दिग्विजयी ऋषि दयानन्द भाग-8


अध्यात्म और राष्ट्रवाद

गीता में भगवान "श्री कृष्ण" ने "अर्जुन" को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मैं आता हूँ ईश्वर विभिन्न रूपों में आता है आत्मा अजर अमर है वह न तो जलाने से जलती है न ही समाप्त होती है वही आत्मा "ऋषि दयानन्द" के रूप में आयी भारत गुलामी का दंश झेल रहा था साधू भी थे सन्यासी भी थे देशभक्त क्रांतिकारी भी थे विभिन्न प्रकार के हिन्दू संगठन भी समाज सुधारक भी थे लेकिन उन्हें कोई सार्थक रास्ता दिखाने वाले लोग नहीं था ऐसे में "स्वामी दयानंद सरस्वती" ने 1857 के असफलता के पश्चात तीन मोर्चों पर काम करना शुरू किया एक ओर समाज जागरण उसे देशभक्ति व राष्ट्रवाद का ज्ञान कराना दूसरी तरफ क्रांतिकारियों का बीजारोपण यानी उसकी नर्सरी और तीसरी ओर एकता का मंत्र, हिंदू समाज में विभिन्न प्रकार के मत-पंथ, विभिन्न प्रकार की मूर्तियां "कोऊ नृप होई हमैं का हानी" ऐसा विचार इससे ऊपर उठाकर स्वामी जी का मानना था कि ''वेदों की ओर लौटो'' भारतीय सभी "मत-पन्थ" अपने को "वैदिक मतावलंबी" ही मानते हैं यही पूरे भारत को जोड़कर रखता है यही हमारी पूजी भी है, स्वामी जी देश भर में जागरूकता के लिए निकल पड़े हैं पूर्व से पश्चिम उत्तर से दक्षिण चारो दिशाओँ में शास्त्रार्थ करके ''वैदिक धर्म'' की सार्थकता तथा वेदों का प्रमाण को लेकर भ्रमण कर रहे बड़ी निर्भीकता से वे वेदों की सार्थकता को सिद्ध कर रहे हैं स्थान-स्थान पर इस्लाम और ईसाई मतों को चुनौती दे रहे हैं कोई उनके सामने ठहर नहीं रहा है।

काशी 

स्वामी जी को पता है कि भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी है उन्हें पता है कि महारानी विक्टोरिया की प्रथम यात्रा काशी हुई है उसने "कुइन्श कॉलेज" खोलकर हिंदू समाज को दिग्भ्रमित करने का काम करने शुरू कर दिया है, लेकिन काशी की अपनी विशेषता है अपने को अपने शास्त्रार्थ को अपने सिद्धांतों को यदि सिद्ध करना है तो काशी में आना और अपनी सार्थकता को सिद्ध करना आवश्यक है यहां के विद्वानों ने महात्मा बुद्ध को भी नहीं छोड़ा उन्हें काशी में पार नहीं मिला लेकिन वे काशी आये यहाँ देखा जब उन्हें कोई भाव नहीं मिला तो उन्होंने काशी के बगल सारनाथ का चयन किया अपने जीवन का प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया। आदि जगद्गुरु शंकराचार्य जी को भी काशी आना पड़ा उन्होंने "अद्वैत विचार" को यानी "एकंसद विप्रा बहुधा वदन्ति" यानी "अहम ब्रम्हास्मि" पर शास्त्रार्थ के लिए आना पड़ा यानी किसी भी विचार को प्रमाणित होना है तो काशी। यहीं काशी में स्वामी दयानंद सरस्वती को भी आना पड़ा शास्त्रार्थ करने, स्वामी जी न तो अद्वैत को मानते थे न ही द्वैत को और न ही विशिष्टा द्वैत को वे तो वेदों को ही प्रमाणित मानते थे वे कहते थे कि परमात्मा भी है आत्मा भी है और प्रकृति भी है, एक स्थान पर शास्त्रार्थ हो रहा था शास्त्रार्थ करने वाले सन्यासी शंकराचार्य के अनुयायी थे उन्होंने अपने तर्को से 'ब्रम्ह सत्य जगत मिथ्या' सिद्ध किया लेकिन स्वामी जी बिना बोले ही सन्यासी के मुख पर हल्का सा हाथ लगाया सन्यासी बोले आचार्य-- आप तो बहुत बड़े संत हैं महात्मा हैं आपको क्रोध नहीं आना चाहिए ! स्वामी जी बोले नहीं तो मुझे क्रोध कहाँ ? नहीं तो ! सन्यासी ने कहा स्वामी जी आपने मेरे मुह पर तमाचा लगाया स्वामी जी बोले नहीं तो मैंने कहाँ मारा! जब केवल ब्रम्ह ही सत्य है तो कहाँ मारा वे सन्यासी तुरंत बिना देर किए ही स्वामी जी के पैर पर गिर पड़े और बोले देखिए कितना ब्यवहारिक शास्त्रार्थ हुआ मुझे समाधान हुआ यदि केवल ब्रम्ह होता तो मुझे चोट नहीं लगती इसलिए ब्रम्ह भी है और आत्मा भी है।

