एक और दधीचि परंपरा का अंत (मा ओमप्रकाश गर्ग )

 


एक और दधीचि परंपरा का अंत 

मै गोरखपुर में विभाग प्रचारक था मार्च 1999 की प्रतिनिधि सभा लखनऊ में थी, जहाँ मेरी योजना नेपाल अधिराज्य के लिए हो गई। मैं मई के अंतिम सप्ताह में काठमांडू पंहुचा वैसे तो मा ओमप्रकाश गर्ग से कार्यक्रमों के माध्यम से पुराना परिचय था लेकिन अभी तो मैं उनके सहयोगी के नाते उनके सामने था। उनका ब्यक्तिगत व सामाजिक जीवन बहुत सादगी भरा था। उनका स्वाभाव था कि टेम्पू का किराया पूछते पूछते गनतव्य स्थान तक पहुंच जाते थे, उनके साथ मुझे भी न चाहते हुए भी जाना पड़ता था। वैसे ओमप्रकाश जी का जन्म गाजियाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ था लेकिन जितना मै समझता हूं उनका कर्म स्थल नेपाल और बिहार में ही था वैसे वे पूर्ण रूप से बिहारी बन चुके थे कितने कार्यकर्ताओं का निर्माण किया कुछ कहना संभव नहीं है।

ऐसे थे ओमप्रकाश जी 

वैसे मा ओमप्रकाश जी का जीवन ऐसा था कि उन पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है एक दो पेज मे तो एकाध संस्मरण ही लिखा जा सकता है मै वही करने वाला हूँ। जब मेरी योजना नेपाल की हुई, प्रथम बार 1999 मई -जून के महीने में संघ शिक्षा वर्ग लगा। जो नेपाल की आर्थिक राजधानी वीरगंज में था वहां भोजन में प्रतिदिन दाल -भात मिलता था मैं स्वयं केवल भात खाने का अभ्यस्त नहीं था मुझे परेशानी हो रही थी। एक दिन ओमप्रकाश जी कहीं गए हुए थे, मैंने भोजन बनाने वाले कर्मचारी से पूछा कि आटा नहीं है क्या ? उसने उत्तर दिया आटा तो है! तो रोटी क्यों नहीं बनाते ? उसने बताया कि बड़े साहब का ऑर्डर नहीं है यानी मा ओमप्रकाश जी ने नहीं बताया है, मैंने कहा आज दोपहर में रोटी बनाना उस दिन रोटी बनी सभी शिक्षार्थी भोजन हेतु बैठे थे कि ओमप्रकाश जी आ गए। उन्होंने मुझसे पूछा कि रोटी किसने बनवाई मैंने कहा मैं, तभी ओमप्रकाश जी ने बताया की रोटी तो यहाँ जलपान होता है अब ये रोटी भी उतनी ही खायेंगे और भात भी ! आज तुमने रोटी का यानी उतने आटे का नुकसान कर दिया। इसका अर्थ क्या है? एक एक पैसे की चिंता करना मितव्ययता के साथ जीवन ब्यतीत करना किसी भी कार्यक्रम में घाटा नहीं होने देना घाटा वहीँ से पूरा करना।

एक और संस्मरण 

मेरे साथ उनके अच्छे बुरे बहुत से संस्मरण है लेकिन एक और उदाहरण देता हूँ। ऐसा संस्मरण जिसे मे कभी भुला नहीं पाता, वैसे तो सभी कार्यकर्ता यह जानते हैं कि मा ओमप्रकाश जी शायद ही कभी आरक्षण कराके ट्रेन में बैठते हों। लेकिन एक दिन मेरे साथ की एक घटना है उनके साथ मुझे काठमांडू से जनकपुर जाना था हम दोनों बस स्टैंड पहुंचे थे कि बस वाले बुलाने लगे ओमप्रकाश जी को अधिकांश बस वाले जानते थे एक बस में वे लेकर मुझे गए मेरे लिए उन्होंने सीट बुक कराई थी लेकिन अपने लिए नहीं! वहां बसों में बीच में कई मोढ़े (स्टूल ) रखे होते थे ओमप्रकाश जी मोढ़े पर बैठ गए अब मैं बड़ा असहज होने लगा कि मैं सीट पर और वे मोढ़े पर मैंने उन्हें टोका वे डांटकर बोले बैठे रहो ध्यान मे आया कि मोढ़े पर बैठने वाले को आधा किराया देना होता है इसलिए मोढ़े पर बैठना ऐसे थे मा. ओमप्रकाश गर्ग।

अन्तिम विदाई 

ओमप्रकाश जी उत्तर प्रदेश से प्रचारक निकले 1966 में वे जनसंघ के दायित्व में आए 1977 में वे बिहार के विभिन्न स्थानों पर प्रचारक रहे फिर वे बिहार के प्रांत प्रचारक रहे। 1992 में उन्हें नेपाल में काम के लिए भेजा गया 1999 में वे सीमा जागरण फिर विश्व हिंदू परिषद में केंद्रीय मंत्री रहे उनका केन्द्र बिहार में ही रहा 96 वर्ष की आयु में उन्होंने 6 नवंबर 2021 को अन्तिम सांस ली । उनका पार्थिव शरीर संघ कार्यालय विजय निकेतन पटना में रखा गया और 7 नवंबर को आंख दान हेतु उनकी पार्थिव शरीर को एम्स हस्पताल में भेजा गया। उनके साथ मुझे एक वर्ष काम करने का मौका मिला था बहुत कुछ सीखा अब उनकी यादें ही शेष रह गई हैं और ऐसे प्रचारकों का मिलना भी मुश्किल है वे संघ के बोलते पन्ने थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अपूर्णीय क्षति भी।

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