जम्मू & कश्मीर के नायक महाराजा राजा हरि सिंह-2

 

अंग्रेज, नेहरू और भारत

देश में आजाद के लिए जब संघर्ष चल रहा था तो उसमें कांग्रेस कहाँ थी ? यह बात समझने की आवश्यकता है दिखाई देता है कि कोई भी कांग्रेसी चाहे वह संसद हो अथवा अन्य स्थान वड़े गर्व से बोलता है कि आजादी तो कांग्रेसियों ने दिलायी जैसे कांग्रेस की स्थापना नेहरु जी के पिता ने किया था। अब वास्तविकता को समझना चाहिये देश आज़ादी की लडाई के बारे में डॉ आंबेडकर कहते हैं कि, "सम्राट पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, राणा राजसिंह, क्षत्रपति शिवाजी महाराज, शंभाजी राजे, बाजीराव पेशवा, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई कितना नाम गिनाएं, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल इसमें कितने कांग्रेसी थे? जगद्गुरु रामानुजाचार्य, रामानंद स्वामी से लेकर ऋषि दयानंद सरस्वती ये सब क्या थे ? आर्य समाज के स्वतंत्रता सेनानियों की फौज का क्या ? तो फिर गांघी, नेहरू और कांग्रेस क्या थी ? आखिर यह तो समझना ही होगा कि जिस कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज अधिकारी करता हो तो क्या वह भारत को आजाद कराने के लिए अथवा भारत को गुलाम बनाये रखने के लिए---! फिर नेहरू क्या थे ? ये अंग्रेजों के प्यादा से अधिक कहीं कुछ नहीं ! ये सब ढोंगी थे जब ये जेल में गए तो सभी प्रकार की सुविधाएं और जब सावरकरजी व अन्य क्रांतिकारी तो उन्हें कालापानी कोल्हू से तेल पेरना हमे अपनी समझदारी बढ़ाना होगा तब देश की वास्तविकता पता चलेगा क्योंकि इतिहास तो नेहरूवादी इतिहासकारों ने लिखा है जैसा नेहरु जी ने चाहा। आखिर अंग्रेजों की योजना का एक हिस्सा थी कांग्रेस।

महाराजा हरि सिंह ने अपनी  सार्थकता सिद्ध कर दी

गोलमाल सम्मेलन लंदन में जब महराज भारतीय राजाओं का नेतृत्व कर रहे थे, उसी समय राजा हरि सिंह की भेंट डॉ भीमराव अंबेडकर से हुई और उनसे सामाजिक न्याय व्यवस्था पर लंबी चर्चा हुई चूँकि डॉ आंबेडकर को भारतीय चिति का ज्ञान था । उन्होंने महाराजा हरि सिंह को सनातन संस्कृति के तत्व को समझया, राजा हरि सिंह को अपनी जड़ों से जुड़ा रहना था वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। उन्होंने वापस लौटते ही जिन विषयों पर चर्चा हुईं थीं तत्काल प्रभाव से लागू करने का काम करना शुरू कर दिया। सोलह वर्ष के आयु से कम बच्चों को धूम्रपान निषेध किया, मंदिरों के द्वार सम्पूर्ण समाज के लिए खुल गए यानी उसी समय हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश, विधवा विवाह यानी पुनर्विवाह को वैधानिक मान्यता, अपनी प्रजा को निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था, प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्ति, हस्पताल खोलने, चिकित्सा सुविधा इत्यादि सामाजिक सुधार की योजना। 1932 में राज्य के सभी देवस्थान हरिजनों के लिए भी खोल दिया गया, देवस्थानों में अब दलित समाज के लोग भी पूजा अर्चना के लिए जा सकते हैं। शुरू में ब्राह्मणों ने इसका विरोध किया, लेकिन महराज ने इसकी चिंता नहीं की। रघुनाथ मंदिर के पुजारी, राजगुरु पंडित देवराज ने कहा कि वे इस नीति से सहमत नहीं हैं तो महाराज ने उनकी छुट्टी कर दिया, और उनके भाई पंडित बालकिशन को बुलाया और उनसे मंदिर के दरवाजे दलितों के लिए खोलने के लिए कहा, साथ ही यह स्पष्ट कर दिया कि यदि वह भी ऐसा नहीं कर सकते तो वह भी जा सकते हैं, ताकि कोई और ब्यवस्था की जा सके। महराज अपने निर्णय पर अडिग थे, सभी सार्वजनिक स्थानों पर विद्यालयों, मंदिरों, कुओं में दलितों को प्रवेश करने का अधिकार मिला। राजा हरि सिंह की डॉ आंबेडकर से हिंदू समाज की कुरीतियों पर लंबी चर्चा का परिणाम इस प्रकार के कदम उठाए। इतना ही नहीं 1939 में रणवीर दंड विधि में संशोधन कर दलित समाज को सार्वजनिक जलश्रोतों से पानी लेने से रोकने, मंदिरों में प्रवेश न देने के लिए सजा का प्रावधान किया गया।