रामनगर और काशी

स्वामी जी संवत 1926 अश्विन तदनुसार दिसंबर1869 रामनगर राजा के 'हाथी खाने' के समीप गंगा तट पर एक परिवार में रुके हुए थे वे मूर्तिपूजा का खंडन करते थे वाराणासी निवासी अविनाश लाल खत्री कहते हैं कि हमे यह सुनकर आश्चर्य हुआ कि हमने इसके पहले मूर्ति पूजा का खंडन सुना नहीं था हम इसी को देखते गए थे, मुंशी हरबंस लाल, पंडित ज्योति:स्वरूप उदासी हम तीनों थे। स्वामी जी कपड़े नहीं पहनते थे केवल एक लंगोट रखते थे, अवस्था उनकी 40 वर्ष लगती थी, वहाँ हमारे जाने से पूर्व स्वामी जी की पंडितों से मूर्ति पूजा पर बात चीत चल रही थी, हमने ज्योति स्वरूप जी से कहा कि आप उनसे कुछ बात चीत करें, कहने लगे वह बात बहुत अच्छी कहते हैं हम क्या कहें ? वहाँ उनके पास हम दो घंटे तक रहे, उनकी बुद्धि हमने बहुत चमत्कार वाली देखी और जिन युक्तियों से वे मूर्ति पूजा का खंडन करते थे अत्यंत महत्वपूर्ण थी, हम लोग उनकी बातों से प्रसन्न होकर दंडवत करके चले आये।
अविनाश लाल खत्री ने बताया स्वामी जी एक पखवारा वहीं रुके थे वहां से वे काशी के अनंदबाग में दुर्गाकुण्ड में उतरे शास्त्रार्थ हुआ, इसमें बाराणसी के महराज कई पंडितों के साथ गए थे, ज्योतिस्वरूप और हरिबंश लाल भी उपस्थित थे हम नहीं गए थे परंतु हमनेंसुना कि प्रथम बालशास्त्री, स्वामी विशुद्धानन्द और वामनाचार्य आदि से प्रश्नोत्तर होते रहे उसी बीच में बामनाचार्य ने उनको वेद का एक पत्र दिया कि देखो इसमें मूर्ति पूजा लिखी है, स्वामी जी उस पत्र को लेकर विचार करने लगे तभी काशी की गरिमा काशी के विद्वानों ने गिराना शुरू कर दिया लोगों ने हथेलियों को पीटना शुरू कर दिया स्वामी जी हार गए ऐसा कोलाहल होने लगा, जो विद्वान थे सज्जन पुरुष थे उन्हें अच्छा नहीं लगा वे जाने लगे योजना बद्ध तरीके से 'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे' वाला हाल हो गया वे स्वामी जी के ऊपर ढेले फेंककर काशी की विद्वता का प्रदर्शन करने लगे, कोतवाल, पंडित रघुनाथ प्रसाद और मुंशी हरवंशलाल स्वामी जी को लेकर एक कोठरी में चले गए, लोगों ने स्वामी जी से पूछा कि राजा ने कोई प्रबंधन नहीं किया स्वामी जी ने बताया कि राजा तो स्वयं यह सब चाहते थे, स्वामी जी ने समस्त शास्त्रार्थ लिखवाया और छपवाया स्वामी जी दो माह रुके उस समय स्वामी जी इक्कीस शास्त्रों को मानते थे चार वेद, छः शास्त्र, रामायण और महाभारत इत्यादि वे संस्कृति बोलते थे लेकिन बहुत ही सरल भाषा में वे संस्कृति बोलकर यह सिद्ध भी करना चाहते थे कि संस्कृत भाषा कोई कठिन भाषा नहीं है। स्वामी जी अद्भुत मनुष्य थे, योगी और तेजस्वी पुरूष थे, पंडित रघुनाथ प्रसाद के अनुसार, हमारी स्वामी दयानंद जी से वेदांत और ईश्वर न्यायकारी होने पर विशेष चर्चा हुई परंतु अन्त में हम दोनों चुप हो गए।

