दिग्विजयी ऋषि दयानंद-- भाग-9

सर्वाङ्ग विजय की ओर


1857 स्वतंत्रता संग्राम के असफलता के पश्चात ''स्वामी दयानंद सरस्वती'' ने जहाँ एक ओर समाज जागरण की आवश्यकता महसूस किया वहीँ राजे, महाराजाओं के अंदर स्वतंत्रता की ज्योति प्रज्वलित करना और पश्चिम के विचार ईसाईयत और इस्लाम को शास्त्रार्थ द्वारा उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप को दिखाने का काम (पराजित करने ), महारानी विक्टोरिया द्वारा स्थापित काशी में संस्कृति कॉलेज द्वारा वैदिक धर्म के अंदर हीन भावना पैदा हो उसका प्रभाव भी दिखने लगा था, काशी नरेश यद्यपि अंग्रेजों के पक्षधर थे लेकिन फिर भी धार्मिक थे उनका अंतर्मन उन्हें अपने कर्मों के लिए स्वामी जी से माफी मांगने को मजबूर करता था और माफी भी मांगी, स्वामी जी कोई सात बार काशी आये थे उनके महान विद्वता के आगे उदंड काशी ने घुटने टेक दिए। स्वामी जी के मन में है कि अब सारे देश के राजाओं को पुनः खड़ा किया जाय और उनका बोध वाक्य "बिना स्वराज्य के स्वधर्म संभव नहीं हो सकता" चर्चित हो रहा था ब्रिटिश साम्राज्य परेशान था वह हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाने का काम कर रहा था और हिन्दू समाज इस बात को समझ नाही पा रहा था, अंग्रेजों ने यहाँ के राजाओं का उपयोग करना शुरू कर दिया था इसीके कड़ी थे काशी नरेश। वे देश के दौरे कर राजाओं को उनके वैदिक धर्म व उनके गौरवशाली इतिहास को बताकर उन्हें सचेत करना शुरु कर दिया।

चाँदापुर शास्त्रार्थ

स्वामी दयानंद सरस्वती 'राजपुताना' के रास्ते में है कुछ लोग जैसे उनके सहयोगी इन्द्रमणि ने यह शास्त्रार्थ मेला लग रहा है बुलाया स्वामी जी तो किसी की भी चुनौती स्वीकार करने में हिचकते नहीं थे इस शास्त्रार्थ का कुछ विषय की चर्चा यहां आवस्यक है, दो दिन तक अनेक विषयों पर शास्त्रार्थ हुआ पादरी स्काट और मौलबी मुहम्मद कासिम अपने लोगों के साथ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। अंत में स्वामी जी ने कहा-- सर्वप्रथम मेरी सभी मुसलमानो, ईसाईयों और सभी सुनने वाले लोगों से प्रार्थना है कि यह मेला केवल सत्य के निर्णय के लिए किया जा रहा है और इस मेला के आयोजक मुंशी प्यारेलाल जी और मुंशी मुक्ताप्रसाद हैं, यह निश्चित होना है कि सत्य मत कौन सा है, सत्य से परिचय होकर असत्य मार्ग को छोड़ दें, सज्जनों इस अवसर पर हार अथवा जीत का विषय नहीं है परंतु मौलबी लोग पादरी साहब को झूठ बोल रहे बता रहे हैं और पादरी साहब मौलबी साहब को झूठा साबित कर रहे हैं, एक दूसरे पर आक्षेप करना बुरे बचनों को बोलना द्वेष से कहना कि वह हारा- वह जीता ठीक नहीं, पक्षपात छोड़कर सबको सत्य भाषण करना चाहिए, इससे मेरा प्रयोजन है कि कोई इस मेले में कठोर वचन का भाषण न करें।