महाराजा और महारानी

महारानी तारा देवी इस खानदान की पहली महारानी थीं जो बिना किसी परदे के सार्वजनिक स्थानों पर सभाओं में जाती थीं। लोगों के इस मिथक को महराज ने तोड़ा की राजपूत केवल फौज में जाते हैं, खेती नहीं करते, इस रस्म को महाराज ने तोड़ दिया। महराज ने स्वयं हल लेकर खेत में गए और हल चलाकर इस रूढ़ि को समाप्त किया, महारानी तारादेवी खेत में भोजन लेकर गयीं थीं। हरिजनों को मंदिरों में आने के लिए दरवाजे खोलने के कारण पंडित नाराज होकर नौकरियां छोड़ने लगे, पर महराज अडिग रहे।यह सब उनके गुणों का वर्णन कम है क्या ?

सुरक्षा परिषद में जम्मू-कश्मीर

महाराजा हरि सिंह ने पूरी ब्रिटिश कूटनीति और माऊंटबेटन के दबाव को झेलते हुए अपने चातुर्य से जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में जाने से तो बचा लिया, लेकिन रियासत के भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में शामिल होने के लिए वे शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू की दीवार नहीं तोड़ पाए। महाराजा विलय चाह कर भी नहीं कर सकते थे क्योंकि शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरु इस मुद्दे पर एक थे। स्थिति इतनी नाजुक थी कि तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल जिनके पास रियासती मंत्रालय भी था, ने कश्मीर के मामले में दखलंदाजी करने की कोशिश की तो नेहरू ने उनके साथ अच्छा ब्यवहार नहीं करने से वे नाराज अपना त्यागपत्र लिख कर भेज दिया। भारतीय सेना तो जम्मू-कश्मीर तक पहुंच गई और सेना ने बहुत बड़ा हिस्सा दुश्मन के कब्जे से छुड़ा लिया लेकिन क्योंकि ब्रिटिश निति पहले ही जम्मू कश्मीर का विभाजन मान चुकी थी, इसलिए भारतीय सेना के अंग्रेज सेनापति माउंटबेटन के दिशा निर्देश में भारतीय सेना रूकी हुई थी। महाराजा हरि सिंह निस्सहाय जम्मू के अपने महल में बैठे हुए सारे षड्यंत्र देख रहे थे, उन्हें शायद इस बात की जानकारी नहीं थी कि भारतीय सेना उन्हीं स्थानों पर रुकी हुई है जहाँ ब्रिटिश सरकार ने गुप्त रूप से जम्मू कश्मीर के मानचित्र पर विभाजन रेखा खींच दी है। उधर इंग्लैंड, अमेरिका को यह समझाने में लगा था कि जम्मू कश्मीर का सारा मामला हरि सिंह द्वारा मुसलमानों को मरवाने से शुरू हुआ है, प्रथम जनवरी को भारत ने सुरक्षा परिषद में अपनी शिकायत भेजी, नेहरू यह लगातार प्रचार कर रहे थे कि राजा हरि सिंह मुस्लिम विरोधी है। और पंडित जवाहरलाल नेहरु को जो करना था उन्होंने वही किया, वे तो राष्ट्र और देश से ऊपर थे उन्हें राष्ट्र नहीं उन्हें व्यक्तिगत संबंध प्रिय था परिणामस्वरूप वे भारत विजय के विरुद्ध संयुक्तराष्ट्र संघ में कश्मीर के विषय को उठाया। ये अप्रिय हो सकता है लेकिन कटु सत्य है।

