दिग्विजयी ऋषि दयानन्द- भाग-5

निराकार ब्रम्ह

अब स्वामी दयानंद सरस्वती जी को यह बात ध्यान में आ गई थी कि विना हिंदू समाज के जागरण के समाज व देश का कल्याण सम्भव नहीं हो सकता, इसलिए स्वराज और स्वधर्म के लिए बड़ी संख्या में योग्य ब्यक्तियों की आवश्यकता है जो अपने देश व हिंदुत्व के लिए सब कुछ न्यवछावर करने में कोई संकोच न करें। इसलिए स्वामी दयानंद सरस्वती यह जानते थे कि "मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना" का अर्थ लोग गलत निकाल रहे हैं, ईश्वर एक है, ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह निराकार ब्रह्म है, उसके गुणों को बिभिन्न नामो से पुकारा गया है, ब्रम्हाजी, विष्णु, शंकर इत्यादि यह सब उसके गुण के आधार पर नाम है लेकिन विभिन्न लोगों ने इनका नाम लेकर अलग-अलग सम्प्रदाय खड़ा कर दिया, कोई शैव सम्प्रदाय, कोई वैष्णव संप्रदाय और समय -काल -परिस्थितियों में सैकड़ों सम्प्रदाय खड़े हो गए और इसका परिणाम भी हुआ एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोपण ही नहीं हुआ बल्कि आपस में युद्ध का वातावरण होने लगा जितने बौद्ध, चर्च व इस्लाम मतावलंबियों ने हिन्दू समाज को घेरना शुरू कर दिया आरोप प्रत्यारोप करने लगे, इन्हीं संप्रदायों के आधार पर पुराणों का निर्माण हुआ परिणाम यह हुआ कि हमारे ऋषियों- मुनियों के ऊपर आरोप शुरू किया लेकिन इन पुराण पंथियों ने न तो अपना ही ग्रन्थ पढ़ा और न ही विधर्मियों के और वेदों की ओर तो देखा ही नहीं।

वेदों की ओर लौटो


पुष्कर में ही एक पंडा जी थे वे रामानुज परंपरा के अनुयायी थे स्वामी जी के पास आकर पंथो के बारे में विचार विमर्श किया करते थे, दूसरे दिन पुष्कर मेले में स्वामी जी का प्रवचन हो रहा था बहुत से स्त्री - पुरूष एकत्रित हो गए हैं वे पंडा जी भी उपस्थित है, स्वामीजी दर्शनीय है उनकी वाणी में अलौकिक माधुर्य और अद्भुत आकर्षण है उन्होंने एक उदाहरण दिया एक वैरागी के दो चेले थे, वे दोनों प्रतिदिन उनके पैर दबाया करते थे दोनों ने अपना-अपना पैर बाट लिया था एक दाये पैर को दूसरा बाएं पैर को दबाता था एक दिन दाएं पैर वाले चेले को गुरु जी ने किसी काम से कहीं भेज दिया, बायें पैर के सेवक ने समय से अपना काम शुरू कर दिया अभी वह बाया पैर दबा ही रहा था कि गुरू जी ने करवट बदली ऐसा करने से गुरू जी का पैर बदल गया, यह होना था कि चेला आग बबूला हो गया उसने डंडा उठाकर उस पैर पर दे मारा तब तक दूसरा चेला आ गया उसने देखा कि मेरे पैर को इसने मारा फिर क्या था दूसरे चेले ने उसके पैर को मारना शुरू किया गुरू जी बेचारे हाय-हाय कर रहे बड़ा कोलाहल हुआ बहुत लोग इकट्ठा हो गए तभी एक सज्जन पुरुष ने कहा कि दोनों पैर गुरू जी के है किसी पैर पर डंडा पड़ेगा तो कष्ट गुरू जी को ही होगा।
ठीक इसी प्रकार भिन्न भिन्न सम्प्रदाय और मत के लोग एक अखंड सच्चिदानंद अनंत स्वरूप परमात्मा के भिन्न -भिन्न विष्णु, शिव और शक्ति आदि नामों को लेकर आपस में लड़ते झगड़ते हैं, एक दूसरे के नाम की निंदा करते हैं, ये मंदमति तनिक भी अपनी बुद्धि से काम नहीं लेते वे यह नहीं विचारते कि ये ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि सैकड़ों नाम एक अद्वितीय, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर के अनेक गुण-कर्म स्वभावयुक्त होने में उसी के वाचक हैं, फिर ये अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी क्यों पकाते हैं, प्रत्येक सम्प्रदाय वाले अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग अलापते हैं, है ऋषियों की संतानों यदि तुम संसार में फिर गौरवशाली होना चाहते हो तो वेदों की ओर लौटो, उनके आशय को समझो, वेद मंत्र के यथार्थ अर्थों को जानो, ये साम्प्रदायिक लोग अपनी मनगढ़ंत और कपोल-कल्पित मान्यताओं की पुष्टि वेद मंत्रों से करते हैं।

