दिग्विजयी ऋषि दयानन्द- भाग-6

देश के लिए सभी को साथ 

ऋषि दयानन्द सरस्वती 1857के क्रान्ति के लिए एक बार देश का भ्रमण कर चुके थे जब यह क्रान्ति असफल हुई तो स्वामी जी ने भारतीय समाज व भारतीय राष्ट्र को जगाने के लिए सम्पूर्ण आचार्य, अध्यापक, विद्यार्थी सभी लोगों के मन में यह वेदना पैदा करने का प्रयत्न करते थे की स्वराज्य पुनः स्थापित किया जाय वे भारत के इतिहास को बताने का प्रयत्न, वेदों की ओर चलो का शंदेश, समाज में कोई छोटा बड़ा नहीं हम सब सनातन धर्म के मानने वाले हैं इस प्रकार स्वामीजी ने जगह जगह इस बात को रखा, एक पंजाब का भक्त था उसने स्वामी जी को लाहौर बुलाने का आग्रह किया, यहाँ पंजाब के लोग स्वामी जी के प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए स्वामी जी ने पंजाब आने का आस्वासन दिया, स्वामी जी चाहते हैं कि हिन्दू समाज में जितने मत पंथ हैं सभी मिल बैठ कर समस्या का समाधान निकाला जाता तो ठीक रहता, एक मत होकर देश व समाज की उन्नति के लिए प्रयत्नशील हो इसी प्रयोजन से सर्व धर्म सम्मेलन की योजना बनाया गया, परंतु उसमें केवल पांच, छः लोग आए सर सैयद अहमद, श्री केशवचंद्र सेन, श्री नवीन चंद राय, श्री हरिश्चंद्र चिंतामणि, श्री कन्हैया लाल अलखधारी और इन्द्रमणि सम्लित हुए। स्वामी जी ने सविस्तार से स्वदेश व स्वधर्म पर चर्चा की, स्वामी जी की भेट सरदार अर्जुन सिंह से हुई वे पंजाब प्रान्त के ''बांगा'' गाव जिला ''लायलपुर'' (बर्तमान पाकिस्तान ) के रहने वाले थे, स्वामी जी उनके घर गए सरदार अर्जुन सिंह स्वामी जी बहुत प्रभावित हुए स्वामी जी की बात बहुत पसंद आयी वे पूर्ण रूप से वैदिक धर्म के अनुयायी बन गए उन्होंने किशनसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार किया और बताते हैं 12 वर्ष के हुए तो इनके सहित दोनों भाईयों का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ उसी समय सरदार अर्जुनसिंह ने घोषणा की कि मैं इस अपने पुत्रों को देश आज़ादी के लिए राष्ट्र को देता हूँ। सहीद भगत सिंह के अंदर जो देशभक्ति की ज्वाला जल रही थी वह ज्वाला उनके बाबा अर्जुनसिंह व अपने पिता, चाचा के द्वारा सुलगायी गई थी और यदि यह कहा जाय कि भगत सिंह की राष्ट्र-भक्ति वंश परंपरा की थी तो अतिशयोक्ति नहीं होगी उनका सारा परिवार आर्यसमाजी था उन्हें देश प्रेम पैत्रिक मिला था, स्वामी दयानंद सरस्वती का जो मूल मंत्र था-- "बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं" इसी के अनुगामी थे भगत सिंह !

