जम्मू&कश्मीर अधिमिलन के नायक महाराजा हरि सिंह

 

महाराजा हरिसिंह केवल जम्मू-कश्मीर रियासत के ही राजा नहीं बल्कि अगर यह कहा जाय कि उनके अंदर भारतीय राजाओं का नेतृत्व करने की क्षमता थी तो यह कम नहीं है। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भारतीय राजाओं की ओर ले जो कहा उससे साबित होता है कि वे प्रखर राष्ट्रवादी भी थे। गोलमेज सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि आप (अंग्रेज) देश को छोड़िये, हम भारतीय तय करेंगे कि हमें कैसे रहेंगे, क्या करेंगे यह हमारे ऊपर छोड़ दिया जाय। वास्तविकता यह है कि उस समय इतना कड़ा, सत्य बोलना और स्वतंत्रता की बात करना यह कोई आसान बात नहीं थी इसी कारण ब्रिटिश शासन हमेशा राजा हरीसिंह के खिलाफ षड्यंत्र करती रहती थीं।

डोगरा राजवंश

16 जून, 1822 को जब राजा रणजीत सिंह ने स्वयं अपने हाथों से गुलाब सिंह को जम्मू का परवाना दिया जिसके अनुसार, "इस पावन अवसर पर मैं अत्यंत प्रसन्नता एवं स्नेहसिक्त हृदय से गुलाब सिंह को चकला जम्मू का राज्य प्रदान करता हूँ। यह राज्य लंबे अंतराल से गुलाब सिंह के पूर्वजों के पास ही रहा है इनके पूर्वजों ने भी लंबे समय तक मेरे पिता जी की अत्यंत विस्वास के साथ सेवा की थी। इन तीनों भाइयों ने भी समर्पण भाव से सेवा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा ये सदा मेरे विस्वासपात्र और राज्य के प्रति निष्ठावान बने रहे। काबुल युद्ध, सीमांत विद्रोह, मुल्तान एवं जम्मू-कश्मीर विजय अभियानों में अपना रक्त बहाया है, इनकी इन्हीं सेवाओं को ध्यान में रखते हुए मैं जम्मू का राज्य राजा गुलाब सिंह और उनके उत्तराधिकारियों को प्रदान करता हूँ।" 

राज्य विस्तार

राजा गुलाब सिंह ने अगले पंद्रह वर्षों में अपने तीनों भाइयों के साथ मिलकर आसपास के सभी छोटे छोटे रजवाड़ों को जीत लिया। जनरल जोरावरसिंह के नेतृत्व में गुलाब सिंह की सेनाओं ने लद्दाख और बलुटिस्तान को पराजित कर तिब्बत तक पर आक्रमण कर दिया उन्होंने भारत की सीमाओं को उसके स्वाभाविक स्वरूप में पुनः स्थापित करने का निर्णय किया। और धीरे धीरे एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसे स्वायत्त शासन देकर उत्तर में भारत की सीमाओं का विस्तार किया। गुलाब सिंह पर रणजीत सिंह का बहुत विस्वास था और गुलाब सिंह भी उनके प्रति निष्ठावान थे, अतः राजा रणजीत सिंह ने कभी भी इन विजय अभियानों का विरोध नहीं किया, क्योंकि गुलाब सिंह यह सब लाहौर दरबार के नाम पर ही करते थे।

षडयंत्रों के शिकार

दुर्भाग्य से 59 वर्ष की आयु में राजा रणजीत सिंह का देहांत 27 जून 1839 को हो गया, उसके साथ ही इस्टइंडिया कंपनी ने अपने राज्य विस्तार के लिए पंजाब पर नजरें जमा दी। महाराजा रणजीत सिंह की मौत के बाद पश्चिमोत्तर भारत में उनका विशाल साम्राज्य खंडित होने लगा, दरबार में उत्तराधिकार के लिए घमासान, षड्यंत्र, घात प्रतिघात होने लगा। महलों के इन षड्यंत्रों में गुलाब सिंह के भाई षड्यंत्रकारियों के शिकार हो गए, उनके परिवार के लोग मारे जा रहे थे, ध्यान सिंह का दिन दहाड़े कत्ल, गुलाब सिंह का बेटा मारा गया, इतना ही नहीं रानी जिंदा ने गुलाब सिंह को बंदी बना लिया और उन्हें मारने की साजिश रची। यह तो उनकी किस्मत थी कि किसी तरह वे जम्मू अपने राज्य में पहुंच गए।

