि अरबिंद पांडीचेरी और मालवीय जी को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में क्रांतिकारी निर्माण की प्रक्रिया जारी रखा। अब भगतसिंह, खुदीराम बोस, चंद्रशेखर आजाद जैसे हज़ारों क्रांतिकारी गाँधी को आतंकी लगने लगे इतना ही नहीं तो सुभाष बाबू को भी बाहर का रास्ता देखना पड़ा।
हिंदुत्व का मंत्र
भारत के सच्चे स्वरूप को भूले हुए हिंदू समाज को हिंदुत्व की सच्ची कल्पना से जगाना उन्हें राष्ट्र जागरण के लिए अनिवार्य प्रतीत हुआ। उसी समय स्वातंत्र वीर सावरकर ने "हिंदुत्व" नाम की एक पुस्तक की रचना की थी। यह ग्रंथ डॉक्टर जी को बड़ा ही उपयोगी लगा और वे उसके प्रसंसक ही नहीं तो प्रचारक जैसे हो गए। सावरकरजी की राष्ट्रभक्ति, विद्वत्ता आदि के प्रति आदर शील तो पहले से ही थे। अब डॉक्टर जी के मन में सावरकर जी के प्रति सम्मान और बढ़ गया।
डॉक्टर जी का जेल जीवन
डॉ केशव बलीराम हेडगेवार को राजद्रोह के केस में जेल हुई। जेल में सभी प्रकार के लोग थे जहाँ कट्टर मुस्लिम थे वहीं अच्छे आर्य समाजी भी थे, हेडगेवार जी प्रतिदिन महाभारत की एक कहानी सुनाते थे। सरलता पूर्वक मनोहारी कथाओं को सुनकर वे एक सन्यासी प्रतीत होते थे। जेल के अधिकारी 'नीलकण्ठराव जठर' उनके सात्विक चरित्र से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उन्होंने डॉ हेडगेवार से कहा-- "आप राजनीतिक वंदी नहीं, एक धार्मिक ब्यक्तित्व वाले ऋषि लगते हैं।" 'जलियांवाला बाग' दिवस पर एक छोटी सी सभा भी हुई, जिसमें डॉक्टर जी का राष्ट्रवाद पर भाषण हुआ, यह सब जठर के मन में उत्पन्न सहानुभूति के कारण बिना किसी विघ्न वाधा के संपन्न हुआ। उनकी देशभक्ति सभी विवादों से परे है। उन्होंने जेल में अपनी निष्ठा सावित की उनके असाधारण त्याग से उनकी जन्मजात देशभक्ति का गुण और भी चमकने लगा है। उनका जेल- जीवन पूरी तरह से निष्कलंक था। 11 जुलाई 1922 को वे जेल से बाहर आये एक लोकप्रिय नेता के समान उनका स्थान स्थान पर स्वागत किया गया।
डॉक्टर जी का चिन्तन
इन सभी घटनाओं से डॉ हेडगेवारजी चिंतित नहीं तो चिंतन करने लगे उन्हें ध्यान में आया कि सीमा रक्षक महान पराक्रमी कई बार मुहम्मद बिन कासिम को पराजित करने वाले राजा दाहिर की पराजय क्यों हुई ? बप्पारावल जिन्होंने अरब के खलीफा को केवल पराजित ही नहीं किया बल्कि उसे अरब सीमा के अंदर घुसकर उसके बेटी से विवाह के बाद सम्झौता किया, सीमा पर सिंध पार "चमरसेन वंश" ने तीन सौ वर्षों तक मुस्लिम आक्रांताओ को भारत भूमि में घुसने नहीं दिया। महान पराक्रमी "ललितादित्य" जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओ के छक्के छुड़ा दिया। 