काशी नरेश

स्वामी जी दूसरी बार 'काशी' पधारे संस्कृति के विद्वान साधू जवाहरदास (सती घाट बाराणसी) बताते हैं कि पहली बार स्वामी जी 13 अक्टूबर1869 को रामलीला के अवसर पर रामनगर में मिले, वे वैष्णव संप्रदाय का खंडन करते थे जब रामनगर के 'राजा ईश्वरी नारायण सिंह' को सूचना मिली कि एक महात्मा आये हैं जो मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं तो राजा ने महात्मा समझकर स्वामी जी को भोजन की ब्यवस्था किया, यद्यपि स्वामी जी 'नग्न' रहते थे तो भी राजा ने उनके लिए ऊनी वस्त्र भेज दिए, उनकी महिमा, विद्वता सुनकर राजा उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक थे लेकिन वे मिल नहीं सके, कुछ लोग कहते हैं कि चाटुकारों ने अपनी दुकानदारी के लिए मिलने नहीं दिया लेकिन कुछ लोगों का कहना था कि राजा को पता था कि '1857 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों' के पुरोधा स्वामी दयानंद सरस्वती ही थे इसलिए अंग्रेजों के भय के कारण मिलने में गुरेज किया, सभी को जानकारी है कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय राजाओं में दो प्रकार के राजा थे वे दो खेमे में बटे थे, एक भारतीय स्वतंत्रता के पक्ष में दूसरे अंग्रेजों के पक्ष में रामनगर राजा यद्यपि बड़े धार्मिक थे प्रतिवर्ष रामलीला कराते थे काशी की जनता उन्हें 'शंकर भगवान' का प्रतिनिधि मानती थी उन्हें देखते ही हर-हर महादेव का नारा स्वाभाविक रूप से लगाती थी, स्वामी दयानंद सरस्वती जहाँ कहीं भी जाते तो ब्रिटिश खुफिया एजेंसी उनके पीछे लगी रहती थी क्योंकि अंग्रेज अधिकारी जानते थे कि यह सामान्य सा दिखने वाला सन्यासी असामान्य है ये स्थान- स्थान पर देश के आजादी के लिए क्रांतिकारी खड़ा करता है, इसलिए काशी नरेश न मिलकर स्वामी जी का अपमान ही करना चाहते थे स्वामी जी लगभग एक माह बनारस में रहे, वेद, वेदांत की चर्चा होती रही।
एक दिन राजा रामनगर के यहाँ 50-60 वैरागी आये और कुछ कठोर शब्द भी स्वामी जी को कहा स्वामी जी ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, राजा साहब ने जब यह बात सुनी तो कहला भेजा कि शास्त्रार्थ जिसका मन चाहे करे परन्तु जो गाली देगा वह हमको देगा, स्वामी जी हमारे यहाँ आये हैं। एक दिन गऊघाट पर स्वामी निरंजनानंद जी के यहाँ राजा साहब पधारे उन्होंने पूछा कि वेद में मूर्ति पूजा और रामलीला है अथवा नहीं? स्वामी दयानंद कहते हैं कि नहीं है स्वामी निरंजनानंद जी ने कहा कि वेद में तो कहीं नहीं है परंतु लोकरीति चली आ रही है! इस पर राजा को बड़ा विस्मय हुआ और वे लौट आए, इसके पश्चात उन्होंने चौबे जी को आज्ञा दी कि हमसे आठ आने प्रतिदिन लिया करो, स्वामी जी को जिस भोजन की इक्षा हो करा दिया करो, महराज के दूसरे भाई जो वैरागी थे वही रामलीला का काम देखते थे स्वामी जी के वे बड़े बिरोधी थे, उन्होंने पंडितों से कहा कि येन केन प्रकारेण मूर्ति पूजा की स्थिति को सिद्ध करो परंतु सिंह के मुख में हाथ डालना कोई सरल बात नहीं थी जो भी सामने आता पराजित हो जाता, कुछ समय बाद स्वामी जी वहाँ से वनारस आकर 'आनंदबाग' में ठहरे।

