दिग्विजयी ऋषि दयानन्द - भाग-10

स्वामी दयानंद सरस्वती को आत्मग्लानि
 


सम्पूर्ण देश का भ्रमण करते करते उन्होंने देखा कि हिंदू समाज अपने धर्म ग्रंथों के बारे मे न तो जनता ही है न समझता है पढ़ने की तो बात और ही है देश भर में जब वे शास्त्रार्थ करते थे तो उन्हें बड़े बड़े कर्मकांडी, पुरोहित, विद्वान मुल्ला मौलबी और पास्टर, पादरी मिलते थे उन्हें ध्यान में आता था कि जो ईसाई व इस्लाम मतावलंबी हैं उनकी जैसी शिक्षा है जैसा उनका ग्रंथ है उसके अनुसार वे ब्यवहार कर रहे हैं और गलत ही लेकिन शास्त्रार्थ भी कर रहे हैं, सबसे दुखद पहलू यह है कि हिन्दू समाज अपने ग्रंथों को नहीं पढ़ रहा है वह सुनी सुनाई बातें बोलता जा रहा है, स्वामी जी बहुत दुःख होकर कहते हैं --! बौद्ध और इस्लामिक काल में तथा बाममार्गीयों ने हिंदू दर्शन को विकृति करने के लिए हमारे ग्रंथों में क्षेपक डाला, बौद्धों को लगता था कि यदि ''पुरुषोत्तम श्री रामजी'' का चरित्र इतना उज्जवल रहेगा तो बुद्ध को कैसे हम आगे बढ़ा सकते हैं, यदि ''योगिराज श्री कृष्ण'' का चरित्र इतना श्रेष्ठ रहेगा तो ''बुद्ध'' को कौन पूछेगा ? इन्हीं कारणों को लेकर इन लोगों ने "बाल्मीकि रामायण" में बहुत सारा क्षेपक किया यह सब अधिकांश "सम्राट अशोक" के समय किया गया।

रामायण का उत्तर कांड क्षेपक

बाल्मीकि रामायण का "उत्तर कांड" बाल्मीकि का लिखा हुआ नहीं है क्योंकि यदि हम कुछ संस्कृति विद्वानों को बैठाएं तो धयान में आयेगा की जो भाषा लाखों वर्ष पुरानी है और लौकिक भाषा में कितना अंतर है, स्वामी जी कहते हैं कि "हिन्दू वैदिक धर्म" पूरी तरह वैज्ञानिक आधार पर है कहीं कोई ढोंग नहीं है जो तर्क पर सत्य उतरता है वही वैदिक धर्म के ग्रंथ है और वही वैदिक धर्म है, जो "पुरुषोत्तम श्री राम" जब प्रथम रात्रि "सीताजी" से मिलते हैं तो कहते हैं कि तुमसे पहले मैंने किसी भी नारी को भर दृष्टि नहीं देखा है तुम्हारे पश्चात किसी को देखूंगा भी नहीं जो श्री राम अपने पूज्य पिता "राजा दशरथ" से कहते हैं कि हे पिता जी यदि आप मुझसे प्रसन्न हैं तो मेरी माता को क्षमा कर देना कौन सी माता कैकेयी जिसने उन्हें जंगल भेजा, वे बानर राज "सुग्रीव" से कहते हैं कि हे सुग्रीव राजा तो तुम बनोगे लेकिन राजमहिषी तारा ही होगी, वे श्री राम राक्षसराज "विभीषण" से कहते हैं कि हे विभीषण राजा तो तुम बनोगे लेकिन राजमहिषी मंदोदरी ही होगी, जिस मर्यादा पुरुषोत्तम राम का ऐसा चरित्र हो वे क्या अपनी प्राण प्रिया सीताजी को बन में भेज सकते हैं क्या ? यह विचार करने का विषय है, इसी प्रकार संभूक बध का विषय है जो राम केवल को गले लगाते हैं जो "माता शबरी" के जूठे बेर खाते हैं उन 'पुरुषोत्तम राम' से आप कैसे उम्मीद करते हैं कि उन्होंने तपस्या करने वाले "ऋषि संभूक" की हत्या की होगी यह भी 'उत्तर कांड' में ही है, ईसी प्रकार 'अहिल्या' और देवताओं के "राजा इंद्र" की कथा जोड़ी गई है जब "इंद्रदेव" अपना रूप बदल सकते हैं हवा हो सकता है तो उस समय वह हवा क्यों नहीं हुआ ? उसे गौतम ऋषि ने कैसे देख लिया ? वास्तविकता है कि इंद्रदेव देवताओं का राजा है "इंद्र" की उपाधि तब मिलती है जब सौ यज्ञ किया हो, प्रत्येक महापुरुषों की तुलना "इन्द्रदेव" से की जाती है तो वह इंद्रदेव ऐसा कैसे हो सकता है वे सब इन्द्र देव को नहीं "वैदिक धर्म" को बदनाम कर रहे हैं इस प्रकार की कथा कहानी हमारे ग्रन्थों में डालकर, वास्तव में वैदिक धर्म को विकृत करने का असफल प्रयास है, इन लोगों ने क्षेपक डाला "बाल्मीकि जी" ने पुरुषोत्तम श्री राम के राज्यारोहण तक ही रामायण लिखा है उसके उसी रामायण के बालकांड में पुख्ता प्रमाण है "उत्तर कांड" पूरा क्षेपक है।