हिन्दू समाज में कोई भेद भाव नहीं

स्वामीजी एक वेद मंत्र का अर्थ करते हुए कहते हैं --- हे ब्रम्हांड के स्वामी ! तेरा शुद्ध और पवित्र तेज संसार में सब कहीं फैला हुआ है, शुद्ध स्वरूप प्रभु! तू हमारे रोम -रोम में समाया हुआ है, परन्तु जिसने तपश्चर्या अर्थात संयम द्वारा अपनी इंद्रियों को बस में नहीं कर लिया है, वह तेरे इस ब्यापक पवित्र रूप तेज को प्राप्त नहीं कर पाता, केवल तपस्वी ही तेरे इस शुद्ध- स्वरूप की भली -भांति अनुभव और उपलब्धि कर सकता है। स्वामीजी जी कहते हैं कि ''अपने -अपने घरौंदों को समाप्त कर वैदिक धर्म रूपी दुर्ग में एकत्रित हो जाओ, उसके भीतर तुम सुरक्षित हो जाओगे शत्रु के गोली- गोले तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे, इसके विपरीत तुम्हारी गोलियां उन्हें मैदान से उखाड़ देंगी। अपनी भलाई चाहते हो तो ऊंच-नीच, छोटे-बड़े इत्यादि भेद और द्वेष भाव को त्याग कर संगठित हो जाओ, वेद की शिक्षा पर चलो और सदाचारी बनकर एक सर्वब्यापक सर्वशक्तिमान, निराकार परब्रह्म परमात्मा की उपासना करो, ओम शांति: शान्ति: शान्ति:''। स्वामीजी का यह उपदेश सुनकर बहुत बड़े बड़े विद्वानों की आँखे खुल गई।

ब्रम्हाजी की पौराणिक कथा झूठी

स्वामी जी पुष्कर में ही डेरा जमाए हुए थे सरस्वती जी और ब्रम्हाजी को लेकर कई विधर्मी लोग आरोप प्रत्यारोप करते रहते हैं स्वामी जी ने विस्तार से उसका वर्णन किया उन्होंने बताया कि एक तो ब्रम्हाजी ऋषि थे वे ऐसा कर नहीं सकते दूसरी सृष्टि में और कोई ब्रम्हा हो सकता है लेकिन ''सरस्वती नदी'' 'ब्रम्हाजी' की पुत्री क्यों और कैसे -? सरस्वती नदी ''आदि बद्री'' से निकल कर हरियाणा, राजस्थान होते हुए ''प्रभाष क्षेत्र'' होकर ''समुद्र'' में मिल जाती हैं, ''वैदिक काल'' में यह विशाल जल प्रवाह लिये चलती थी इसी नदी के किनारे 'सृष्टि' के 'उषा काल' में जब सृष्टि का निर्माण भगवान कर रहे थे तो उसी समय 'वेदों का ज्ञान' ''ईश्वर ने भगवान ब्रह्मा जी के द्वारा चार ऋषियों वायु, अग्नि, आदित्य और अंगिरा को दिया इन ऋषियों ने गुरुकुल परंपरा का निर्माण किया और ब्रम्हाजी के मानस पुत्र तथा ऋषियों को वेदों का ज्ञान कराया उस समय सारे के सारे गुरुकुल इसी सरस्वती नदी के किनारे थे, चुकि वेदों का प्रथम ज्ञान इसी नदी के किनारे ब्रम्हाजी ने दिया इसीलिए ब्रम्हाजी ने इस नदी को अपनी पुत्री माना।
स्वामीजी किसी दंत कथाओं को नहीं मानते हैं वे वेदों को और वेदानुकूल आर्ष ग्रंथों को ही प्रमाण कोटि में रखते हैं, परंतु यदि अन्य मत वाले हिंदुओं के महापुरूषों देवि- देवताओं की हँसी उड़ाता तो स्वामीजी उसे मुहतोड़ उत्तर देते थे और कहते कि "आर्य (हिंदू) लोगों की दशा अत्यंत शोचनीय है यह लोग अपनी रक्षा तो करना जानते ही नहीं, अन्य बातें तो जाने दो जब कोई ईसाई, मुसलमान हिंदू धर्म की आलोचना करता है तो ब्रम्हाजी की कथा सुनाता है तो वह मुख ताकते रहते हैं उनका उत्तर तक नहीं बन पड़ता, ब्रम्हाजी की कहानी किसी भी प्रामाणिक पुस्तक में नहीं है, परंतु ''लूत की कथा तो बाइबिल'' में विद्यमान है, यदि हमारे लोग दूसरे के ग्रंथों को देखे तो ऐसी बातों से उनका मुह बंद कर सकते हैं।"

