महाराणा अमरसिंह

भारतीय सत्ता का केंद्र 

भारत में समय समय पर सत्ता का केंद्र बदलता रहा है कभी हस्तिनापुर कभी इंद्रप्रस्थ तो कभी पाटलिपुत्र और कभी उज्जैन लेकिन मै उस समय की बात कर रहा हूं जब सत्ता का केंद्र मेवाड़ हुआ करता था यह समय आठवीं शताब्दी से लेकर लगभग सोलहवीं शताब्दी तक था। बमपंथी भारत विरोधी इतिहासकारों ने विदेशी सत्ता को स्थापित करने के लिए इस आठ सौ वर्षों के इतिहास की गलत व्याख्या किया और भारत, भारतीय संस्कृति व भारतीय स्वाभिमान को अपमानित करने का काम किया। लेकिन सच छुपाने से नहीं छुपता वह बाहर आ ही जाता है और आज वास्तविकता बाहर भारतीय स्वाभिमान बाहर निकल कर आ रहा है उसी स्वाभिमान के प्रतीक के रुप में मुगलों को बार बार पराजित करने वाले महाराणा अमरसिंह।

राणा अमरसिंह का जन्म 

16 मार्च, 1559 ई. को महाराणा प्रताप व महारानी अजबदे बाई के पुत्र कुँवर अमरसिंह का जन्म हुआ। जब मानसिंह को अकबर ने वार्ता के लिए मेवाड़ भेजा तो महाराणा प्रताप ने 1573 ई. में राजा मानसिंह से सन्धि के वार्तालाप हेतु कुँवर अमरसिंह को भेजा था। 1576 ई. में हुए हल्दीघाटी युद्ध के दौरान कुँवर अमरसिंह को जनाने की सुरक्षा हेतु उदयपुर राजमहलों की व्यवस्था में तैनात किया गया था। 1582 ई. में हुए दिवेर के भीषण युद्ध में कुँवर अमरसिंह ने मेवाड़ की एक सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व किया और मुगल सेनापति सुल्तान खां को उसके कवच व घोड़े समेत भाले से नाथ कर वध कर दिया । इस विजय ने कुँवर अमरसिंह की ख्याति समूचे राजपूताने में प्रसिद्ध कर दी। 1587 ई. में कुँवर अमरसिंह ने गुजरात के किसी शाही थाने पर आक्रमण करके दंड वसूल किया। 1597 ई. में महाराणा प्रताप के देहांत के बाद उनका अंतिम संस्कार करके राजगद्दी पर बैठे। महाराणा अमरसिंह ने मेवाड़ में कई सुधार कार्य करवाए और मेवाड़ को सुदृढ़ किया।

मानसिंह को भी पराजित किया 

1580 ई. में अकबर ने अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को फौज सहित मेवाड़ भेजा। महाराणा प्रताप ने कुँवर अमरसिंह द्वारा बंदी बनाई गई रहीम की बेगमों को मुक्त कर क्षात्र धर्म का पालन किया। रहीम इस अभियान में बुरी तरह असफल रहा।

1599 ई. में अकबर ने राजा मानसिंह कछवाहा और अपने बेटे जहांगीर को फौज सहित महाराणा अमरसिंह के खिलाफ मेवाड़ भेजा। जहांगीर ने उदयपुर पर हमला किया। महाराणा अमरसिंह ने मुगल फौज को आमेर तक खदेड़ दिया व मालपुरा को लूटते हुए मेवाड़ आए।महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से सुल्तान खां खोरी को मारकर बागोर पर अधिकार किया व इसी तरह रामपुरा पर भी अधिकार किया। 1600 ई. में अकबर ने मिर्जा शाहरुख को फौज समेत मेवाड़ भेजा, पर महाराणा ने हार नहीं मानी। 1600 ई. में महाराणा अमरसिंह ने अपने हाथों से ऊँठाळा दुर्ग में तैनात कायम खां को मारकर दुर्ग पर अधिकार किया। 1603 ई. में अकबर ने जहांगीर को दोबारा मेवाड़ भेजा, पर महाराणा अमरसिंह से मिली पिछली पराजय से घबराकर वह मेवाड़ अभियान छोड़कर गुजरात चला गया।

