आचार्य कुमारिल भट्ट का अन्तर्मन --!


नालंदा विश्वविद्यालय

अपने अतीत की सोहरत एवं सफलताओं से उत्साहित परंतु वेचैन कुमारिल भट्ट लोक-परलोक, वर्तमान एवं भविष्य भौतिकता तथा नैतिकता के दोराहे पर खड़े विचार कर रहे थे क्या करना क्या नहीं करना। कुमारिल भट्ट केवल वेद और सनातन धर्म के उद्धारक की भूमिका से संतुष्ट नहीं हो रहे थे। वे भारत में प्रवाहित चिंतन धाराओं एवं अधिभौतिक विचारधाराओं को संश्लेषित करके एक नई विचारधारा को प्रवर्तित करना चाहते थे जिसमें समाज के प्रत्येक वर्ग की भागीदारी हो इस सामाजिक आध्यात्मिक पहलू का ध्यान रखते हुए कुमारिल ने नालंदा विश्वविद्यालय के निकट अपना आश्रम स्थापित किया और इस क्षेत्र को अपना कार्यस्थल बनाया। नालंदा विश्वविद्यालय उस समय का पहला विश्वविद्यालय था तथा भारत का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की सांस्कृतिक राजधानी का गौरव प्राप्त था यह बौद्ध दर्शन का मुख्य शिक्षण केंद्र था। चीन, मध्य एशिया, जापान, लंका, श्याम, वियतनाम, कोरिया, कंबोडिया इत्यादि देशों से बौद्ध भिक्षु बौद्ध जीवन दर्शन, बुद्ध उपदेश, जीवन गाथा,धर्म संहिता, भिक्षुओं के आचार संहिता, शील, शिष्टाचार के नियम तथा मानवीय मूल्यों का अध्ययन करने आते थे। कुछ विद्यार्थी तो वापस अपने देश चले जाते थे कुछ विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने के साथ वहीं शिक्षक बनकर पढ़ाने लगते थे। ऐसे विद्यार्थियों में चीन, उज्बेकिस्तान, काबुल, किर्गिस्तान, तुर्कमेनिया, तजाकिस्तान इत्यादि देशों से आने वाले छात्रों की संख्या अधिक थी।

राष्ट्रवादी कुमारिल

कुमारिल अपने गुरु बौद्धाचार्य धर्मपाल को पराजित करने के पश्चात दिग्विजयी यात्रा की ओर जिस ओर आचार्य गोविंदपाद ने संकेत दिया था उधर बढ़ते हुए एक निश्चित भूमिका तैयार किया। जिस गुरुकुलों की चर्चा आचार्य चाणक्य के समय की होती है वास्तविकता यह भी कि उसमें मुख्य भूमिका आचार्य कुमारिल भट्ट की ही मानी जाती है वे राष्ट्रवाद के पुरोधा थे वो जानते थे कि जब तक सारा समाज शिक्षित नहीं होगा तब तक राष्ट्र को जगा पाना मुश्किल होगा उनकी वैदिक राष्ट्रवाद की कल्पना थी और यदि यह कहा जाय कि वेदव्यास व याज्ञबल्क्य के बाद वेदों का पुनरद्धार करने वाला कौन तो बरबस ही कुमारिल भट्ट का नाम आएगा आदि शंकराचार्य भी कहीं नहीं ठहरते। आदि शंकराचार्य ने तो वेदांत पर काम किया और उनके पास तो समय भी नहीं मिला था उनकी सारी की सारी भूमिका आचार्य कुमारिल ने तैयार की थी।

वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान

कुमारिल की मान्यता थी कि जहां तक महात्मा बुद्ध के वेद विरोधी कहे जाने का प्रश्न है तो महात्मा बुद्ध कभी भी वेद बिरोधी नहीं थे बल्कि वैदिक विचारधारा एवं चिंतन में उत्पन्न बुराइयों, रूढ़ियों को खत्म करने के लिए सामाजिक, धार्मिक आंदोलन चलाया तथा समाज में एक नई चेतना उत्पन्न किया। वैदिक संस्कृति परंपराओं, मूल्यों, सिद्धान्तों एवं सामाजिक मर्यादा के प्रति उदासीनता को समाप्त करने का काम किया जो बाद में वेद विरोधी वन गया अथवा बौद्धर्मचार्यो ने वेद बिरोधी बना दिया। "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितान" जब गौड़ होने लगा तब कुमारिल भट ने उसे पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया।

कुमारिल का अंतर्मन

जब कुमारिल भट्ट ने अपना उत्तराधिकारी खोज लिया तो उन्हें अपने गुरु धर्मपाल का शास्त्रार्थ याद आने लगा। उनकी शास्त्रार्थ की शर्तें, उनका तुषानल में जलना, तुषानल में आत्मदाह करना, कुमारिल को लगा कि जैसे मुझे वेदों के मार्ग पर विस्वास था वैसे ही बौद्धधर्मचार्य धर्मपाल को भी बुध्द मार्ग पर विस्वास! सभी को अपना मार्ग चयनित करने का अधिकार, वास्तविकता यह है कि जहाँ बौद्धों में नैतिकता का बहुत अभाव था वहीं कुमारिल वैदिक नैतिकता से बंधे हुए थे उन्हें लगता था कि आखिर धर्मपाल हमारे गुरु थे और मैंने गुरुद्रोह किया है। वे अपने अन्तरात्मा के कैदी वन चुके थे, उन्हें लगता था कि ईश्वर की अदालत में अपने गुरू के साथ किये गए विस्वासघात का मुकदमा झेल रहा हूँ। चलते फिरते, उठते बैठते, किसी काम या चिंतन के दौरान इस बात का भूत उसके सामने खड़ा हो जाता, उनकी अन्तरात्मा उन्हें झकझोरती तथा चिन्तन की सही दिशा से विचलित हो जाते थे।

प्राश्चित के लिए तड़पन

उन्हें लगता कि मुझे प्राश्चित करना चाहिए, मैंने अपने गुरू को धोखा दिया है, मैंने विस्वासघात किया है मैंने बड़ा पाप किया है, मुझे जीने का अधिकार नहीं है, मुझे सज़ा मिलनी चाहिए। लेकिन यह सजा कैसे तय हो तो स्वयं ही यह सब तय करना होगा। अपने अपराध के प्राश्चित स्वयं ही करना होगा कैसे जिस प्रकार बौद्धधर्मचार्य धर्मपाल ने किया था मुझे भी उसी रास्ते पर जाना चाहिए। अपने शरीर को भूषा की मंद आग में एक सप्ताह तक जलाकर अपने जीवन को समाप्त करना होगा। अब कुमारिल के चेहरे पर कोई असर नहीं दिख रहा था वे बिल्कुल समान्य दिख रहे थे, वह मानसिक एवं शरीरिक रूप से सामान्य शान्त और अविचल मानो वह जीवन सामान्य रूप से गुजर रहा हो। यह सब प्राश्चित की बात सुनकर आचार्य पद्मपाद ने कहा--यह सत्य है कि कोई भी मानव संस्कृति इस प्रकार के क्रूर प्रक्रम की अनुमति नहीं देगा, लेकिन यह भी निर्विवाद ऐतिहासिक सत्य है कि कुमारिल जैसा मनुष्य विश्व मानव सभ्यता में अभी तक नहीं पैदा हुआ जो अपनी गलती का एहसास करने के बाद इतना क्रूर एवं भयावह प्रायश्चित के लिए तैयार हो जाय। वैदिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने राष्ट्रवाद को पुनर्स्थापित करने के रास्ते में बौध्द चिंतन सर्वाधिक बाधा थी इसलिए कुमारिल भट्ट ने इन्हें पराजित करने का काम किया।

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