प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक धर्मपाल एक प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि गावों की तरह जातियाँ भी भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। यह सच है कि "मनुस्मृति " के अनुसार समाज किसी निश्चित समय पर चार वर्णों में विभक्त था। परन्तु भारत में जातियाँ और वर्ग अस्तित्व में थे और आज भी अस्तित्व में हैं, किन्तु उन्होंने कभी भी गंभीर प्रश्न उपस्थित नहीं किये।
समाज की आत्मा धर्म
ऐतिहासिक दृष्टि से देखे तो इनके बीच सह-अस्तित्व है। इनके बीच लड़ाई भी होती थी और वे उत्सव भी साथ मिलकर मनाते थे क्योंकि धर्म सभी के अंदर था और समाज की आत्मा धर्म है । मनुस्मृति के नियमों और मान्यताओं के विपरीत जब अंग्रेजों ने भारत को विजित करना चाहा उस समय भारत में अधिकांश राजा शूद्र वर्ण के थे। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो यह संभव है कि अलग-अलग जाति और वर्ण का अस्तित्व भारतीय राज्य व्यवस्था तंत्र अपेक्षाकृत हमारी दुर्बलता के कारण है। हमारी सांस्कृतिक एकता के कारण ही भारत आज भारत है। इसके केंद्रीय या संघ शासन के कारण नहीं! बहुत ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं कि भारत के अनपढ़ और अज्ञानी, गावों में बसने वाले लोग उत्तर से दक्षिण और दक्षिण से उत्तर की यात्रा पर जाते थे। हिमालय में बहुत ऐसे गांव हैं जो तमिल मूल के हैं और 'पट्टी ' के रूप में जाने जाते हैं।
पिछड़ेपन की संकल्पना
पिछड़ेपन की संकल्पना सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों अर्थो में लागू होती है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो जाति पिछड़े पन की निशानी है। परन्तु जाति को इस प्रकार निशानी मानने के निर्णय पर हम कैसे पहुंचे ? प्राचीन काल से गांव की तरह ही जाति भी भारतीय समाज का अभिन्न अंग रही है। यह सच है कि "मनुस्मृति" जैसे ग्रंथों के अनुसार एक समय हिन्दू समाज में चार वर्ण थे। ये चार वर्ण थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इसी परंपरा के अनुसार एक समय भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त था। ऐसा लगता है कि इस प्रकार इन चारों वर्णों में लम्बे समय तक व्यतीत होने के कारण भिन्न -भिन्न जातियों की रचना हुई होगी। वस्तुतः इन चार वर्णों में किसी भी ब्यक्ति को कोई अक्षम्य अपराध करने पर परिवार सहित वर्ण से निष्कासित कर दिया जाता था। ऐसे परिवार अंत्यज कहे जाते थे (चंडाल, परिहा आदि ) दूसरी एक परंपरा के अनुसार (जो अलग अलग जातियाँ और जनजातियों की विशेष परंपरा के रूप में स्वीकृत है ) प्रत्येक जाति की एक दैवीय उत्पत्ति रही है यही मान्यता है।
हमारी सामान्य धारणा के विपरीत यहाँ तक कि मनुस्मृति के विपरीत, कम से कम जब अंग्रेजो ने भारत को जीतना चाहा उस समय भारत के विभिन्न भागों में राजा ऐसे जातियों से होते थे जिन्हे शूद्र कहा जाता था (ध्यान रखने योग्य है कि समाज में विकृत अवस्था होने के कारण वर्ण व्यवस्था क्षीण हो गई और जो राजा है वह मनु के अनुसार क्षत्रिय होना चाहिए लेकिन शूद्र ही रह गया आखिर क्यों?)।
जातियों का हथियार के रूप में प्रयोग
एक ओर अंग्रेजो ने जाति व्यवस्था को अनिष्ट करार दिया, परन्तु दूसरी ओर उनको भारत में शासन करने के लिए वर्गीकरण की भी आवस्यकता थी। इसलिए उनका ध्यान मनुस्मृति की ओर गया, उन्होंने मनुस्मृति का विद्वतापूर्ण अध्ययन कराया और उसमे "क्षेपक" डालने यानी विकृत करने का काम किया। प्रमुख रूप से वर्ण व्यवस्था को कानूनी समर्थन भी किया जिसका परिणाम बहुत गंभीर हुआ। भारत के विशाल जनसमूह को अपनी वंशानुगत संपत्ति से वंचित करने के लिए और परंपरा गत व्यवसायों को उनसे छीनने के लिए, असंख्य सांस्कृतिक और धार्मिक उत्सव और कर्मकांडो में सहभागी होने और उनका संचालन करने का उनका अधिकार उनसे छीन लेने के लिए अंग्रेजो ने वर्णव्यवस्था का दुरूपयोग किया। अंग्रेजो की योजना धर्मान्तरण की थी इसलिए उन्होंने अब ईसाई पंथ अपनाकर आत्मा के शुद्धिकारण यानी धर्मान्तरण यानी राष्ट्रांतरण का उद्देश्य! कालमार्क्स की दृष्टि में इसे पाश्चात्य बनाना आज की भाषा में आधुनिक बनाकर हिंदू समाज का संपूर्ण रूपन्तरण करना उद्देश्य यानी धर्मांतरण।