मैं बन्धन मुक्त कराने आया हूँ

स्वामीजी परिब्राजक सन्यासी है वे देश को जगाने के लिए रातों दिन प्रवास कर रहे हैं वे गंगाजी के किनारे एक शहर में पधारते हैं वे ध्यान लगाकर बैठे हैं शहर में पता चला कि कोई सन्यासी आया है उसकी छबी देखते ही बनती है वे तेजस्वी और विशालबाहु हैं आँखे बड़ी-बड़ी कमलवत हैं उन्होंने जब आँखे खोली तो सामने राजा जयकृष्णदास और नगर के कई शेठ उनके सामने खड़े थे उन्होंने सबका स्वागत किया और आसन ग्रहण करने का संकेत दिया, बर्तालाप होने लगा तभी एक शेठ ने स्वामी जी को बताया कि स्वामी जी मैने दो लाख रुपये लगकर एक लक्ष्मीनारायण मंदिर बनाया है यह बात बड़े हर्ष और गर्व से बताया लेकिन स्वामीजी ने कहा कि मंदिर तो बहुत से बने हुए हैं यदि इतना धन लगाकर आप एक 'गुरुकुल' खोल देते 'संस्कृति पाठशाला' खोलते अथवा कोई समाजिक जनहित में कोई कार्य करते तो बहुत अच्छा होता अब तो शेठ जी को यह अच्छा नहीं लगा, शेठ अवाक रह गया लेकिन राजा जयकृष्णदास के मन में स्वामीजी के प्रति ऐसी श्रद्धा भक्ति उमड़ आयी-, वे स्वामीजी के होकर रह गए। स्वामी जी जगह-जगह शास्त्रार्थ को चुनौती देते मूर्ति पूजा का खंडन करते शेठ जी को यह सब नागवार गुजरता एक दिन एक उनसे मिलने एक पंडित जी आये समाचार पूछने पर सेठ लक्ष्मीचंद ने बताया कहाँ कुशल है एक यहां सन्यासी आया हुआ है जो सनातन धर्म की बखिया उधेड़ रहा है मूर्ति पूजा का खंडन कर रहा है, पंडित जी बोले सेठ जी स्वामी दयानंद वेदों के धुरंधर पंडित हैं उनकी तो डंके की चोट पर घोषणा है कि मूर्ति-पूजा, छुवा- छूत, बाल-विवाह, मृतकों का श्राद्ध, मांस भक्षण, जन्म से वर्ण व्यवस्था, अवतार वाद इत्यादि मान्यताएं अवैदिक हैं।
सेठ लक्ष्मीचंद अब स्वामी जी को परास्त करने का उपक्रम ढूढते रहे जगह-जगह से विद्वानों को बुलाते और मूर्ति पूजा को सार्थक सिध्द करने का प्रयास करते लेकिन सभी विद्वान, पंडित पराजित हो वापस चले जाते, इसी बीच एक तहसीलदार जो मुसलमान था वह भी प्रवचन सुनने आता एक दिन उसने पूछा कि स्वामीजी क्या कोई मुसलमान भी आर्य बन सकता है स्वामीजी ने कहा हा क्यों नहीं उसे आर्यों जैसा ब्यवहार करना पड़ेगा, तभी एक ब्राह्मण स्वामीजी के पास आया जिसे सेठ लक्ष्मीचंद ने भेजा था, पंडित ने अपने पानदान से एक पान विनीत भाव से स्वामीजी की ओर बढ़ाया स्वामी जी व्यसनी न होने पर भी पान खा लिया पान का रस अंदर जाते ही उन्हें ध्यान में आ गया कि इसमें जहर है वे तुरंत उठकर बिना बोले गंगा पार चले गए देर तक हठ योग की 'बसती और ध्यवली' क्रियाये करते रहे, फिर आसन पर आ विराजे, लेकिन यह समाचार आग के समान फैल गया, उस तहसीलदार को जब पता चला तो उनसे उस पंडित को गिरफ्तार करवाया और स्वामीजी का समाचार जानने के लिए आया उसने पूछ- ताछ में बताया कि मैंने उस पंडित को गिरफ्तार कर लिया है स्वामी जी नाराज होकर बोले ! ''आपने क्यों उसको गिरफ्तार किया मैं मनुष्यों को बंधवाने नहीं छुड़वाने आया हूँ,'' स्वामी जी की बात सुनकर तहसीलदार को आश्चर्य की सीमा न रही स्वामी जी ने कहा कि ''यदि दुष्ट अपनी दुष्टता न छोड़े तो हम क्यों सज्जनता का परित्याग करें।'' जब तहसीलदार वापस गया तो उस पंडित को छोड़ने का आदेश दे दिया।