सृष्टि रचना विषयक शास्त्रार्थ

अब मैं इस पहले प्रश्न का उत्तर कि ईश्वर ने जगत को किस बस्तु से, किस समय और किसलिए बनाया अपनी छोटी सी बुद्धि और विद्या के अनुसार देता हूँ--! "परमेश्वर ने सब संसार को प्रकृति को अर्थात जिसको अव्यक्त, अव्याकृत और परमाणु आदि नामों से कहते हैं बनाया है, सो यही जगत का उपादान कारण है जिसको वेदादि शास्त्रों में 'नित्य' करके निर्णय किया है और यह सनातन है जैसे ईश्वर अनादि है वैसे ही जगत का कारण भी अनादि है, जैसे ईश्वर का आदि और अंत नहीं है वैसे ही इस जगत के कारण का भी आदि और अंत नहीं है, जितने भी पदार्थ इस जगत में दिखाई देते हैं उनके कारण में से एक परमाणु भी अधिक या न्यून कभी नहीं होता, जब ईश्वर जगत को रचता है तब कारण से कार्य को बनाता है, सो जैसे यह कार्य जगत में दिखाई देता है वैसा ही उसका कारण है, सूक्ष्म द्रव्यों को मिलाकर जब वह स्थूल द्रव्य को रचता है तब स्थूल द्रव्य होकर देखने और ब्यवहार योग्य होता है, प्रलय के समय सब कुछ अलग-अलग हो जाता है जो स्थूल रूप है वह सूक्ष्म रूप बन जाता है और आकाश में ही रहता है, क्योंकि कारण का नाश कभी नहीं होता और नाश अदृश्य को कहते हैं।
अब यह कि ईश्वर ने जगत को किस समय बनाया है अर्थात संसार को बने हुए कितने दिन हुए हैं सुनो भाइयों--! इस प्रश्न का उत्तर हम आर्य लोग दे सकते हैं आप लोग नहीं दे सकते क्योंकि आप लोगों का मत कोई अट्ठारह सौ वर्ष, कोइ तेरह सौ वर्ष से उत्पन्न हुए हैं इस कारण आपके मत में जगत के इतिहास के वर्षों का लेख किसी प्रकार से नहीं हो सकता, हम आर्य लोग सदा से जब से सृष्टि की रचना हुई है तब से बराबर विद्वान होते आये हैं और इसी देश से सभी देशों में विद्या गई है, इस बात में सब देश वालों के इतिहास का प्रमाण है कि आर्यावर्त से मिश्र देश में और मिश्र देश से यूनान में और यूनान देश से योरोप आदि देशों में विद्या फैली है, इसलिए इसका इतिहास दूसरे किसी मत के पास नहीं हो सकता।

सृष्टि का इतिहास

हम लोग संसार की उत्पत्ति और प्रलय के विषय में वेदादि शास्त्रों की रीति से सदा से जानते हैं कि हज़ार चतुर्युगी का एक ब्रम्हादिन होता है और इतने ही दिनों का ब्रम्हारात्री होती है, अर्थात जगत की उत्पत्ति से जब तककी जगत वर्तमान होता है उतने समय का नाम ब्रम्हादिन है और प्रलय होकर जितने समय हज़ार चतुर्युगी पर्यंत उत्पत्ति नहीं होती इसी का नाम ब्रम्हारात्री है, एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं प्रत्येक मन्वन्तर 71 चतुर्युगीयों का होता है, सो इस समय सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है और इससे पहले छः मन्वन्तर बीत चुके हैं अर्थात स्वायम्भुव, स्वरोचिष, औत्तमी, तामस, रैवत और चाक्षुष। इसलिए 1960852976 (एक अरब, छियानबे करोड़, आठ लाख, बावन हज़ार, नौ सौ छिहत्तर) वर्षों का भोग हो चुका है और अब दो अरब, तैतीस करोड़, बत्तीस लाख, सत्ताईस हजार, चौबीस वर्ष इस सृष्टि को भोग करने शेष है, सो हमारे देश के इतिहास में यथार्थ क्रम से अर्थात ज्यों का त्यों सब बातें लिखी हुई हैं और ज्योतिष शास्त्र में भी मिति अर्थात तारीख और वार प्रति संबत बढ़ते रहे हैं और ज्योतिष की रीति से जो वर्षपत्र बनता है उसमें भी यथावत सबको क्रम से लिखते चले जाते हैं अर्थात एक-एक वर्ष भोग में आज तक बढ़ाते आये हैं, सब आर्यावर्त देश के इतिहास इस बात में परस्पर सहमत हैं, जब मुसलमान बौद्ध इस देश की इतिहास पुस्तकों का नाश करने लगे तब आर्य लोगों (हिन्दुओं) ने सृष्टि के इतिहास को कण्ठ कर लिया, जो बालक से बृद्ध तक नित्यप्रति उच्चारण करते हैं जिसको संकल्प कहते हैं और वह इस प्रकार है--!
"ओं तत्सत श्री ब्रम्हणो द्वितीये प्रहरार्धे वैवस्वतवतमन्वन्तरिश्ताविंशतीतमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे आर्यवर्तनतरैकदेशे ------ कार्य कृतं क्रियते वा"-।

