महाराजा हरिसिंह जम्मू&कश्मीर

 

"महाराजा हरिसिंह"

महाराजा हरिसिंह महान देशभक्त और राष्ट्रवादी थे, 1930 में गोलमेज सम्मेलन से वापस आने के बाद उन्होंने सामाजिक संरचना को ठीक करने का काम किया। वैसे उनका जीवन बहुत ही सामान्य था वे आम नागरिक जैसा जीवन जीते थे। बहुत से वामपंथी, नेहरु वादी और पाकिस्तान परस्त, पश्चिम में बैठे लेखकों ने हरिसिंह को लेकर एक बेहद प्रश्न खड़ा किया जाता है। आखिर एक हिंदू शासक को क्या अधिकार है कि वह एक ऐसे राज्य पर शासन करे, जहाँ मुसलमान प्रजा बहुमत में हो ? लेकिन यही प्रश्न वे निजाम हैदराबाद के बारे में नहीं मुँह खोलते, यह कौन नहीं जानता कि हैदराबाद रियासत का विलय किस प्रकार सरदार पटेल ने भारत में कराया! किंतु इस प्रकार की समीक्षा क्या उस ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनदेखी नहीं है जिसके कारण जम्मू कश्मीर का जन्म हुआ है। सदियों तक चली प्रक्रिया यानी बलात धर्मांतरण के कारण कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य बन गया। फिर भी हिंदू समाज अपने पहिचान के रूप में अपनी पहचान और अपनी मौलिक प्रबृत्ति, प्रकृति बनाये रखा है। ऑर्गनाइजर ने एक बार लिखा था कि ऐतिहासिक दृष्टि से कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है, कश्मीर का हिंदू साम्राज्य इतिहास के प्राचीनतम साम्राज्यों में से एक था। यह हिंदू धर्म की आध्यात्मिक स्थली है और आदि जगद्गुरु शंकराचार्य की तपस्थली रही है।

महाराजा हरि सिंह की जीवन शैली 

भारत ही नहीं सारे विश्व के रियासतों के राजकुमार अपनी अनियंत्रित जीवनशैली के लिए जाने जाते रहे हैं जिनके भ्रष्ट आचरण की कहानियां चारो ओर सुनी और किस्सों के रूप में सुनाई जाती थीं। लेकिन उनके बीच में हरि सिंह एक उल्लेखनीय अपवाद नजर आते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि जम्मू कश्मीर भारत की बड़ी रियासतों में एक थी, इसके बावजूद उनके आलोचकों को उनके ब्यक्तिगत जीवन पर टिप्पणी करने का अवसर नहीं मिला। राजा हरि सिंह हृदय के एकदम सरल ब्यक्ति थे, वे एक ऐसे ब्यक्ति थे जिनमें छल-कपट नहीं था और वे अपने मानक सिद्धांतों पर अडिग रहे, जिन्हें उन्होंने अपने और अपने परिवार के लिए तय किया था। उन्हें डिगाना असंभव था वे अपने ख़र्च को लेकर सावधान रहते थे, अत्यधिक उदार, उनकी जीवन शैली कितनी सादगी भरी थी कि अनेक बार महाराजा हरि सिंह अपनी मोटर गाड़ियों को रोककर आम नागरिकों को लिफ्ट दिया करते थे। किसी तांगे वाले का घोड़ा बूढ़ा हो गया है तो उसकी ब्यवस्था करवाना यह सब महाराज के स्वभाव में था। ऐसी अनेक कहानियां किवदंती आज भी जम्मू कश्मीर की गलियों में सुनी जा सकती हैं।

पटेल और नेहरु की राय 

महाराजा एक ऐसी स्थिति में फस चुके थे, कि  भारत की दो बड़ी शख्सियत उनके बारे में अलग अलग राय रखते थे। नेहरू उन्हें राज्य से बाहर रखना चाहते थे क्योंकि वे राजा को, शेख अब्दुल्ला के रास्ते का कांटा समझते थे। वे रियासत शेख अब्दुल्ला को सौंपना चाहते थे, वहीं सरदार पटेल ने ऐसा रूख अख्तियार किया जिसका सार यह था कि ऐसा कोई कारण नहीं लगता कि भारत सरकार हरि सिंह की जगह शेख अब्दुल्ला को चुन ले।