जब पादरी का पाला पड़ा स्वामीजी से

स्वामीजी कर्णवास से प्रवास करके ग्राम-ग्राम में विचरने लगे वे गंगाजी के किनारे ध्यान मग्न हैं एक अंग्रेज अधिकारी अपने अर्दली के साथ घाट पार करने के लिए आया था अति प्रातःकाल का समय है वे गंगाजी के किनारे घूम रहे हैं कड़ाके की ठण्ड पड़ रही हैं वे सब बार-बार मदिरा का सेवन कर रहे हैं देखा कि एक सन्यासी नंग-धड़ंग पद्मासन में बैठा है वे घूम कर चले गए अर्दली को छोड़ गए, अर्दली ने देखा कि सन्यासी ध्यान टूटा हुआ है उसने साहब को बुलाया, स्वामी जी की आंख खुली तो देखा कि कुछ लोग खड़े हैं आशिर्वाद देते हुए परिचय पूछा उसने बताया ! मैं बदायू का कलेक्टर हूँ, ये मेरे साथ पादरी हैं, पादरी ने स्वामीजी से पूछा कि आपको जाड़ा क्यों नहीं लगता स्वामीजी ने सहज ही समझ में आने वाला उत्तर दिया जैसे आपका मुख हमेसा खुला हुआ रहता है लेकिन उसे बार-बार नहीं ढकते! यह अभ्यास का विषय है। "परन्तु मनुष्य की शरीर सर्दी गर्मी और अन्य कष्टों को सहन करने के योग्य ब्रम्हचर्य और योगाभ्यास से होती है", पादरी ने पूछा कि ब्रम्हचर्य क्या होता है-? सन्यासी ने बताया- योगशास्त्र में अभ्यासी को आरम्भिक शिक्षा पांच यमो के पालन करने के लिए दी गई है,  ब्रम्हचर्य चौथा यम है, इसमें वीर्य को रक्षित करने और उसे ऊर्ध्व गति बनाने वाला नियम है, आर्यों के चार आश्रमों में पहला ब्रम्हचर्य आश्रम है, स्वामीजी जी ब्रम्हचर्य के विषय में बता ही रहे थे कि कलेक्टर को कुछ ध्यान आया, वह बोला "मुझे ऐसा जान पड़ता है कि आप प्रसिद्ध ब्रम्हचारी स्वामी दयानंद सरस्वती हैं" स्वामीजी मुस्कुराते बोले- आपका अनुमान ठीक ही है। पादरी- दयानन्द का नाम सुनकर चौंक गया, उसने अंग्रेजी में कलेक्टर से कहा - "अरे यह तो भारत में ईसाईयों के कार्य में सबसे बड़ी बाधा है, यदि यहां के लोग इसकी शिक्षा पर चलने लगे तो ईसाई मिशनरियों के साथ ही अंग्रेजी शासन को भी बोरिया बिस्तर बांध लेना पड़ेगा।"

गाय के प्रति श्रद्धा

स्वामी जी भ्रमण करते आगरा पहुँचते हैं, यहां स्वामी जी की भेंट छोटे "लाट म्योर साहब" और शिक्षा विभाग के डायरेक्टर "कमसन महाशय" से हुई, उन्होंने लॉट महोदय से कहा- अब आप स्वदेश लौट रहे हैं, वहां आप भारत सचिव सभा के सदस्य होंगे, "उस समय वहां भारत के हित का ध्यान अवश्य रखिएगा, गो बध बंद कराने का प्रयत्न कीजिएगा।" डायरेक्टर महोदय से कहा- "इस देश की लिपी देवनागरी है, परंतु राजकीय पाठशालाओं और कार्यालयों में फारसी लिपी का प्रयोग हो रहा है, यह ठीक नहीं है, यद्यपिइसकी मांग जनता के द्वारा होनी चाहिए फिर भी मैं आपसे आशा करता हूँ कि आप देवनागरी लिपि करने में सहयोग करेंगे।" स्वामी जी अनथक योद्धा थे आर्य समाज की स्थापना के पश्चात उन्होंने गो रक्षा के लिए फौज ही खड़ी कर दिया देश के अंदर कोई पांच लाख गोशालाएं खुली, गौरक्षनी सभा बनी बहुत सारे प्रांतो में गोरक्षा के लिए प्रत्येक सरकारी कर्मचारी अपनी वेतन का कुछ अंश गोशालाओं को दान देता था इस प्रकार की परंपरा सी बन गई, स्थान-स्थान पर गोचर भूमि लोगों ने दिया आज भी देश के अंदर अधिकांश गाओ में गोशाला और गोचर भूमि मिलेगी।