और महाभारत में क्षेपक

स्वामी जी ने "भगवान श्री कृष्ण" के बारे में बताते हैं कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उनके 'सोलह हजार' 'रानियां' थीं जिसको लेकर विधर्मी लोगों द्वारा आलोचना का पात्र होना पड़ता है लेकिन ऐसा नहीं है श्री कृष्ण के केवल एक ही विवाह की मान्यता है और वह "रुक्मिणी" से हुआ है, उसी प्रकार "गोपियों" के साथ रास रचाने वाली कथा भी गलत है उन्होंने मर्यादा विरुद्ध कभी कोई कार्य नहीं किया, भगवान श्री कृष्ण के मुख्य रूप से चार प्रामाणिक ग्रंथ है- गर्ग संहिता, महाभारत, भागवत पुराण और हरिवंश पुराण इन चारों ग्रंथों में कहीं भी "राधा" नाम की किसी लड़की का कोई वर्णन नहीं मिलता है लेकिन जब भी कोई 'भागवत कथा' करते हैं तो रास लीला नहीं भूलते क्या यह श्री कृष्ण जैसे महापुरुष की खिल्ली उड़ाना नहीं है ! "श्री कृष्ण" 'योगेश्वर' हैं उसका प्रमाण उनके मुकुट में मोरपंख लगा हुआ है, मोरपंख क्यों क्योंकि मोर अपने जोड़े के साथ रति क्रिया नहीं करता जब मोर नाचता है तो उसका वीर्य स्खलन होता है और मोरनी उसे चुनती है, वास्तविकता यह है कि "बौद्धों ने मोमिनों ने और वाममार्गियों" ने इस हज़ारों वर्षों में हमारे ग्रन्थों में क्षेपक डालने का कार्य किया है, महाभारत में "द्रोणाचार्य" जैसे महापुरुष के द्वारा-- का अंगूठा दक्षिणा में मांगना ऐसे ही बहुत सारी घटनाएं गलत तरीके से लिखा गया है जो तर्क पर सत्य सावित नहीं होता, हमे अपने ग्रंथों को विवेक पूर्वक पढ़ने की आवश्यकता है, "महाभारत" का पहले "जयभारत" नाम था जिसमे गयारह हजार श्लोक थे जिसे "वेदब्यास वैशम्पायनजी" ने लिखा था अभी जो महाभारत नाम से जो ग्रंथ है उसमें एक लाख श्लोक है हमे विचार करने की आवश्यकता है कि ये सारे श्लोक कहाँ से आये और किन परिस्थितियों में लिखे गए।