सफल होते षड़यंत्र 

अंग्रेज अधिकारी अपने षड्यंत्र में सफल हो गए प्रधानमंत्री और सेनापति अपने जासूसों को बनवा दिया, 1845 नवंबर में लाहौर रियासत के प्रधानमंत्री लालसिंह और सेना के कमांडर इन चीफ तेजा सिंह बन गए थे ये दोनों भेदिये थे। जंगनामा में इसका उल्लेख शाहमुहम्मद ने महारानी के साज़िश का उल्लेख किया है। खालसा सेना का मुकाबला ब्रिटिश सेना से आसान नहीं था, "इस संकट काल में सिखों को जिस सैन्य नेतृत्व की आवश्यकता थी वह राजा गुलाब सिंह ही प्रदान कर सकते थे, लेकिन दुर्भाग्य से उनके पूरे परिवार के साथ जो ब्यवहार लाहौर दरबार ने किया था। उसके चलते वे लाहौर आने की जल्दबाजी में नहीं थे, उन्हें पेशावर मोर्चा सम्हालने के लिए कहा तब गुलाब सिंह ने उत्तर भेजा, "ब्रिटिश अधिकारियों ने किसी समझौते का उलंघन नहीं किया है और न ही वचन भंग किया है। अन्ततः गुलाब सिंह लाहौर पहुँचे और 27 जनवरी 1846 को उन्होंने लाहौर दरबार के प्रधानमंत्री का दायित्व सम्हाला गुलाब सिंह चाहते थे कि यदि अंग्रेजों से मोर्चा लेना है तो सबसे पहले अपने घर को ठीक करने की आवश्यकता है। राजा गुलाब सिंह ने अपने जीते जी, 8 फरवरी 1856 को अपने बेटे रणबीर सिंह को अपनी राजगद्दी सौंप दिया और स्वयं कश्मीर का राज्यपाल बनकर श्रीनगर चले गए। गुलाब सिंह ने 21 वर्ष राज किया और दो अगस्त 1857 को अंतिम श्वास लिया।

राजवंश की चौथी पीढ़ी महाराजा हरि सिंह

गुलाब सिंह ने अगस्त 1857 में अंतिम श्वास लिया और उनके 37 साल बाद 23 सितंबर 1895 को हरिसिंह का जन्म हुआ और संयोग ही है कि वे इस राजवंश के अंतिम राजा साबित हुए। 13 वर्ष की आयु में हरि सिंह पढ़ने के लिए "मेयो कालेज" अजमेर गए, इसकी स्थापना 1885 में लॉर्ड मेयो ने उस समय के रियासतों के राजकुमारों के लिए बनाया था। जिसका उद्देश्य था कि राजकुमारों को ब्रिटिश संस्कृति में ढालना और अंग्रेजों के पक्ष में खड़ा करना। लेकिन राजाओं ने मांग की कि उनके बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़े रखने के लिए कालेज में ब्यवस्था करनी चाहिए, न चाहते हुए भी कालेज में एक संस्कृति का आचार्य रखना पड़ा। विद्यालय में प्रवेश करने के एक साल बाद ही 1909 में हरि सिंह के पिता अमर सिंह का निधन हो गया। उस समय हरि सिंह 14 वर्ष के थे। 1918 में हरि सिंह को राजा घोषित कर दिया गया। जिसका परोक्ष रूप से वे महाराजा प्रताप सिंह के उत्तराधिकारी होंगे, सितंबर 1925 में महाराजा प्रतापसिंह की मृतु हो गई और हरिसिंह गद्दीनशीन हो गए। लेकिन उनका राजतिलक फरवरी 1926 जम्मू में हुआ, राजतिलक के बाद हरि सिंह को भारतीय सेना में कर्नल की मानद उपाधि दी गई। राजा हरि सिंह का विवाह 7 मई,1913 को सौराष्ट्र के राजकोट में हुई, शादी के दस महीने बाद ही प्राकृतिक कारणों से उनकी पत्नी श्री लाल कुँवर साहिबा का देहांत हो गया। उनकी दूसरी शादी 8 नव 1925 को चम्बा रानी साहिबा के साथ हुई। महराज की दूसरी पत्नी भी नहीं रहीं, अंततः हरि सिंह ने तीसरी विवाह सौराष्ट्र धर्मकोट रियासत के महाराजा की बेटी के साथ हुई। महारानी बहुत गुणवान दयालु और निश्चल थीं।

