थारू जनजाति का वंश और उत्पत्ति

 

थारू का दूसरा नाम संघर्ष  

सनातन धर्म का इतिहास बड़ा ही रोचक और रोमांचक है। वैदिक काल में "चतुर्वर्णम मया सृष्टा, गुण, कर्म विभागसः।" का सिद्धांत था। न कोई ऊँचा था न कोई नीचा था, न कोई बड़ा था न कोई छोटा था सभी अपने कर्मो के अनुसार जीवन यापन करते थे। कोई किसी भी कुल में पैदा होता था लेकिन अपने कर्म के हिसाब उसके वर्ण का चयन अपने आप हो जाता था। उसी प्रकार थारू जनजाति के बारे में भी है थारूओं के बारे में कई प्रकार की भ्रान्ति भी है। राजस्थान के मरुस्थल से सम्वन्ध होने के कारण यह समाज थारू कहलाया ये शुद्ध सनातन धर्मावलंबी है, इनके खान -पान, रहन -सहन सभी सनातन परंपरा के अनुसार ही है। लेकिन भारतीय समाज में हमेशा षड़यंत्र हुआ है उसमें यह समाज भी षड़यंत्र का शिकार हुआ है। कुछ बामपंथी इतिहासकारों का मत है कि यह समाज बौद्ध है, बौद्ध समाज में दो पंथ है वैसे तो कई है और उनमे भी वडे भेद-भाव भी है लेकिन आज केवल एक विषय पर ही चर्चा करेंगे। एक पंथ है ''हीनयान'' और दूसरा है ''थारयान'' इसलिए कुछ लोग कहते हैं कि ये 'थारयान' से ''थारू'' की उत्पत्ति हुई। इसलिए कुछ लोग इन्हें ''मंगोल'' भी बताते हैं । थारू समाज ने अपने धर्म संस्कृति को बचने के लिए पहले तो सशस्त्र संघर्ष किया ये "कर्नल टाट" ने राजस्थान के इतिहास में वर्णन किया है, फिर अपनी धर्म संस्कृति को बचाने के लिए पलायन किया और आज भी अपनी संस्कृति को अक्षुण बनाये रखा ।

राजस्थान से पलायन प्रथम

आठवीं शताब्दी से इस्लामिक आक्रताओं के हमले भारत पर लगातार होने शुरू हो गये, हम जीतकर भी पराजित हुए। इनका पहली बार पलायन महाराजा पृथ्वीराज चौहान की पराजय के पश्चात् हुआ। धोखे से पराजय मिली बड़ी संख्या में नरसंहार हुआ क्षत्रिय योद्धा मारे गये कहते हैं कि महिलाओ ने अपनी मर्यादा को बचाने हेतु अपने कुछ लोगों के साठ भागीं और वे सभी भारतीय भूभाग के पूर्वी हिस्से में आकर बस गये। कहते हैं कि उनके साथ राजपूत थे कुछ का मत है कि जो भी उस समय के नौकर इत्यादि थे उनके साथ समूहों में वे आये धीरे धीरे उनके सम्वन्ध बन गये और विवाह कर लिया। जो ये पूर्वी भाग में आकर बसें उन्हें राजवंशी कहा जाता है वे अपने को रजवाड़े से जोड़ते हैं। ये नेपाल के पूर्वी हिस्से यानी राजविराज, सुनसरी, मोरंग विराटनगर और झापा जिला तथा ऊपर पहाड़ी में तथा बिहार के कटिहार, किसनगंज में कुछ बंगाल में पाए जाते हैं।

राजस्थान से पलायन द्वीतीय

जब मेवाड़ के महाराणा रावल रतन सिंह की पराजय हुई महारानी पद्मिनी ने अपने साथ हज़ारों महिलाओ के साथ जौहर किया था उस समय दूसरी बार राजस्थान से इसी भारत के पूर्वी हिस्से में उसी प्रकार आये उनका भी रहन-सहन सभी संम्पन घरानों जैसा ही है उन्हें यहाँ महतो, चौधरी इत्यादि नामों से जाना जाता है ये सभी नेपाल के वीरगंज, कपिलवस्तु, नवलपरासी, रूपदेही, परसा, बारा, दांग, मकवानपुर, चितवन तथा बिहार के पूर्वी चम्पारण, पश्चिची चम्पारण, उत्तर प्रदेश के महराजगंज, कुशीनगर, श्रावस्ती, बहराइच और गोण्डा जिले में पाए जाते हैं। 

