दिग्विजयी ऋषि दयानंद भाग-7


वेद अपौरुषेय

जिस प्रकार एक किसान अपने खेत को जोतता है फिर उसे उपज लायक बनाता है यानी खेत को फसल के लिए तैयार करता है और फिर उसमें बीज बोने का काम करता है, स्वामी दयानंद सरस्वती अब उस ओर बढ़ रहे थे यह उनका दूसरा भारत भ्रमण है पहली बार तो उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के लिए भ्रमण किया था लेकिन अब वे समग्र देश को आत्मविश्वास जगाने और समान्य समाज में राष्ट्र प्रेम पैदा करने भारत माता के लिए आहुति देने की तैयारी में लग गए थे वे दोहरे मोर्चे पर काम कर रहे थे एक तरफ देश आज़ादी और दूसरी ओर भीषण पाखंड में उलझा हुआ समाज उनका मानना था कि बिना वेदों की ओर लौटे समग्र समस्या का समाधान नहीं है, वे अब श्रावण 14 संबत1936 को बरेली पहुचते हैं, बहुत सारे लोग इकट्ठा हो रहे हैं ईसाई मिशनरियों तथा इस्लाम मतावलंबियों को लग रहा था कि एक ऐसा सन्यासी आज आएगा जो हिंदू धर्म का विरोध करेगा इस कारण इन दोनों समुदाय के बड़ी संख्या में मुल्ला मौलबी, पादरी विशप आये थे बड़ी संख्या में हिंदू धर्मावलंबी धर्माचार्य भी थे कमिश्नर, पुलिस अधीक्षक कलेक्टर इत्यादि बड़े बड़े लोग आए थे, कभी कभी कोई विबाद हो जाता था कारण मुस्लिम व चर्च के लोगों को वैज्ञानिक बाटे पचती नहीं थीं वे हिंदुओ के महापुरुषों की आलोचना करें तो कोई बात नहीं लेकिन यदि कोई हिंदू धर्म का साधू, सन्यासी यदि सत्य बोले तो भी वे कुरान के बारे में सुनने को तैयार नहीं इसलिए नगर कोतवाल को सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उस समय बरेली के कोतवाल जो बड़े धर्मावलंबी थे उन्होंने अपने लड़के मुंशीराम जो नास्तिक थे इस कारण उनके पिता बहुत परेशान रहा करते थे उन्होंने मुंशीराम से कहा बेटा मुंशीराम एक विरक्त सन्यासी शहर में आये हुए हैं यदि तुम उनसे मिलो अथवा उनके प्रवचन सुनोगे तो तुम्हारी समस्या का समाधान हो सकता है और मुंशीराम अपने पिताजी के साथ प्रवचन सुनने पहुंचे, स्वामी जी का प्रवचन शुरू हुआ स्वामी जी ने प्रथम तो उन्होंने पुराणों की आलोचना की ईसाई मुसलमानों ने बड़ी ताली बजाई लेकिन देखते ही देखते उन्होंने कुरान और बाइबिल की बखिया उधेड़ना शुरू कर दिया अब तो ये सब तिलमिलाने लगे और फिर शास्त्रार्थ शुरु हो गया स्वामी जी ने मुल्ला मौलबी को निरुत्तर कर दिया पादरी विशप सभी लोग मैदान छोड़ने लगे, स्वामीजी का मुख्य विषय था सृष्टि निर्माण और वेदोत्पति, सभी की जुबान बंद सी हो गई लेकिन तभी विशप और वहाँ के कमिश्नर ने पूछा-- स्वामी जी-! आप कहते हैं कि वेद ईश्वर प्रदत्त है लेकिन वेदों की ऋचाओं में तो ऋषियों व देवताओं के नाम लिखे हुए हैं इसका अर्थ यह हुआ कि वेद ईश्वर प्रदत्त न होकर ऋषियों द्वारा लिखित है, स्वामी जी कहते हैं कि ये जो ऋषी हैं ये रचयिता नहीं है ये सब मंत्रद्रष्टा हैं, सर्ब प्रथम वेदों का ज्ञान ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, अदित्य और अंगिरा के हृदय, कण्ठ में उतारा इन ऋषियों ने ब्रम्हाजी को चारों वेद सिखाया यानी उनके अंतर्मन में उतारा इसलिए यह माना जाता है कि चारों वेदों के प्रथम ज्ञाता ब्रम्हाजी हैं, इसलिए वेद अपौरुषेय है । स्वामी जी का तर्क अकाट्य है! फिर विशप का प्रश्न है कि वेद कब आया ? स्वामीजी कहते हैं कि जब सृष्टि का निर्माण हुआ उसी समय यानी "एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष" पहले इस पर सभी आश्चर्य चकित हो पूछते हैं कि इसकी प्रमाणिकता कया है ? स्वामी जी उत्तर देते हुए कहते हैं--! स्वामी जी ने कहा कि जब किसी सनातन धर्म के ब्यक्ति के यहाँ कोई भी शुभ कार्य होता है तो एक पुरोहित आता है वह एक मंत्र बोलता है-! " अद्य श्री ब्रह्णोऽह्नि द्वितीय परार्द्धे विष्णुपदे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे भूर्लोके जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशे विक्रमशके .सम्वतसरे श्रीसूर्ये ...अयने ...ऋतौ ..मासोत्तमेमासे .....पक्षे ...तिथौ...वासरे ...नक्षत्रे ...योगे  ....करणे ....राशिस्थिते चन्द्रे श्रीसूर्ये देवगुरौशेषेषु ग्रहेषु यथा यथा राशिस्थानेषुस्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणगण विशेषण विशिष्टायां" (अपना नाम गोत्र....) इतना उच्चारण हरेक संकल्प मे अनिवार्य रहता है । स्वामी जी कहते हैं कि जिस विधा में एक एक क्षण की गणना होती हो और उसकी परंपरा ही बन गई हो तो वह कभी भी असत्य नहीं हो सकता इस प्रकार स्वामी जी ने अपने अकाट्य तर्को द्वारा पादरी स्काट और अन्य को निरुत्तर कर वेदों की अपौरुषेयता, भारतीय कालगणना को सत्य सिद्ध कर दिया।