देश की दशा और दिशा

इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि किसी देश व समाज की दशा एक समान नहीं रहती, उत्थान और पतन लगा रहता है, कुछ जातियां तो जैसा कि प्राचीन काल के इतिहास से विदित होता है कि वे संसार से लुप्त हो गई और कुछ सभ्यता तथा योग्यता के उच्चतम शिखर से गिरकर पतन तथा अविद्या की दशा को प्राप्त हो गई हैं, इनके विपरीत बहुत सी जातियां जो पहले जंगली और निंदनीय अवस्था में थीं अब उच्च कोटि की सभ्य और ज्ञान सम्पन्न हो गई हैं। यह हिंदू समाज जो कभी आर्य अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों की जाती थी, वर्तमान समय में अत्यन्त पतन की अवस्था में पहुंच चुकी है, जाति की दशा जैसे जैसे होती है धर्म का स्वरूप भी वैसा ही वैसा हो जाता है, जैसे-जैसे यह जाती गिरती गई वैसे वैसे धर्म का ह्रास होता गया, यहाँ तक कि ईश्वर के विषय में जो ऊँचे और शुद्ध विचार वेदों में विद्यमान हैं उनको भी लोग भूल गए और परमात्मा को भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट करके पाषाण आदि की मूर्तियां बनाकर पूजने लगे, वह ऊँचे और पवित्र विचार जो सदाचार के विषय में वेदों, उपनिषदों, और धर्मशास्त्रों में भरे पड़े हैं पूर्णतया भुला दिया गया और उसके स्थान पर भिन्न-भिन्न प्रकार के कुमार्ग और पंथ जैसे कि वाममार्ग और कूड़ापंथ जिसमें असभ्यता और दुराचार को धर्म के रूप में प्रकट किया गया है, प्रचलित हो गए हैं, अविद्या इतनी बढ़ गई है कि एक सर्वशक्तिमान परमात्मा की प्रार्थना करने के स्थान पर हज़ारों भूत प्रेत, जिन्न, पीर कब्र आदि की पूजा करने और उनसे वरदान मांगने लगे। वह जाति जिसकी प्रत्येक स्त्री शिक्षिका होती थी अब इस दशा को प्राप्त हो गई है, यह जाति जो एक समय समस्त संसार में अपना तेज और सम्मान रखती थी, सबसे अधिक गिर गई, यह जाति जिसमें बड़े बड़े प्रतापी, पुरुषार्थी और तेजस्वी पुरूष जन्म लेते थे आज ऐसी निर्बल हो गई है कि किसी बड़े काम के योग्य न रह सकी, जो लोग परोपकार करना अपना मुख्य धर्म समझते थे उनकी यह दशा हो गई है कि पेट भरना, गुरछर्रे उड़ाना और आनंद मनाना ही सबको अच्छा प्रतीत होने लगा।वे लोग जो समुद्र पार करके देश-विदेश में भ्रमण करके अपने ब्यापार द्वारा अपने देश को मालामाल करते थे, अब जहाज में बैठने को धर्म विरूद्ध समझने लगे, बाल्यकाल में विवाह इसके कारण निर्बल संतान पैदा होने लगी, जैसे वीर, साहसी और शक्तिशाली लोग प्राचीन काल में होते थे अब वैसे दिखाई नहीं देते। दूसरी जातियां और दूसरे मतों के लोग इस मृत और निर्बल जाति की यह दशा देखकर उसपर अपना हाथ बढ़ाना आरंम्भ कर दिया, करोड़ों लोगों को सरलता पूर्वक अपनी ओर आकर्षित कर लिया, संस्कृति विद्या का धीरे धीरे इतना ह्रास हुआ कि ब्राह्मणों में गिनती के विद्वान रह गए, जब संस्कृति की शिक्षा इतनी कम हो गई तो फिर वेदों को भला कौन पढ़ता ? यदि समस्त भारत में खोजो तो पूरा पूरा वेद जानने वाला शायद ही मिलेगा।
जब भिन्न-भिन्न मत पंथ हो गए तो संगठन की जड़ कमजोर हो गई वैरागी सन्यासी के साथ लड़ता है और सन्यासी उदासी के साथ, प्रत्येक पंथ का गुरू और शक्तिशाली राजा परमेश्वर का अवतार माना जाने लगा, देश की इस अवस्था मे अंग्रेजी शिक्षा प्रारंभ हुई, अपने पूर्वजों की ऋषियों मुनियों की महत्ता को न समझकर अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोग अपने सच्चे और दार्शनिक धर्म से अपरिचित थे इसलिए उनमें से बहुत से लोग ईसाई बन गए और प्रतिदिन बनते जा रहे हैं, इस अवस्था में भारत का एक चौथाई जहाज डूब चुका था और बाकी डूबने को तैयार था, जहाज पर बैठे हुए लोग गहरी नींद में सो रहे थे परमात्मा को यह स्वीकार नहीं था कि वह जाति जिसने समस्त संसार को सभ्य बनाया है, पूर्णतया लुप्त हो जावे, पहले भी कई बार वेदों को भूल गए थे परंतु सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने अपनी दयालुता से किसी न किसी महात्मा के द्वारा उनका प्रकाश किया, उस समय जबकि लोग अपने धर्म और वेदार्थ की अनिभिज्ञता के कारण ईसाई और मुसलमानों ने मजहब में और दूसरे विविध प्रकार के नये नये मतों में सम्लित होते जाते थे, स्वामी जी ने नए सिरे से वेदों का उपदेश देना आरंभ किया, इस महात्मा 'स्वामी दयानंद सरस्वती' के जीवन चरित्र का वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है।

