धर्म के लिए भाई दयाला, मतीदास एवं सतिदास का बलिदान

 


10 नवंबर / बलिदान दिवस

कश्मीरी पंडितों की गुहार

मुगलों से संघर्ष चल रहा था कश्मीरी पंडित बहुत परेशान थे धर्म बचाने हेतु उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा था उस समय उन लोगों को एक आशा की किरण गुरु तेगबहादुर ही दिखाई दे रहे थे वे उनके पास पहुँचे धर्म सभा बैठी पंडितों ने गुरु जी के सामने अपने आने का कारण बताया। गुरु तेगबहादुर ने कहा कि हिंदू धर्म किसी बड़े धर्मात्मा का बलिदान मांग रहा है, सभी लोग एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। तभी पीछे एक बालक की आवाज आई कि पिताजी आपसे बड़ा कौन ? प्रथम बलिदान तो आपका होना चाहिए गुरू तेगबहादुरजी ने देखा कि भविष्य का हिंदू समाज को गुरू मिल गया है और उन्होंने उस बालक को गुरू गद्दी सौंप कर बलिदान के लिए तैयार हो गए। आखिर ये बालक गुरु गोविंद सिंह के अतिरिक्त और कौन हो सकता था? अब गुरुजी ने कश्मीरी पंडितों से कहा कि जाओ औरंगजेब से कह दो की यदि गुरू तेगबहादुरजी को आप मुसलमान बना लेंगे तो हम सभी मुसलमान बन जायेंगे।

हुतात्मा भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला

भाई मतीदास (हिंदू धर्म) सिख इतिहास के सर्वश्रेष्ठ हुतात्माओं में से एक थे, भाई मतीदास का जन्म झेलम जिले के करियाला गाँव में हुआ था जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। वे ब्राह्मण परिवार से थे, भाई मतीदास के पिता का नाम भाई प्रगा था। भाई मतीदास दो भाई थे छोटे भाई का नाम सतीदास था। ये दोनों भाई "भाई दयाला" सहित नवें गुरू, गुरू तेगबहादुरजी के साथ बलिदान हुए थे। गुरु तेगबहादुर के पास जब कश्मीर से हिन्दू औरंगजेब के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करने आये, तो गुरू तेगबहादुरजी औरंगजेब से मिलने मिलने दिल्ली चल दिये। गुरुजी अपने साथियों के साथ एक बाग में विश्राम कर रहे थे, तभी मुगलों की सेना की टुकड़ी आ गई । आगरा के पास ही से गुरू जी को वे दिल्ली लेकर चले गए और आगरा में ही उनके साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास तथा भाई दयाला को बन्दी बना लिया गया। ये तीनों बलिदानी गुरू तेगबहादुर के बहुत निकट थे । 

इस्लाम अस्वीकार 

औरंगजेब चाहता था कि गुरुजी मुसलमान बन जायें। उन्हें डराने के लिए इन तीनों को तड़पा-तड़पा कर मारा गया; पर गुरुजी विचलित नहीं हुए । औरंगजेब गुरू तेगबहादुरजी को डिगाना चाहता था इसलिए सबसे पहले भाई मतीदास को चुना और उन्हें जंजीरों में जकड़ कर चदनी चौक लाया गया। भाई मतीदास शान्त और उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी उन्हें मृत्यु का कतई भय नहीं था, चदनी चौक पर पहले से ही भीड़ इकट्ठा हो गई थी। भाई मतीदास को पहरे में लाया गया था। काजी ने भाई मतीदास से कहा यदि तुम इस्लाम स्वीकार कर लेते हो तो तुम्हें शासन में बड़ा पद मिलेगा, तुम्हें जन्नत मिलेगी नहीं तो यातना देकर मारे जाओगे। भाई मतीदास ने कहा "क्यों समय गवां रहे हो ? मैं धर्म त्यागने के बजाय मृत्यु स्वीकार करना पसंद करूँगा।" काजी के अंतिम अंतिम इच्छा पूछे जाने पर भाई मतीदास ने कहा कि मुझे गुरुजी के सामने खड़ा करो जिससे मैं अपने गुरूजी का मुंह देख सकूँ। भाई मतीदास की अंतिम इच्छा पूरी की गई। उन्हें गुरू जी के सामने लकड़ी में सीधे बांध दिया गया और आरा चलाया जाने लगा उनके चेहरे पर कोई सिकन नहीं थी। उन्हें 9 नवंबर 1675 को चदनी चौक पर "आरे" से चीरा गया। 10  नवंबर 1675 को उनके छोटे भाई, भाई सतीदास को पानी में खौलाकर - उबालकर मारा गया तथा भाई दयाला को शरीर में रूई लपेटकर जलाकर मारा गया।