महाराजा हरि सिंह की पीड़ा

महाराजा हरि सिंह ने सरदार पटेल को एक पत्र लिखा, "मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने और वहां लंबित हो जाने से केवल मेरे मन में ही नहीं बल्कि राज्य प्रत्येक हिंदू सिख के मन में यहाँ तक कि नेशनल कांफ्रेंस के मन में भी अनिश्चितता एवं विकलता पैदा हो गई है। लोगों के मन में यह भावना घर कर रही है कि संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद का निर्णय हमारे खिलाफ होगा और उस निर्णय के कारण रियासत को अन्ततः पाकिस्तान में जाना पड़ेगा। यही कारण है कि हिंदू, सिख रियासत से पलायन करने लगे हैं क्योंकि उन्हें शंका है कि सुरक्षा परिषद के निर्णय के बाद उनका हस्र भी पश्चिमी पंजाब के हिंदू सिखों जैसा होगा।

सरदार पटेल और महाराजा हरि सिंह

भारत का पश्चिमोत्तर भाग शताब्दियों से विदेशी आक्रमणकारियों को झेल रहा था लेकिन इस बार इस लड़ाई ने नया रूप धारण कर लिया है, ये जम्मू कश्मीर में नई लड़ाई की शुरुआत थी। महाराजा हरि सिंह और सरदार पटेल वितस्ता, सिंधु की घाटियों में भारत की लड़ाई लड़ रहे थे। जिनके पूर्वज तलवार देखकर सलवार पहन चुके थे, ऐसे शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर को आजादी की रहस्यमयी लड़ाई लड़ रहे थे जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरु का सहयोग था। जवाहरलाल नेहरू इस बात से अभिभूत थे कि मुसलमान शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान का समर्थन न कर भारत से संबंध बनाने की बात कर रहा है। इसलिए जम्मू कश्मीर भारत के साथ अच्छे संबंध रखता हुआ स्वतंत्र भी रहे तो कोई बात नहीं। पाकिस्तान हमले के छः दिन बाद नेहरू ने एक पत्र में लिखा की, "मुझे बुरा नहीं लगेगा यदि कश्मीर किसी तरह से आज़ाद रह जाता है लेकिन वह अपने शोषण के लिए पाकिस्तान का हिस्सा बने, इससे क्रूर आघात और क्या हो सकता है ? वास्तविकता यह है कि नेहरू कश्मीर को स्वतंत्र शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में चाहते थे।

नेहरू जी का पटेल को पत्र

23 दिसंबर1947 को एक बहुत आपत्तिजनक, अपमानजनक भाषा में जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को पत्र लिखा, "रियासत मंत्रालय ने अपने काम काज के लिए जो तौर तरीकों को चुना है, मैं उसकी प्रशंसा नहीं कर सकता। यह मंत्रालय या कोई अन्य मंत्रालय सत्ता के अंदर समानांतर नहीं हो सकता।नेहरू, सरदार पटेल को आगाह कर रहे हैं कि उनके मंत्रालय को कश्मीर के मामले में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि वहाँ जो हो रहा है उनके कहने पर हो रहा है। इस अपमानजनक पत्र की भाषा और तीब्र स्वर से सरदार पटेल जैसा शान्त स्वभाव का ब्यक्ति भी उत्तेजित हो गया। पटेल ने लिखा, "आपका पत्र मुझे अभी अभी शायम सात बजे मिला और तुरंत मैं आपको यह बताने के लिए पत्र लिख रहा हूँ कि मुझे आपके पत्र से बहुत दुःख पहुच है।" आपके पत्र से यह स्पष्ट हो गया है कि मुझे किसी प्रकार से सरकार का हिस्सा नहीं रहना चाहिए, इसलिए मैं अपना त्यागपत्र भेज रहा हूँ। इससे यह स्पष्ट हो गया था कि नेहरू कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला के बिना किसी की भी सुनने वाले नहीं हैं। अब हम यह समझ सकते हैं कि जिस जमीन पर सरदार पटेल के पैर नहीं जम पा रहे थे वहां महाराजा हरि सिंह कैसे पैर टिका पाते ? लेकिन महाराजा हरि सिंह बिना लड़े हार मानने वाले लोगों में नहीं थे और यह लड़ाई राष्ट्रीय हितों को लेकर थी, यह लड़ाई राष्ट्र हित और ब्यक्तिगत हित के टकराव की थी अब हम नेहरू को बखूबी पहचान सकते हैं कि वह क्या चीज थे। 1934 में ही रियासत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली प्रारंभ कर दी गई थी, राज्य में लोकतांत्रिक ढ़ंग से चुनी हुई विधानसभा (प्रजा सभा) काम कर रही थी, लेकिन बदली हुई परिस्थिति में महाराजा को भी जनता का प्रतिनिधि होना चाहिए। 