जैसे जैसे समय बीतता गया नेहरू गलती पर गलती करते रहे लगता है नेहरू की आँख में इस्लाम का ऐसा चश्मा लगा हुआ था कि वे शेख अब्दुल्ला को समझ नहीं पा रहे थे. वे केवल राजा हरि सिंह के पीछे पड़े हुए थे. उन्हें अपने देश की सीमाओं की भी चिंता थी कि नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता। और अंत में अगले पांच वर्षों में ही पूरी कहानी सामने आ गई और शेख अब्दुल्ला को सलाखों के पीछे डालना पड़ा। इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली में बैठकर नीति बनाने वालों से जम्मू कश्मीर और विशेष तौर पर हरि सिंह के मामले से निपटने में भारी गलती हुई।

सरदार पटेल की राय 

सच यह है कि इतिहास में अगर मगर को कोई स्थान नहीं होता। फिर भी राजा हरि सिंह को अगर श्री नगर रहने दिया जाता तो आक्रमणकारियों को बाहर निकलने में भारतीय सैनिकों की मदद दी जाती तो क्या बाद में जो परिस्थितियां बनी वह एक दम अलग नहीं होती। इसका उत्तर हाँ हो सकता है, सरदार पटेल चाहते थे कि हरि सिंह महारानी के साथ अपने राज्य का दौरा करें! बल्लभभाई पटेल यह जानते थे कि महाराजा की अच्छी खासी लोकप्रियता है। हरि सिंह की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी की उनके द्वारा उठाये गए सामाजिक सुधार के कदम, जिसकी बड़े पैमाने पर लोग प्रशंसा करते थे। लेकिन नेहरू केवल शेख अब्दुल्ला की ही सुनते थे इसी कारण कश्मीर रियासत का मामला अपने पास रख लिया था। 

गोलमेज सम्मलेन में महाराजा की राय 

महाराजा के ऊपर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने अधिमिलन पर फैसला करने में देर कर दिया उसके कारण भारत में एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई। लेकिन इस प्रकार का कोई प्रमाण नहीं मिलता बल्कि लोगों का मत है कि नेहरू ने अपने अहं को राष्ट्र से अधिक महत्व देने से समस्याएं खड़ी हो गई। लगभग हर ब्रिटिश अधिकारी यह चाहता था कि कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो जाय, पश्चिमी जगत के प्रेस खुलकर भारत के विरोध में लिख रहे थे। वास्तविकता यह है कि राजा हरि सिंह से अंग्रेजों की नाराजगी गोलमेज सम्मेलन (1930) में हुई थी, उस सम्मेलन में हरि सिंह ने अपने संबोधन में कहा था कि भारत के मामले में अंग्रेजों को अधिक उदार रवैया अपनाना चाहिए, उन्होंने अंग्रेजों को कहा था कि हम भारत के लोग तय करेंगे कि क्या करना। 

अधिमिलन पर शेख अब्दुल्ला के एक पत्र के उत्तर में डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जो जबाब दिया वह इस प्रकार है:---

"जब हम किसी ब्यक्ति की निंदा करते हैं, उस समय भी उसकी अच्छी बातों का ध्यान रखना चाहिए, सिर्फ यही एक महाराजा थे जिनमें 20 वर्ष पहले इतना साहस था कि लंदन में गोलमेज सम्मेलन के दौरान खड़े हो सके और कहा कि अंग्रेजों को भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के सपने के प्रति प्रगतिशील रुख अपनाना चाहिए। इतिहास इस बात का गवाह है कि अपने इसी कार्य के लिए वह भारत के ब्रिटिश प्रशासकों की आखों में चुभने लगे, उनकी इस पहल से भारत सरकार और आप अपना मुख्य उद्देश्य प्राप्त करने में सफल रहे। आपने श्रीनगर से उनके भाग जाने का ज़िक्र किया है यह आरोप सही और उचित नहीं है, मैंने दस्तावेजों को पढ़ा है, यह असत्य है। लॉर्ड माउंटबेटेन तथा अन्य नेताओं की स्पष्ट इच्छा के कारण महाराजा को श्रीनगर छोड़ने के लिए कहा गया था, क्या आपने उन्हें सितंबर, 1947 में पत्र नहीं लिखा था, जब आपने उन्हें भरोसा दिलाया था कि आप और आपकी पार्टी कभी उनके खिलाफ द्रोह की भावना नहीं रखते हैं। क्या आपने आपने मार्च1948 में नहीं लिखा था, जब महाराजा के पूर्ण सहयोग का सम्मान किया था और इस भावना (उनके प्रस्ताव का) की प्रशंसा की थी, आप पूरी तरह से यह समझते थे कि लोगों के हित के अनुसार महाराजा को यह बलिदान देना ही होगा और अपने फायदे के लिए तथा जिसे जिसे आप जम्मू-कश्मीर के लोगों का हित मानते थे, उसके लिए उनका पूरी तरह से इस्तेमाल करने के बाद आपको यह शोभा नहीं देता कि पूरा दोष उन पर मढ़ दें।"