राजा हरि सिंह और ब्रिटिश सरकार

14 अक्टूबर 1925 को जम्मू कश्मीर में ब्रिटिश राजनैतिक एजेंट ने अनौपचारिक रूप से हरी सिंह के महाराजा होने की घोषणा की लेकिन इसके बाद अपने बाइस सालों के शासन में हरि सिंह ने यदि किसी की चेतावनी की दिल दिमाग से अवहेलना की तो यह यही चेतावनी थी। राजा हरि सिंह को अपने ताया प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद 23 सितंबर, 1925 को गद्दी प्राप्त किया और 26 अक्टूबर, 1947 को उन्होंने रियासत की प्रशासकीय व्यवस्था का देश की नई संघीय संवैधानिक व्यवस्था में विलय कर दिया। राजा हरि सिंह की योग्यता के बारे में अंग्रेजों को कोई संदेह नहीं था, हरि सिंह सत्ता सम्हालने के बाद कुछ ही महीने में श्रीनगर स्थिति ब्रिटिश रेजिडेंट जे.बी. वुड द्वारा ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक सचिव को 22 जनवरी 1926 को भेजी रिपोर्ट के अनुसार, हाल के इतिहास में पहली बार हुआ है कि कश्मीर एक सुसंगठित रियासत के तौर पर दिखाई दे रहा। और उस पर ऐसे महाराजा का शासन है जिसके पास पूरी शक्तियाँ भी है। 1930 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों से बात करने के लिए लंदन में गोलमेज सम्मेलन बुलाया, इसमें भाग लेने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय राजाओं के प्रतिनिधि के रूप में महाराजा हरि सिंह को आमंत्रित किया। उस समय उनकी पत्नी तारा देवी गर्भवती थी, प्रसव के कारण उन्हें वे साथ लेकर गए। फ्रांस के एक हॉस्पिटल में भरती करा दिया, वहीं से वे लंदन में होने वाले गोलमेज सम्मेलन में चले गए। 

रियासतों के नेता महाराजा हरि सिंह 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस गोलमेज सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया लेकिन हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग इसमें भाग ले रहे थे। डॉ आंबेडकर भी गोलमेज सम्मेलन में लंदन पहुंचे थे, यह गोलमेज सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 से लेकर 19 जनवरी, 1931 तक चला। 12 नवंबर की घटना है कि इंग्लैंड सरकार के भारत के लिए सचिव जिसे लंदन में मंत्री कहा जाता था, सर सैम्युल होरे बहस के दौरान भारतीय स्वतंत्रता की मांग का पुरजोर विरोध किया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। राजाओं के प्रतिनिधि के कारण राजा हरि सिंह उठे और उन्होंने सैम्युल होरे को उत्तर दिया, "ब्रिटिश सरकार के मित्र के नाते हम आपके साथ हैं लेकिन भारतीय होने के कारण हम सभी अपनी मातृभूमि, जिसने हमे जन्म दिया, हमारा पालन पोषण किया उसके प्रति निष्ठावान हैं। हम अपने देशवासियों के साथ ब्रिटिश राष्ट्रमंडल में अपने देश की सम्मानजनक एवं समान की मांग के पक्ष में मजबूती से खड़े हैं।" इस भाषण में उन्होंने कहा कि "हम सबने भारत की धरती पर जन्म लिया है और इसकी मिट्टी में पले बढ़े हैं, अतः भारतीय होने के नाते हम सभी युवराज, शासक भारत की सम्मानजक स्थिति और समानता के अधिकार के लिए पूरी निष्ठा के साथ देशवासियों के साथ हैं।"

