मंत्रद्रष्टा वैदिक कवि या मंत्रद्रष्टा
हम सभी से जब कोई प्रश्न करता है की हमारे आदि कवि कौन है ? हम सभी महर्षि बाल्मीकि, कालिदास क़ा ही नाम लेते है ! क्योंकि हम वैदिक ऋषियों को ध्यान में नहीं रखते जिन्होंने वेदों के ऋचाओ क़ा अनुभव किया जिनके कंठ से ऋचाओ के गान हुआ आखिर वे भी तो कवि ही थे, यह ठीक है की यह ज्ञान इश्वर प्रदत्त है फिर भी वह वेदों के श्लोक तो वैदिक संस्कृत में गीत होने के कारण वैदिक ऋषि हमारे आदि काल के कवि ही थे। यह भी एक मत हो सकता है लेकिन वास्तविकता यह है कि वेद इश्वर प्रदत्त है इसलिए ये ऋषि कबि न होकर मंत्र द्रष्टा ही है कवि कहकर इनका उपहास ही करना है, इस कारण ये वैदिक मंत्रद्रष्टा ही है !वैदिक ब्यवस्था में वर्ण
जिस प्रकार सभी क्षेत्रो के विकाश में सभी वर्गों का योगदान है वैसे ही जिन्हें हम शुद्र समझते हैं उनकी भी समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका है, उन्हें समाज पहले अछूत नहीं मानता था, वे बड़े प्रतिष्ठित व धनिक हुवा करते थे किन्ही कारणों से जब कोई पददलित हो होकर शुद्र हो जाता था, पुनः अपनी प्रतिभा के आधार पर वह प्रतिष्ठित हो जाता उन्ही में से, वेदों की ऋचाओं के मंत्र द्रष्टा दीर्घतमा, कवष एलूष हैं, - विदित है भारतीय समाज में केवल एक ही वर्ण था, धीरे-धीरे समाज की आवस्यकता अनुसार जो मनुष्य जैसा कर्म करता उस वर्ण में जाता, समाज में शिक्षा, यज्ञ इत्यादि कार्य जो करते वह ब्रह्मण कहलाये, बहुत समय तक समाज में दो ही वर्ण थे 'ब्राहमण, क्षत्री' समय काल परिस्थिती में बदलाव आया जिनके कर्म कुछ अन्य प्रकार हो गए यानी ब्रह्मण से अलग हुए वे शुद्र कहलाये, लेकिन वे अछूत नहीं चुकी ब्रह्मण उच्च कर्म करते थे इस नाते ''ब्रह्मण को धन केवल भिक्षा'' शुद्रो के पास धन नहीं था वे सेवा कर्म करने लगे, समाज में उनका बड़ा ही सम्मान था, जो वर्ग क्षत्रिय कर्म से अन्य कार्य जैसे खेती, ब्यापार या और कोई कार्य समाज को चलाने की दृष्टि से करने लगे वे वैश्य कहलाये लेकिन समाज में कोई ऊँच-नीच या किसी की उपेक्षा क़ा भाव नहीं था, समाज में सबकी प्रतिष्ठा समान थी।
कर्म की प्रतिष्ठा
रामायण काल में जैसे महर्षि बाल्मीकि की प्रतिष्ठा सर्बाधिक थी, तो मध्य काल में संत रविदास, कबीर दास, महात्मा फुले की प्रतिष्ठा थी, उससे भी कही अधिक वैदिक काल में दीर्घतमा, यलुश और महिदास एतरेय जैसे ऋषियों की भी थी। वर्तमान समय क़ा पूर्व काल अंधकारमय होने के कारण हम अपने को भूल गए, जबकि वेदों के ऋषियों को हम इस महिमा से बंचित करते है, दीर्घतमा- ममता क़ा पुत्र होने के कारण दीर्घतमा मामतेय कहलाये, ममता ब्रह्मण कन्या थी जिसकी शादी बैशाली के "उच्चस्थ" नाम के ब्रह्मण परिवार मे हुई थी। दीर्घतमा गर्भ में ही था की उच्चस्थ क़ा देहांत हो गया, दीर्घतमा की
माँ उच्चस्थ के साथ चिता में जलकर मर जाना चाहती थी। लेकिन उचस्थ के छोटे
भाई बृहस्पति ने उसे बचा लिया और उससे बिबाह कर लियाा। बाद में ममता को बहुत
परेशानी हुई या बृहस्पति ने उसे बहुत परेशान किया, माता दुखी, कष्टमय जीवन
होने के कारण पुत्र अँधा पैदा हुवा। जन्मांध होने के कारण माँ ने पुत्र
क़ा नाम दीर्घतमा रखा। मां के गर्भ में ही वेद व वैदिक वांंंग्म का ज्ञान हो गया था। जिसके जीवन में लम्बे काल तक अँधेरा हो यानी
दीर्घतमा, ममता की दूसरी शादी को सायद समाज ने मान्यता नहीं दी या उस
प्रकार उसे स्वीकार नहीं किया यानी दीर्घतमा, ममता क़ा पुत्र है ब्रह्मण
स्वीकार नहीं हो सका। वह अनाथ हो गया इस कारण बैशाली के राजश्री में उसका
लालन पालन हुआ, दीर्घतमा अपने सौतेले पिता को कभी स्वीकार न सकने के
कारण अपने नाम के आगे मामतेय यानी दीर्घतमा मामतेय रखा।
विद्वान के साथ अति सुन्दर दीर्घतमा