हरि सिंह की पीड़ा 

महाराजा अपने घर से दूर हो गए लेकिन हरि सिंह अपने भागते हुए अश्वों को दूर तक देखते हुए अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर दबा लिया। हरि सिंह अपनी ही सरकार का दिया हुआ दर्द भोगने के लिए श्रापित थे लेकिन जम्मू कश्मीर के उनके अपने लोग इतने सालों बाद भी उनको भुला नहीं पा रहे हैं। वे हरि सिंह के साथ किये गए व्यवहार से स्वयं को शर्मिंदा महसूस कर रहे थे। अन्ततः उन्होंने अपने महाराजा के इस संसार से चले जाने के पाँच दशक बाद एक अप्रैल, 2012 को उनकी भव्य मूर्ति तवी नदी के किनारे स्थापित कर स्वयं को उऋण किया, यही महाराजा हरि सिंह की घर वापसी थी।

नेहरु का पक्षपात 

 हरि सिंह ने जब भारत के साथ अधिमिलन के दस्तावेज पर दस्तखत किए, तब उन्होंने तटस्थ रहते हुए निर्णय लिया था। देरी अवस्य हुई लेकिन शंका कभी नहीं थी, हरि सिंह के साथ जिस प्रकार का ब्यवहार किया गया वह यही दिखता है कि जो लोग कश्मीर के मामलों से निपट रहे थे, वे जमीनी हकीकत से कोसों दूर थे। अन्य राज्यों और रियासतों की तरह ही जम्मू कश्मीर का पूरा इलाका भी वर्षो से भारत का अंग रहा है। इतिहास का प्रत्येक लेखा जोखा और वर्णन इस तथ्य की पुष्टि करता है। हरि सिंह ने इतिहास के साथ तालमेल बिठाते हुए कार्य किया और सिर्फ इस कारण भारत के साथ विलय का निर्णय लिया, क्योंकि उन्होंने किसी अन्य विकल्प पर विचार ही नहीं किया था। बेशक कोई और विकल्प था भी नहीं। इस दृष्टि से नेहरू जिस जनमत संग्रह की बात पर बार बार जोर दे रहे थे, उसके पीछे की एक वजह यह थी कि हरि सिंह हिंदू राजा थे और उनकी प्रजा मुसलमान बाहुल थी। 1947 की राजनीतिक समस्याओं के प्रति इस प्रकार का रुख अपनाने के कारण भारत को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी और वह संकट आज भी बना हुआ है।

अंग्रेजो ने बदला लिया 

वास्तव में जब हम विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि अंग्रेजों की इच्छा पूर्ति का भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने पूरा ध्यान रखा। बहुत सारे लोगों को इतना ही पता है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल को13 वोट और आचार्य कृपलानी को3 वोट आये थे जिसे एक वोट भी नहीं मिला वही ब्यक्ति भारत जैसे लोकतंत्र वादी देश का प्रधानमंत्री होता है। यह सभी को पता है कि करमचंद गांधी ने बिना किसी समर्थन के नेहरु को प्रधानमंत्री बनाया यह भी अधूरा सत्य है, वास्तविकता यह है कि गाँधी जी ने भी अंग्रेजों की राय से अंग्रेजों की इच्छा से नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया । यदि पटेल प्रधानमंत्री होते तो शायद राजा हरि सिंह का निष्कासन नहीं होता वे धरातल पर सब जानते थे तो शायद आज जो कश्मीर समस्या है वह नहीं होती। इसलिए हमें लगता है कि हरि सिंह को गोलमेज सम्मेलन में अंग्रेजों के खिलाफ और भारत के पक्ष की बात रखने का दंड भुगतना पड़ा। आज भी देश के सामने जम्मू कश्मीर का सच नहीं आ पा रहा है यह एक छोटा सा प्रयास है कि एक राष्ट्रवादी राजा के साथ ऐसा क्यों हुआ किसका दोष है? देश के सामने आज भी यह प्रश्न खड़ा है।

सूबेदार

धर्म जागरण समन्वय

सोनपुर सारण, बिहार

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