 गोलमेज सम्मेलन का परिणाम

राजा हरि सिंह ने लंदन, गोलमेज सम्मेलन में जो भारतीय एकता स्वतंत्रता के पक्ष में कहा था वह अंग्रेजों को अच्छा नहीं लगा! 15 जनवरी 1931 को लंदन में भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज बुलंद की थी, अंग्रेजों ने अपने तरीके से छः महीने में उत्तर देना शुरू कर दिया। अफगानों से कश्मीर आज़ाद होने के बाद अभी तक कश्मीर में कोई हिंदू मुस्लिम बिबाद नहीं हुआ था, लेकिन अब महाराजा के खिलाफ जिहाद राजा को हटाकर दीन का शासन, उसके लिए श्रीनगर से लेकर जम्मू तक अलीगढ़ी पार्टी ने अब्दुल कादिर के नेतृत्व में उपद्रव करना शुरू कर दिया। हिंदू महाराजा के खिलाफ मोमिनों का जिहाद! राजा को ललकारने वाला ये अब्दुल कादिर कौन था? ये गली मोहल्ले का लोफर! घाटी में अफगानों के शासन समाप्त होने के बाद यह पहली घटना थी। कादिर गिरफ्तार कर लिया गया था, 31 जुलाई 1931 को श्रीनगर जेल में सुनवाई चल रही थी बाहर एकत्रित भीड़ ने उसे छुड़ाने का प्रयास किया, जेल के दरवाजे तोड़ने का प्रयास किया। पुलिस को गोली चलानी पड़ी इस गोली बारी में 22 लोग मारे गए। मुस्लिम उपद्रवियों ने हिंदुओं की दुकानें लूटना शुरू कर दिया, एम.जे. अकबर अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि इस प्रकार साम्प्रदायिक घटना पहली बार थी। अब्दुल कादिर को कौन लाया उसके तकरीर की ब्यवस्था किसने और क्यों किया इन सभी प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। अब शेख अब्दुल्ला भी कश्मीर के आंदोलन में सक्रिय हो गए, घाटी के अनेक हिस्सों में हिंसा फैल गई बारामुला, सोपिया, अनंतनाग इत्यादि स्थानों पर गिरफ्तारियां शुरू हो गई। प्रदर्शनकारियों को काबू में लाने के लिए सेना बुलाना पड़ा, आंदोलन के इस मोड़ पर ब्रिटिश सरकार को मौका मिला, ब्रिटिश रेजिडेंट ने महाराजा को लिखित सुझाव दिया लेकिन एक प्रकार का ये आदेशात्मक था। "महाराजा और उनकी सरकार को लगा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर निकल रही है और ब्रिटिश सरकार के सहयोग के बिना इस मुस्लिम आंदोलन को, जो रियासत में फैल गया है नियंत्रित कर पाना मुस्किल है" हरि सिंह अब तक इसी से बचते रहे थे लेकिन जब उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा तो उन्हें ब्रिटिश सरकार से सहायता मांगनी पड़ी।

मुस्लिम कांफ्रेंस की स्थापना और प्रजा सभा

महराज विश्व के बदलते हुए वातावरण से परिचित थे वे लोकतांत्रिक मूल्यों से अनिभिज्ञ नहीं थे, उन्होंने लोकतंत्र के लिए प्रजा सभा का गठन किया। उसी समय शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम लीग की तर्ज पर अक्टूबर 1932 में मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया। सारा गोरा प्रशासन मुसलिम कांफ्रेंस की सहायता में लगा था, महराज हरि सिंह ने लोकतांत्रिक ढांचे के लिए प्रथम प्रजा सभा के लिए चुनाव की घोषणा 3 सितंबर 1934 को मतदान की घोषणा की। जिसमें एक ही राजनीतिक दल था मुसलिम कांफ्रेंस, जिसे मुसलमानों की निर्धारित 21 सीटों में 19 सीटें जीत दर्ज किया। 17 अक्टूबर 1934 को प्रजा सभा का विधिवत गठन किया उस समय रियासतों को कौन कहे ब्रिटिश भारत के प्रांतो को भी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की जानकारी नहीं थी। यह महाराजा की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। महाराजा हरि सिंह केवल ब्रिटिश विरोधी ही नहीं थे बल्कि देश स्वतंत्रता के हिमायती भी थे। 1930 के गोलमेज सम्मेलन में उनके विचारों का प्रदर्शन इसका उदाहरण था, लेकिन दुर्भाग्य से महाराज रियासत की पहली लड़ाई में वे पराजित हो गए। उन्हें 1935 में गिलगित वजारत भी ब्रिटिश सरकार को पट्टे पर देना पड़ा।

ब्रिटिश और महाराज आमने सामने

ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में जिन भारतीय मुसलमानों को मजहब की पहचान देकर देश के खिलाफ संगठित किया था, उसकी फसल काटने का समय आ गया। द्वीतीय विश्व युद्ध ने सबकुछ बदलकर रख दिया था, नए अंतरराष्ट्रीय समीकरण बनने लगे थे। 1857 के बाद अब तक  ये ब्रिटिश सरकार ने यह योजना बनाने का काम किया था। चूंकि राजा हरि सिंह ने गोलमेज सम्मेलन में भारतीय स्वतंत्रता की आवाज बन गए थे, इस कारण अंग्रेजी सरकार मुसलमानों को आगे कर हरि सिंह पर दांव चलने लगी उसमे से एक दांव यह भी था। और नेहरू अंग्रेजों के संबंध को तो सभी जानते हैं अंग्रेजों ने शेख अब्दुल्ला और नेहरू का भी उपयोग करना शुरू कर दिया।