तीसरा पलायन

कहते हैं कि महाराणा प्रताप का संघर्ष लम्बे समय तक चला उन्होंने पुनः सारे राज्य को जीत लिया था लेकिन उस समय में भी कुछ लोगों का पलायन इसी प्रकार हुआ। वे अपने को "राणा थारू" कहते हैं, सभी के घरों में महाराणा प्रताप के चित्र पाए जाते हैं बड़े ही स्वाभिमानी होते है वैसे थारू जहाँ भी रहते हैं सभी स्वाभिमानी होते हैं उनके गुण क्षत्रियों से मिलते जुलते हैं। थारू बड़े ईमानदार भी होते हैं। ये नेपाल के पश्चिमी हिस्से कंचनपुर, कैलाली, धनगढ़ी, बांके, बर्दिया, नेपालगंज तथा उत्तर प्रदेश के खीरी, लखीमपुर, उत्तराखंड के गढ़वाल, नैनीताल,उधमपुर इत्यादि जिलों में पाए जाते हैं।

रीति रिवाज और परंपरा

थारू देश की ऐसी जनजाति है जिसका संस्कार, रीति रीवाज से लेकर कई पहलू ऐसे है जो अपने को अलग पहचान बनाते हैं। माना जाता है कि ये मूल रूप से राजपूत मूल के हैं, लेकिन ये राजस्थान के थार प्रदेश से नेपाल सीमा पर आये, कुछ लोग इन्हे मंगोल रेस का भी मानते हैं। इनके चेहरे गोरे होते हैं महिलाये सुन्दर होती हैं संस्कार बहुत अच्छा होता हैं कहीं से राजपूतों से अलग नहीं दिखते। इसलिए इन्हे एक विशिष्ट जनजाति माना जाता है। इनकी मान्यताएं स्पष्ट नहीं मालूम पड़ती कि इनकी उत्पत्ति कैसे हुई, लेकिन कुछ लोगों का स्पष्ट मान्यता है कि वे राजपूतों के वंशज हैं। ये अपने को ठाकुर कहते हैं। कुछ की मान्यता है कि ये मांगोलो के वंशज होने के कारण बौद्ध हैं, लेकिन इनके संस्कार, परंपरा सभी सनातन धर्म से प्रभावित हैं इसलिए ये सभी सनातन धर्मी ही हैं।

खान-पान व रहन-सहन

थारू समाज के खान पान मे प्रमुख रूप से बगिया, ढीकरी तथा घोंघी है। वगिया, चावल के आटे का उबला हुआ एक पकवान है, जिसे चटनी के साथ खाया जाता है। घोघा भी मसालों के साथ खाते हैं, ये सभी मसालों का उपयोग करते हैं जैसे धनिया, मिर्चा, हल्दी इत्यादि देखा जाता है। विशेषकर कृषि कार्य करते हैं, कुछ लोग कत्थ भी बनाते हैं। कई स्थानों पर स्थानीय संस्कृति का अनुसरण करते हैं, इसी प्रकार कुछ स्थानों पर जब कोई मर जाता है तो उसे गाड़ देते हैं। चबूतरा बनाकर उसकी पूजा करते हैं वर्ण के अनुसार इन्हे जनजाति माना जाता हैं। इन्हें पहाड़ो पर खासी और तराई में इन्हें थारुआ कहते हैं। अक्सर देखा जाता है कि इनके परिवारों की मुखिया महिलाएं होती हैं इतना ही नहीं तो घर व खेती के काम काज मे भी महिलाये ही अग्रगड़ी रहती हैं।

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