राष्ट्रवाद की नर्सरी

 स्वामीजी ने पूरे भारत को घूम-घूम कर 1857 का अलख जगाने का काम किया ही था, पूरे देश के राजा महाराजा, गुरुकुलों को स्वतंत्रता के इस यज्ञ बेदी पर आहुति देने की प्रेरणा दी थी वह सफल भी हुआ देश के अंदर अद्भुत क्रांति की ज्वाला भभक उठी अभी नहीं तो कभी नहीं का दृश्य उपस्थित हो गया था जहाँ साधू-सन्यासियों के मठ-मंदिर सुप्त पड़े हुए थे, वहीं स्वामी जी ने एक सन्यासियों का एक गुप्त संगठन खड़ा कर दिया और पूरे देश के साधू सन्यासियों में राष्ट्रवाद का अद्भुत जागरण होता दिखाई देने लगा, इसी कारण अंग्रेजों की किसी भी साधू-सन्यासी को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं कर पाया। मध्यकाल में जिसे से हम भक्ति आंदोलन कहते हैं वास्तविकता कुछ और ही है वास्तव में वह अपने अपने पंथो का जागरण अथवा प्रचार नहीं था बल्कि इस्लामिक काल की गुलामी से मुक्ति का आंदोलन था उस समय रामानुजाचार्य, रामानंदाचार्य, समर्थगुरु रामदास, संत रविदास, संत कबीर दास, कुम्हन दास, चैतन्य महाप्रभु, शंकरदेव, संत तुलसीदास जी, मीरा बाई और सूरदास जैसे संतों ने समाज के अंदर चेतना को प्रज्वलित करके कहीं बप्पा रावल, राणा सांगा, राणा प्रताप, विजयनगर साम्राज्य तो क्षत्रपति शिवाजी महाराज, वीर बुंदेला जैसे महान देशभक्त राजाओं को खड़े कर दिये, जिन्होंने कभी भी पराधीनता को स्वीकार नहीं किया । हमने हिन्दू समाज को सुरक्षित करने का जो प्रयत्न किया उसमे सफलता भी प्राप्त हुई कि --"कोऊ नृप होई हमैं का हानी" सारे समाज में विस्वास हो गया कि हमारे असली राजा भगवान श्री राम हैं इसने देश को बचा लिया। आंदोलन चलते चलते लंबा समय हो गया बामपंथियों तथा सेकुलरों ने इस मध्य काल को भक्ति काल बताने का प्रयत्न किया लेकिन वास्तविकता यह है कि यह आंदोलन इस्लामी क्रूर सत्ता के खिलाफ था इसीलिए स्थान स्थान पर नए राजवंश खड़े हो गए। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उसी आंदोलन को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, 1857 के बाद सुप्त सा हो गये समाज में भय ब्याप्त हो गया, स्वामी जी इस भय को निकालने के लिए राष्ट्रवाद (अध्यात्म) को जगाने के लिए अथक परिश्रम किया, वे अपने प्रवास के क्रम में स्थान-स्थान पर प्रवचन, शास्त्रार्थ के साथ-साथ समाज के बड़े व नेतृत्व वर्ग से मिलने का भी काम किया करते थे इस प्रकार देश के अंदर कोई भी ऐसा राजा- महाराजा, साधू- सन्यासी नहीं था जो स्वामी जी को न जानता हो, इतना ही नहीं वे जहाँ भी जाते थे अंग्रेज अधिकारी उनसे मिलने उनके प्रवचन सुनने के लिए आते रहते थे, उस समय अंग्रेजों का जो खुफिया तन्त्र था "LIU" आज भी है वह सब प्रकार की सूचना सरकार को देता था लेकिन यह भी था कि किसी भी साधू सन्यासी को गिरफ्तार नहीं करना है क्योंकि अंग्रेजों को यह भली भांति पता था कि भारत की असली सत्ता संतों के पास है यदि कुछ हुआ तो बिद्रोह हो जाएगा। अब स्वामी जी खेत को जोतना शुरु करते हैं फिर उसमें बीज डालने का काम करते हैं, उसी प्रकार जिस प्रकार किसान पहले खेत को जोतता है फिर उसमें बीज डालकर बेरन्ह यानी नर्सरी तैयार करता है फिर जब धान की नर्सरी तैयार जाती है तो खेत में धान लगाया जाता है। ठीक उसी प्रकार स्वामीजी ने अभी देश भर में घूम-घूम कर खेत तैयार कर रहे हैं।