औरंगजेब ने सबसे पहले 9 नवम्बर, 1675 को भाई मतिदास को आरे से दो भागों में चीरने को कहा। लकड़ी के दो बड़े तख्तों में जकड़कर उनके सिर पर आरा चलाया जाने लगा। जब आरा दो तीन इंच तक सिर में धंस गया, तो काजी ने उनसे कहा – मतिदास, अब भी इस्लाम स्वीकार कर ले। शाही जर्राह तेरे घाव ठीक कर देगा। तुझे दरबार में ऊँचा पद दिया जाएगा और तेरी पाँच शादियाँ कर दी जायेंगी।

वही प्रश्न जो वीर हकीकत ने किया था !

भाई मतिदास ने व्यंग्यपूर्वक पूछा – काजी! यदि मैं इस्लाम मान लूँ, तो क्या मेरी कभी मृत्यु नहीं होगी ? काजी ने कहा कि यह कैसे सम्भव है। जो धरती पर आया है, उसे मरना तो है ही। भाई जी ने हँसकर कहा – यदि तुम्हारा इस्लाम मजहब मुझे मौत से नहीं बचा सकता, तो फिर मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म में रहकर ही मृत्यु का वरण क्यों न करूँ ? उन्होंने जल्लाद से कहा कि अपना आरा तेज चलाओ, जिससे मैं शीघ्र अपने प्रभु के धाम पहुँच सकूँ। यह कहकर वे ठहाका मार कर हँसने लगे। काजी ने कहा कि वह मृत्यु के भय से पागल हो गया है। भाई जी ने कहा – मैं डरा नहीं हूँ। मुझे प्रसन्नता है कि मैं धर्म पर स्थिर हूँ। जो धर्म पर अडिग रहता है, उसके मुख पर लाली रहती है; पर जो धर्म से विमुख हो जाता है, उसका मुँह काला हो जाता है। कुछ ही देर में उनके शरीर के दो टुकड़े हो गये। और अंत में 11 नवंबर 1675 को चदनी चौक में गुरू तेगबहादुरजी सिर धड़ से अलग कर दिया गया, यानी शीश काट दिया गया।

बाद में गुरू गोविंद सिंह ने भाई मतीदास, भाई सतीदास और भाई दयाला को भाई का सम्मान इन हुतात्माओं सहित पंच प्यारों को दिया।

बलिदानी परंपरा के वाहक 

ग्राम करयाला, जिला झेलम (वर्त्तमान पाकिस्तान) निवासी भाई मतिदास एवं सतिदास के पूर्वजों का सिख इतिहास में विशेष स्थान है। उनके परदादा भाई परागा जी छठे गुरु हरगोविन्द के सेनापति थे। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध युद्ध में ही अपने प्राण त्यागे थे। उनके समर्पण को देखकर गुरुओं ने उनके परिवार को ‘भाई’ की उपाधि दी थी। भाई मतिदास के एकमात्र पुत्र मुकुन्द राय का भी चमकौर के युद्ध में बलिदान हुआ था। भाई मतिदास के भतीजे साहबचन्द और धर्मचन्द गुरु गोविन्दसिंह के दीवान थे। साहबचन्द ने व्यास नदी पर हुए युद्ध में तथा उनके पुत्र गुरुबख्श सिंह ने अहमदशाह अब्दाली के अमृतसर में हरिमन्दिर पर हुए हमले के समय उसकी रक्षार्थ प्राण दिये थे। इसी वंश के क्रान्तिकारी भाई बालमुकुन्द ने 8 मई, 1915 को केवल 26 वर्ष की आयु में फाँसी पायी थी। उनकी साध्वी पत्नी रामरखी ने पति की फाँसी के समय घर पर ही देह त्याग दी।

लाहौर में भगतसिंह आदि सैकड़ों क्रान्तिकारियों को प्रेरणा देने वाले भाई परमानन्द भी इसी वंश के तेजस्वी नक्षत्र थे। किसी ने ठीक ही कहा है –

सूरा सो पहचानिये, जो लड़े दीन के हेत

पुरजा-पुरजा कट मरे, तऊँ न छाड़त खेत।।

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