एक सर्वे के अनुसार धर्मपाल ने अपनी पुस्तक "भारत का पुनर्बोध " में दक्षिण भारत मद्रास प्रेसिडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश का अधिकांश विस्तार, वर्तमान कर्नाटक के कुछ जिले केरल और उड़ीसा ) में सन 1822 से 1824के दौरान विस्तृत सर्वेक्षण किया गया था। यह सर्वेक्षण दर्शाता है कि प्रेसिडेंसी में उस समय भी 11575 गुरुकुल और 1084 महाविद्यालय अस्तित्व में थे जिनमें क्रमशः 1,57,185 और 5431 छात्र अध्ययन करते थे। इन विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के जातियों का विवरण अधिक आश्चर्यजनक था। तमिल भाषी प्रदेश में शूद्र और शूद्र से भी निम्न मानी जाने वाली जातियों का 70% से 80 प्रतिशत, उड़िया भाषी प्रदेशों में 62%, मलयालम भाषी प्रदेशों में 54% और तेलगु भाषी प्रदेशों में 35 से 40% छात्र इन जातियों के थे। एक शोध के अनुसार मद्रास नगर की जानकारी के अनुसार 26,446 लड़के घर में पढ़ते थे और 5,532 छात्र विद्यालय जाते थे और कालेज स्तर के छात्र अपने घर पर ही पढ़ते थे। दक्षिण भारत के अकडे कुछ इस प्रकार है लेकिन उत्तर भारत व अन्यों का अकड़ा "धर्मपाल समग्र" भाग चार में उपलब्ध है।
जनजातियों का निर्माण
भारत में जो भी हिन्दू समाज रहता है सभी के पूर्वज राजा और महाराजा थे, वे बड़े स्वाभिमानी भी थे और मनु के वंशज होने के कारण सभी क्षत्रिय भी थे, उन्होंने विधर्मियो को विदेशी आतंकियों को पराजित भी किया। अंग्रेजो से तो उन्होंने लम्बे समय तक संघर्ष किया इसलिए उन्होंने इन जातियों को चिन्हित करके उन्हें हमेशा के लिए अपराधी बनाने के लिए काम किया। इस वर्णन के अनुसार ये सभी समूह ऐसे हैं जिनके पूर्वज योद्धा थे, जिन्होंने फिरंगियों के साथ निरन्तर लड़ाई की थी एवं अंत में फिरंगी प्रबल सत्ता के सामने इन्हे झुकना पड़ा था। योद्धा होने के उपरांत उनका मुख्य व्यवसाय शिकार, जादूगरी, नटविद्या, कलाबाजी, मदारी, लोहारी का काम था। उनकी पूर्ण शरणागति के बाद उन्हें समाज से अलग -थलग कर दिया गया, उन पर पुलिस द्वारा निगरानी रखी जाने लगी यानी हमेशा के लिए अपराधी।
वसुधैव कुटुंबकम
कदाचित यह हिंदू समाज की स्वभावगत समस्या है, हिन्दू विचार, हिंदू जीवन पद्धति हिन्दू संस्थाओं से उद्भुत समस्या है, अथवा अन्य संस्कृतियों से बचने के लिए हिन्दुओ द्वारा अपनायी गई एक नीति है समझ से परे है। यह समझने की आवस्यकता है कि भारतीय राष्ट्र की आत्मा धर्म है। यह संभव है कि विश्व अब कदाचित धीरे -धीरे परन्तु एक होने की दिशा में वसुधैव कुटुंबकम की नई सोच लेकर, सृष्टिसृजन की स्वचालित प्रक्रिया को स्वीकार करके विशुद्ध समझ के साथ आगे बढ़ रहा है। यह यदि सच है तो यह नूतन दृष्टि सबका नारा बन सकता है। सभी को उसे अपनाना ही पड़ेगा, इसके लिए प्रत्येक को आत्मचिंतन करना होगा, ऐसी खोज चिंतन समग्र समाज को, राष्ट्र को, सम्पूर्ण विश्व के मानवता वादियों को करना होगा। ऐसा आत्मदर्शन, आत्मनिवेदन, गत छ : शताब्दीयों के हमारे भयानक कृत्यो के लिए पश्चाताप की भूमिका निभाएगा एवं अब तक जो भी हानि हुई है उसकी पूर्ति के अथवा सुधार के उपाय का अवसर भी देगा।
1 टिप्पणियाँ
अति सुंदर !
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