महारानी विक्टोरिया का सर्वे

स्वामी जी देश भर में प्रवास कर रहे हैं 1957 होने के पश्चात अंग्रेजों ने लाखों लोगों की हत्या की ''बीस लाख'' लोग तो केवल उत्तर प्रदेश और बिहार में मारे गए क्योंकि सर्वाधिक अंग्रेजों को इन्हीं प्रांतो ने नुकसान पहुंचाया था, अंग्रेजों ने इसका बदला लिया गांधीवादी चिंतक धर्मपाल ने अपनी पुस्तक (धर्मपाल समग्र) में लिखा है कि प्रत्येक गांव में गुरुकुल थे, 90% से अधिक साक्षरता थी, स्वामी जी खेत की जुताई में लगे थे वे समग्र हिन्दू समाज को देशभक्ति का पाठ पढ़ा रहे थे यानी एक प्रकार की नर्सरी तैयार करना चाहते थे, इतने लोगों की हत्या से समाज में निराशा का भाव पैदा होना स्वाभाविक ही था, लेकिन स्वामी जी को तो गुरू का आदेश था देश व धर्म के लिए सारा जीवन अर्पित था वे बैठने वाले लोगों में नहीं थे सतत हिंदू समाज के जागरण में ही देश की आजादी का दर्शन करते थे, उन्होंने विचार किया तो ध्यान में आया कि अंग्रेजों की राजधानी कोलकाता में है लेकिन शासन देश भर में भले ही नाम मात्र का था। उसी समय एक और घटना हुई ब्रिटेन से महारानी विक्टोरिया ने भारत में शोध कार्य के लिए एक प्रोफेसरों का दल भेजा और कहा कि भारत में हमारा शासन कैसे चल रहा है ? 1857 की चिनगारी शान्ति हुई अथवा नहीं देश के साधु सन्यासियों का मानस कैसा है ? वह दल पूरे देश का लगभग छः महीने दौरा करने के पश्चात महारानी को रिपोर्ट भेजा, रिपोर्ट में लिखा कि भारत में ब्रिटिश सरकार के प्रत्येक जिले में DM और SP है उन्होंने बड़ी कुशलता से भारतीय राजाओ को अपने बस (समझौता) में किया हुआ है सब कुछ ठीक ठाक है लेकिन वहाँ की जनता पर मूल रूप से भारत के साधू-सन्यासियों का ही शासन है, रानी ने पूछा वह कैसे ? दल के एक सदस्य ने कहा कि वहां पर इस्लामिक शासन में भी देश भर पर कब्जा तो किया लेकिन जनता पर वहाँ के साधू सन्यासियों का ही शासन था, आज भी उसी प्रकार वहाँ की जनता सरकार की बात नहीं मानती वहाँ के जो राजे-राजवाड़े हैं, जो साधू-संत हैं, जो पंडित-पुरोहित हैं जनता उन्हीं की बात मानती है उन्हीं के प्रति श्रद्धा रखती है, हमारी बात तो केवल दिखाने के लिए भय से मानती है, रानी ने पूछा -! इसकी राजधानी कहाँ है उन लोगों ने बताया कि ब्रिटिश सरकार की राजधानी कोलकाता है लेकिन भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी में है सारे देश भर में गुरुकुलों की योजना, सारे 'कर्म कांड' सब पर काशी की मुहर आवस्यक है, एक सदस्य बोला सरकार को मालगुजारी तो देता है, लेकिन यदि सरकार कहती है कि बच्चा पैदा होते ही रजिस्ट्रेशन कराना है तो वह रजिस्ट्रेशन नहीं करता वह अपने पुरोहित के पास जाता है, बच्चे का राशि का क्या नाम है ? कुंडली बनवाता है, मनुष्य के मरने बाद वह सरकारी दफ्तर में सूचना नहीं देता फिर वह अपने पुरोहित के पास प्रत्येक श्मसान घाट पर एक डोम ( स्मशान पुरोहित) होता है वह उसे अग्नि देगा उसका उतना ही महत्व है जितना पुरोहित का है एक प्रकार का वह स्मशान घाट पुरोहित होता है और फिर अन्य कर्मकाण्ड अन्य पुरोहित कराता है, ये सब कर्मकाण्ड हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोकर रखता है जब तक यह धागा नहीं टूटता है इनके कर्मकांडों में विकृति नहीं आएगी तब तक भारतीय समाज पर शासन कर पाना असंभव सा है।