'महाराणा कुम्भा' से लेकर 'महाराणा राजसिंह' तक वीरों की श्रृंखला ही खड़ी है जिन्होंने परकियों का मुंहतोड़ जबाब दिया। दक्षिण में इस्लाम के सीने पर चढ़कर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना वीर शिरोमणि हुक्का राय और बुक्का राय ने किया जो तीन सौ वर्षो तक अपनी वैभवशाली पताका फहराता रहा। क्षत्रपति शिवाजी महाराज ने डंके की चोट पर हिन्दवी साम्राज्य की स्थापना की। कभी कभी कुछ लोग भ्रम फैलाने का प्रयास करता है कि मुगलों का शासन सम्पूर्ण भारत वर्ष में था लेकिन उन्हें नहीं पता कि महाराजा सूरजमल ने औरंगजेब को केवल पराजित ही नहीं किया बल्कि लालकिले का दरवाजा उखाड़ कर लाया जो भरतपुर किले में आज भी मौजूद है। इतना ही नहीं तो महाराज सूरजमल के पुत्र नाहर सिंह ने तो आगरा में स्थित अकबर की मजार को खोदकर हड्डियों को जला डाला। डॉ केशव बलीराम को लगा इतने पराक्रमी हमारे पूर्वज थे तो यह देश बार बार गुलामी की ओर क्यों बढ़ जाता है? इसलिए उन्होंने तिलक जी की बात का ध्यान किया उन्होंने शिवाजी महाराज के संगठन कुशलता पर गौर किया। उन्हें लगा कि लाल, बाल और पाल के मन में भी हिन्दू संगठन! यदि हिंदू संगठित रहेगा देश भक्त रहेगा सुसंस्कारित रहेगा तो इस देश को न कोई पराजित कर सकता है न ही अपना प्रभाव बना सकता है। डॉक्टर जी को एक ही विकल्प दिखाई दिया वह है जीता जागता संगठित हिंदू समाज और वे हिंदू संगठन की स्थापना की ओर बढ़ गए।
संघ की स्थापना
डॉक्टर जी के मन में उत्कट राष्ट्रभक्ति हिलोरे ले रही थी। वे हिंदू समाज के अंदर राष्ट प्रेम की पवित्र भावना भरना चाहते थे। इसलिए इन सभी घटनाओं ने डॉक्टर जी को हिंदू संगठन के लिए प्रेरित किया अब वे हिंदू राष्ट्र के संगठन के लिए विचार विमर्श हेतु 'वीर सावरकर' से मिलने गए। उस समय सावरकरजी रत्नागिरी में सीमावद्ध थे और प्लेग के प्रकोप के कारण समीपस्थ शिरगाव में थे। उनके साथ तत्कालीन कुछ मित्र भी थे। डॉक्टर जी को यह अनुभूति बार बार होती कि उनके द्वारा राष्ट्र का कुछ मौलिक रचनात्मक कार्य अवस्य होगा। परतंत्र और सुप्त चेतना वाले विशाल भारत को चैतन्य युक्त करने, राष्ट्रभक्ति पुर्बक जीवन जीकर दिखाने वाले नागरिकों को तेजस्वी बनाने और सरबत्र जीवन के अभाव को दूर करने के लिए उन्होंने यह आवश्यक समझा। संवत 1982 विक्रमी की विजयदशमी का पवित्र दिन था-- 27 सितंबर 1925 इस दिन अपने घर में अपने घनिष्ट मित्रों तथा कुछ उत्साहित देशभक्तों तरूणों की एक बैठक की उसी में संघ के स्थापना की घोषणा कर दिया। उसमें प्रमुख रूप से श्री भाउजी कावरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथ राव केलकर, इत्यादि थे। अभी संघ के नाम के लिए बहस हो रही थी 17 अप्रैल 1926 को डॉक्टर जी ने अपने घर पर एक बैठक बुलाई इसमें 26 लोग उपस्थित थे। तीन नाम उभरकर सामने आया उसमें सावलपुरकर द्वारा सुझाव व अपने तर्क पूर्ण भाषण द्वारा सिद्ध किया कि "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ" नाम ही अच्छा रहेगा, यही नाम सर्वसम्मति तय हुआ। 'जरी-पटका मंडल' तथा 'भारतोद्धारक मण्डल' इतना अच्छा प्रतीत नहीं हुआ। "यह मानना बिल्कुल गलत होगा कि हिंदू संगठन मुसलमानों के विरुद्ध है। हिन्दुस्थान हमारा सब कुछ है, यह निष्ठा बलवती करने के लिए एक हिंदू संगठन की आवश्यकता है।"