मंत्रद्रष्टा यानी

वास्तव में जब तक अंग्रेज भारत में नहीं आये थे उन्हें कालगणना का ठीक प्रकार से ज्ञान नहीं था उनके यहाँ1
दस महीने का ही वर्ष माना जाता था जब वे भारत में आये तब उन्हें ध्यान में आया कि भारतीय कालगणना ही सत्य है भारतीय कालगणना में प्रत्येक मास 30 दिन का होता है प्रत्येक चार वर्ष पर एक मास निकाल दिया जाता है उसे अधिक मास कहा जाता है इस प्रकार भारतीय कालगणना विज्ञान पर आधारित है, हमारे ऋषियों ने एक एक क्षण की गणना के गिनने का विधान बनाया, बारह महीने और बारह राशियां यह भी एक विज्ञान है ऋषियों ने देखा कि इस अक्षांतर से इस देशान्तर तक ब्रह्मांड मछली का आकार बना रहा है तो वहउस समय मीन राशि कहलाती है इस प्रकार सभी राशियों को हमारे ऋषियों ने देखा। मंत्रद्रष्टा यानी ईश्वर द्वारा प्रदत्त मंत्र का दर्शन यानी मंत्र का अनुभव जैसे स्वामी जी एक मंत्र के बारे में बताते हैं कि गायत्रीमंत्र वेद मंत्र है लेकिन बहुत सारे लोग मिलेंगे और कहेंगे कि इस मंत्र के लेखक ऋषि विश्वामित्र है लेकिन यह तो वेद मंत्र है अपौरुषेय है तो विश्वामित्र कहा से आ गए तो वास्तविकता यह है कि ऋषि विश्वामित्र उसके मंत्रद्रष्टा हैं उन्होंने साधना करते करते देखा कि ब्रम्हांड में कोई ध्वनि उठती है तो सुना "ओउम भूर्भुवः स्व:तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धिमहिधियो योनः प्रचोदयात" ये वेद मंत्र है ये ब्रम्हांड की ध्वनि है और उसके मंत्रद्रष्टा ऋषि विश्वामित्र हैं इस प्रकार स्वामी जी ने वेदों की सार्थकता उसके वैज्ञानिकता को सिद्ध किया।