प्रतिभा सम्पन्न दीर्घतमा के जीवन में बहुत प्रकार की किवदंती है, एक तो वह बहुत कामुक है, ऐसा भी हो सकता है, वह अँधा होने के साथ- साथ बहुत सुन्दर भी था, इस कारण महिलाओ में उसके प्रति ज्यादे आकर्षण रहा होगा! अँधा व सुन्दर होने के नाते महिलाये उसका दुरूपयोग कर उसे बदनाम भी करती, बचपन कष्ट पूर्ण होने के कारण वह आसानी से किसी पर विस्वास कर लेने के कारण भी ऐसा हो सकता है, जीवन के तमाम संदर्भो को किसी विद्द्वेश की वजह से दीर्घतमा क़ा स्वरुप तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया हो, एक बार प्रद्वेसी नाम की एक कन्या ने उससे बिवाह कर लिया और जल्दी ही उससे उब कर उसे नदी में बहा दिया, वह बहते -२ आज के भागलपुर के पास पहुचा था कि एक राजा जिसका नाम राजा बलि था निकालकर अपने यहाँ ले गए, उसकी प्रतिभा से राजा बहुत प्रभावित हुआ और एक औश्नरी नाम की एक दासी से उसका बिवाह करा दिया।जन्मांध फिर भी मंत्र द्रष्टा
दीर्घतमा एक तो अँधा था और राजश्री होने के कारण उसके नौकर उसे
ढ़ोते -ढ़ोते उब कर मार देना चाहा पर वह जन्मांध बच गया, हमें लगता है वह
कामुक या चरित्रहीन है ऐसा नहीं, किन्ही कारणों से उसे बदनाम किया गया,
दीर्घतमा प्रतिभा सम्पन्न वेद-मंत्रों का द्रष्टा है, जो २५
सूक्त और सौ से ऊपर मंत्रो का ऋषि हो वह ऐसे कैसे हो सकता है, अंधे और
सुन्दर होने के नाते स्त्रिया सम्बन्ध बना लेती बाद में खुद को बचाने हेतु
उसे बदनाम करती, इसी ऋषि ने राजा भरत को महायज्ञ कराया था, इससे स्पष्ट
होता है कि वह कितना योग्य था, तमाम प्रकार की घटना घटित व ब्यक्तित्व प्रधान वाले दीर्घतमा के
कृतित्व की श्रेष्ठता सच में अद्भुत है जिसने उसे अमर कर दिया, उसे कितना मानसिक कष्ट है कि वह अपने मंत्रो
में बार -बार दुहराता कभी अग्नि से कहता है। ''यो हविश्य्मंह मनसा ददाश'
[ऋ.१.२५७.६]कभी अश्वनीकुमारो को पुकारता है।
दृढ निश्चयी ऋषि
दीर्घतमा
की रचना व मनतब्य से लगता है कि इस महापुरुष को किन्ही कारणों से
दुष्प्रचारित किया गया है. जहा दीर्घतमा कहता है की यह स्त्री है अथवा
पुरुष है यह सारा भेद शरीर क़ा है और इस भेद को कोई आंख वाला ही जान सकता
है, अँधा भला कहा से जानेगा, बिधवा माँ क़ा अँधा पुत्र होने क़ा, पानी में
डुबाये जाने क़ा व अन्य आरोपों की पीड़ा से वह भागता नहीं तो वह महान ऋषि
होकर अपनी तपस्या कर्म के बल पर इश्वर द्वारा प्रदत्त वेद- मंत्रों का द्रष्टा
होकर निकलता है, एक बार तो उसने वैदिक ऋषियों द्वारा पृथ्बी नामक देवता "युग्मो" की कल्पना से परिचय कराया, वह अपने मंत्रो में जैसे पिता को धौ और माता को पृथ्बी कहकर पुकारता है।
अद्भुत् मंत्र द्रष्टा
दीर्घतमा की मंत्र श्रेष्ठता उनके विष्णु सूक्त [१-१५४]विष्णु यहाँ सूर्य क़ा वाचक है, सोचे एक जन्मांध मंत्र द्रष्टा क्या कल्पना करता है ? सूर्य की तीन स्थितिया प्रातः, मध्यान्ह, शायं जो उसने कभी देखा नहीं पर कल्पना है की विष्णु कितना विराट शक्ति पुंज है, दीर्घतमा के प्रतिभा क़ा पूर्ण चमत्कार उनके एक महादार्शनिक सूक्त [ऋग.१-१६४]में मिलता है. ५२ मंत्रो वाला यह महासूक्त दर्शिनिकता के कारण वैदिक परंपरा में 'अस्य वामस्य' के आधार पर अस्यवामिया सूक्त के नाम से जाना जाता है, इसी सूक्त क़ा महावाक्य है- सत्य एक है जिसे विद्वान लोग जिसकी ब्याख्या अपने-अपने प्रकार से करते है, ''एकंसदविप्रः बहुधा वदन्ति'' [ऋग.१-१६४-४६]।वेद अपौरुषेय
इस सूक्त के दार्शनिक पहलू को जानने के पश्चात् दीर्घतमा की प्रतिभा कितनी बिलक्षण और जागृत थी कि उसका जीवन विलक्षणताओ से भरा भाव विह्बल रहा होगा, जिसके जीवन को बदनाम करने की पूरी कोशिस अंगरिश कुल के लोगो ने किया [दीर्घतमा क्रन्तिकारी ऋषि वैशाली क़ा है] अंगरिश कुल होने के बावजूद, ममता क़ा बेटा मामतेय कहलाया इश्वर ने वेदों के जो भाव ऋषियों के कंठ से निकाला वे सभी वर्गों के थे तथा पूरे भारत वर्ष के थे वेद भगवान की वाणी तो है ही लेकिन वह ऋषियों के माध्यम से प्रकट हुआ इस प्रकार वेद अपौरुषेय है।
।.......................समाप्त
1 टिप्पणियाँ
dirghatama bhartiya rishi parampara ke shreshta mantra drashta the .
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