राजा हरि सिंह और माउंटबेटन

देश आजाद के साथ सभी रियासतों का भारत में विलय हो अथवा वे सभी भारत के ही अंग हैं, सरदार पटेल के नेतृत्व में रियासतों के राजाओं-महाराजाओं से सम्पर्क साधना शुरू हो गया, उन्हें स्पष्ट कर दिया गया कि लोकमत आपके खिलाफ है लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में है इसलिए सभी को नई ब्यवस्था का हिस्सा बन जाना चाहिए। रियासती मंत्रालय काम कर ही रहा था कि 15 अगस्त 1947 से पहले रियासतों के शासक अपने अपने राज्यों की अलग अलग शासन ब्यवस्था को समाप्त कर नई संघीय संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाएं। पूरे देश में एक प्रकार संवैधानिक, प्रशासनिक व्यवस्था लागू करने की आवश्यकता पर जोर देते हुए सरदार पटेल 4 जुलाई, 47 को सभी रियासतों को संदेश भेजा। लेकिन यही बात करने के लिए लॉर्ड माउंटबेटन ने 25 जुलाई, 47 को जब दिल्ली में निमंत्रित किया तो उसमें जम्मू कश्मीर के राजा हरि सिंह को निमंत्रित नहीं किया गया उससे स्पष्ट हो गया कि माउंटबेटन ने चौसर बिछा दी थी।

हरि सिंह और नेहरू

जवाहरलाल नेहरू महाराजा हरि सिंह से रियासत अधिनियम पर बात करने के लिए तैयार नहीं थे, वे अधिमिलन की बात चीत शेख अब्दुल्ला से करना चाहते थे, लेकिन यह सम्भव नहीं था यह गैर संवैधानिक था। महाराज हरि सिंह के शब्दों में, "प्रधानमंत्री नेहरू शेख अब्दुल्ला को जेल से मुक्त कराने के लिए अधिक चिंतित थे वे अब्दुल्ला को रियासत की गद्दी पर बैठाने की ब्यवस्था में लगे थे। उन्हें रियासत की विलय में कोई इंटरेस्ट नहीं था। लेकिन आश्चर्य है कि दीर्घसूत्री योजना के चलते नेहरू जी हरि सिंह पर ही आरोप लगाते रहे कि वे 15 अगस्त के पहले भारत की संवैधानिक व्यवस्था में शामिल क्यों नहीं हुए। जब भी राजा हरि सिंह अधिमिलन का प्रस्ताव दिल्ली भेजते तो नेहरू का रटा रटाया उत्तर होता कि सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंप दो अब इससे हम समझ सकते हैं कि जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हो यह इंटरेस्ट नेहरू जी का नहीं था उनका इंटरेस्ट था कि सत्ता कैसे शेख अब्दुल्ला को मिले। वास्तविक लड़ाई यह थी नेहरू और हरी सिंह के बीच।

मेहरचंद महाजन और पंडित नेहरू

मेहरचंद महाजन जम्मू कश्मीर रियासत के न्यायाधीश थे वे कश्मीर में सरदार वल्लभ भाई के आदमी माने जाते थे प्रधानमंत्री बनने से पहले 29 अगस्त को प्रधानमंत्री नेहरू से मिले, महाजन के शब्दों में-- "मैं प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से मिला और उन्हें बताया कि महाराजा किन शर्तो पर अधिमिलन प्रस्ताव चाहते हैं। महाराजा भारत की संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत अधिमिलन चाहते थे, वे रियासत की प्रशासनिक व्यवस्था में आवश्यक सुधार करने के भी इच्छुक थे।" पंडित नेहरू से मिलने के बाद महाजन महात्मा गांधी से भी मिले-महात्मा गांधी ने कहा-- "हमारी मंशा महाराजा को समाप्त करने की या उन्हें कोई नुकसान पहुंचाने की नहीं है, यदि संभव हो तो रियासत को भारत में मिलना चाहिए। वहाँ के प्रशासन का भी लोकतांत्रिक करण करना चाहिए।" जब मेहरचंद महाजन नेहरु से मिले तो उस समय शेख अब्दुल्ला उनके घर में उपस्थित थे, महाजन के जाने के बाद शेख अब्दुल्ला ने नेहरू जी से कहा आपने जो महाजन को अपशब्द बोला वह उचित नहीं था उनकी जम्मू कश्मीर में बहुत प्रतिष्ठा है। इसका अर्थ यह है कि नेहरू शेख अब्दुल्ला के पक्ष और राजा के विरोध में अंधे हो चुके थे या यह कहिये की हिन्दू और भारत दोनों के विरोधी थे। क्योंकि आज भी जम्मू कश्मीर का हिंदू, महाराजा हरि सिंह को ही अपना हीरो मानती है।