मुंशीराम द्वारा स्वामीजी का दर्शन

जब स्वामी दयानंद सरस्वती का कार्यक्रम बरेली तय हुआ तो कोतवाल नानकचंद को सुरक्षा की जिम्मेदारी मिली वे बड़े प्रसन्न हुए जहाँ वे ईश्वर में विस्वास रखने वाले भक्त थे वहीं उनके पुत्र मुंशीराम का ईश्वर मैं विस्वास ही नहीं था इसको लेकर नानकचंद बहुत परेशान रहा करते थे उन्होंने अपने पुत्र मुंशीराम को बुलाया पुत्र एक बहुत बड़े दंडी स्वामी आये हुए हैं उनका प्रवचन होने वाला है अब मुंशीराम क्या करते पिता की आज्ञा अनमने भाव से चले गए, स्वामी जी लगभग पंद्रह दिन तक वहाँ रुके, टाऊन हाल के प्रवचन में जब तक उन्होंने नमस्ते, पोप, पुराणी, जैनी, क़ुरानी इत्यादि की परिभाषा करते रहे तब तक कोतवाल साहब बड़े चाव से प्रवचन सुनते रहे लेकिन जब उन्होंने मूर्ति पूजा व ईश्वर अवतार का खंडन करने लगे तो मुंशीराम के पिता को अच्छा नहीं लगा उन्होंने अपने छोटे अधिकारी को सौंप कर आना बंद कर दिया लेकिन मुंशीराम की रुची बढ़ गई उनकी श्रद्धा स्वामीजी के प्रति बढ़ने लगी, उन्होंने उस दिब्य आदित्य मूर्ति को देख श्रद्धा उत्पन्न हुई, परंतु जब पादरी टी के स्काट और कई अन्य यूरोपियन को उत्सुकता से बैठे देखा तो श्रद्धा और भी बढ़ गई। 24 अगस्त की शाम तक मुंशीराम की दिनचर्या बन गई वे दोपहर भोजन करके बेगमकोठी पहुंच ड्योढ़ी पर बैठ जाते दो बजे से ऋषी दरबार लगता था तो आज्ञा होते ही जो पहला ब्यक्ति ऋषि को प्रणाम करता वह मुंशीराम होते, प्रश्नोत्तर होते रहते वह उसी में डूबे रहते ब्याख्यान के पश्चात बीस मिनट में दरबार बिदा हो जाता और आचार्य चलने की तैयारी कर लेते मैं सीधा टाउन हॉल पहुँचता ब्याख्यान का आनंद उठाकर उस समय तक घर न लौटता जब तक कि आचार्य दयानन्द की बग्घी उनके डेरे की ओर न चल पड़े।