पूर्ण योगी

स्वामी जी रात्रि को बहुत कम सोते हैं, वे पूर्ण योगी हैं। वे ईश्वर में ध्यान-मग्न रहते हैं, एक भक्त सेवक ठाकुर प्रसाद को उनकी योग-मुद्रा देखने की प्रबल इच्छा थी, एक दिन उसने छिपकर देखा-- ''स्वामी जी का आसन धीरे-धीरे भूमि से ऊपर उठ कर अधर में ठहर गया है, उस समय उनके मुख-मण्डल पर एक दिब्य-ज्योति और एक प्रकाशमय चक्र बना हुआ है''।
स्वामीजी के आत्मिक बल व मानसिक शक्ति के विकास का प्रमाण पाकर उनके प्रेमी लोग कभी-कभी आश्चर्यचकित हो जाते हैं, एक दिन स्वामी जी समाधिस्थ हैं, रायबहादुर पं सुन्दरलाल मित्रों सहित आकर बैठे हुए हैं, स्वामीजी ने आँख खोली उनके मुख पर मुस्कान है। रायबहादुर ने पूछा --  स्वामीजी आप किस बात पर मुस्करा रहे हैं ? महाराज बोले "थोड़ा ठहर जाइये अभी कुछ कौतुक दिखाई देगा"। थोड़ी देर में एक ब्राह्मण हाथ में मिठाई का दोना लिए आता है और स्वामीजी को भेंट कर के कहता है कि "महाराज भोग लगाएं।" स्वामीजी दोने से एक लड्डू निकाल कर उसे खाने के लिए देते हैं वह लड्डू लेने से झिझकता है, स्वामी जी ने कहा-- "यह मनुष्य हमारे लिए विषाक्त मिष्ठान लाया है।" वह भागने का प्रयत्न करता है परन्तु लोग उसे पकड़ लेते हैं, प सुंदरलाल जी एक लड्डू लेकर कुत्ते के सामने डाल देते हैं उसे खाते ही उस बेचारे के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। सब लोग उस ब्राह्मण को पुलिस को देना चाहते हैं लेकिन ऋषि दयानन्द ने यह कहकर की यह तो स्वयं अपने पाप के कारण कांप रहा है, उसे मुक्त करा दिया।

विधर्मी होने से बचाया

स्वामी जी के ब्याख्यान में अक्सर विद्यालयों के अध्यापक व विद्यार्थी आते हैं एक बंगाली अध्यापक ईसाई होने जा रहा है, उसने पंडितों को प्रश्नों की एक सूची दी है एक सप्ताह के अन्दर उत्तर माँगे हैं, उसने कहा कि यदि तुम लोग मेरी शंका का समाधान नहीं कर पाओगे तो मैं ईसाई धर्म स्वीकार कर लूंगा, प्राध्यापक के हित-मित्र सब परेशान हैं दौड़ रहे हैं परंतु पौराणिक विद्वानों को कुछ उत्तर सूझ नहीं रहा है। सौभाग्य से स्वामी दयानंद उसी समय प्रयागराज पहुँच चुके हैं उस बंगाली के मित्र उसे स्वामी जी की सेवा में लगा दिया, बंगाली पाश्चात्य दर्शन का विद्वान है, उसकी स्वामी दयानंद सरस्वती की बहुत देर तक बात-चीत हुई चलते समय उसने महाराज जी के चरण स्पर्श करते हुए कहा, "स्वामीजी ! आपने हमे अंधकार से निकाल कर प्रकाश में लाकर खड़ा कर दिया है।" रास्ते में उसके मित्रों के पूछने पर बताया कि केवल समाधान ही नहीं हुआ बल्कि स्वामी जी विलक्षण प्रतिभा के धनी और अद्वितीय विद्वान हैं, "मैं केवल विधर्मी होने से नहीं बचा बल्कि राष्ट्र विरोधी होने से भी बच गया स्वामी जी आप धान्य हैं।"