राजा हरि सिंह का महत्व

लार्ड माउंटबेटन के ए.डी.सी. रहे नरेंद्र सिंह सरीला के अनुसार, "जम्मू कश्मीर के पाकिस्तान में शामिल होने के रास्ते में कोई पहाड़ जैसी बाधा थी तो वे महाराजा हरि सिंह ही थे।" जिसे कर्ण सिंह सही और अंतिम अवसर कह रहे हैं, वह यही अवसर था, जिसको महाराजा हरि सिंह ने मानने से इंकार कर दिया और रियासत को साम्प्रदायिक कत्लेआम से बचा लिया। दूसरी ओर राजस्थान के भी कुछ राजवाड़े रियासती संघ बनाकर स्वतंत्र राज्य का सपना देख रहे थे। "इंदौर के महाराजा भी भोपाल के नबाब के साथी बन गए थे।" उधर राजस्थान के कुछ राजा भी जिन्ना से मिलकर पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे, जोधपुर के राजा उसमें प्रमुख थे। वी.पी. मेनन के अनुसार, "जोधपुर के महाराजा हनुमंत सिंह अड़े रहे, जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेता उनसे अनेक बार मिल चुके थे।" अंतिम भेंट के समय महाराजा हनुमंत सिंह अपने साथ जैसलमेर के तत्कालीन महाराजा महाराजकुमार को भी ले गए थे, क्योंकि बीकानेर के महाराजा उनके साथ जाने के लिए तैयार नहीं थे। जिन्ना से मिलने पर महाराजकुमार के हिंदू पक्ष की शर्त पर बात बिगड़ गई। दूसरा पाकिस्तान से गठजोड़ की बात जब सामंतों को पता चला तो महाराजा जोधपुर का प्रबल बिरोध होने लगा। यदि कटु सत्य कहा जाय तो जम्मू कश्मीर ही एक ऐसी रियासत थी जो भारतीय संविधान के अनुरूप भारत में विलय चाहती थी पर नेहरू जी तो देश, राष्ट्र और हिंदुओं से ऊपर की चीज थे उनके अहंकार ने सब नष्ट करने का काम किया वे तो केवल शेख को सत्ता दिलाना चाहते थे न कि भारत में विलय! 

श्री गुरू जी और महाराजा हरि सिंह की भेंट

जब भी जम्मू- कश्मीर का विषय आएगा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प पू. माधव सदाशिवराव गोलवलकर का नाम अवस्य आएगा जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन लगातार सरदार पटेल के संपर्क में रहते थे। सरदार वल्लभ भाई ने मेहरचंद से श्रीगुरु जी से मिलने के लिए कहा जिसका परिणाम था कि श्रीगुरु जी 17 अक्टूबर,1947 को महाराज हरि सिंह से मिलने के लिए बसन्तराव ओक और तत्कालीन प्रान्त प्रचारक माधवराव मुले और बलराज मधोक के साथ गए। पूर्व सांसद स्व. डी. सी. शर्मा के अनुसार, "सरदार पटेल का यह दूसरा महत्वपूर्ण कदम था महाराजा हरि सिंह को मनाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवरकर को इस मिशन में शामिल कर लिया।" नेहरू की गलत नीतियों का परिणाम अथवा अपरिपक्वता अथवा महाराजा का अंध विरोध का परिणाम पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया तब भी प्रधानमंत्री नेहरू की आँख नहीं खुली! इसे क्या कहा जाय एक हमारे मित्र ने बताया कि भारत में जिन जिन समस्याओं पर उंगली रखेंगे वहां पर नेहरू जी ही नजर आएंगे। जहाँ राजा हरिसिंह राष्ट्रवादी थे वहीं नेहरू क्या थे-?

संदर्भ ग्रंथ-- डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और कश्मीर समस्या, जम्मू कश्मीर की अनकही कहानी, ब्यथित जम्मू-कश्मीर, मिशन कश्मीर, सरदार पटेल- कश्मीर एवं हैदराबाद

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