पादरी, कमिश्नर और कलेक्टर

एक ब्याख्यान मे स्वामी जी पौराणिक असंभव तथा अचारभ्रष्ट कहानियों का खंडन कर रहे थे, उस समय पादरी स्काट मिस्टर एडवर्ड्स कमिश्नर, मिस्टर रीड कलेक्टर पंद्रह बिस अंग्रेज सहित उपस्थित थे आचार्य ने पंचकुमारी की कल्पना पर कटाक्ष किया स्वामी जी के कथन में हास्यास्पद अधिक होता था इसलिए श्रोता गण थकते नहीं थे साहब लोग हँसते आनंद लूट रहे थे, फिर ऋषि बोले-- पुरानियो की तो यह लीला है, अब किरानियों कि सुनो यह ऐसे भ्रष्ट हैं कि कुमारी के गर्भ से उत्पन्न होना बताते हैं, फिर दोष सर्वज्ञ शुद्ध स्वरूप परमात्मा पर लगाते और ऐसा पाप करते हुए तनिक भी लज्जा नहीं आती। इतना सुनते ही कमिश्नर और कलेक्टर का मुख क्रोध के मारे लाल हो गया, परंतु आचार्य का भाषण उसी बल से चलता रहा और अंत तक ईसाई मत का खंडन होता रहा। दूसरे दिन खजांची लक्ष्मीनारायण को कमिश्नर ने बुला भेजा, साहब ने कहा कि अपने पंडित को बता दो कि सख्ती से काम न लिया करें, हम ईसाई तो सभ्य हैं वाद विवाद की तो सख्ती से नहीं घबराते परंतु यदि जाहिल हिंदू, मुसलमान भड़क उठे तो तुम्हारे पंडित स्वामी के ब्याख्यान बंद हो जाएंगे, खजांची यह शंदेश स्वामी जी तक पहुंचाने की प्रतिज्ञा करके पहुंचे, खजांची जी चाह रहे थे कि बात छेड़ने वाला कोई और मिल जाता तो ठीक होता, स्वामीजी के सामने कोई नहीं आया तो मुझे नास्तिक को आगे किया मैन स्वामी जी को कहा खजांची जी आपसे कुछ कहना चाहते हैं इन्हें कमिश्नर साहब ने बुलाया था, खजांची साहब सिर खुजलाने फिर कहीं गला साफ करने लगते, पांच मिनट तक आश्चर्य युक्त होकर स्वामी जी बोले, भाई तुम्हारा कोई काम करने का नियम नहीं तुम समय का मूल्य नहीं समझते, मेरे लिए समय अमूल्य है, जो कुछ कहना हो कह दो इस पर खजांची बोले महाराज यदि इतनी सख्ती नहीं किया जाय तो क्या हर्ज है? असर भी अच्छा पड़ता है, अंग्रेजों को नाराज़ करना भी अच्छा नहीं! महाराज हँसे और बोले अरे क्या बात थी जिसके लिए गिड़गिड़ाता है, मेरा इतना समय भी नष्ट किया, साहब ने कहा होगा कि तुम्हारा पंडित कड़ा बोलता है, ब्याख्यान बंद हो जायेगा यह होगा वह होगा अरे भाई मैं हउआ तो नहीं कि खा जाऊँगा।
उस शाम के ब्याख्यान को सुनने वाला कोई भूल सकता है क्या ? स्वामीजी ने कहा- "कि लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करें, कलेक्टर क्रोधित होगा, अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा, अरे-! चक्रवर्ती राजा भी क्यों न अप्रसन्न हो हम तो सत्य ही कहेंगे"। यह शरीर तो अनित्य है, इसकी रक्षा में प्रबृत्ति होकर अधर्म करना व्यर्थ है इसे जिस मनुष्य का जी चाहे नाश कर दे! फिर सिंहनाद करते हुए कहा- "किन्तु वह शुरवीर पुरूष मुझे दिखाओ जो मेरी आत्मा को नाश करने का दावा करे, जब तक ऐसा वीर इस संसार में दिखाई नहीं देता तब तक मैं यह सोचने के लिए तैयार नहीं कि मैं सत्य को दबाऊंगा वा नहीं"।