महाराजा का सामना करने में नेहरू असमर्थ

अब महाराजा के निष्कासन का षड्यंत्र जवाहरलाल नेहरु ने शुरू कर दिया, नेहरू महाराजा हरि सिंह को बार बार अपमानित करना चाहते थे और कर भी रहे थे, लेकिन राष्ट्रहित में महराज अपमान का घूट पीने को मजबूर थे। नेहरु जी का साहस नहीं हो पा रहा था कि वे महाराज से सीधे बात कर सकें इसलिए वे सरदार पटेल का उपयोग कर रहे थे। एक तरफ तो नेहरू कश्मीर के मामले में पटेल का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे दूसरी ओर वे महराज से वार्ता के लिए पटेल का उपयोग कर रहे थे। लेकिन निष्कासन इतना आसान नहीं था लेकिन नेहरू जी शेख अब्दुल्ला के लिए कुछ भी दांव पर लगाने को तैयार थे अब इसका विकल्प क्या हो सकता है ? रीजेंट अथवा उनका प्रतिनिधि उनका बेटा ही हो सकता था। महाराजा हरि सिंह को एक ही बेटा था कर्ण सिंह उसके पिता उसे टाइगर कहकर बुलाते थे, कर्ण सिंह के शब्दों में-- "मेरे पिता को सरदार पटेल का निमंत्रण मिला, जिसमें उन्होंने पिता जी, माँ और मुझे तीनों को बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया। अतः अप्रैल1949 को हम सब चार्टर्ड प्लेन से दिल्ली रवाना हुए, जहाज में चढ़ते समय मुझे यह एहसास नहीं था कि अब सिर्फ मेरे पिताजी की अस्थियां ही उनके प्रिय शहर जम्मू लौटेंगी।" 29 अप्रैल को हमने सरदार पटेल के साथ खाना खाया, डिनर के बाद मेरे पिताजी-माताजी और सरदार पटेल दूसरे कमरे में चले गए। सरदार पटेल ने महाराज को बहुत शालीनता से समझाया कि कुछ दिनों के लिए महाराजा और महारानी रियासत से बाहर रहे यही राष्ट्रहित में है। उन्होंने मेरे लिए कहा कि क्योंकि मैं अमेरिका से लौट आया हूँ, पिता जी के अनुपस्थिति में अपनी जिम्मेदारियों और कर्तब्यों को निभाने के लिए मुझे अपना रीजेंट नियुक्त कर दें। इस पूरी घटना से पिताजी हतप्रभ रह गए, जब वे मीटिंग से बाहर आये तो उनका चेहरा जर्द था, माँ रूवासी हो रही थी और अपने आँसुओ को भरसक रोक रही थीं, हम लोग होटल लौट आए रास्ते भर सब चुप रहे। कमरे में पहुंच पिताजी अपने सलाहकारों बक्सी टेकचंद, मेहरचंद महाजन तथा स्टाफ के अन्य अधिकारियों के साथ मंत्रणा शुरू कर दिया। माँ कमरे में पलंग पर गिरकर फफककर रोने लगी, मैं उनके पीछे पीछे कमरे में पहुंच गया, जब वे शान्ति हुई तो उन्होंने मुझे बताया कि उसे और पिता जी को रियासत से निकाला जा रहा है। मुझे भारत सरकार चाहती है कि पिताजी मुझे रीजेंट नियुक्त कर दें।" इन सब घटनाओं से लगता है कि नेहरू महाराजा का सामना कर पाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे, इससे यह सिद्ध होता है कि जम्मू कश्मीर के घटनाक्रम के अपराधी सिर्फ नेहरू थे जो शेख अब्दुल्ला के ब्योम-मोह में फॅसे थे जिन्हें देशहित नहीं बल्कि ब्यक्तिगत हित की चाहत थी।

कर्ण सिंह का कर्तव्य!