शास्त्रार्थ नहीं भारतीय आत्मा पर हमला

वास्तव में ''कुइन्श कालेज'' (संस्कृति महाविद्यालय) अपना काम कर रहा था काशी के विद्वानों की मति भ्रष्ट हो रही थी अब काशी के विद्वानों ने वेदों की ओर देखना वंद सा कर दिया था 'राजा इश्वरीप्रसाद सिंह' को भी इन पंडितों के साथ चाहिए था क्योंकि अंग्रेजों से संबंध बनाए रखना है कहने को तो काशी हिंदू धर्म की राजधानी है लेकिन अब वह वैसी नहीं रही जब आदि शंकराचार्य शास्त्रार्थ के लिए आये थे उन्हें भी अपनी यानी 'ब्रम्हा सत्य जगत मिथ्या' सार्थकता को सिद्ध करना था तब इस प्रकार का काशी नहीं था 1857 के बाद का परिदृश्य बिल्कुल अलग हो गया था सभी भयाक्रांत थे अंग्रेज अधिकारी चाहते थे कि इस स्वामी दयानंद को किसी तरह उपेक्षित किया जाय इसलिए जब कहीं भी कोई पादरी, विशप स्वामी जी से टकरा नहीं पाता सभी लोग पराजय पर पराजय झेलते रहने के कारण अब वे हिन्दू समाज में विघटन की रणनीति तैयार किया उसी का एक हिस्सा काशी का स्वामी दयानंद सरस्वती से शास्त्रार्थ। राजा ईश्वरीप्रसाद सिंह ने काशी के मूर्धन्य विद्वानों को बुलाया और स्वामी जी के साथ षड्यंत्र रचा उन्होंने कहा कि सारा ग्रंथ हमारे पुस्तकालय से आएगा, कलेक्टर भी पुलिस भी रहेगी लेकिन उन्होंने जो दिन तय किया वह रविवार नहीं था, रविवार होता तो कलेक्टर रहता कोई विबाद भी नहीं होता लेकिन राजा की मनसा ठीक नहीं थी।
उस दिन भीड़ इतनी थी कि जो संभवतः काशी में इससे पूर्व कभी इकट्ठा नहीं हुई थी योजनाबद्ध तरीके से कुछ गुंडे आये थे इसके कारण बड़े बड़े विद्वानों की अप्रतिष्ठा हुई काशी के बहुत सारे बदमाश गुंडे सभा भीतर प्रविष्ट हो गए क्योंकि वहाँ लाखों मनुष्यों की मूर्तिपूजा आजीविका है और इसलिए वहां सहस्त्रों मनुष्य लिंगिया कहते थे शास्त्रार्थ के समय स्वामी जी के साथ 50 लोग थे और बाहर 300 लोग उसके बाहर पचास हजार मनुष्य थे पुलिस अधीक्षक भी आ गया था .

ईसाईयों की चाल 

अब अंग्रेज सरकार भारतीय जनता में अपनी पैठ बनाने शुरू कर दिया है उसने स्वामी दयानंद सरस्वती के विरुद्ध बड़ी योजना पूर्वक ऐसे राजाओं पंडितों और पुरोहितों को खरीद लिया है अब वे स्वतंत्रता के सजग सेनानी स्वामी जी को अपने रास्ते से हटाने के लिए कुछ भी करने को तैयार सब एक जुट हैं कि काशी में स्वामी दयानंद सरस्वती की पराजय उन्हें अपमानित किया जाय जिससे वे अपना भ्रमण बंद कर दें!या तो जानबूझकर अथवा अनजाने में ये सब काशी के विद्वान, राजा कर रहे थे शास्त्रार्थ स्थल पर राजा रामनगर आये सभी पंडितों ने आशीर्वाद दिया, जो नियम बनाया गया था उसके विरुद्ध राजा के साथ जाकर स्वामी जी को चारो ओर से घेर लिया। अब वहां कोइ प्रबंधन नहीं महात्मा परमहंस स्वामी जी के सहायक तथा जो भी पक्ष के थे बगीचे में उनके आने का रास्ता रोक दिया गया, लोगों ने राजा को संकेत किया कि प्रथम तो स्वामी दयानंद को ही पराजित करना कठिन है और यदि ज्योतिस्वरूप इत्यादि उनकी सहायता करेंगे तो विजय दुस्कर हो जाएगी, इसलिए राजा ने संकेत समझकर साधुओं के आगे पंडितों को बैठा दिया, ज्योतिस्वरूप को राजा ने उठवा लिया इस पर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ, ऐसे ही कुछ विद्वान जो स्वामी जी के सहायक थे उन्हें अपमानित किया गया। कोतवाल ने कहा कि राजन!बड़ा अनर्थ हो रहा है कि एक स्वामी को इतने पंडितों ने घेर लिया है और जो ब्यवस्था हमने निश्चित की थी वह आपने नहीं रहने दिया, यह बात राजाज्ञा के विरुद्ध है परंतु हम आपकी प्रसन्नता के लिए कुछ नहीं करेंगे यानी पूरी तौर पर ब्रिटिश शासन के इशारे पर स्वामी दयानंद सरस्वती को अपमानित करने का काम किया ।