स्वामी दयानंद सरस्वती लाहौर में

स्वामी जी लाहौर में डॉ रहीम खां की कोठी में लगभग एक मास रहे डॉक्टर साहब की कोठी में वे एक दिन प्रवचन एक दिन शास्त्रार्थ करते थे 'कोहनूर' अखबार लिखता है कि सैकड़ों लोग प्रतिदिन उनके ब्याख्यान और शास्त्रार्थ सुनने के लिए आते थे सब प्रकार के लोग पादरी, पंडित, मौलबी और विद्वान उनसे शास्त्रार्थ किया करते थे और अपने प्रति।प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर पाते थे, 19मई1877को 'कोहेनूर' लिखता है कि स्वामी दयानंद सरस्वती अभी लाहौर में विराजमान है और अपने उपदेश वेदोक्त धर्म पर डॉ रहीम साहब की कोठी में दे रहे हैं । एक दिन पादरी डॉ हूपर साहब स्वामी जी से शास्त्रार्थ के निमित्त आये नियम के अनुसार नियत समय पर स्वामी जी के सम्मुख बैठ गए क्योंकि जो ब्यक्ति शास्त्रार्थ करना चाहता था उसे दूसरी कुर्सी पर जो स्वामी के सम्मुख मेज के दूसरे ओर रखी होती थी बैठ जाता, उपर्युक्त महोदय ने संस्कृत भाषा में स्वामी जी से दो प्रश्न किये!

अश्वमेध और गोमेध

 वेदों में अश्वमेध और गोमेध आदि का वर्णन है और उस समय में लोग घोड़े और गाय आदि का बलि दिया करते थे, आप इस विषय में क्या कहते हैं ?
स्वामी जी ने बताया-- वेदों में अश्वमेध और गोमेध से घोड़े और गाय की बलि देना अभिप्रेत नहीं है प्रत्युत उनके अर्थ यह है-- राष्ट्रं वश्वमेध:।। शत.।। अन्न हि गौ: ।।शत।।अर्थात राज्य करना अश्वमेध और इन्द्रियां अथवा पृथ्वी आदि 'गौ' है इन्हें पवित्र करना'गोमेध' है । घोड़े गाय, मनुष्य और पशु मारकर होम करना कहीं नहीं लिखा है यह अनर्थ केवल वाममार्गियों के ग्रंथों में लिखा है, यह बात वाममार्गियों ने चलाई और जहाँ जहाँ ऐसा लेख है वहाँ वहां उन्हीं वाममार्गियों ने प्रक्षेपण किया है, देखिए! राजा न्याय से प्रजा का पालन करें यह 'अश्वमेध' है, अन्न, इंद्रियां अंतःकरण और पृथ्वी आदि को पवित्र करने का नाम 'गोमेध' है, जब मनुष्य मर जाये, तब उसके शरीर का विधि पूर्वक दाह संस्कार करना 'नरमेध' कहलाता है, इसके अतिरिक्त इनके अर्थ व्याकरण और निरुक्त आदि के उदाहरण से बतलाये जिससे पादरी को संतोष हो गया।
पादरी--! वेदों में जात-पात का विभाग किस प्रकार से है ?
स्वामी जी--! वेदों में जाति गुण कर्मानुसार है।
पादरी--! यदि मेरे गुण कर्म अच्छे हो तो मैं भी ब्राह्मण कहला सकता हूँ ?
स्वामी जी--! निःसंदेह, यदि आपके गुण कर्म ब्राह्मण होने योग्य होंगे तो आप भी ब्राह्मण कहला सकते हैं।

मैं कुछ भी नहीं

स्वामी जी कहते हैं--! "मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार वेद का उपदेश करता हूँ, उपदेशक के अतिरिक्त और मैं कुछ अधिकार नहीं चाहता, तुम मुझको कहीं सभासद लिख देते हो मैं कुछ बड़ाई व प्रतिष्ठा नहीं चाहता हूँ और जो मैं चाहता हूँ वह बहुत बड़ा काम है, सो आशा है कि ईश्वर की दया और सज्जनों तथा विद्वानों की सहायता से कृतकृत्य हूँगा"-- "चाहे कोई हो जबतक मैं न्यायाचरण देखता हूँ, मेल करता हूँ और अब अन्यायाचरण प्रकट होता है, फिर उससे मेल नहीं करता, इसमें हरिश्चंद्र हों या अन्य कोई हो।"