सृष्टि किसलिए

स्वामी जी बहुत सारे मुल्ला-मौलबी तथा पादरी-पास्टरो को उत्तर देते हुए कहा-! जीव और जगत का कारण दोनों स्वरूप से अनादि है और जीव के कर्म तथा कार्यजगत प्रवाह से अनादि है, जब प्रलय होता है तो जीवों के कुछ कर्म शेष रह जाता है उन कर्मों का भोग कराने के लिए और फल देने के लिए ईश्वर सृष्टि को रचता है और अपने पक्षपात रहित न्याय को प्रकाशित करता है, ईश्वर में ज्ञान, बल, दया आदि गुण और रचने की जो अत्यंत शक्ति है उसको सफल बनाने के लिए उसने सृष्टि बनाई है, जैसे 'आँख' देखने के लिए और 'कान' सुनने के लिए है वैसे ही रचनाशक्ति रचने के लिए है, सो अपनी सर्वसमर्थता की सफलता के लिए इस जगत को ईश्वर ने रचा है, जिससे लोग सब प्रकार के सुख पावें, फिर उसने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करने के लिए जीवों के नेत्र आदि साधन भी बनाया है, इस प्रकार ''सृष्टि रचने'' में और भी अनेक प्रयोजन है, परंतु चुकी समय बहुत कम है और वर्णन बहुत लंबा है, इसलिए इतने से ही बुद्धिमान लोग समझ लेंगे।
जबकि ईश्वर के शरीर में सब जगत था तब भी वह अनादि सिद्ध हुआ और वही अनादि वस्तु रचने से सीमा में आयी अर्थात लंबा चौड़ा छोटा अनादि, सब प्रकार का ईश्वर ने उसमें से बनाया इसलिए रचे जाने के कारण जगत की भी सीमा हुई ईश्वर की नहीं, मैंने जो पहले कहा था कि नास्ति से अस्ति कभी नहीं हो सकता किन्तु भाव से ही भाव होता है सो आप लोगों के कथन से भी वही बात सिद्ध हो गई कि जगत का कारण अनादि है।

पादरी बोले

सुनो भाई मौलबी लोगों-! "पंडित जी इसका उत्तर हज़ार प्रकार से दे सकते हैं हम और तुम हज़ारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पंडित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय को आगे विस्तार करना उचित नहीं"। ग्यारह बजे तक बातचीत हुई तत्पश्चात सब लोग अपने-अपने डेरे पर चले गए, मेले में स्थान-स्थान पर चर्चा का विषय वना हुआ था कि "जैसा सन्यासी को सुना था उससे हज़ार गुना अधिक पाया।"

अपने समाज को आइना

स्वामी जी को अपने समाज की कमी स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं होता था उन्होंने कहा देखिए-! हम आर्य लोगों के शास्त्रों को यथावत नहीं पढ़ने के कारण लोगों को गलत समझ में आता है अर्थात कुछ का कुछ मान लिया जाता है, जो पादरी साहब ने कलियुग के बारे में कहा वह ठीक नहीं किया, क्योंकि हम आर्य लोग युगों की ब्यवस्था इस प्रकार नहीं मानते, इसमें ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण है----
"कलि:शयानो भवति सज्जिहानस्तु द्वापर:। उत्तिष्ठतत्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन"॥
"अर्थात जो मनुष्य सर्वथा पाप करता है और नाम मात्र धर्म करता है उसको कलियुग कहते हैं, जो आधा धर्म है उसको द्वापर कहते हैं और यदि तीन हिस्सा धर्म करे और एक हिस्से पाप करे तो उसका नाम त्रेता है, यदि कोई सम्पूर्ण धर्म करता है और कुछ भी अधर्म नहीं करता तो उस मनुष्य का नाम सतयुग है"। यह ऐतरेय ब्राह्मण का लेख है तो उसके जाने बिना कोई बात कह देना कभी ठीक नहीं हो सकता, जो कोइ बुरा काम करता है वह दुःख पाने से कभी नहीं बच सकता और जो कोइ अच्छे कार्य करता है वह दुःख पाने से बच जाता है, चाहे वह आर्यावर्त का रहने वाला हो या और किसी देश का रहने वाला।