हिंदू समाज में चेतना का प्रवाह
हिंदू समाज में हमेशा सामाजिक सांस्कृतिक सुधार के लिए अनेक महापुरुषों ने काम किया है, तथा हिंदू धर्म को सुदृढ़ और संगठित करने के लिए प्रयास किया गया है। स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा 'आर्य समाज,' (1875) स्वामी विवेकानंद जी के द्वारा 'रामकृष्ण मिशन' जैसे अनेक संगठन थे। हिंदू समाज में सुधार की प्रक्रिया होने के कारण तात्कालिक राजनीतिक परिवेश एवं राष्ट्रीय चेतना को भी प्रभावित किया। इसलिए आर्यसमाज अपनी सभी गतिविधियों में राष्ट्रवाद एवं लोकतंत्र की भावना से प्रेरित था। स्वामी विवेकानंद, लाला लाजपतराय, बालगंगाधर तिलक, महर्षि अरविंद, विपिनचन्द्र पाल, बंकिमचंद्र, आदि सभी चिंतकों ने हिंदू सभ्यता, संस्कृति एवं हिंदू राष्ट्र को संकीर्ण, धार्मिक, साम्प्रदायिक, जातिय, भाषाई अथवा क्षेत्रीय धारणाओँ से ऊपर उठकर देखा है। भारतवर्ष का स्वरूप आध्यात्मिक है और राष्ट को देवी का स्वरूप स्वीकार किया गया है। अर्थात सभी धर्मों (कर्तब्यों) में श्रेष्ठ राष्ट्रधर्म है। ब्यक्तिगत धर्म और राष्ट्र धर्म के बीच विरोधाभास नहीं होता है। भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति के पुनर्जागरण का काल हिंदू पुनर्जागरण का काल था क्योंकि धर्म सुधार आंदोलन का प्रभाव केवल हिन्दुओं पर पड़ा यदि यह माना जाय कि धर्म केवल हिंदुओं के लिए है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा। कांग्रेस स्थापना काल में किसी भी आर्यसमाजी को कांग्रेस की सदस्यता नहीं दी जाती थी।
राष्ट्रवादियों की भूमिका
शुद्धि और संगठन की घोषणा आर्यसमाज ने की तथा स्वामी श्रद्धानंद ने "भारतीय हिंदू शुद्धि सभा" की स्थापना की। 1915 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा की स्थापना की गई। नागपुर में डॉ मुंजे के नेतृत्व में मालावार (केरल) में एक जाँच कमेटी भेजी गई जिसने वहाँ हिंदुओं पर अत्याचार की घटनाओं को पूरे राष्ट्र के सामने रखा। असहयोग आंदोलन के बाद मुसलमानों में उग्रता अधिक हो गई। इसीका परिणाम था कि 1822 में गया अधिवेशन की अध्यक्षता पंडित मदनमोहन मालवीय कर रहे थे, उन्होंने अपने भाषण में हिंदुओं को आत्मरक्षा के लिए संगठित होने की अपील की। मोपला दंगे पर गठित नागपुर कमीशन की रिपोर्ट न भी धार्मिक आधार पर हिन्दुओं में एकता स्थापित करने की बात कही। विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक "हिंदुत्व" (1923) ने पूरी प्रक्रिया को सैद्धांतिक रूप प्रदान किया।