महारानी विक्टोरिया का प्रथम दौरा काशी

महारानी विक्टोरिया न ने बहुत विचार विमर्श के बाद इस समस्या के समाधान के लिए ब्रिटिश साम्राज्य की स्थायी शासन के लिए विचार शुरू हो गया अंग्रेजों का भ्रम दूर हो गया और महारानी का भारत मे प्रथम दौरा काशी में हुआ उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर जोर तो दिया लेकिन बहुत ही बुद्धिमत्ता से उसने काशी में विद्वानों को रिझाने के लिए संस्कृति विद्यालय खोलने की घोषणा की, काशी के अंदर जो संस्कृति विश्व विद्यालय खुला उसका नाम था "कुइन्श कॉलेज" उस संस्कृति विद्यालय में सारे पाठ्यक्रम में फेरबदल किया गया ''मनुस्मृति'' में क्षेपक डाला गया उसमे लिखा गया कि यदि शूद्र वेदमंत्र सुनता है तो उसके कान में ''रांग'' गला कर डाल देना चाहिए, इस प्रकार वैदिक धर्म व वेद विरुद्ध सामग्री पाठ्यक्रम में सामिल कर दिया गया, अब क्या था ? सरकार ने इसे प्रोत्साहित किया और पूरे देश में इसे प्रचलित करने का काम किया, रानी ने राजधानी कोलकाता में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोलने का आदेश दिया उसने 'कान्वेंट स्कूल' के लिए कहा फिर क्या था तुरंत आंग्ल भाषा में कान्वेंट स्कूल शुरू करने का काम अंग्रेजी सरकार ने किया, यह सब घटना क्रम स्वामीजी के आँखों के सामने था वे लगातार इसके तोड़ में लगे रहते थे और उन्हें लगा कि ब्रम्हसमाज अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार प्रसार अनजाने में अथवा जान बूझकर कर रहा है स्वामी जी अब बिना किसी देर के कोलकाता के लिए चल दिये।

और कोलकाता में

स्वामी जी देर नहीं करना चाहते थे वे अपने आँखों में देश की आजादी देखना चाहते थे इसलिए उन्होंने तय किया कि पूरे देश का भ्रमण देश को जगाना जैसे वैद्य को रोगी के रोग की जानकारी होती है लेकिन रोगी को रोग का पता नहीं होता स्वामी जी तो अपने राष्ट्र की नाड़ी को जानते थे उन्होंने देश की नाड़ी पकड़ रखी थी भारत की कल्पना बिना अध्यात्म के करना सम्भव नहीं है भारत का राष्ट्रवाद धार्मिक है बिना धर्म के भारत नहीं बचेगा इस बात को स्वामी जी बार-बार कहते थे इसलिए उन्होंने "एक पन्थ दो काज" यानी यदि भरतीय धर्म को जगाया जाएगा तो भारतीय राष्ट्र अपने आप खड़ा हो जाएगा। कोलकाता के एक समाचार पत्र 'इंडियन मिरर' में यह समाचार प्रकाशित हुआ कि गुजरात देश के निवासी एक स्वामी पंडित दयानन्द सरस्वती जो महान मूर्ति भंजक हैं कलकत्ता पधारे हैं और राजा जतींद्र मोहन ठाकुर के नैनान निवास पर ठहरे हैं, इस प्रकार संसय तथा संदेह निवारण के लिए लोग उनसे मध्यान तीन बजे के उपरांत मिल सकते हैं, इसी समाचार को पढ़कर लोग आने लगे।