वेदों को पढ़ने का अधिकार सभी को

इस प्रकार की चर्चा है कि वेदों को पढ़ने और पढ़ाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है, ब्राह्मणों के अतिरिक्त दूसरे के लिए निषिद्ध है, यह बात अविद्वान लोगों की स्वार्थ से भरी हुई है, जिसको इस संदेह की निवृत्त करनी हो उन्हें यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय का दूसरा मंत्र(13) देख लेना चाहिए, उसका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार है-- "ईश्वर सब मनुष्यों को उपदेश करता है कि जैसा मैं तुमको उपदेश करता हूँ, वैसा ही तुम भी सब ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र और अतिशुद्र तथा सब लोगों को उपदेश करते रहो, खेद है कि अपने वेदों को अपने आप तो कोई देखता नहीं और दूसरों के कहने पर भेड़ चाल चल रहे हैं, अंधे के लिए  अंधा पथप्रदर्शक है, इसलिए दोनों पथभ्रष्टता रूपी कूप में पड़े हुए हैं, स्वार्थ फैला रहे हैं जिसका माल खाया जाता है उसका हित न करके अहित सिद्ध हो रहा है और वेदों के वास्तविक अर्थो को न समझकर जिस कर्म को करना चाहते हैं उसी को वेदोक्त कह देते हैं ऐसे भ्रांति उत्पन्न करने वाले से छुटकारा तभी मिल सकता है जब 'वेदविद्या' का अच्छी प्रकार से प्रचार किया जाय। वेदों के कई 'मंत्रद्रष्टा' शूद्र कुल के कई 'मंत्रद्रष्टा' 'ऋषिकाये' हैं तो कैसे बिना वेदों की जानकारी के यह सब प्रचारित करने का काम किया जाता है, इसके पीछे अंग्रेजों की कुटिल चाल और सत्ता का भय क्योंकि अंग्रेजों को यह भली भांति पता था कि स्वामी दयानंद सरस्वती अध्यात्म में राष्ट्रवाद का घोल तैयार कर रहे हैं जिसमे क्औरांतिकारियों कि नर्रसरी तैयार हो रहे हैं, जिस दिन हिंदू समाज 'स्वराज्य और स्वधर्म' का अर्थ समझ जायेगा उस समय भारत पर शासन करना कठिन हो जायेगा, जहाँ भी स्वामी जी जाते वहाँ के स्थानीय राजाओं, पंडित व पुरोहितों को संगठित कर स्वामी जी के विरोध में खड़ा कर दिया जाता वैसे तो स्वामी दयानंद सरस्वती के सामने किसी की हिम्मत नहीं हो पाती थी लेकिन अपने देश में जयचंदों, मानसिंहो की पुरानी परंपरा रही है और उसके समर्थक भी रहे हैं।

महिलाओं की स्थिति

स्वामी दयानंद सरस्वती ने महर्षि मनु के शब्दों में घोषणा की कि जिस परिवार में स्त्रियों का आदर सत्कार होता है, उसमें देवता वास करते हैं अर्थात उसमें दिव्य गुण सम्पन्न और विद्यायुक्त पुरूष उत्पन्न होते हैं और जहाँ उनका अनादर होता है वहाँ सारी शुभ क्रियाएं निष्फल हो जाता है, कुल की उन्नति-अवनति स्त्रियों के सुख-दुःख पर निर्भर करती है, महर्षि ने अपने पूर्व आचार्यों के स्त्रियों के प्रति कहे गए अनादर सूचक और अपमानजनक शब्दों का सप्रमाण खंडन किया है, उन्होंने उनके लिए समान अधिकारों की घोषणा की, उन्होंने कहा बिना पत्नी के कोई भी वैदिक अनुष्ठान या शुभ कार्य नहीं किया जा सकता, बिना अर्धांगिनी के पुरूष अधूरा है, वे देवियों को वेदशास्त्र पढ़ने, यज्ञोपवीत धारण करने, यज्ञ याज्ञ करने कराने का अधिकार पावन वेदों के प्रकाश में प्रदान करके उन्हें शूद्र से द्विज प्रदान करते हैं, दयालु महर्षि स्त्री जाति का पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षपाती हैं, परंतु पूर्ण स्वतंत्रता से उनका आशय स्वच्छंदता अथवा उच्चश्रृंखलतासे नहीं है, उनका कहना है कि नर और नारी मिलकर ही पूरा मानव बनता है।
                          यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
                          यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वस्तत्राफलाः क्रिया:।। (मनु स्मृति3/56)