भारत के राष्ट्रवाद की आत्मा धर्म

अब यह स्पष्ट होने लगा था कि स्वामी दयानंद सरस्वती समग्र क्रान्ति की तैयारी में जुटे हुए हैं इनको इन्हीं के लोगों से निपटाना है और यह प्रचारित करने में वे सफल हो रहे थे कि स्वामी दयानंद सरस्वती धर्म और राजनीतिक दोनों का घालमेल कर रहे हैं धर्म का राजनीति से क्या काम ? सीधा सादा हिंदू समाज उनकी बातों में आ गया पंडित-पुरोहित जो समाज का नेतृत्व वर्ग था वह खुलेआम क्रांतिकारी दयानन्द जी के मुखर बिरोध में आ गया था और वे स्वामी जी को काशी में ही पटकनी देना चाहते थे इसी कारण स्वामी जी मान -अपमान सह कर भी महीनों काशी नगरी में रुके रहे। समग्र स्वतंत्रता के पक्षधर थे राजा अमेठी उनका एक स्थान काशी में था, वनारस के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट ने वर्णन किया है कि जब स्वामी जी अनंदबाग मे आये तो एक सप्ताह मुझे मिलने में लग गया, उस समय स्वामी जी केवल कोपीन पहनते थे और समस्त शरीर में भस्म रमाते थे संस्कृति बोलते थे कोई सहायक न था, स्वामी जी प्रतिदिन 11बजे वेद विरूद्ध बातों का खण्डन करते थे काशी के 'कुइन्श कॉलेज' द्वारा फैलाई जा रही भ्रांति को भी समझने का प्रयत्न करते उस संस्कृति विद्यालय में हिंदू धर्म के पूजा पाठ और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों में क्षेपक डालने का प्रयत्न किया जा रहा था कर्मकांड को भी विकृति करने का भी काम हो रहा था स्वामी जी इसके प्रबल बिरोधी थे लेकिन काशी के पंडितों को उसमें अपना लाभ दिखाई दे रहा था राजा तो अंग्रेजों का गुलाम ही था। सैकड़ों मनुष्य प्रतिदिन आते स्वामी जी से बातचीत करते । उनके 'खंडन की प्रबलता और स्वराज्य के प्रबल पक्ष' को लेकर काशी में तहलका मच गया। पंडित रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने स्वामी जी से कहा कि राजा काशी नरेश के सामने शास्त्रार्थ के लिए चलना चाहिए स्वामी जी ने कहा कि हमारा तो नियम है जो हमारे पास आये हम उससे शास्त्रार्थ करेंगे जितना समय कर सकते हैं अन्यथा हम कहीं नहीं जाते। लेकिन राजा अमेठी के स्थान पर शास्त्रार्थ तय किया गया एक ओर राजा रामनगर पंडितों के साथ दूसरी ओर स्वामी दयानंद सरस्वती बैठे हुए थे शेष चारों ओर दर्शकों की संख्या कोई 25 हज़ार की रही होगी जब काशी के पंडित हारने लगे तो वही पुराना रास्ता अपनाया कोलाहल शुरू कर दिया परंतु कोतवाल ने खिड़की बंद कर दी। स्वामी जी के सामने कोई ईसाई व इस्लाम मतावलंबी टिक नहीं पा रहा था उन लोगों ने अपने हिंदू समाज के लोगों को ही खड़ा कर दिया वे एक के बाद एक विद्वान हारते जाते स्वामी जी ने वैदिक धर्म की विजय पताका फहराया देश के अंदर दो धाराएँ चल रही थीं एक जो अंग्रेजों को ही अपना मान रहे थे दूसरी ओर राष्ट्रवाद की प्रखर धारा जिसका नेतृत्व स्वामी दयानंद सरस्वती कर रहे थे, अब उन्होंने पुनः देश के उन राजाओं पर ध्यान देना चाहते थे जो 1857 में या तो निष्क्रिय थे अथवा स्वतंत्रता के विरोधी थे अब स्वामी जी का ध्यान समग्र स्वतंत्रता का था।

स्वामी जी की प्रशंसा 

जिसने भी काशी के राजा विद्वान और पंडितों की स्वामी जी के साथ शास्त्रार्थ की चर्चा सुनी सभी लोगों ने पत्रकारों ने अपनी पत्रिकाओं अखबारों में इसकी केवल चर्चा ही नहीं किया बल्कि काशी के पंडितों की निंदा भी किया और स्वामी दयानंद सरस्वती की भूरि भूरि प्रशंसा की कि युगों में कभी कभी ऐसा विद्वान अवतरित होते हैं।