जीवन में फॅसे सबसे बड़े संकट में महाराजा हरि सिंह की पूरी उम्मीद अब अपने बेटे कर्ण सिंह पर टिकी हुई थी, यदि कर्ण सिंह रीजेंट बनने से इनकार कर देते तो शेख अब्दुल्ला और नेहरू की जोड़ी चाहकर भी महाराजा हरि सिंह को जम्मू कश्मीर से निष्कासित नहीं कर पाती। नेहरू और शेख अब्दुल्ला दोनों जानते थे कि तुरुप का पत्ता कर्णसिंह ही है, कर्ण सिंह यदि अपने पिताजी के साथ खड़ा हो जाता है तो जीत महाराजा की होगी और यदि कर्ण सिंह नेहरू के साथ चला जाता है तो जीत शेख अब्दुल्ला और नेहरू की होगी। दुर्भाग्य-! इस संकट की घड़ी में कर्ण सिंह ने अपने पिता जी के खड़े होने के बजाय नेहरू शेख के साथ चले जाने का फैसला लिया, कर्ण सिंह ने अपने पिताजी को ऐसा घाव दिया जो महाराजा को जीवन भर रिसता रहा। "मुझ पर रेजीडेंटशिप के प्रस्ताव को ठुकराने के लिए थोड़ा दबाव जरूर डाला जा रहा था लेकिन मैंने यथासंभव विनम्रतापूर्वक दबाव को मानने से इंकार कर दिया!" महाराजा ने पटेल को पत्र लिखा, मैं मुझे आपके इस प्रस्ताव से बहुत आघात पहुंचा है, मैन यह सोचा भी नहीं था कि आप मेरे सामने यह प्रस्ताव रखेंगे, आपके प्रति मेरी अटूट आस्था और विस्वास रहा है। मैं अपनी इच्छा अनुसार रियासत से तीन चार महीने के लिए अनुपस्थिति रहने के लिए तैयार हूँ।" उन्होंने चुपचाप यह गरलपान किया और अब कहाँ जाएं इस पर विचार करना शुरू कर दिया।

नेहरू की योजना

नेहरू को पटेल ने यह सूचित कर दिया कि महाराजा हरि सिंह कुछ दिनों के लिए रियासत से बाहर जाने को तैयार हो गए हैं, लेकिन नेहरू तो उन्हें देश से ही निकाल देना चाहते थे। लेकिन पटेल के कारण वे ऐसा कुछ कर नहीं सकते थे, उन्होंने पटेल को पत्र लिखा, "मैं मान लेता हूँ कि महाराजा और महारानी कुछ महीनों के लिए रियासत से बाहर रहना स्वीकार किया है बम्बई का घर उनके लिए उपयुक्त रहेगा आगे लिखा कि मैं नहीं समझता कि महाराजा के अनुपस्थिति की कोई सीमा तय किया जाना चाहिए। "यदि महाराजा रियासत से बाहर देश में रहना चाहते हैं तो उनके लिए बम्बई अच्छा रहेगा।"

महाराजा बम्बई में

महाराजा हरि सिंह का नया पताथा- कश्मीर हाउस, 19 नेपियन सी रोड, बम्बई, अब वे अपने यात्रा पर जहाज से नहीं करने वाले हैं, बल्कि उन्हें यह लंबी यात्रा ट्रेन से करनी है। महाराजा हरि सिंह बम्बई चले गए और जीवन भर नहीं आये। माँ और बाप दोनों के जाने के बाद कर्ण सिंह जहाज में बैठकर अपनी रियासत जम्मू कश्मीर चले गए। महाराजा ने सभी लोकतांत्रिक, सामाजिक सुधार किये सामाजिक ताना बाना भी सुधारने का काम किया अरे वाह आज वही राजा हरि सिंह हमारे सिरों का ताज मुंबई में देश निकाला भोग रहा है, यह टीस जम्मू कश्मीर की जनता में आज भी है उसने नेहरु जी और शेख अब्दुल्ला को कभी माफ नहीं किया न आगे करेगा। 25 सितंबर 2022 को महाराजा हरि सिंह की याद में जो विशाल कार्यक्रम जम्मू में हुआ वह तो अपने आप मे यही दर्शाता है कि वहाँ की जनता नेहरू के कुकर्मों को कभी माफ नहीं करेगी।


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