इस प्रकार आर्य समाज, हिंदू महासभा एवं अन्य हिंदू संगठनों में इस बात पर सहमति बनी थी कि तत्कालीन परिस्थिति में हिंदुओं को राजनीतिक शक्ति एवं संगठन के रूप में अग्रगणी भूमिका निभानी चाहिए। वे इसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद एवं मुस्लिम उग्रता और प्रभुत्व के खतरों दोनों का मूल समाधान मानते थे। हिंदू चेतना के मंथन में एवं हिंदुओं के भविष्य की योजनाओं पर प. मदनमोहन मालवीय, भाई परमानन्द, डॉ मुंजे, वीर सावरकर, स्वामी श्रद्धानंद, एवं लाला लाजपतराय एकाग्रता से लगे हुए थे।
वैचारिक पृष्ठभूमि
डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, से लेकर मदनमोहन मालवीय, सावरकरजी तक हिंदू चिन्तन एवं हिंदुओं की गतिविधियों पर डॉ हेडगेवार का ध्यान था। वे इनसे कितने सहमत थे कुछ कहा नहीं जा सकता था। डॉ हेडगेवार ने कहा था कि संघ का मूलमंत्र वैचारिक क्रियाशीलता है। "यह ठीक तरह से समझ लो कि संघ न तो व्यायाम शाला है, न ही क्लब है, न मिलिट्री स्कूल ही। संघ हिंदुओं का राष्ट्रवादी संगठन है, जिसे फौलाद से भी अधिक मजबूत होना चाहिए।" अब संघ के चौदह वर्ष हो गए हैं डॉक्टर जी ने संगठन व विचार, कार्य पद्धति के लिए सिन्दी नामक स्थान पर 10 दिवसीय कार्यशाला आयोजित की गई , जिसमे डॉक्टर जी सहित श्री गुरु जी, अप्पाजी जोशी, नानासाहब, बाबाजी सलोडकार, तात्या तैलंग, कृष्णराव मोहरीर, बिट्ठल राव पातकी और बाला साहब देवरस इत्यादि सम्लित हुए। संघ की यह बहुत महत्वपूर्ण चिंतन बैठक हुई जिसमें कार्यपद्धति, प्रार्थना, प्रतिज्ञा आदि सब कुछ दस दिनों में तर्क, बहस व विचार-बिमर्ष के द्वारा सर्वसम्मति से तय किया गया। सामान्यतया संगठन में दो प्रकार के काम होते हैं औपचारिक और अनौपचारिक।
स्पष्ट दृष्टिकोण
संघ का अंतिम लक्ष्य स्वराज्य प्राप्त करना है, डॉ हेडगेवारजी ने कहा कि अंग्रेज कई बार यह आस्वासन दे चुकी है। डॉक्टर जी को वायसराय और ऋषि दयानंद सरस्वती की वार्ता का ध्यान था! जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया तो स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की वे जानते थे कि बिना हिन्दू संगठन केदेश का भविष्य ठीक नहीं होने वाला है। अंग्रेजों की राजधानी कोलकाता थी "स्वामी दयानंद सरस्वती" 'ब्रम्हसमाज' के केन्द्र (कोलकाता) में रुके थे प्रतिदिन प्रवचन करते सुनने के लिए सैकड़ों लोग आते उनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। प्रतिदिन स्वामी जी प्रवचन में कहते कि बिना स्वराज्य के स्वधर्म का पालन नहीं हो सकता। अब यह समाचार आग के समान चारों ओर फैलने लगा दिन बदिन संख्या बढ़ने लगी। तभी वायसराय ने 'स्वामी दयानंद सरस्वती' को मिलने के लिए बुलाया बग्घी आयी 'स्वामी जी' वायसराय से मिलने पहुँचे। वायसराय ने पूछा स्वामी जी "स्वधर्म" यानी क्या है ? स्वामी जी बोले-- सनातन वैदिक धर्म ही स्वधर्म है! "स्वराज्य" क्या है -? स्वामी जी ने कहा आपको इंग्लैंड भेज देना "स्वराज्य" है वह घबड़ाया और तुरंत बग्घी से स्वामी जी को 'ब्रम्हसमाज' के केंद्र पर भेज दिया। डॉक्टर जी के स्वराज्य की परिभाषा कुछ इसी प्रकार थी।