छापामार युद्ध द्वारा 

1605 ई. में जहांगीर मुगल बादशाह बना व उसने आसफ खां और शहजादे परवेज को 50 हज़ार की सेना सहित मेवाड़ भेजा। 1606 ई. में हुए देबारी के युद्ध में महाराणा अमरसिंह ने शहजादे परवेज को पराजित किया। 1608 ई. में जहांगीर ने शहजादे परवेज को बुलाकर महाबत खां को 15000 की फौज समेत मेवाड़ भेजा। महाराणा अमरसिंह ने महाबत खां को भी छापामार युद्ध नीति से पराजित किया। 1609 ई. में महाराणा अमरसिंह ने सेना भेजकर मांडल के थाने पर आक्रमण किया, जहां मुगल सेनापति जगन्नाथ कछवाहा की घावों के चलते कुछ दिन बाद मृत्यु हो गई। 1609 ई. में जहांगीर ने फौज समेत अब्दुल्ला खां को मेवाड़ भेजा।

जहांगीर को भी कई बार पराजित किया 

1611 ई. में रणकपुर के युद्ध में महाराणा अमरसिंह ने अब्दुल्ला खां को पराजित किया। 1611 ई. में जहांगीर ने अब्दुल्ला खां को बुलाकर राजा बासु को मेवाड़ भेजा। 1613 ई. में महाराणा अमरसिंह ने शाहबाद थाने पर आक्रमण किया, जिसमें राजा बासु की मृत्यु हो गई। 1613 ई. में जहांगीर ने फौज समेत मिर्जा अजीज कोका को मेवाड़ भेजा, पर वह भी महाराणा अमरसिंह को परास्त न कर सका। 1613 ई. में जहांगीर स्वयं अजमेर पहुंचा लगातार पराजय के पश्चात, उसने वहां से शाहजहां को सभी मुगल सेना सहित मेवाड़ भेजा।

देबारी का युद्ध 

मार्च, 1606 ई. में मुगल बादशाह जहाँगीर का बेटा परवेज़ मेवाड़ी फौज से जगह-जगह होने वाली मुठभेड़ से तंग आकर चारों तरफ की फौजें मिलाकर ऊँठाळा और देबारी के बीच में आया। महाराणा अमरसिंह ने भी अपनी फ़ौजी टुकड़ियां इकट्ठी कर दीं और मुगलों से सामना करने के लिए रवाना हुए। महाराणा अमरसिंह और भील सेना के सर्वप्रमुख राणा पूंजा के बेटे राणा रामा ने शाही फौज पर रात के वक्त जोरदार हमला किया। इस युद्ध में दोनों पक्षों के मिलाकर लगभग 50 हज़ार सैनिकों ने भाग लिया। मुगल फौज के कई सैनिक मारे गए और भीलों ने रसद और हथियार वगैरह छीनकर मुगलों को भारी नुकसान पहुंचाया। परवेज़, जिसे पहाड़ी लड़ाइयों का कोई अनुभव नहीं था, चारों खाने चित्त हुआ। किसी तरह जान बचाकर शहज़ादा परवेज़ भागकर मांडल की ओर चला गया। इस तरह महाराणा अमरसिंह ने देबारी के इस युद्ध में शाही फौज को करारी शिकस्त दी। जहाँगीर अपनी आत्मकथा में अपने बेटे परवेज़ की पराजय के बारे में लिखता है कि "राणा अमर के खिलाफ़ परवेज़ को कोई कामयाबी नहीं मिली और मैंने उसको वापिस बुला लिया"।

मेवाड़ बंदियों की सुरक्षा हेतु समझौता 

1615 ई. में मेवाड़ के बन्दी नागरिकों की रक्षा की खातिर महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से सन्धि कर ली। सन्धि के बाद चित्तौड़ पर महाराणा अमरसिंह का अधिकार हुआ। 1615 ई. से 1620 ई. तक महाराणा अमरसिंह उदयपुर में एकान्तवास में रहे। 26 जनवरी, 1620 ई. को महाराणा अमरसिंह का देहान्त हो गया। एक ऐसे योद्धा, जिन्होंने अपने जीवनकाल में महाराणा बनने के बाद 18 वर्षों तक संघर्ष करते हुए 17 बड़ी लड़ाईंयों में बहादुरी दिखाई और मुगल सेना को 17 बार पराजित किया व 100 से अधिक मुगल थानों पर विजय प्राप्त की।

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