और चर्च की ओर

स्वामीजी बोलते जा रहे थे, सारे हाल में सन्नाटा छाया हुआ था, किसी रुमाल तक के गिरने की आवाज सुनाई देती थी।ब्याख्यान में कुछ देर होगई, उठते ही ऋषि दयानन्द ने पूछा 'भक्त स्काट आज दिखाई नहीं दिये', पादरी स्काट किसी भी ब्याख्यान में अनुपस्थित नहीं होते थे, और अलग भी प्रेम बर्तालाप किया करते थे इसलिए स्वामी दयानंद सरस्वती को उनसे बड़ा प्रेम हो गया था, किसी ने बताया कि पास के गिरजाघर में उनका ब्याख्यान था, सीढ़ियों से उतरते ही उन्होंने कहा, चलो भक्त स्काट का गिरजा देख आते हैं वहां तीन चार सौ लोग थे सभी स्वामी जी के साथ चल पड़े सारी भीड़ गिरजा पहुंच गई। वहाँ का ब्याख्यान समाप्त हो चुका था श्रोता सौ के लगभग थे, पादरी नीचे उतर आया था, स्वामी जी को वेदी पुलपिट पर ले गए और कहा कि कुछ उपदेश करिये, स्वामी जी ने खड़े खड़े लगभग बीस मिनट बोले उन्होंने मनुष्य पूजा बाइबिल में कमियों का खंडन किया।

मुंशीराम पर स्वामी जी का प्रभाव

स्वामी जी के प्रवचन सुनने के बाद मुंशीराम घर आ जाय करते थे अब स्वामी दयानंद सरस्वती जी बरेली से जा रहे हैं मुंशीराम को लगा कि मेरा सबकुछ चला जा रहा है अभी तक किसी ने मुंशीराम को प्रभावित नहीं किया था वे तो नास्तिक थे लेकिन अब वे स्वामी जी के भक्तों में हो गए हैं, मुंशीराम के पिताजी की धारणा यद्यपि स्वामी जी के प्रति अच्छी नहीं थी वे स्वामीजी को ईश्वर निन्दक मानते थे लेकिन उन्होंने देखा कुछ ही दिन में जो मुंशीराम मद्यपान करता था, नास्तिक था, नाच गानों जैसे ब्यासन में रहता था केवल पंद्रह दिन में यह परिवर्तन जिसकी उन्हें आशा नहीं थी सब कुछ छूट गया अब तो मुंशीराम स्वामीजी का भक्त है ईश्वर में उसका विस्वास हो गया है, वे बार बार ऋषि दयानन्द दंडी स्वामी जी का धन्यवाद करते कि लड़के में इतना परिवर्तन से वे अस्तब्ध थे, उन्हें यह सब परिवर्तन स्वामी जी के सत्संग का ही परिणाम लगता था तथापि पुत्र के काया पलट से स्वामी दयानंद सरस्वती को धन्यवाद करते नहीं अघाते थे।