आज संघ के चौदह वर्ष हो गए हैं, हम यौवन की ओर बढ़ रहे हैं। बहुत प्रकार की गतिविधियां हैं परंतु संघ ने सभी को छोड़कर केवल एक काम चुना है वह है हिंदू संगठन। अब गुप्तचर विभाग ने भी नजर रखना शुरू कर दिया है, वर्धा के एक कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के नाते 'डॉ मुंजे और परांजपे' थे वक्ताओं ने कहा कि तत्कालीन उद्देश्य तो हिन्दुओ को अपनी सुरक्षा के लिए संगठित करना है लेकिन अंतिम लक्ष्य तो "स्वराज्य" प्राप्त करना ही है।
अंतिम कार्यक्रम (प्रयाण)
वे 24 दिनों से रुग्ण शैया पर पड़े थे चिकित्सकों की राय के बावजूद नागपुर संघ शिक्षा वर्ग में जाने की जिद! अंत में उन्हें अनुमति मिली, 9 जून 1940 को उन्होंने वर्ग में अपना अंतिम बौद्धिक दिया। इस बौद्धिक में सभी का भ्रम टूट गया। उन्होंने कहा-- 'संघ की दृष्टि से यह बड़े सौभाग्य का विषय है आज अपने सामने हिंदू राष्ट्र की छोटी सी प्रतिमा देख रहा हूँ। इसी बीच जब वह मृत्यु शैया पर अंतिम सांस ले रहे थे उसी समय नेताजी सुभाषचंद्र बोस उनसे मिलने 20 जून 1940 को नागपुर आये। डॉ हेडगेवारजी के पास कुछ देर तक बैठने के बाद उन्हें प्रणाम करके वह चले गए। एक महान राष्ट्रवादी का दूसरे राष्ट्रवादी के लिए यह अंतिम प्रणाम सिद्ध हुआ। अगले ही दिन डॉ हेडगेवार अपने पार्थिव शरीर को छोड़कर ईश्वर के इहलोक में अनंत विश्राम के लिए चले गए।
वयम राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता
ऋग्वेद की एक ऋचा है जिसमे भगवान कहते हैं कि राष्ट्र जागरण के लिए पुरोहितों को सतत जागृत रहने की आवश्यकता है जिससे राष्ट्र में हमेशा जागरूकता बनी रहे। संघ के संस्थापक ने ऋग्वेद की इसी ऋचा को ध्यान रखकर संघ में राष्ट्रवाद की विचार धारा को प्रवाहित किया। आज यही ऋचा की सार्थकता है... "वयम राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता।"
3 टिप्पणियाँ
आज भी डाक्टर ज के द्वारा प्रारंभ की गई शाखा के बदौलत भारत की आत्मा हिंदुत्व दर्शन जीवित है।
जवाब देंहटाएंअत्यन्त सारगर्भित लेख
जवाब देंहटाएंश्रीमान आदरणीय सूबेदार जी भाई साहब ने अपनी लेखनी से प्रासंगिक प्रमाणिकता का अद्वितीय चित्रण किया है, पड़कर एक अभूतपूर्व ऊर्जा की अनुभूति हुई, श्री भाई साहब का मार्गदर्शन इस दिशा में अतुलनीय है, इसी प्रकार अन्य लेखों की हार्दिक इच्छा पूरी करने का निवेदन श्रीमान समक्ष प्रस्तुत आभार प्रकट करता हूं डा सतीश उपाध्याय पत्रकार स्वयंसेवक
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