कॉन्वेंट स्कूल और अंग्रेजी भाषा

स्वामी जी कोलकाता में प्रतिदिन प्रवचन भाषण और शास्त्रार्थ कर रहे हैं वे आचार्य भी हैं और विद्यार्थी भी, जहां भी जाते हैं वहीँ मनुस्मृति, उपनिषद, ब्याकरण और महाभाष्य योग्य शिष्यों को पढ़ाते हैं और केवल पढ़ाते ही नहीं है तो स्वयं भी अध्ययन करते हैं एक भी क्षण ब्यर्थ गवांते नहीं, उन्होंने ठीक प्रकार से अपना स्वाध्याय भी करते हैं केवल भारतीय मतों (शैव, वैष्णव, शाक्त, अघोरी, नानकपंथ, कबीर पंथ, जैन, बौद्ध दर्शन) का ही नहीं बाइबिल, कुरान और हदीस का अध्ययन किया  है उनका अध्ययन विवेक पूर्ण और तर्क की कसौटी पर खरा उतरने वाला है, ब्रम्हसमाज के निमंत्रण पर वे बोल रहे हैं उन्होंने कॉन्वेंट स्कूल के बारे में अंग्रेजी शिक्षा के बारे में बताना शुरू किया जहां "ब्रम्हसमाज" कहता था कि अंग्रेजी शिक्षा आवस्यक है वहीं स्वामी जी ने इसका उन्हीं के मंच पर विरोध करना शुरू किया उन्होंने बताया कि यूरोप में कैसे ईसाईयत फैली लगभग 70% लोग वहां विवाह नहीं करते वे साथ में रहते हैं उसे "लीव इन रिलेशनशिप" कहते हैं जब वे साथ रहते हैं तो बच्चे भी पैदा हो जाता है इसे वहां एक्सीडेंट कहते हैं, अब बच्चे तो पैदा हो गया अब इसको पालेगा कौन-? और पढ़ायेगा कौन ? इसलिए वहां कॉन्वेंट स्कूल खोले गए यानी "लावारिस बच्चों का स्कूल", अब वे तो एक्सीडेंट से पैदा हो गए तो उनके माता-पिता कोई नहीं! तो जब वे स्कूल में गए तो वहाँ कोई अध्यापक नहीं आचार्य नहीं तो फादर और मदर यानी अध्यापक फादर और अध्यापिका मदर बन जाती है, फर्जी ही सही लेकिन है, अब कोलकाता में जो लोग कान्वेंट स्कूल में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं वे बच्चे तो लावारिस बच्चे तो नहीं हैं। सारे विश्व में ईसाईयत को फैलाने की जिम्मेदारी इन्हीं लावारिस बच्चों की है और यही प्रयोग भारत में ये अंग्रेज कर रहे हैं। इस प्रकार वे अंग्रेजी शिक्षा और उनके आचारण का स्वामी जी पुरजोर विरोध करते थे वे कहते थे कि भाषा से गुलामी आती है अंग्रेजियत हमारे जींस में डालने का प्रयत्न हो रहा है जिससे हम एक दिन आएगा अपने महापुरुषों को विस्मृत कर देगें।

ब्रम्हसमाज और स्वामी दयानंद

स्वामी दयानंद जी को ब्रम्हसमाज के नेताओं का शीतल ब्यवहार अखरा नहीं, इस विषय पर वार्तालाप स्वामी जी और गजेंद्र मोहन (कलकत्ता वासी) में स्वामी जी के कोलकाता से प्रस्थान करने के एक दिन पूर्व हुआ था,उसने स्वामी जी से पूछा कि आपको इन ब्रम्हासमाजियों की उदासीनता से निराशा तो हुई होगी ? स्वामी जी बोले कि निराशा तो तब होती जब उनसे कोई आशा होती मुझे इन लोगों से कभी भी कोइ आशा नहीं थीं, यह प्रस्ताव बाबू केशवचन्द्र का था कि यहां एक वेद विद्यालय खोला जाय, मैंने इसमें अपना सहयोग देने की बात कही थी, परंतु मैं जानता था कि सेन बाबू का मुख्य आशय वहां वेद के साथ एंजिल और कुरान पढ़ाने का है, मैने कह दिया था कि वेद विद्यालय में दूसरे धर्मों का परिचय प्राप्त करने के लिए कुछ भी पढ़ाएं परंतु मुख्य विषय वेद-वेदाङ्ग ही रहेगा ।
मुझे कुछ ऐसा प्रतीत हुआ कि सरकारी अनुदान न मिल सकने से सेन बाबू का साहस छूट गया, कल देवेन्द्र बाबू कह रहे थे कि वे अपने बल बूते एक विद्यालय अपने गांव के समीप खोलेंगे, स्वामी जी कभी निराश होने वाले लोगों में नहीं थे वे जब मुम्बई से कोलकाता के लिए चले थे तभी उन्हें ब्रम्हसमाज के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लिए थे वे भारतीय वैदिक शिक्षा के पक्ष में थे वे भारत के भविष्य को अंग्रेजी भाषा नहीं तो देवनागरी लिपि परोसना चाहते थे वे भारत के ऋषी परंपरा का भारत चाहते थे इसलिए उनका जो मूल मन्त्र था वह "बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं" इसी मंत्र का जागरण जन जन में करना चाहते थे प्रत्येक भारतीय के अंदर उत्कट राष्ट्रप्रेम भरना चाहते थे उसी लिए एक भी क्षण जाया नहीं करते थे।