चाँदपुर-शाहजहांपुर

स्वामी जी अब मेरठ होते हुए चाँदपुर की ओर बढ़ रहे थे चाँदपुर शाहजहांपुर के पास में है गर्रा नदी के किनारे कबीर पंथियों का एक आश्रम है वहाँ प्रत्येक वर्ष मेला लगता है उसमें बहुत सारे पादरी और मौलबी आते और अपने अपने धर्म का प्रचार करते, पिछले बर्ष मेले में कबीर वाले शास्त्रार्थ में हर गए थे, गांव वालों का निकालना मुश्किल हो गया था जो मुसलमान मिलता कहता कि देख ली न इस्लाम की सच्चाई, मौलबी से भेंट होती तो वह मुसलमान बननेकी बात करता पादरी मिलता तो ईसाई बननेकी बात करता इससे गांव वाले प्यारेलाल ने एक इंद्रमणि को पादरी व मौलबी के मुंह वंद करने के लिए पत्र लिखा इंद्रमणि ने उन्हें लिखा मैं तो आऊँगा ही यदि स्वामी दयानंद सरस्वती को बुलाते तो बहुत अच्छा होता, उनके सामने कोई ठहर नहीं सकता है। स्वामीजी को पालकी से चाँदपुर लाया गया वे गर्रा नदी के किनारे मेले में एक तम्बू में ठहरे, वहाँ मुसलमानों की संख्या अधिक थी इंद्रमणि थोड़ा घबड़ाये कहा स्वामी जी मुसलमान सीघ्र भड़क उठते हैं आप अपने उपदेश में तनिक नर्मी से काम लेंगे तो ठीक रहेगा, स्वामी जी ने कहा-- असत्य का समर्थन करना मेरे बस की बात नहीं और सत्य को छोड़ना मेरे लिए असंभव, सत्य मेरा बनाया नहीं है वह तो ईश्वर का है आप तनिक भी घबड़ाये नहीं मेरे रहते आपका कोई बाल बाका नहीं कर सकता। सृष्टि के प्रश्न पर स्वामी जी ने बताया- इस बर्तमान सृष्टि को बने हुए 1972948972 वर्ष बीत चुके हैं । सृष्टि का प्रयोजन वर्णन करते हुए स्वामी जी ने कहा "जीव और मूल रूप से प्रकृति अनादि है, एक सृष्टि के प्रलय के समय भी जीवों को कुछ कर्म के फल भोगने शेष रह जाता है, उन्हीं बचे हुए कर्मों का फल भोग प्रदान करने के लिए दयालु और न्यायी ईश्वर सृष्टि की रचना करता है, सृष्टि रचने की शक्ति और गुण ईश्वर में स्वाभाविक है वह अपने सामर्थ्य से सृष्टि निर्माण करता है जिसमें मानव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की उपलब्धि हासिल करके आनंद प्राप्त करे"। वहां हिंदुओं का सिर गर्व से ऊंचा हो गया प्रतिपक्षी लोगों को आश्चर्य हुआ कि ऐसे निकृष्ट हिंदू धर्म में इतना उत्कृष्ट विद्वान कहाँ से उत्पन्न हो गया जो हमारी एक नहीं चलने देता है, पहले तो हिंदू पंडित हमसे शास्त्रार्थ करने में मुह चुराते थे, यह सत्र 11 बजे समाप्त हो गया।
एक बजे पुनः सब एकत्रित हुए मोलबी पादरियों को भ्रम था कि प्रातः काल पहले बोलने के कारण सर्व साधारण पर उनका प्रभाव नहीं बन पाया, इसलिए वे पहले बोलने को तैयार नहीं हो रहे हैं तब स्वामी जी मुक्ति पर बोलना प्रारंभ कर दिया--"मुक्ति छूट जाने को कहते हैं, सब दुखों से छूटकर सच्चिदानंद परमात्मा की प्राप्ति के आनंद में रहना और जन्म- मरण के चक्कर में न पड़ना मुक्ति है, वैदिक धर्म के अनुसार सत्याचरण, स्वाध्याय, सत्पुरुषों और ज्ञानियों की संगति, ईश्वर की अस्तुति उपासना और योग्याभ्यास आदि कर्म मुक्ति के साधन हैं।" स्वामी जी के बाद मौलाना साहब और पादरी भी बोले परंतु उनका रंग फीका ही रहा जैसे सूर्य के प्रकाश में दीपक की ज्योति मंद पड़ जाती है वे लोग मेले के समाप्त होने के पहले ही वहां से चल देते हैं। प्यारेलाल की धारणा है कि स्वामी जी केवल शास्त्रार्थ के महारथी ही हैं वे कबीर पन्थी संतों की भांति महात्मा नहीं हैं, उन्होंने स्वामी जी से अंजना जाप करने पर बहुत सारे प्रश्न किया स्वामी जी के उत्तर सुनकर और उन्हें ध्यानस्थ अवस्था में देखकर प्यारेलाल को उनके पूर्ण योगी होने का विस्वास हो जाता है।
अब स्वामी दयानंद सरस्वती केवल खेत नहीं तैयार कर रहे, केवल खेत में बीज ही नहीं बो रहे हैं अब वे राष्ट्रवाद की नर्सरी की ओर बढ़ रहे हैं।